up board class 9th hindi | पं० प्रतापनारायण मिश्र
गद्य-खण्ड
‘हिन्दी’ पाठ्य-पुस्तक के गद्य-खण्ड पर आधारित विविध प्रकार के प्रश्नों को अलग-अलग
प्रकरणों में विभाजित करके एक ही शीर्षक के अन्तर्गत उनका क्रमानुसार विवरण प्रस्तुत किया गया है।
इससे विद्यार्थी को प्रत्येक पाठ और लेखक का सम्यक् अध्ययन करने में सुविधा होगी। क्रमानुसार वर्णन
निम्नलिखित प्रकरण-शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत है―
(1) जीवन-परिचय एवं कृतियाँ
(2) गद्यांशों पर आधारित प्रश्न
विशेष―(1) जीवन-परिचय के अन्तर्गत लेखक का जीवन-परिचय एवं प्रमुख कृतियों का
उल्लेख संक्षेप में करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, प्रश्न में जो पूछा जाये उतना ही उत्तर में लिखा जाना
चाहिए।
(2) ‘गद्यांशों पर आधारित प्रश्न’ के अन्तर्गत कुल तीन प्रश्न पूछे जाते हैं। पहला प्रश्न सन्दर्भ (पाठ
व लेखक का नाम) पर आधारित होता है। दूसरा प्रश्न गद्यांश के अन्तर्गत किसी एक रेखांकित अंश की
व्याख्या से सम्बद्ध होता है तथा तीसरा प्रश्न गद्यांश के किसी अंश पर आधारित लघु-उत्तरीय प्रकार का
होता है।
(3) यहाँ विद्यार्थियों के ज्ञान और बोध के लिए रेखांकित अंशों की व्याख्या और गद्यांश के विभिन्न
अंशों पर आधारित एक से अधिक प्रश्न दिये जा रहे हैं। विद्यार्थियों को उतने ही प्रश्नों के उत्तर लिखने
चाहिए, जितने कि प्रश्न-पत्र में पूछे गये हों।
1. बात
जीवन-परिचय एवं कृतियाँ
प्रश्न प्रतापनारायण मिश्र के जीवन-परिचय एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर― जीवन-परिचय-प्रतापनारायण मिश्र आधुनिक हिन्दी गद्य के निर्माताओं में प्रमुख हैं। इनका
जन्म उन्नाव जिले के ‘बैजे’ गाँव में सन् 1856 ई० में हुआ था। इनके पिता संकटाप्रसाद मिश्र अच्छे
ज्योतिषी थे। इनके जन्म के कुछ समय पश्चात् इनके पिता सपरिवार कानपुर में आकर रहने लगे थे। इसलिए
इनकी प्रारम्भिक शिक्षा कानपुर में हुई। इनके पिता इन्हें अपने पैतृक व्यवसाय में लगाना चाहते थे, परन्तु
फक्कड़, मनमौजी और मस्त स्वभाव के मिश्र जी का मन नीरस ज्योतिष में न रमा। ये स्कूली शिक्षा का
बन्धन भी स्वीकार नहीं कर सके; अत: घर पर ही स्वाध्याय द्वारा इन्होंने संस्कृत, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी तथा
बाँग्ला भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।
मिश्र जी विपुल प्रतिभा और विविध रुचियों के धनी थे। साहित्यकार होने के साथ-साथ ये सामाजिक
जीवन से भी जुड़े हुए थे। ये हाजिर-जवाबी और विनोदी स्वभाव के लिए प्रसिद्ध थे। भारतेन्दु जी को ये
अपना गुरु और आदर्श मानते थे। इन्होंने सदा ‘हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान’ का समर्थन किया और
नवजागरण का सन्देश घर-घर तक पहुँचाने के लिए सन् 1883 ई० में ब्राह्मण’ नामक पत्र निकालना
आरम्भ किया, जिसे घाटा उठाकर भी ये वर्षों तक चलाते रहे। सन् 1894 ई० में 38 वर्ष की अल्प आयु में
ही इनका स्वर्गवास हो गया।
प्रमुख कृतियाँ―नाटक : हठी हम्मीर, कलि-कौतुक, भारत दुर्दशा, गौ संकट। पद्य-नाटक :
संगीत शाकुन्तला निबन्ध-संग्रह : निबन्ध नवनीत, प्रताप पीयूष तथा प्रताप समीक्षा। प्रहसन :
ज्वारी-खुआरी तथा समझदार की मौत। काव्य-रचनाएँ एवं काव्य-संग्रह : मन की लहर, शृंगार-विलास
लोकोक्ति-शतक, प्रेम-पुष्पावली, दंगल खण्ड, तृप्यन्ताम्, ब्राडला-स्वागत, मानस-विनोद, शैव-सर्वस्व
प्रताप-लहरी, प्रताप संग्रह, रसखान, शतक। इनकी सभी रचनाओं (पचास से भी अधिक) का संग्रह
‘प्रतापनारायण मिश्र ग्रन्थावली’ नाम से प्रकाशित किया गया है। इनके अतिरिक्त मिश्र जी ने 10 से
अधिक उपन्यास, जीवन-चरित और नीति-ग्रन्थों के अनुवाद भी किये हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार
हैं―राधारानी, पंचामृत, कथामाला, चरिताष्टक, वचनावली, राजसिंह, अमरसिंह, इन्दिरा, देवी चौधरानी,
कथा बाल-संगीत आदि। सम्पादन―ब्राह्मण एवं हिन्दुस्तान।
साहित्य में स्थान―श्री प्रतापनारायण मिश्र आधुनिक हिन्दी-गद्य निर्माताओं की वृहत्त्रयी में से एक
हैं और भारतेन्दु युग के साहित्यकारों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। स्मरणीय है कि मिश्र जी को न तो
भारतेन्दु जी जैसे साधन मिले थे और न भट्ट जी जैसी लम्बी आयु; फिर भी इन्होंने अपनी प्रतिभा व लगन से
उस युग में महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया था।
गद्यांशों पर आधारित प्रश्न
प्रश्न निम्नलिखित गद्यांशों के आधार पर उनके साथ दिये गये प्रश्नों के उत्तर लिखिए।
(1) यदि हम वैद्य होते तो कफ और पित्त के सहवर्ती बात की व्याख्या करते तथा भूगोलवेत्ता होते तो
किसी देश के जल-बात का वर्णन करते, किन्तु दोनों विषयों में से हमें एक बात कहने का भी प्रयोजन नहीं
है। हम तो केवल उसी बात के ऊपर दो-चार बातें लिखते हैं, जो हमारे-तुम्हारे संभाषण के समय मुख से
निकल-निकल के परस्पर हदयस्थ भाव को प्रकाशित करती रहती हैं।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. यदि लेखक वैद्य एवं भूगोलवेत्ता होता तो वह क्या करता?
2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक क्या कहना चाहता है ? स्पष्ट कीजिए।
[सहवर्ती = साथ रहने वाला। वेत्ता = जानने वाला। वात = हवा, बातचीत, वचन, शरीर में स्थित वायु
(प्राण वायु), जलवायु। जल-बात = जलवायु।]
उत्तर― (अ) प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य खण्ड’ में संकलित एवं
पं० प्रतापनारायण मिश्र द्वारा लिखित ‘बात’ शीर्षक निबन्ध से अवतरित है।
अथवा निम्नवत् लिखिए―
पाठ का नाम―बात। लेखक का नाम―पं० प्रतापनारायण मिश्रा
[संकेत―इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए प्रश्न ‘अ’ का यही उत्तर इसी रूप में लिखा
जाएगा।]
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या―प्रतापनारायण मिश्र जी अपनी हास्य-विनोद से ओत-
प्रोत शैली में कहते हैं कि वे बातचीत अर्थात् बोलने के महत्त्व पर ही कुछ लिख रहे हैं। वैद्य लोग जिस कफ,
पित्त और वायु-विकार के सम्बन्ध में बातकर रोग का निदान करते हैं, उस ‘बात’ पर उन्हें विचार प्रकट
नहीं करना है। भूगोल के जानकार जिस जलवायु (जल-बात) की बात करते हैं, उस पर भी उन्हें कुछ नहीं
लिखना है।
द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या―प्रतापनारायण मिश्र जी का कहना है कि उन्हें तो केवल उसी
बात के विषय पर कुछ कहना है, जो बातचीत के समय हम लोगों के मुख से निकलती है और जिसके द्वारा
हम अपने हदय के भाव (विचार) प्रकट करते हैं अर्थात् पारस्परिक बात-चीत के द्वारा ही हम दूसरे के
विचारों को समझते हैं और अपने विचारों को उसे समझाते हैं।
(स) 1. यदि लेखक वैद्य होता तो वह कफ एवं पित्त के तीसरे तत्त्व ‘वात’ की व्याख्या करता तथा
यदि भूगोलवेत्ता होता तो वह किसी देश की जलवायु का वर्णन करता।
2. प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने ‘बात’ शब्द का विभिन्न अर्थों में प्रयोग कर अपने शब्द-कौशल और
चिकित्साशास्त्र, भूगोल एवं साहित्य सम्बन्धी ज्ञान को प्रकट करते हुए सम्भाषण (बातचीत) के महत्त्व पर
प्रकाश डाला है।
(2) सच पूछिये तो इस बात की भी क्या ही बात है, जिसके प्रभाव से मानव जाति समस्त जीवधारियों
की शिरोमणि (अशरफ-उल मखलूकात) कहलाती है। शुकसारिकादि पक्षी केवल थोड़ी-सी समझने योग्य
बातें उच्चरित कर सकते हैं, इसी से अन्य नभचारियों की अपेक्षा आदृत समझे जाते हैं। फिर कौन न मानेगा
कि बात की बड़ी बात है। हाँ, बात की बात इतनी बड़ी है कि परमात्मा को लोग निराकार कहते हैं तो भी
इसका सम्बन्ध उसके साथ लगाये रहते हैं। वेद, ईश्वर का वचन हैं, कुरआनशरीफ कलामुल्लाह है, होली
बाइबिल वर्ड ऑफ गॉड है।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) ‘अशरफ-उल मखलूकात’ क्या है? किसके प्रभाव से मानव अशरफुल मखलूकात कहलाते हैं?
[शिरोमणि = सर्वश्रेष्ठ। शुक = तोता। सारिका = मैना। उच्चरित कर = बोलकर। नभचारियों = आकाश
में विचरण करने वाले पक्षियों। अपेक्षा = तुलना में। आदृत = आदर किये हुए। बात की बात = बात की
महत्ता। निराकार = जिसका कोई आकार न हो।]
उत्तर― (ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या―श्री मिश्र जी का कहना है कि तोता-मैना पक्षी भी
मनुष्य का अनुकरण कर कुछ बातें कर लेते हैं, इसलिए वे सभी पक्षियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं। इन्हें जो कुछ
महत्त्व मिला, वह बातचीत कर सकने के गुण के कारण ही मिला; अत: मानना पड़ेगा कि बातचीत करने का
बहुत महत्त्व है।
द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या―लेखक का कहना है कि भले ही ईश्वर निराकार है, परन्तु
वह भी बात करता है। बड़ा ही अजीब तर्क है। निराकार का कोई आकार-प्रकार नहीं होता, वह न तो सुन
सकता है और न ही बात कर सकता है। पर लोग मानते हैं कि वेदों में जितनी बातें लिखी हैं, वे सब ईश्वर की
कही हुई बातें हैं। इसी प्रकार कुरान और बाइबिल में भी सब ईश्वर की कही बातें हैं।
(स) ‘अशरफुल मखलूकात’ अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है―समस्त जीवधारियों में
सर्वोपरि। बात-चीत करने का गुण बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसी गुण के कारण ही मनुष्य अशरफुल मखलूकात
कहलाते हैं।
(3) यह वचन, कलाम और वर्ड बात ही के पर्याय है, जो प्रत्यक्ष मुख के बिना स्थिति नहीं कर सकती।
पर बात की महिमा के अनुरोध से सभी धर्मावलम्बियों ने ‘बिन बानी वक्ता बड़ जोगी’ वाली बात मान रखी
है। यदि कोई न माने तो लाखों बातें बना के मनाने पर कटिबद्ध रहते हैं। यहाँ तक कि प्रेम सिद्धान्ती लोग
निरवयव नाम से मुँह बिचकावेंगे। ‘अपाणिपादो जवनो ग्रहीता’ पर हठ करने वाले को यह कह के बातों में
उड़ावेंगे कि ‘हम लूले-लँगड़े ईश्वर को नहीं मान सकते, हमारा प्यारा तो कोटि काम सुन्दर श्याम वर्ण
विशिष्ट है।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) वचन, कलाम और वर्ड से क्या आशय है? सभी धर्मावलम्बियों ने कौन-सी बात मान रखी है?
[महिमा = महत्त्व। निरवयव = अंग रहित, निराकार। अपाणिपादो = हाथ-पैर रहित।]
उत्तर― (ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-साहित्यकार श्री प्रतापनारायण मिश्र ने कहा है कि
प्रेम-सिद्धान्ती लोग निराकार के नाम से कदापि सन्तुष्ट नहीं होंगे, अपितु ‘बिना पैरों के चलने वाले और बिना
हाथों के ग्रहण करने वाले’ ईश्वर को वे लूला-लँगड़ा बता कर मान्यता नहीं देंगे। वे निराकार के उपासकों से
कहेंगे कि हमारा प्यारा ईश्वर तो करोड़ों कामदेवों से भी सुन्दर और साँवले रंग का है।
(स) वचन, कलाम और वर्ड तीनों का आशय एक ही शब्द बात से है, जिनकी स्थिति मुख के बिना
सम्भव ही नहीं है। सभी धर्मावलम्बियों ने यह बात मान रखी है कि “ईश्वर वाणी के बिना भी बहुत कुछ कह
देता है। वह बहुत बड़ा वक्ता है।”
(4) निराकार शब्द का अर्थ श्री शालिग्राम शिला है, जो उसकी श्यामता का द्योतन करती है अथवा
योगाभ्यास का आरम्भ करने वाले को आँखें मूंदने पर जो कुछ पहले दिखाई देता है, वह निराकार अर्थात्
बिल्कुल काला रंग है। सिद्धान्त यह है कि रंग-रूपरहित को सब रंग-रंजित एवं अनेक रूपसहित ठहरावेगे,
किन्तु कानों अथवा प्राणों व दोनों को प्रेम-रस से सिंचित करने वाली उसकी मधुर मनोहर बातों के मजे से
अपने को वंचित न रहने देंगे।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) प्रस्तुत गद्यांश में निराकार के सम्बन्ध में क्या कहा गया है?
[शालिग्राम शिला = भगवान् विष्णु की एक प्रकार की काले पत्थर मूर्ति। द्योतन =
आभास।
उत्तर― (ब) रेखांकित अंश की व्याख्या―विद्वान् लेखक का कथन है कि निराकार ब्रह्म रंग-रूप
से रहित है, पर शालग्राम शिला के रूप में वह रूपसहित है और काले रंग के कारण वह रंगसहित भी है। इस
प्रकार लोग निराकार ईश्वर की मधुर-मनोहर बातों का आनन्द कानों की सहायता से या जीवन्त होने से या
दोनों से उठा ही लेते हैं। वे उस निराकार ईश्वर (ब्रह्म) के सम्बन्ध में की गयी बातों (सम्भाषण) के आनन्द
से अपने को वंचित नहीं होने देते। आशय यह है कि वे उस ईश्वर के सम्बन्ध में की गयी बातचीत अर्थात्
बतरस के आनन्द से स्वयं को अलग नहीं होने देते।
(स) प्रस्तुत गद्यांश में कहा गया है कि निराकार ब्रह्म के उपासक भगवान् विष्णु की आराधना करते
हैं। भगवान् विष्णु के प्रतीक रूप में उनकी शालिग्राम की पत्थर की मूर्ति का रंग भी साँवला होता है। इसी
प्रकार योगाभ्यास का आरम्भ करने पर साधक जब अपने नेत्र बन्द करता है, तब उसे सर्वप्रथम काला रंग ही
दिखाई देता है जो कि निराकार का ही प्रतीक है।
(5) जब परमेश्वर तक बात का प्रभाव पहुँचा हुआ है तो हमारी कौन बात रही? हम लोगों के तो गात
माँहि बात करामात है।’ नाना शास्त्र, पुराण, इतिहास, काव्य, कोश इत्यादि सब बात ही के फैलाव हैं, जिनके
मध्य एक-एक बात ऐसी पायी जाती है, जो मन, बुद्धि, चित्त को अपूर्व दशा में ले जाने वाली अथच
लोक-परलोक में सब बात बनाने वाली है। यद्यपि बात का कोई रूप नहीं बतला सकता कि कैसी है, पर
बुद्धि दौड़ाइये तो ईश्वर की भाँति इसके भी अगणित ही रूप पाइएगा। बड़ी बात, छोटी बात, सीधी बात, टेढ़ी
बात, खोटी बात, मीठी बात, कड़वी बात, भली बात, बुरी बात, सुहाती बात, लगती बात इत्यादि सब बात ही
तो हैं।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. बात के कितने रूप होते हैं ? कुछ के नाम लिखिए।
2. क्या मनुष्य की पहचान बात से होती है ? स्पष्ट कीजिए।
[गात = शरीर। नाना = विविध, अनेक। अथच = इसके बाद और। अगणित = असंख्या]
उत्तर―(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या―मिश्र जी का कहना है कि मनुष्य की शरीर-
रचना में ‘बात’ तत्त्व की (प्राणवायु की) महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जिन पाँच तत्त्वों से हमारा शरीर बना है,
उनमें बात (समीर) भी एक है। अनेक शास्त्रों, पुराणों, इतिहास, दर्शन, कोश आदि ग्रन्थों में जो कुछ कहा
गया है, वह किसी-न-किसी बात पर ही कहा गया है। उनमें ऐसी-ऐसी बातें लिखी हैं, जो हमारे मस्तिष्क
और हृदय पर अनोखा प्रभाव छोड़ती हैं और इस लोक के अलावा परलोक तक को सँवार देती हैं।
द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या―श्री प्रतापनारायण मिश्र जी का कहना है कि स्थूल आकार न
होने पर भी बात के रूप अनेक हैं। कोई बात बड़ी अर्थात् महत्त्वपूर्ण होती है तो कोई छोटी अर्थात् तुच्छ। कुछ
बातें मीठी अर्थात् मन को छूने वाली होती हैं तो कुछ मन को ठेस पहुँचाने वाली भी। सीधी बात, टेढ़ी बात,
खोटी बात, भली बात, बुरी बात, मोटी बात, कड़वी बात इत्यादि बात के अनेक रूप वैसे ही देखने को मिलते
हैं, जैसे कि ईश्वर के।
(स) 1. बात के अनगिनत रूप होते हैं, जिनके नाम हैं―बड़ी बात, छोटी बात; सीधी बात, टेढ़ी
बात; मीठी बात, कड़वी बात; भली बात, बुरी बात; सुहाती बात, लगती बात इत्यादि।
2. मनुष्य की पहचान बात से ही होती है, क्योंकि बात ही कहने वाले और सुनने वाले दोनों के
मस्तिष्क, बुद्धि और हृदय पर अनोखा प्रभाव डालती है।
(6) हमारे-तुम्हारे भी सभी काम बात पर ही निर्भर करते हैं। ‘बातहि हाथी पाइये बातहि हाथी पाँव’
बात ही से पराये अपने और अपने पराये हो जाते हैं, मक्खीचूस उदार तथा उदार स्वल्पव्ययी, कापुरुष
युद्धोत्साही एवं युद्धप्रिय शान्तिशील, कुमार्गी सुपथगामी अथच सुपंथी कुराही इत्यादि बन जाते हैं।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) क्या बात के प्रभाव से कुमार्गी सुपथगामी हो सकता है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
बातहि = बातों में, वायु से। मक्खीचूस = कंजूस। स्वल्पव्ययी = कम खर्च करने वाला। कापुरुष =
कायर! कुमार्गी = बुरे रास्ते पर चलने वाला।]
उत्तर― (ब) रेखांकित अंश की व्याख्या―श्री मिश्र जी का कहना है कि बात के प्रभावशाली होने
पर ही पहले लोग राजाओं से उपहारस्वरूप हाथी पा लिया करते थे और बात के द्वारा ही दण्डस्वरूप
हाथी के पैरों के नीचे कुचलवा दिये जाते थे। बात से ही अपने लोग पराये और पराये लोग अपने हो
जाया करते हैं। वाणी के प्रभाव से प्रभावित होकर ही कंजूस व्यक्ति उदार हृदय और उदार हृदय व्यक्ति कम
व्यय करने वाले अर्थात् कंजूस बन जाते हैं। बात अर्थात् ओजपूर्ण वाणी को सुनकर अत्यधिक कायर पुरुष
भी युद्ध के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं और युद्ध के लिए तैयार व्यक्ति भी शान्तिप्रिय बन जाता
(स) बात कहने के ढंग और शब्दों के प्रयोग निश्चित ही व्यक्ति पर अपना आश्चर्यजनक प्रभाव
डालते हैं। भगवान् बुद्ध की बात की शक्ति के प्रभाव से ही बुरे रास्ते पर चलने वाला अंगुलिमाल अच्छे रास्ते
पर चलने लगता है।
(7) बात का तत्त्व समझना हर एक का काम नहीं है और दूसरों की समझ पर आधिपत्य जमाने योग्य
बात गढ़ सकना भी ऐसों-वैसों का साध्य नहीं है। बड़े-बड़े विज्ञवरों तथा महा-महा कवीश्वरों के जीवन बात
ही के समझने समझाने में व्यतीत हो जाते हैं। सहृदयगण की बात के आनन्द के आगे सारा संसार तुच्छ
अँचता है। बालकों की तोतली बातें, सुन्दरियों की मीठी-मीठी प्यारी-प्यारी बातें, सत्कवियों की रसीली बातें,
सुवक्ताओं की प्रभावशालिनी बातें, जिनके जी को और का और न कर दें, उसे पशु नहीं पाषाणखण्ड कहना
चाहिए।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) किन लोगों को पशु नहीं पाषाणखण्ड कहना चाहिए?
[तत्त्व = सार, रहस्य। विज्ञवर = श्रेष्ठ ज्ञाता। सुवक्ता = श्रेष्ठ वक्ता। पाषाणखण्ड = पत्थर का टुकड़ा।]
उत्तर― (ब) रेखांकित अंश की व्याख्या―श्री मिश्र जी का कहना है कि जिस प्रकार किसी व्यक्ति
की कही हुई बात का सही अर्थ समझना हर एक के वश की बात नहीं होती, उसी प्रकार अपनी बातों से
दूसरों को प्रभावित करने की योग्यता भी सभी लोगों में नहीं पायी जाती है। ऐसे बिरले ही लोग होते हैं जो
दूसरों की बात का मर्म समझ लेते हैं और अपनी बातों से दूसरों का हृदय जीत लेते हैं। ऐसे अनेक जानकार
और महाकवि हुए हैं, जिनका सारा जीवन या तो दूसरों की बात समझने में ही बीत गया, या फिर दूसरों को
अपनी बात समझाने में। इससे स्पष्ट है कि बात का तत्त्व समझना बहुत कठिन होता है।
(स) जो लोग किसी आत्मीय जन की बात से, बालकों की तोतली बोली से, सुन्दरियों की मीठी बातों
से, रसज्ञ कवियों और प्रभावशाली वक्ताओं की बातों से प्रभावित नहीं होते उन्हें पशु नहीं, वरन् पत्थर कहना
चाहिए; क्योंकि पशु भी पुचकारने पर स्नेह प्रदर्शन करने लगते हैं अर्थात् वे भी कही गयी बात का भाव
समझते हैं।
(8) हमारे परम पूजनीय आर्यगण अपनी बात का इतना पक्ष करते थे कि ‘तन तिय तनय धाम धन
धरनी। सत्यसंध कहँ तृन सम बरनी।’ अथच ‘प्रानन ते सुत अधिक है सुत ते अधिक परान। ते दूनो
दशरथ तजे वचन न दीन्हों जान।’ इत्यादि उनकी अक्षर-संबद्धा कीर्ति सदा संसार-पट्टिका पर सोने के
अक्षरों से लिखी रहेगी। पर आजकल के बहुतेरे भारत कुपुत्रों ने यह ढंग पकड़ रखा है ‘मर्द की जबान’ (बात
का उदय स्थान) और गाड़ी का पहिया चलता-फिरता ही रहता है।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) 1. प्राचीन काल में बात का क्या महत्त्व था? सोदाहरण बताइए।
2. आज के भारतीय कुपुत्रों का बात के प्रति क्या दृष्टिकोण है?
[तिय = स्त्री। तनय = पुत्र। धरनी = पृथ्वी। अक्षरसम्बद्धा = अक्षरों में अंकित। पट्टिका = पटल।]
उत्तर― (ब)रेखांकित अंशकी व्याख्या―श्री मिश्र जी का कहना है कि हमारे पूर्वज आर्य कहलाते
थे। वे सदा अपने वचनों का पालन करते थे। वे अपने वचनों की रक्षा के लिए स्त्री, पुत्र, घर, धन तथा पृथ्वी
को भी तृण के समान त्याग देते थे। कहा जाता है कि मनुष्य के लिए शरीर से अधिक पुत्र का और पुत्र से
अधिक प्राणों का महत्त्व है, परन्तु महाराज दशरथ ने अपने वचनों की रक्षा के लिए अपने प्रिय पुत्र राम को
वन में भेज दिया था और उसके वियोग में अपने प्राण भी त्याग दिये थे।
(स) 1. प्राचीन काल में लोग अपने वचन का पालन करने के लिए प्राण भी न्योछावर कर देते थे।
महाराज दशरथ के जीवन से यह बात स्पष्ट होती है।
2. आजकल भारत के अधिकांश युवक वचन पालन की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते। उनका मानना
है कि गाड़ी के पहिए की तरह उनकी जुबान चलती ही रहनी चाहिए।
(9) आज जो बात है कल ही स्वार्थान्धता के वश हुजूरों की मरजी के मुवाफिक दूसरी बातें हो जाने में
तनिक भी विलम्ब की सम्भावना नहीं है। यद्यपि कभी-कभी अवसर पड़ने पर बात के अंश का कुछ रंग-ढंग
परिवर्तित कर लेना नीति-विरुद्ध नहीं है। पर कब? जात्युपकार, देशोद्धार, प्रेम-प्रचार आदि के समय, न कि
पापी पेट के लिए।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) बातों में मन के अनुसार परिवर्तन किस स्थिति में उचित नहीं है?
उत्तर― (ब) रेखांकित अंश की व्याख्या―श्री प्रतापनारायण मिश्र जी का कहना है कि पुराने लोगों
की तुलना में आजकल के लोगों की बात का उद्देश्य अपने संकुचित स्वार्थ को पूरा करना मात्र ही रह गया है।
उचित तो यह है कि यदि कभी बात का कुछ अंश बदलना भी पड़े तो किसी महान् उद्देश्य; यथा-समाज के
उपकार, देश के उद्धार, प्रेम अर्थात सद्भावना के प्रचार-प्रसार के लिए ही ऐसा करना चाहिए, व्यक्तिगत
स्वार्थ-पूर्ति के लिए नहीं।
(स) स्वार्थ के वशीभूत होकर मात्र अपनी क्षुधा-पिपासा-तृप्ति के लिए अपनी बातों को परिवर्तित
कर देना उचित नहीं है।
(10) एक हम लोग हैं, जिन्हें आर्यकुल रत्नों के अनुगमन की सामर्थ्य नहीं है? किन्तु हिन्दुस्तानियों के
नाम पर कलंक लगाने वालों के भी सहमार्गी बनने में घिन लगती है। इससे यह रीति अंगीकार कर रखी है कि
चाहे कोई बड़ा बतकहा अर्थात् बातूनी कहे चाहे यह समझे कि बात कहने का भी शऊर नहीं है, किन्तु अपनी
मति के अनुसार ऐसी बातें बनाते रहना चाहिए, जिनमें कोई-न-कोई किसी-न-किसी के वास्तविक हित की
बात निकलती रहे।
(अ) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(स) लेखक के अनुसार हमारा क्या कर्त्तव्य है?
[बतकहा = अधिक बोलने वाला। शऊर = तरीका, ढंग।]
उत्तर―(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या―लेखक का कहना है कि दशरथ जैसे हमारे पूर्वजों ने
अपने वचन की रक्षा के लिए प्राण त्याग दिये, किन्तु अपनी बात से टस से मस नहीं हुए। आज हम उन्हीं की
सन्तान कहलाने वाले आर्य उनके इस मार्ग का अनुसरण नहीं कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हम उनकी बातों
का अनुसरण करने में असमर्थ हैं, वरन् हम समर्थ होते हुए भी कुछ नहीं कर पाते, वरन उन लोगों की बातों
को चुप रहकर प्रोत्साहित ही करते हैं, जो अपनी घिनौनी बातों से हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियों के माथे पर
कलंक का टीका लगाते हैं।
(स) लेखक का कहना है कि हमें इस बात की कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए कि हमारी बातों को
सुनकर लोग हमारी निन्दा करेंगे। वरन् यह हमारा परम कर्त्तव्य है कि हम अपने मन तथा बुद्धि से जिन बातों
को उचित, सही और लोक-हितकारी समझते हैं, हमें उन बातों को बेहिचक सबके सम्मुख कहना चाहिए
और बार-बार कहना चाहिए।