UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 4 बिहारी (काव्य-खण्ड)
UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 4 बिहारी (काव्य-खण्ड)
कवि-पस्विय
प्रश्न 1.
कविवर बिहारी का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं का उल्लेख कीजिए। [2009, 10]
या
बिहारी का जीवन-परिचय देते हुए उनकी किसी एक रचना का नामोल्लेख कीजिए। [2012, 13, 14, 15, 16, 17, 18]
उत्तर
कविवर बिहारी एक श्रृंगारी कवि हैं। इन्होंने दोहे जैसे लघु आकार वाले छन्द में गागर में सागर भर देने का कार्य किया है। प्रख्यात आलोचक श्री पद्मसिंह शर्मा ने इनकी प्रशंसा में लिखा है कि, “बिहारी के दोहों का अर्थ गंगा की विशाल जल-धारा के समान है, जो शिव की जटाओं में समा तो गयी थी, परन्तु उसके बाहर निकलते ही वह इतनी असीम और विस्तृत हो गयी कि लम्बी-चौड़ी धरती में भी सीमित न रह सकी। बिहारी के दोहे रस के सागर हैं, कल्पना के इन्द्रधनुष हैं, भाषा के मेघ हैं। उनमें सौन्दर्य के मादक चित्र अंकित हैं।”
जीवन-परिचय-रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि बिहारी श्रृंगार रस के अद्वितीय कवि थे। इनका जन्म सन् 1603 ई० (सं० 1660 वि०) के लगभग ग्वालियर के निकट बसुवा गोविन्दपुर ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम केशवराय था। इन्हें मथुरा का चौबे ब्राह्मण माना जाता है। अनेक विद्वानों ने इनको आचार्य केशवदास { ‘रामचन्द्रिका’ के रचयिता) का पुत्र स्वीकार किया है और तत्सम्बन्धी प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं। इन्होंने निम्बार्क सम्प्रदाय के अनुयायी स्वामी नरहरिदास से संस्कृत, प्राकृत आदि का अध्ययन किया था। इन्होंने युवावस्था अपनी ससुराल मथुरा में बितायी थी। मुगल बादशाह शाहजहाँ के निमन्त्रण पर ये आगरा चले गये और उसके बाद जयपुर के राजा जयसिंह के दरबारी कवि हो गये। राजा जयसिंह अपनी नवविवाहिता पत्नी के प्रेम-पाश में फंसकर जब राजकार्य को चौपट कर बैठे थे, तब बिहारी ने राजा की मोहनिद्रा भंग करने के लिए निम्नलिखित अन्योक्तिपूर्ण दोहा लिखकर उनके पास भेजा—
नहिं पराग नहि मधुर मधु, नहि बिकासु इहि काल।।
अली कली ही सौं बँध्यो, आगै कौन हवाल॥
इस दोहे को पढ़कर राजा की आँखें खुल गयीं और वे पुनः कर्तव्य-पथ पर अग्रसर हो गये। राजा जयसिंह की प्रेरणा पाकर बिहारी सुन्दर-सुन्दर दोहों की रचना करते थे और पुरस्कारस्वरूप प्रत्येक दोहे पर एक स्वर्ण-मुद्रा प्राप्त करते थे। बाद में पत्नी की मृत्यु के कारण श्रृंगारी कवि बिहारी का मन भक्ति और वैराग्य की ओर मुड़ गया। 723 दोहों की सतसई सन् 1662 ई० में समाप्त हुई मानी जाती है। सन् 1663 ई० (सं० 1720 वि०) में इनकी मृत्यु हो गयी। –
रचनाएँ—बिहारी की एकमात्र रचना ‘बिहारी सतसई’ है। यह श्रृंगार रसप्रधान मुक्तक काव्य-ग्रन्थ है। श्रृंगार की अधिकता होने के कारण बिहारी मुख्य रूप से श्रृंगार रस के कवि माने जाते हैं। इन्होंने छोटे-से . दोहे में प्रेम-लीला के गूढ़-से-गूढ़ प्रसंगों को अंकित किया है। इनके दोहों के विषय में कहा गया है सतसैया के दोहरे, ज्यौं नाविक के तीर। देखने में छोटे लगैं, घाव करै गम्भीर ॥ साहित्य में स्थान-रीतिकालीन कवि बिहारी अपने ढंग के अद्वितीय कवि हैं। इनकी विलक्षण सृजन-प्रतिभा के कारण काव्य-संसार ने इन्हें महाकवि के पद पर प्रतिष्ठित किया है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का कहना है कि, “प्रेम के भीतर उन्होंने सब प्रकार की सामग्री, सब प्रकार के वर्णन प्रस्तुत किये हैं और वह भी इन्हीं सात-सौ दोहों में। यह उनकी एक विशेषता ही है। नायिका-भेद या श्रृंगार का लक्षण-ग्रन्थ लिखने वाले भी किसी नायिका या अलंकारादि का वैसा उदाहरण प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं हुए जैसा बिहारी ने किया है। हमें यह भी मान लेने में आनाकानी नहीं करनी चाहिए कि उनके जोड़ का हिन्दी में कोई दूसरा कवि नहीं हुआ।
पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या भक्ति |
प्रश्न 1.
मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ ।
जा तन की झाई परै, स्यामु हरित-दुति होइ॥ [2014]
उत्तर
[ भव-बाधा = सांसारिक दु:ख। हरौ = दूर करो। नागरि = चतुर। झाई परै = प्रतिबिम्ब, झलक पड़ने पर। स्यामु = श्रीकृष्ण, नीला, पाप। हरित-दुति = (1) हरी कान्ति, (2) प्रसन्न, (3) हरण हो गयी है द्युति । जिसकी; अर्थात् फीका, कान्तिहीन।]
सन्दर्भ–प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित रीतिकाल के रससिद्ध कवि बिहारी द्वारा रचित ‘बिहारी सतसई’ के ‘भक्ति’ शीर्षक से अवतरित है।
[ विशेष—इस शीर्षक के अन्तर्गत आने वाले सभी दोहों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
प्रसंग-कवि ने अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में राधा जी की वन्दना की है।
व्याख्या-
- वह चतुर राधिका जी मेरे सांसारिक कष्टों को दूर करें, जिनके पीली आभा वाले (गोरे).शरीर की झाँई (प्रतिबिम्ब) पड़ने से श्याम वर्ण के श्रीकृष्ण हरित वर्ण की द्युति वाले; अर्थात् हरे रंग के हो जाते हैं।
- वे चतुर राधिका जी मेरी सांसारिक बाधाओं को दूर करें, जिनके शरीर की झलक पड़ने से भगवान् कृष्ण भी प्रसन्नमुख (हरित-कान्ति) हो जाते हैं।
- हे चतुर राधिका जी! आप मेरे सांसारिक कष्टों को दूर करें, जिनके ज्ञानमय (गौर) शरीर की झलकमात्र से मन की श्यामलता (पाप) नष्ट हो जाती है।
- वह चतुर राधिका जी मेरी सांसारिक बाधाओं को दूर करें, जिनके गौरवर्ण शरीर की चमक पड़ने से श्रीकृष्ण भी फीकी कान्ति वाले हो जाते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य-
- कवि ने प्रस्तुत दोहे में मंगलाचरण रूप में राधा की वन्दना की है।
- नील और पीत वर्ण मिलकर हरा रंग हो जाता है। यहाँ बिहारी का चित्रकला-ज्ञान प्रकट हुआ है।
- भाषाब्रज।
- शैली-मुक्तक।
- रस-श्रृंगार और भक्ति।
- छन्द-दोहा।
- अलंकार-‘हरौ, राधा नागरि’ में अनुप्रास, ‘भव-बाधा’, ‘झाईं तथा ‘स्यामु हरित-दुति’ के अनेक अर्थ होने से श्लेष अलंकार की छटा मनमोहक बन पड़ी है।
- गुण–प्रसाद और माधुर्य।
- बिहारी ने निम्नलिखित दोहे में भी अपने रंगों के ज्ञान का परिचय दिया है—
अधर धरत हरि कै परत, ओठ डीठि पट जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुष सँग होति ॥
प्रश्न 2.
मोर-मुकुट की चंद्रिकनु, यौं राजत नंदनंद ।।
मनु संसि सेखर की अकस, किय सेखर सत चंद ॥
उत्तर
[ चंद्रिकनु = चन्द्रिकाएँ। राजत = शोभायमान होना। ससि सेखर = चन्द्रमा जिनके सिर पर है अर्थात् भगवान् शंकर। अकस = प्रतिद्वन्द्वितावश। ]
प्रसंग-प्रस्तुत दोहे में श्रीकृष्ण के सिर पर लगे मोर-मुकुट की चन्द्रिकाओं का सुन्दर चित्रण किया गया है। |
व्याख्या-कवि कहता है कि भगवान् श्रीकृष्ण के सिर पर मोर पंखों का मुकुट शोभा दे रहा है। उन मोर पंखों के बीच में बनी सुनहरी चन्द्राकार चन्द्रिकाएँ देखकर ऐसा लगता है, जैसे मानो भगवान् शंकर से प्रतिस्पर्धा करने के लिए उन्होंने सैकड़ों चन्द्रमा सिर पर धारण कर लिये हों।
काव्यगत सौन्दर्य-
- यहाँ श्रीकृष्ण के अनुपम सौन्दर्य का मोहक वर्णन हुआ है।
- मोर-मुकुट की चन्द्रिकाओं की तुलना भगवान् शंकर के सिर पर विराजमान चन्द्रमा से करके कवि ने अपनी अद्भुत काव्य-कल्पना का परिचय दिया है।
- भाषा–ब्रज।
- शैली-मुक्तक।
- छन्द-दोहा।
- रसशृंगार।
- अलंकार—‘मोर-मुकुट तथा ‘ससि सेखर’ में अनुप्रास एवं ‘मनु ससि सेखर की अकस’, ‘किय सेखर सत चंद’ में उत्प्रेक्षा तथा ‘ससि सेखर’ और ‘सेखर’ में सभंग श्लेष।
- गुण-माधुर्य।
प्रश्न 3.
सोहत ओढ़ पीतु पटु, स्याम सलौने गात ।
मनौ नीलमनि-सैल पर, आतपु पर्यो प्रभात ॥ [2012, 14]
उत्तर
[ सोहत = सुशोभित हो रहे हैं। पीतु पटु = पीले वस्त्र। सलौने = सुन्दर। गात = शरीर। नीलमनिसैल = नीलमणि पर्वत। आतपु = प्रकाश।]
प्रसंग-इस दोहे में पीला वस्त्र ओढ़े हुए श्रीकृष्ण के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। |
व्याख्या-श्रीकृष्ण का श्याम शरीर अत्यन्त सुन्दर है। वे अपने शरीर पर पीले वस्त्र पहने इस प्रकार शोभा पा रहे हैं, मानो नीलमणि के पर्वत पर प्रात:काल की पीली-पीली धूप पड़ रही हो। यहाँ श्रीकृष्ण के श्याम वर्ण के उज्ज्वल मुख में नीलमणि शैल की और उनके पीले वस्त्रों में प्रात:कालीन.धूप की सम्भावना की गयी है।
काव्यगत सौन्दर्य-
- श्रीकृष्ण के श्याम शरीर पर पीले वस्त्रों के सौन्दर्य का अद्भुत वर्णन है।
- भाषा–ब्रज।
- शैली-मुक्तक
- रस-श्रृंगार और भक्ति।
- छन्द-दोहा
- अलंकार‘पीतु पटु’, ‘स्याम सलौने’, ‘पयौ प्रभात’ में अनुप्रास तथा ‘मनौ नीलमनि-सैल पर, आतपु पर्यौ प्रभात’ में उत्प्रेक्षा की छटा।
- गुण-माधुर्य।
प्रश्न 4.
अधर धरत हरि कै परत, ओठ-डीठि-पट जोति ।।
हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुष-हँग होति ॥ [2012, 14]
उत्तर
[ अधर = नीचे का होंठ। ओठ-डीठि-पट जोति = होंठों की लाल, दृष्टि की श्वेत, वस्त्र की पीत कान्ति। ]
प्रसंग-प्रस्तुत दोहे में बाँसुरी बजाते हुए कृष्ण की हरे रंग की बाँसुरी का इन्द्रधनुषी रूप वर्णित किया गया है।
व्याख्या-श्रीकृष्ण अपने रक्त वर्ण के होठों पर हरे रंग की बाँसुरी रखकर बजा रहे हैं। उस समय उनकी दृष्टि के श्वेत वर्ण, वस्त्र के पीत वर्ण तथा शरीर के श्याम वर्ण की कान्ति रक्त वर्ण के होठों पर रखी हुई हरे रंग की बाँसुरी पर पड़ने से वह (बाँसुरी) इन्द्रधनुष के समान बहुरंगी शोभा वाली हो गयी है।
काव्यगत सौन्दर्य-
- बिहारी के रंगों के संयोजन का अद्भुत ज्ञान प्रस्तुत दोहे में परिलक्षित होता है।
- भाषा-ब्रज।
- शैली-मुक्तक।
- रस-भक्ति।
- छन्द-दोहा
- अलंकार-दोहे में सर्वत्र अनुप्रास, अधर धरत’ में यमक तथा बाँसुरी के रंगों से इन्द्रधनुष के रंगों की तुलना में उपमा।
- गुण–प्रसाद।।
प्रश्न 5.
या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोई ।।
ज्यों-ज्य बूड़े स्याम रँग, त्यों-त्यौं उज्जलु होई ॥ [2009, 18]
उत्तर
[अनुरागी = प्रेम करने वाला, लाल। गति = दशा। बूड़े = डूबता है। स्याम रँग = काले रंग, कृष्ण की भक्ति के रंग में। उज्जलु = पवित्र, सफेद।]
प्रसंग-प्रस्तुत दोहे में कवि ने बताया है कि श्रीकृष्ण के प्रेम से मन की म्लानता एवं कलुषता दूर हो जाती है।
व्याख्या-कवि का कहना है कि श्रीकृष्ण से प्रेम करने वाले मेरे मन की दशा अत्यन्त विचित्र है। . इसकी दशा को कोई नहीं समझ सकता है; क्योंकि प्रत्येक वस्तु काले रंग में डूबने पर काली हो जाती है। श्रीकृष्ण भी श्याम वर्ण के हैं, किन्तु कृष्ण के प्रेम में मग्न यह मेरा मन जैसे-जैसे श्याम रंग (कृष्ण की , भक्ति, ध्यान आदि) में मग्न होता है वैसे-वैसे श्वेत (पवित्र) होता जाता है।
काव्यगत सौन्दर्य-
- कृष्ण की भक्ति में लीन होकर मन पवित्र हो जाता है। इस भावना की बड़ी ही उत्कृष्ट अंभिव्यक्ति की गयी है।
- भाषा—ब्रज।
- शैली-मुक्तक।
- रस-शान्त।
- छन्ददोहा।
- अलंकारे-ज्यों-ज्यौं बूड़े स्याम रँग, त्यौं-त्यौं उज्जलु होय’ में श्लेष, पुनरुक्तिप्रकाश तथा विरोधाभास।
- गुण-माधुर्य।
प्रश्न 6.
तौ लगु या मन-सदन मैं, हरि आर्दै किहिं बाट ।
विकट जटे जौ लगु निपट, खुटै न कपट-कपाट ॥ [2009]
उत्तर
[मन-सदन = मनरूपी घर। बाट = मार्ग। जटे = जड़े हुए। तौ लगु = तब तक। जौ लगु = जब तक। निपट = अत्यन्त। खुर्दै = खुलेंगे। कपट-कपाट = कपटरूपी किवाड़।]
प्रसंग-इस दोहे में कवि ने ईश्वर को हृदय में बसाने के लिए कपट का त्याग करना आवश्यक बताया है।
व्याख्या-कविवर बिहारी का कहना है कि इस मनरूपी घर में तब तक ईश्वर किस मार्ग से प्रवेश कर सकता है, जब तक मनरूपी घर में दृढ़ता से बन्द किये हुए कपटरूपी किवाड़ पूरी तरह से नहीं खुल जाते; अर्थात् हृदय से कपट निकाल देने पर ही हृदय में ईश्वर का प्रवेश व निवास सम्भव है।
काव्यगत सौन्दर्य-
- ईश्वर की प्राप्ति निर्मल मन से ही सम्भव है। इस भावना की कवि ने यहाँ उचित अभिव्यक्ति की है।
- भाषा-ब्रज।
- शैली-मुक्तक।
- रस-भक्ति।
- छन्द-दोहा। “
- अलंकार–‘मन-सदन’, ‘कपट-कपाट’ में रूपक तथा अनुप्रास।
- गुण–प्रसाद।
प्रश्न 7.
जगतु जनायौ जिहिं सकलु, सो हरि जान्यौ नाँहि ।
ज्यौं आँखिनु सबु देखिये, आँखि न देखी जाँहि ॥ [2011]
उत्तर
[ जनायौ = ज्ञान कराया, उत्पन्न किया। सकलु = सम्पूर्ण । जान्यौ नाँहि = नहीं जाना, याद नहीं किया।]
प्रसंग-इस दोहे में कवि बिहारी ने ईश्वर-भक्ति करने की प्रेरणा दी है।
व्याख्या-कवि का कथन है कि जिस ईश्वर ने तुम्हें समस्त संसार का ज्ञान कराया है, उसी ईश्वर को तुम नहीं जान पाये। जैसे आँखों से सब कुछ देखा जा सकता है, परन्तु आँखें स्वयं अपने को नहीं देख सकतीं।
काव्यगत सौन्दर्य-
- सम्पूर्ण संसार का ज्ञान कराने वाले ईश्वर की स्थिति से अनभिज्ञ मनुष्य का सजीव चित्रण किया गया है।
- भाषा-ब्रज।
- शैली-मुक्तक।
- छन्द-दोहा।
- रस-शान्त।
- गुण–प्रसाद।
- अलंकार-अनुप्रास एवं दृष्टान्तः ।
प्रश्न 8.
जप, माला, छापा, तिलक, सरै न एकौ कामु ।
मन-काँचै नाचे वृथा, साँचे राँचे रामु ॥ [2011]
उत्तर
[जप = (मन्त्र) जपना। माला = माला फेरना। छापा = चन्दन का छापा (विशेष प्रकार का टीका) लगाना। तिलक = तिलक लगाना। सरै = पूरा होता है, सिद्ध होता है। एकौ कामु = एक भी कार्य। मन-काँचै = कच्चे मन वाला। नाचे = भटकता रहता है। राँचे = प्रसन्न होते हैं। ]
प्रसंग-कविवर बिहारी द्वारा रचित प्रस्तुत दोहे में बाह्याडम्बरों की निरर्थकता बताकर भगवान् की सच्ची भक्ति पर बल दिया गया है। |
व्याख्या-कवि का कथन है कि जप करने, माला फेरने, चन्दन का तिलक लगाने आदि बाह्य क्रियाओं से कोई काम पूरा नहीं होता। इन बाह्य आचरणों से सच्ची भक्ति नहीं होती है। जिनका मन ईश्वर की भक्ति करने से कतराता है, भक्ति करने में कच्चा है, वह व्यर्थ ही इधर-उधर की क्रियाओं में मारा-मारा फिरता है। ईश्वर तो केवल सच्चे मन की भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य-
- कवि ईश्वर की सच्ची भक्ति पर बल देता है तथा स्पष्ट करता है कि बाह्य आचरणों में भक्ति का सच्चा स्वरूप नहीं है।
- भाषा–साहित्यिक ब्रज।
- शैली-मुक्तक।
- रस-शान्त।
- छन्द-दोहा।
- अलंकार–अनुप्रास।
- गुण–प्रसाद।
- भावसाम्यकबीर का भी यही मत है
माला तो कर में फिरै, जिह्वा मुख में माँहि।
मनुवा तो दस दिस फिरै, ये तो सुमिरन नाहिं ॥
नीति
प्रश्न 1.
दुसह दुराज प्रजानु कौं, क्यौं न बढ़े दुख-दंदु ।।
अधिक अँधेरी जग करते, मिलि मावस रबि-चंद् ॥ [2016]
उत्तर
[दुसह = असह्य। दुराज = दो राजाओं का शासन, बुरा शासन। दंदु = संघर्ष। मावस = अमावस्या के दिन]
सन्दर्भ-प्रस्तुत दोहा कविवर बिहारी द्वारा रचित ‘बिहारी सतसई’ से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड में संकलित ‘नीति’ शीर्षक से उद्धृत है।।
[ विशेष—इस शीर्षक के अन्तर्गत आने वाले सभी दोहों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
प्रसंग-प्रस्तुत दोहे में दो राजाओं के शासन से उत्पन्न कष्टों का वर्णन किया गया है।
व्याख्या-कवि का कथन है कि एक ही देश में दो राजाओं के शासन से प्रजा के दु:ख और संघर्ष अत्यधिक बढ़ जाते हैं। दुहरे शासन में प्रजा उसी प्रकार दुःखी हो जाती है, जिस प्रकार अमावस्या की रात्रि में सूर्य और चन्द्रमा एक ही राशि में मिलकर संसार को गहन अन्धकार से पूर्ण कर देते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य-
- अमावस्या की रात्रि को सूर्य और चन्द्रमा (दो राजा) एक ही राशि में आ जाते हैं। ऐसा सूर्य-ग्रहण के समय में होता है। यह कवि के ज्योतिष-ज्ञान का परिचायक है।
- दुहरा शासन प्रजा के लिए कष्टप्रद होता है। इस नीति के निर्धारण में कवि ने अपने ज्योतिष-ज्ञान का व्यावहारिक । रूप में अच्छा प्रयोग किया है।
- भाषा-ब्रज।
- शैली-मुक्तक।
- छन्द-दोहा।
- रस-शान्त।
- अलंकार–श्लेष और दृष्टान्त।
- गुण–प्रसाद।
प्रश्न 2.
बसै बुराई जासु तन, ताही कौ सनमानु ।
भली-भलौ कहि छोड़िये, खोटें ग्रह जपु दानु ॥ [2016, 18]
उत्तर
[सनमानु = सम्मान। खोर्दै ग्रह = अनिष्टकारी ग्रह (शनि) आदि। ]
प्रसंग-प्रस्तुत दोहे में इस सत्य को उद्घाटित किया गया है कि संसार में दुष्ट व्यक्ति की बहुत आवभगत (आदर) होती है, जिससे उसके अनिष्ट कार्यों से बचा जा सके।
व्याख्या-कवि का मत है कि जिसके पास अनिष्ट करने की शक्ति (बुराई) है, उसका संसार में बहुत आदर होता है। भले को हानि न पहुँचाने वाला समझकर अर्थात् भला कहकर सब छोड़ देते हैं अर्थात् उसकी उपेक्षा करते हैं, लेकिन अनिष्ट ग्रह के आने पर जप-दान आदि करके उसे शान्त करते हैं। तात्पर्य यह है कि जिसमें बुराई या दुष्टता होती है, लोग उसी का सम्मान करते हैं। |
काव्यगत सौन्दर्य-
- कवि ने अनिष्ट ग्रहों के आने पर जप, दान आदि से उन्हें शान्त करने के कार्यों के माध्यम से इस यथार्थ का सुन्दर चित्रण किया है कि लोग दुष्ट लोगों का सम्मान भयवश करते हैं।
- भाषा–ब्रज।
- शैली-मुक्तक।
- छन्द-दोहा।
- रस-शान्त।
- गुण–प्रसाद; व्यंजना से ओज भी है।
- अलंकार-‘बसै बुराई’ में अनुप्रास, ‘भलौ-भलौ’ में पुनरुक्तिप्रकाश तथा खोटे ग्रह का उदाहरण देने के कारण दृष्टान्त।
- भावसाम्य-महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने भी ऐसे ही विचार अपने काव्य में व्यक्त किये हैं
टेढ़ जानि सब बंद काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू ॥
प्रश्न 3.
नर की अरु नल-नीर की, गति एकै करि जोड़।
जेतौ नीचो है चले, तेतौ ऊँचौ होइ ॥ [2012, 16]
उत्तर
[ नल-नीर = नल को जल। जोइ = देखो। जेतौ = जितना। तेतौ = उतना।].
प्रसंग-प्रस्तुत दोहे में बताया गया है कि मनुष्य जितना नम्र होता है, उतना ही ऊपर उठता है।
व्याख्या-कविवर बिहारी का कथन है कि मनुष्य की और नल के जल की समान स्थिति होती है। जिस प्रकार नल का जल जितना नीचे होकर बहता है, उतना ही ऊँचा उठता है; उसी प्रकार मनुष्य जितना नम्रता का व्यवहार करता है, उतनी ही अधिक उन्नति करता है। इस प्रकार मनुष्य और नल का पानी जितना. नीचे होकर चलते हैं, उतना ही ऊँचे उठते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य-
- मनुष्य नम्रता से उन्नति करता है। यहाँ विनम्रता से महान् बनने का रहस्य । समझाया गया है।
- भाषा-ब्रज।
- शैली-मुक्तक।
- रस-शान्त।
- छन्द–दोहा
- गुणप्रसाद।
- अलंकार-‘नर की ………………… करि जोइ’ में उपमा, ‘जेतौ नीचो ……………… ऊँचौ होइ’ में विरोधाभास, दो वस्तुओं (नल-नीर और नर) का एक समान धर्म होने के कारण दीपक तथा ‘गति’, ‘नीचो’, ‘ऊँचौ’ में श्लेष का मंजुल प्रयोग द्रष्टव्य है।
प्रश्न 4.
बढ़त-बढ़त संपति-सलिलु, मन-सरोजु बढ़ि जाई ।
घटत-घटत सु न फिरि घटै, बरु समूल कुम्हिलाई ॥ [2012, 14, 17]
उत्तर
[ संपति-सलिलु = धनरूपी जल। मन-सरोजु = मनरूपी कमल। बरु = चाहे। समूल = जड़सहित। कुम्हिलाइ = मुरझा जाता है।]
प्रसंग-प्रस्तुत दोहे में कवि ने धन के बढ़ने पर मन पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन किया है।
व्याख्या--कवि का कथन है कि धनरूपी जल के बढ़ जाने के साथ-साथ मनरूपी कमल भी बढ़ता चला जाता है, किन्तु धनरूपी जल के घटने के साथ-साथ मनरूपी कमल नहीं घटता, अपितु समूल नष्ट हो जाता है अर्थात् धन के बढ़ जाने पर मन की इच्छाएँ भी बढ़ जाती हैं, परन्तु धन के घट जाने पर मन की इच्छाएँ नहीं घटती हैं। तब परिणाम यह होता है कि मनुष्य यह सह नहीं पाता और दुःख से मरे हुए के समान । हो जाता है।
काव्यगत सौन्दर्य-
- जिस तालाब में कमल होते हैं, जब उस तालाब में पानी बढ़ता है तो उसके साथ-साथ कमल की नाल भी बढ़ती जाती है, किन्तु जब पानी उतरती है तो वह बढ़ी हुई नाल छोटी नहीं होती। पानी के समाप्त होने पर वह स्वयं नष्ट होती है और कमल को भी नष्ट कर देती है। कमल का । उदाहरण देते हुए कवि ने यह स्पष्ट किया है कि धन के बढ़ने पर मन को नियन्त्रित रखना चाहिए अन्यथा धन न रहने पर बहुत कष्ट होता है।
- भाषा-ब्रज।
- शैली-मुक्तक।
- छन्द-दोहा।
- रस–शान्त।
- अलंकार-‘बढ़त-बढ़त’, ‘घटत-घटत’ में पुनरुक्तिप्रकाश और संपति-सलिलु, | मन-सरोज’ में रूपक तथा अनुप्रास काव्यश्री में वृद्धि कर रहे हैं।
- गुण–प्रसाद।
प्रश्न 5.
जौ चाहत, चटकन घटे, मैलौ होइ न मित्त।
रज राजसु न छुवाइ तौ, नेह-चीकन चित्त ॥ [2014, 17]
उत्तर
[ चटक = प्रतिष्ठा, चमक। मैलो = दोष से युक्त। मित्त = मित्र। रज = धूल। राजसु = रजोगुण। नेह चीकन = प्रेम से चिकने, तेल से चिकने। चित्त = मन, मनरूपी दर्पण।]
प्रसंग—इस दोहे में कवि ने मित्रता के मध्य धन और वैभव को न आने देने का परामर्श दिया है।
व्याख्या–कवि का कथन है कि यदि आप चाहते हैं कि मित्रता की चटक अर्थात् चमक समाप्त न हो तथा मित्रता स्थायी बनी रहे और उसमें दोष उत्पन्न न हों, तो धन-वैभव का इससे सम्बन्ध न होने दें। धन अथवा किसी अन्य वस्तु का लोभ मित्रता को मलिन कर देता है। मित्र के स्नेह से चिकना मन धनरूपी धूल के स्पर्श से मैला हो जाता है; अत: स्नेह में धन का स्पर्श न होने दें। जिस प्रकार तेल से चिकनी वस्तु धूल के स्पर्श से मैली हो जाती है और उसकी चमक घट जाती है, उसी प्रकार प्रेम से कोमल चित्त; धनरूपी धूल के स्पर्श से दोषयुक्त हो जाता है और मित्रता में कमी आ जाती है।
काव्यगत सौन्दर्य-
- मित्रता में धन के लेन-देन का व्यवहार कम रखने से ही मित्रता विद्वेष रहित हो सकती है। चित्त की निर्मलता को बनाये रखने के लिए प्रेमरूपी तेल और धनरूपी धूल की जो प्रवृत्तिमूलक उपमा दी गयी है, उसने कवि के कथन को अत्यधिक कलात्मक एवं प्रभावोत्पादक बना दिया ‘ है।
- भाषा-ब्रज।
- शैली-मुक्तक।
- रस-शान्त।
- छन्द दोहा।
- अलंकार-रूपक, अनुप्रास तथा श्लेष।
- गुणप्रसाद।
प्रश्न 6.
बुरी बुराई जौ तजे, तौ चितु खरौ डरातु ।
ज्यौं निकलंकु मयंकु लखि, गनैं लोग उतपातु ॥
उत्तर
[ खरौ = बहुत अधिकानिकलंकु = कलंकरहित। मयंकु = चन्द्रमा। गनै = गिनने लगते हैं। उतपातु = अमंगल।]
प्रसंग-इस दोहे में कवि ने बताया है कि यदि दुष्ट व्यक्ति अचानक अपनी दुष्टता छोड़ दे तो सदा अमंगल की सम्भावना बनी रहती है। |
व्याख्या-कविवर बिहारी का कथन है कि यदि दुष्ट व्यक्ति सहसा अपनी दुष्टता छोड़कर अच्छा व्यवहार करने लगे तो उससे चित्त अधिक भयभीत होने लगता है। जैसे चन्द्रमा को कलंकरहित देखकर लोग अमंगलसूचक मानने लगते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार चन्द्रमा का कलंकरहित होना असम्भव है, उसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति का एकाएक दुष्टता त्यागना भी असम्भव है।
काव्यगत सौन्दर्य-
- ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार निष्कलंक चन्द्रमा दिखाई देने से संसार में उपद्रव की आशंका होने लगती है। यह दोहा बिहारी के ज्योतिष-ज्ञान का परिचायक है।
- दुष्ट व्यक्ति के अच्छा व्यवहार करने पर भी उससे सावधान रहना चाहिए।
- भाषा-ब्रज।
- शैली-मुक्तक।
- रस–शान्त।
- छन्द–दोहा।
- अलंकार-‘बुरी बुराई’ में अनुप्रास तथा चन्द्रमा का उदाहरण देने में दृष्टान्त।
- गुण–प्रसाद।।
प्रश्न 7.
स्वारथु सुकृतु न श्रम वृथा, देखि बिहंग बिचारि।
बाजि पराए पानि परि, हूँ पच्छीनु न मारि ॥
उत्तर
[स्वारथु = स्वार्थी। सुकृतु = पुण्य कार्य। श्रम वृथा = व्यर्थ को परिश्रम। बिहंग = पक्षी। बाजि = (i) बाज पक्षी तथा (ii) राजा जयसिंह। पानि = हाथ। पच्छीनु = पक्षियों को, अपने पक्ष वालों को।
प्रसंग-इस दोहे में कवि ने अन्योक्ति के माध्यम से अपने आश्रयदाता राजा जयसिंह को समय पर चेतावनी दी है। इस दोहे में उसे हिन्दू राजाओं पर आक्रमण न करने के लिए अन्योक्ति द्वारा सचेत किया .. गया है।
व्याख्या–
- हे बाज! तू अपने मन में अच्छी तरह सोच-विचार कर देख ले कि तू शिकारी के हाथ में पड़कर अपनी जाति के पक्षियों को मारता है। इसमें न तो तेरा स्वार्थ है, न यह अच्छा कार्य ही है, तेरा श्रम भी व्यर्थ ही जाता है; क्योंकि तेरे परिश्रम का फल तुझे न मिलकर तेरै मालिक को प्राप्त होता है। तू दूसरों के हाथ की कठपुतली बनकर अपनी जाति के पक्षियों का वध कर रहा है। अब तू मेरी सलाह मानकर अपनी जाति के पक्षियों का वध मत कर।
- हे राजा जयसिंह! तू विचार कर देख ले कि तू बाजे पक्षी की तरह अपने शासक औरंगजेब के हाथ की कठपुतली बनकर अपने साथी इन हिन्दू राजाओं पर आक्रमैण कॅर रहा है। इस कार्य को करने से तेरे स्वार्थ की पूर्ति नहीं होती है, जीता हुआ राज्य तुझे नहीं मिलता। युद्ध में राजाओं का वध करना कोई पुण्य का कार्य भी नहीं है। तुम्हारे श्रम का फल तुम्हें न मिलने से तुम्हारा श्रेम व्यर्थ हो जाता है। इसलिए तू औरंगजेब के कहने से अपने पक्ष के हिन्दू राजाओं पर आक्रमण करके उनका वध मत कर।। |
काव्यगत सौन्दर्य-
- राजा जयसिंह ने औरंगजेब के कहने से अनेक हिन्दू राजाओं के विरुद्ध युद्ध किया था। उन दोनों में यह तय था कि जीता हुआ राज्य तो औरंगजेब का होगा और विजित राज्य की लूट में मिला हुआ धन जयसिंह का। अत: उसे चेतावनी देना उसके आश्रित कवि (बिहारी) का कर्तव्य है।
- यहाँ बाज़ पक्षी-जयसिंह का, शिकारी-औरंगजेब का तथा पक्षी अपने पक्ष के हिन्दू राजाओं का प्रतीक है। यह दोहा इतिहास की वास्तविक घटना पर आधारित होने के कारण विशेष महत्त्व रखता है।
- भाषा-ब्रज।
- शैली-मुक्तक।
- रस-शान्त।
- छन्द-दोहा।
- अलंकार-बाज पक्षी के माध्यम से राजा जयसिंह को सावधान किया गया है; अत: अन्योक्ति अलंकार है। ‘पच्छीनु’ के दो अर्थ-पक्षी और पक्ष वाले होने से श्लेष है।
- गुण–प्रसाद एवं ओजा
- शब्दशक्ति-अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।
काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध
प्रश्न 1
निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों को पहचानकर उनके नाम तथा स्पष्टीकरण : दीजिए-
(क) जा तन की झाईं परै, स्यामु हरित-दुति होइ।।
(ख) ज्य-ज्य बूड़े स्याम सँग, त्य-त्य उज्जलु होइ ।।
(ग) नर की अरु नल-नीर की, गति एकै करि जोइ ।।
जेतौ नीच है चले, तेतौ ऊँचौ होइ ।।।
उत्तर
(क) श्लेष-“झाईं परै, स्यामु हरित-दुति’ के एक से अधिक और भिन्न अर्थ होने के कारण श्लेष अलंकार है।
(ख) पुनरुक्तिप्रकाश, श्लेष और विरोधाभास-ज्यौं’ और ‘त्यौं’ शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण पुनरुक्तिप्रकाश, ‘स्याम रँग’ और ‘उज्जलु’ के दो-दो अर्थ होने के कारण श्लेष तथा काले रंग में । डूबने के बाद सफेद होने के कारण विरोधाभास अलंकार है।
(ग) उपमा, विरोधाभास, दीपक तथा श्लेष—“नर की अरु नल-नीर की, गति एकै करि जोइ।” में नर’ की समानता नल-नीर’ से किये जाने के कारण उपमा अलंकार है। ‘‘जेतो नीचो है चलै, तेतौ ऊँचौ होइ’ में जितना नीचा होने पर उतना ऊँचा होता है के कारण विरोधाभास अलंकार है। दो वस्तुओं (नलनीर और नर) का एक ही समान धर्म होने के कारण दीपक अलंकार है। ‘नीचो’ (नीचा तथा पतन) और ऊँचो (ऊँचा तथा उत्थान) के दो-दो अर्थ होने के कारण श्लेष अलंकार है।
प्रश्न 2
निम्नलिखित पंक्तियों में कौन-सा छन्द है? सोदाहरण समझाइए-
तौ लगु या मन-सदन मैं, हरि आवै किहिं बाट ।
विकट जटे जौ लगु निपट, खुटै न कपट-कपाट ॥
उत्तर
इन पंक्तियों में दोहा छन्द है; क्योंकि इसके प्रथम और तृतीय चरणों में 13-13 तथा द्वितीय और चतुर्थ चरणों में 11-11 मात्राएँ हैं।
प्रश्न 3
कविजन कभी-कभी केवल अप्रस्तुत का वर्णन करते हैं और उसी के द्वारा प्रस्तुत की ओर संकेतमात्र कर देते हैं। इस प्रकार के क्मत्कार को ‘अन्योक्ति अलंकार’ कहते हैं। जैसे-
स्वारथु सुकृतु न श्रम वृथा, देखि बिहंग बिचारि ।
बाजि पराए पानि परि, तूं पच्छीनु न मारि ॥
-बिहारी के दोहों से अन्योक्ति का एक अन्य उदाहरण लिखिए-
उत्तर
कर लै सँघि सराहि हुँ, रहे सबै गहि मौनु ।
गंधी गंध गुलाब कौ, गॅवई गाहकु कौनु ।।।
प्रश्न 4
निम्नलिखित पदों में समास-विग्रह कीजिए तथा उनका नाम लिखिए-
पीतु पटु, नीलमनि, मन-सदन, दुपहर, रवि-चन्द, समूल ।।
उत्तर