UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 5 अग्रपूजा (खण्डकाव्य)

By | May 21, 2022

UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 5 अग्रपूजा (खण्डकाव्य)

UP Board Solutions for Class 10 Hindi Chapter 5 अग्रपूजा (खण्डकाव्य)

प्रश्न 1
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का सारांश लिखिए। [2009, 12]
या
‘अग्रपूजा’ का कथा-सार अपने शब्दों में लिखिए। [2010, 11, 12, 14]
या
‘अग्रपूजा’ के कथानक का सारांश लिखिए। [2011, 12, 13, 17]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए। [2010, 11, 12, 14, 15, 16, 17, 18]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य की प्रमुख घटना का उल्लेख कीजिए। [2016]
उत्तर
श्री रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित ‘अग्रपूजा’ नामक खण्डकाव्य का कथानक श्रीमद्भागवत और महाभारत से लिया गया है। इसमें भारतीय जनजीवन को प्रभावित करने वाले महापुरुष श्रीकृष्ण के पावन चरित्र पर विविध दृष्टिकोणों से प्रकाश डाला गया है। युधिष्ठिर ने अपने राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण को सर्वश्रेष्ठ मानकर उनकी पूजा की थी, इसी आधार पर खण्डकाव्य का नामकरण हुआ है। सम्पूर्ण काव्य का कथानक छः सर्गों में विभक्त है। उनका सारांश इस प्रकार है

‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का प्रथम सर्ग ‘पूर्वाभास है। इस सर्ग की कथा का प्रारम्भ दुर्योधन द्वारा समस्त पाण्डवों का विनाश करने के लिए लाक्षागृह में आग लगवाने से होता है। दुर्योधन को पूर्ण विश्वास हो गया कि पाण्डव जलकर भस्म हो गये, परन्तु पाण्डवों ने उस स्थान से जीवित निकलकर दुर्योधन की चाल को विफल कर दिया। वे वेश बदलकर घूमते हुए द्रौपदी के स्वयंवर-मण्डप में पहुँचे और अर्जुन ने आसानी से मत्स्य-वेध करके स्वयंवर की शर्त पूर्ण की। कुन्ती की इच्छा और व्यास जी के अनुमोदन पर द्रौपदी का विवाह पाँचों भाइयों से कर दिया गया।

दुर्योधन पाण्डवों को जीवित देखकर ईर्ष्या की अग्नि में जलने लगा। धृतराष्ट्र भीष्म, द्रोण और विदुर । से परामर्श करके सत्य-न्याय की रक्षा के लिए पाण्डवों को आधा राज्ये देने हेतु सहमत हो गये। दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन और शकुनि मिलकर सोचने लगे कि पाण्डवों से सदा-सदा के लिए कैसे मुक्ति मिले।

‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का दूसरा सर्ग ‘सभारम्भ’ है। सर्ग का प्रारम्भ श्रीकृष्ण को साथ लेकर पाण्डवों के खाण्डव वन पहुँचने से होता है। वह विकराल वन था। श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा से उस वन-प्रदेश में पाण्डवों के लिए इन्द्रपुरी जैसे भव्य नगर का निर्माण कराया। इस क्षेत्र का नाम इन्द्रप्रस्थ रखा गया। हस्तिनापुर से आये हुए अनेक नागरिक और व्यापारी वहाँ बस गये। व्यास भी वहाँ आये। युधिष्ठिर को भली-भाँति प्रतिष्ठित करने के बाद व्यास और कृष्ण इन्द्रप्रस्थ से चले गये। |

युधिष्ठिर का राज्य समृद्धि की ओर बढ़ चला। उनके शासन की कीर्ति सर्वत्र (सुरलोक और पितृलोक तक) प्रसारित हो गयी।

‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का तीसरा सर्ग ‘आयोजन’ है। सर्ग की आरम्भिक कथा के अनुसार पाण्डवों ने सोचा कि नारी (द्रौपदी) कहीं उनके पारस्परिक संघर्ष का कारण न बने; अत: नारद जी की सलाह से उन्होंने द्रौपदी को एक-एक वर्ष तक अलग-अलग अपने साथ रखने का निश्चय किया। साथ ही यह भी तय कर लिया गया कि जब द्रौपदी किसी अन्य पति के साथ हो और दूसरा कोई भाई वहाँ पहुँचकर उन्हें देख ले तो वह बारह वर्षों तक वन में रहेगा। इस नियम-भंग के कारण अर्जुन बारह वर्षों के लिए वन को चले गये।

अनेक स्थानों पर भ्रमण करते हुए अर्जुन द्वारको पहुँचे। वहाँ श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह करके वह इन्द्रप्रस्थ लौटे। युधिष्ठिर का राज्य सुख और शान्ति से चल रहा था। एक दिन देवर्षि नारद इन्द्रप्रस्थ नगरी में आये। उन्होंने पाण्डु का सन्देश देते हुए युधिष्ठिर को बताया कि यदि वे राजसूय यज्ञ करें तो उन्हें इन्द्रलोक में निवास मिल जाएगा। आयु पूर्ण हो जाने पर युधिष्ठिर भी वहाँ जाएँगे। युधिष्ठिर ने सलाह के लिए श्रीकृष्ण को द्वारका से बुलवाया और राजसूय यज्ञ की बात बतायी। श्रीकृष्ण ने सलाह दी कि जब तक जरासन्ध का वध न होगा, राजसूय यज्ञ सम्पन्न नहीं हो सकता। जरासन्ध को सम्मुख युद्ध में जीत पाना सम्भव नहीं था। श्रीकृष्ण ने जरासन्ध को तीनों का परिचय दिया और किसी से भी मल्लयुद्ध करने के लिए ललकारा। जरासन्ध ने भीम से मल्लयुद्ध करना स्वीकार कर लिया। श्रीकृष्ण के संकेत पर भीम ने उसकी एक टाँग को पैर से दबाकर दूसरी टाँग ऊपर को उठाते हुए बीच से चीर दिया। उसके पुत्र सहदेव को वहाँ का राजा बनाया। युधिष्ठिर ने चारों भाइयों को दिग्विजय करने के लिए चारों दिशाओं में भेजा। इस प्रकार अब सम्पूर्ण भारत युधिष्ठिर के ध्वज के नीचे आ गया और युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की योजनाबद्ध तैयारी प्रारम्भ कर दी।

‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का चतुर्थ सर्ग प्रस्थान है। इस सर्ग में राजसूय यज्ञ से पूर्व की तैयारियों का वर्णन किया गया है। राजसूय यज्ञ के लिए चारों ओर से राजागण आये। श्रीकृष्ण को बुलाने के लिए अर्जुन स्वयं द्वारका गये। उन्होंने प्रार्थना की कि आप चलकर यज्ञ को पूर्ण कराइए और पाण्डवों के मान-सम्मान की रक्षा कीजिए। श्रीकृष्ण ने सोचा कि इन्द्रप्रस्थ में एकत्र राजाओं में कुछ ऐसे भी हैं, जो मिलकर गड़बड़ी कर सकते हैं; अतः वे अपनी विशाल सेना लेकर इन्द्रप्रस्थ पहुँच गये। युधिष्ठिर ने नगर के बाहर ही बड़े सम्मान के साथ उनका स्वागत किया। श्रीकृष्ण के प्रभाव और स्वागत-समारोह को देखकर रुक्मी और शिशुपाल ईर्ष्या से तिलमिला उठे।

‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का पञ्चम सर्ग ‘राजसूय यज्ञ’ है। राजसूय यज्ञ प्रारम्भ होने से पूर्व सभी राजाओं ने अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया। युधिष्ठिर ने यज्ञ की सुचारु व्यवस्था के लिए पहले से ही स्वजनों को सभी काम बाँट दिये थे। श्रीकृष्ण ने स्वेच्छा से ही ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य अपने ऊपर ले लिया। जब भीष्म ने गम्भीर वाणी में सभासदों से पूछा, कृपया बताएँ कि अग्रपूजा का अधिकारी कौन है? सहदेव ने तुरन्त कहा कि यहाँ श्रीकृष्ण ही परम-पूज्य और प्रथम पूज्य हैं। भीष्म ने सहदेव का समर्थन किया। सभी लोगों ने उनका एक साथ अनुमोदन किया। केवल शिशुपाल ने श्रीकृष्ण के चरित्र पर दोषारोपण करते हुए इस बात का विरोध किया। अन्ततः सहदेव ने कहा कि मैं श्रीकृष्ण को सम्मानित करने जा रहा हूँ, जिसमें भी सामर्थ्य हो वह मुझे रोक ले। शिशुपाल तुरन्त क्रोधातुर होकर श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने दौड़ा। श्रीकृष्ण मुस्कराते रहे और तब वह श्रीकृष्ण के प्रति नाना प्रकार के अपशब्द कहने लगा। श्रीकृष्ण ने उसे सावधान किया और कहा कि फूफी को वचन देने के कारण ही मैं तुझे क्षमा करता जा रहा हूँ। फिर भी शिशुपाल ने माना और उनकी कटु निन्दा करता रहा, अन्ततः श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया।

षष्ठ सर्ग ‘उपसंहार’ में उल्लिखित शिशुपाल और कृष्ण के विवाद का यज्ञ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यज्ञ निर्विघ्न चलता रहा। व्यास, धौम्य आदि सोलह तत्त्वज्ञानी ऋषियों ने यज्ञ-कार्य सम्पन्न किया। युधिष्ठिर ने उन्हें दान-दक्षिणा देकर उनका यथोचित सत्कार किया। तत्त्वज्ञानी ऋषियों ने भी युधिष्ठिर को हार्दिक आशीर्वाद दिया, जिसे युधिष्ठिर ने विनम्र भाव से शिरोधार्य किया।

प्रश्न 2
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के प्रथम सर्ग ‘पूर्वाभास’ का सारांश लिखिए। [2013, 14, 15]
उत्तर
दुर्योधन ने समस्त पाण्डवों का विनाश करने के लिए लाक्षागृह में आग लगवा दी। उसे पूर्ण विश्वास हो गया कि पाण्डव जलकर भस्म हो गये, परन्तु पाण्डवों ने उस स्थान से जीवित निकलकर दुर्योधन की चाल को विफल कर दिया। वे वेश बदलकर घूमते हुए द्रौपदी के स्वयंवर-मण्डप में पहुँचे और अर्जुन ने आसानी से मत्स्य-वेध करके स्वयंवर की शर्त पूर्ण की। राजाओं ने ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन पर आक्रमण कर दिया, किन्तु अर्जुन और भीम ने अपने पराक्रम से उन्हें परास्त कर दिया। बलराम और श्रीकृष्ण भी उस स्वयंवर में उपस्थित थे। उन्होंने छिपे हुए वेश में भी पाण्डवों को पहचान लिया और रात में उनके निवास-स्थल पर उनसे मिलने हेतु गये। राजा द्रुपद को जब अपने पुत्र से पाण्डवों की वास्तविकतो ज्ञात हुई तो द्रुपद ने उन्हें राजभवन में आमन्त्रित किया और कुन्ती की इच्छा और व्यास जी के अनुमोदन पर द्रौपदी का विवाह पाँचों भाइयों से कर दिया गया।

इधर दुर्योधन पाण्डवों को जीवित देखकर ईष्र्या की अग्नि में जलने लगा। शकुनि उसे और भी उकसाने लगा। वह कर्ण को लेकर धृतराष्ट्र के पास पहुँचा और पाण्डवों के विनाश की अपनी इच्छा पर चर्चा की। धृतराष्ट्र ने उसे अपने भाई पाण्डवों के साथ प्रेमपूर्वक रहने की सलाह दी, लेकिन वह नहीं माना। कर्ण ने उसे पाण्डवों को युद्ध करके जीत लेने हेतु प्रेरित किया। लेकिन उसने कर्ण की सलाह भी नहीं मानी। अन्ततः धृतराष्ट्र चिन्तित होकर भीष्म, द्रोण और विदुर से परामर्श करके सत्य-न्याय की रक्षा के लिए पाण्डवों को आधा राज्य देने हेतु सहमत हो गये। विदुर कुन्ती, द्रौपदी सहित पाण्डवों को साथ लेकर हस्तिनापुर आये। जनता ने उनका भव्य स्वागत किया। धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर का राज्याभिषेक कर उनसे खाण्डव वन को पुनः बसाने के लिए कहा। श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र से पाण्डवों को आशीर्वाद देने के लिए कहा। धृतराष्ट्र ने खेद प्रकट करते हुए प्रसन्न मन से उन्हें विदा कर दिया। दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन और शकुनि मिलकर सोचने लगे कि पाण्डवों से सदा-सदा के लिए कैसे मुक्ति मिले।

प्रश्न 3
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के सभारम्भ सर्ग (द्वितीय सर्ग) का सारांश लिखिए। [2010, 12]
उत्तर
श्रीकृष्ण को साथ लेकर पाण्डव खाण्डव वन पहुँचे। वह विकराल वन था। श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा से उस वन-प्रदेश में पाण्डवों के लिए इन्द्रपुरी जैसे भव्य नगर का निर्माण कराया। नगर रक्षा के लिए शतघ्नी शक्ति, शस्त्रागार, सैनिक गृह आदि निर्मित किये गये। सर्वत्र सुरम्य उद्यान और लम्बे-चौड़े भव्य मार्ग थे। वहाँ निर्मल जल से परिपूर्ण नदियाँ और कमल से सुशोभित सरोवर थे। इस क्षेत्र का नाम इन्द्रप्रस्थ रखा गया। हस्तिनापुर से आये हुए अनेक नागरिक और व्यापारी वहाँ बस गये। व्यास भी वहाँ आये। युधिष्ठिर को भली-भाँति प्रतिष्ठित करने के बाद व्यास और कृष्ण इन्द्रप्रस्थ से चले गये। श्रीकृष्ण जैसा हितैषी पाकर उनके उपकारों से पाण्डव अपने आपको धन्य मानते थे। युधिष्ठिर ने सत्य, न्याय और प्रेम के आधार पर आदर्श शासन किया। उन्होंने रामराज्य को आदर्श मानकर प्रजा के लिए पृथ्वी पर स्वर्ग उतार लाने जैसे कार्य किये। युधिष्ठिर का राज्य समृद्धि की ओर बढ़ चला। उनके शासन की कीर्ति सर्वत्र (सुरलोक और पितृलोक तक) प्रसारित हो गयी।

प्रश्न 4
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के आयोजन सर्ग’ (तृतीय सर्ग) का कथासार (कथावस्तु, कथानक) अपने शब्दों में लिखिए। [2009, 10, 11, 13, 14, 17]
या
‘अग्रपूजा के आधार पर जरासन्ध वध को वर्णन कीजिए। [2017, 18]
उत्तर
संसार में धन, धरती और स्त्री के कारण संघर्ष होते आये हैं। कौरव धन और धरती के पीछे ही पागल थे। पाण्डवों ने सोचा कि नारी (द्रौपदी) कहीं उनके पारस्परिक संघर्ष का कारण न बने; अत: नारद जी की सलाह से उन्होंने द्रौपदी को एक-एक वर्ष तक अलग-अलग अपने साथ रखने का निश्चय किया। साथ ही यह भी तय कर लिया गया कि जब द्रौपदी किसी पति के साथ हो और कोई दूसरा भाई वहाँ पहुँचकर उन्हें देख ले तो वह बारह वर्षों तक वन में रहेगा।

एक दिन चोरों ने एक ब्राह्मण की गायें चुरा लीं। वह राजभवन में न्याय और सहायता के लिए पहुँचा। अर्जुन उसकी रक्षा के लिए शस्त्रागार से शस्त्र लेने गये तो वहाँ उन्होंने द्रौपदी को युधिष्ठिर के साथ देख लिया। उन्होंने चोरों से गायें छुड़ाकर ब्राह्मण को दे दीं और नियम-भंग के कारण बारह वर्षों के लिए वन को चले गये।

अनेक स्थानों पर भ्रमण करते हुए अर्जुन द्वारका पहुँचे। वहाँ श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह करके वह इन्द्रप्रस्थ लौटे। श्रीकृष्ण भी अपनी बहन के लिए बहुत सारा दहेज लेकर इन्द्रप्रस्थ आये और बहुत दिनों तक रुके। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने मिलकर अग्निदेव के हित हेतु खाण्डव वन का दाह किया। अग्निदेव ने प्रसन्न होकर अर्जुन को कपिध्वज नामक रथ, करूण ने गाण्डीव धनुष और दो अक्षय तृणीर उपहार में दिये। श्रीकृष्ण को अग्निदेव ने कौमोदकी गदा और सुदर्शन चक्र प्रदान किये। यहीं अग्नि की लपटों से व्याकुल मय नामक राक्षस ने सहायता के लिए आर्त पुकार की। अर्जुन ने उसे बचा लिया और उसने कृतज्ञतापूर्वक कृष्ण के कहने पर युधिष्ठिर के लिए एक अलौकिक सभा-भवन का निर्माण किया। मय दानव ने अर्जुन को ‘देवदत्त शंख और भीम को एक भारी गदा भेंट की।

युधिष्ठिर का राज्य सुख और शान्ति से चल रहा था। एक दिन देवर्षि नारद इन्द्रप्रस्थ नगरी में आये। उन्होंने पाण्डु का सन्देश देते हुए युधिष्ठिर को बताया कि यदि वे राजसूय यज्ञ करें तो उन्हें इन्द्रलोक में निवास मिल जाएगा। आयु पूर्ण हो जाने पर युधिष्ठिर भी वहाँ जाएँगे। युधिष्ठिर ने नारद के द्वारा सद्धेश भेजकर सलाह के लिए श्रीकृष्ण को द्वारका से बुलवाया और राजसूय यज्ञ की बात बतायी। श्रीकृष्ण ने कह दी कि जब तक जरासन्ध का वध न होगा, राजसूय यज्ञ सम्पन्न नहीं हो सकता। इसीलिए उन्होंने अर्जुन.और भीम को साथ लेकर मगध की राजधानी गिरिव्रज की ओर प्रस्थान किया और ब्रह्मचारी वेश में नगर में प्रवेश किया। जरासन्ध ने रुद्रयज्ञ में बलि देने के लिए दो हजार राजाओं को बन्दी बना रखा था। श्रीकृष्ण का विचार था कि जरासन्ध को मारने पर यज्ञ का मार्ग भी साफ हो जाएगा और राजाओं की मुक्ति भी हो जाएगी, किन्तु जरासन्ध को सम्मुख युद्ध में जीत पाना सम्भव नहीं था। श्रीकृष्ण ने जरासन्ध को तीनों का परिचय दिया और किसी से भी मल्लयुद्ध करने के लिए ललकारा। जरासन्ध ने भीम को ही अपने जोड़ का समझकर उससे मल्लयुद्ध करना स्वीकार कर लिया। तेरह दिन के युद्ध के बाद जरासन्ध के थक जाने पर भीम ने टाँग पकड़कर घुमा-घुमाकर उसे पृथ्वी पर पटकना शुरू कर दिया। श्रीकृष्ण के संकेत पर भीम ने उसकी एक टाँग को पैर से दबाकर दूसरी टाँग ऊपर को उठाते हुए बीच से चीर दिया। इसके बाद उन्होंने समस्त बन्दी राजाओं को मुक्त कर दिया और जरासन्ध के पुत्र सहदेव को वहाँ का राजा बनाया, जिसने युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार कर ली। इन्द्रप्रस्थ लौटकर श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से विदा लेकर द्वारका चले गये। युधिष्ठिर ने चारों भाइयों को दिग्विजय करने के लिए चारों दिशाओं में भेजा। चारों भाइयों ने सभी राजाओं को जीतकर युधिष्ठिर के अधीन कर दिया। इस प्रकार अब सम्पूर्ण भारत युधिष्ठिर के ध्वज के नीचे आ गया।

युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की योजनाबद्ध तैयारी प्रारम्भ कर दी। एक भव्य विशाल यज्ञशाला बनायी गयी। सभी दिशाओं में निमन्त्रण-पत्र भेजे गये। कौरवों सहित अनेकानेक राजा यज्ञ में भाग लेने के लिए इन्द्रप्रस्थ में एकत्र होने लगे। सबका यथोचित सत्कार करके उपयुक्त आवासों में ठहराया गया। वहाँ देव, मनुज और दानव सभी स्वभाव के लोग आमन्त्रित एवं एकत्रित हुए।

प्रश्न 5
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के प्रस्थान’ सर्ग (चतुर्थ सर्ग) का सारांश लिखिए। [2010]
उत्तर
राजसूय यज्ञ के लिए चारों ओर से राजागण आये। श्रीकृष्ण को बुलाने के लिए अर्जुन स्वयं द्वारका गये। उन्होंने प्रार्थना की कि आप चलकर यज्ञ को पूर्ण कराइए और पाण्डवों के मान-सम्मान की रक्षा कीजिए। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विदा कर बलराम, उद्धव और दरबारी जनों से विचार-विमर्श किया। उन्होंने सोचा कि इन्द्रप्रस्थ में एकत्र राजाओं में कुछ ऐसे भी हैं, जो ऊपरी मन से तो अधीनता स्वीकार कर चुके हैं, पर मन से उनके विरोधी हैं। ये लोग मिलकर कुछ गड़बड़ी अवश्य कर सकते हैं; अत: निश्चय हुआ कि वे पूरी साज-सज्जा और सैन्य बल के साथ तैयार होकर जाएँगे। श्रीकृष्ण अपनी विशाल सेना लेकर इन्द्रप्रस्थ पहुँच गये। युधिष्ठिर ने नगर के बाहर ही बड़े सम्मान के साथ उनका स्वागत किया और स्वयं श्रीकृष्ण का रथ हाँकते हुए उन्हें नगर में प्रवेश कराया। विशाल जन-समुदाय श्रीकृष्ण की शोभा-यात्रा को देखने के लिए उमड़ पड़ा। नगरवासी अपार श्रद्धा और प्रेम से श्रीकृष्ण का गुणगान कर रहे थे। श्रीकृष्ण भव्य स्वागत के बाद युधिष्ठिर के महल में ठहराये गये। श्रीकृष्ण के प्रभाव और स्वागत-समारोह को देखकर रुक्मी और शिशुपाल ईष्र्या से तिलमिला उठे। वे पहले से ही श्रीकृष्ण से द्वेष रखते थे। वे रातभर इसी वैरभाव और द्वेष की आग में जलते रहे और क्षणभर भी सो न सके।

प्रश्न 6
‘अग्रपूजा’ के आधार पर शिशुपाल वध का वर्णन संक्षेप में कीजिए। [2010, 12]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के ‘राजसूय यज्ञ’ सर्ग (पञ्चम सर्ग) का सारांश अपने शब्दों में लिखिए। [2011, 13, 14]
या
सभा में शिशुपाल से भीष्म ने क्या कहा, इस पर विशेष प्रकाश डालिए।
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के पञ्चम सर्ग (राजसूय यज्ञ) का सारांश लिखिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 18]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य में सबसे अधिक प्रभावित करने वाली घटना का सकारण उल्लेख कीजिए।
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के आधार पर शिशुपाल वध के सन्दर्भ में श्रीकृष्ण की सहनशीलता का उल्लेख कीजिए। [2009]
उत्तर
यज्ञ प्रारम्भ होने से पूर्व सभी राजाओं ने अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया। युधिष्ठिर ने यज्ञ की सुचारु व्यवस्था के लिए पहले से ही स्वजनों को सभी काम बाँट दिये थे। श्रीकृष्ण ने स्वेच्छा से ही ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य अपने ऊपर ले लिया। यज्ञ कार्य करने आये ब्राह्मणों के चरण श्रीकृष्ण ने धोये। जब यज्ञशाला में बलराम और सात्यकि के साथ श्रीकृष्ण पधारे तो सभी लोगों ने उठकर उनका सम्मान किया। केवल शिशुपाल ही उनके आगमन को अनदेखा-सा करते हुए जान-बूझकर बैठा रहा। सबकी आँखें श्रीकृष्ण पर टिकी रह गयीं। तभी भीष्म ने गम्भीर वाणी में सभासदों से पूछा, कृपया बताएँ कि सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति कौन है, जिसे सर्वप्रथम पूजा जाए; अर्थात् अग्रपूजा का अधिकारी कौन है? सहदेव ने तुरन्त कहा कि यहाँ श्रीकृष्ण ही परम-पूज्य और प्रथम पूज्य हैं। भीष्म ने सहदेव का समर्थन किया और सभी लोगों ने उनका एक साथ अनुमोदन किया। केवल शिशुपाल ने श्रीकृष्ण के चरित्र पर दोषारोपण करते हुए इस बात को विरोध किया। भीम को क्रोध आया, पर भीष्म ने भीम को रोक दिया। भीष्म बड़े संयम और शान्त भाव से शिशुपाल के तर्कों का उत्तर देते हुए बोले कि “स्वार्थ की हानि और ईष्र्या के वशीभूत होने पर मानव अन्धा हो जाता है। उसे गुण भी दोष और यश की सुगन्ध दुर्गन्ध प्रतीत होती है। उन्होंने कहा कि मनुष्यता की महिमा पूर्ण रूप में कृष्ण में ही दिखाई पड़ती है और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ये पूर्णरूपेण डूबे हुए हैं। इनका सम्पूर्ण जीवन ही योग-भोग के जनक सदृश है। इनके समान रूप में जन्म लेने वाला ही इन्हें जान सकता है। सीमित दृष्टि और द्वेष बुद्धि रखने वाला व्यक्ति इन्हें नहीं जान सकता। ये पुष्प की पंखुड़ियों से भी कोमल हैं; दया, प्रेम, करुणा के भण्डार हैं तथा शील, सज्जनता, विनय और प्रेम के प्रत्यक्ष शरीर हैं। ये अनीति को मिटाते हैं। तथा धर्म-मर्यादा की स्थापना करते हैं। इस तरह से भीष्म ने श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन किया, फिर भी शिशुपाल अनर्गल ही बकता रहा। अन्ततः सहदेव ने कहा कि मैं श्रीकृष्ण को सम्मानित करने जा रहा हूँ, जिसमें भी सामर्थ्य हो वह मुझे रोक ले। यह कहकर सहदेव ने सर्वप्रथम श्रीकृष्ण के चरण धोये और फिर अन्य सभी पूज्यों के पाद-प्रक्षालन किये। शिशुपाल तुरन्त क्रोधातुर होकर श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने दौड़ा। श्रीकृष्ण मुस्कराते रहे। शिशुपाल को चारों ओर कृष्ण-ही-कृष्ण दिखाई दे रहे थे। वह इधर-उधर दौड़कर घूसे मारने की चेष्टा करता हुआ हाँफने लगा और श्रीकृष्ण के प्रति नाना प्रकार के अपशब्द कहने लगा। श्रीकृष्ण ने उसे सावधान किया और कहा कि फूफी को वचन देने के कारण ही मैं तुझे क्षमा करता जा रहा हूँ। फिर भी शिशुपाल न माना और उनकी कटु निन्दा करता रहा, अन्तत: श्रीकृष्ण ने सुदर्शन-चक्र से उसका सिर काट दिया। युधिष्ठिर ने शिशुपाल के पुत्र को उसके बाद चेदि राज्य का राजा घोषित कर दिया।

प्रश्न 7
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के ‘उपसंहार’ सर्ग (षष्ठ सर्ग) का सारांश (कथासार) अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर
पञ्चम सर्ग में उल्लिखित शिशुपाल और कृष्ण के विवाद का यज्ञ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा
और यज्ञ निर्विघ्न चलता रहा। व्यास, धौम्य आदि सोलह तत्त्वज्ञानी ऋषियों ने यज्ञ-कार्य सम्पन्न किया। युधिष्ठिर ने उन्हें दान-दक्षिणा देकर उनका यथोचित सत्कार किया। उन्होंने बलराम और श्रीकृष्ण के प्रति अपना आभार प्रकट किया। सभी राजा उनके सौम्य स्वभाव और सत्कार से सन्तुष्ट हुए और उन्होंने युधिष्ठिर को अपना अधिपति मानते हुए उनकी आज्ञा-पालन करने का वचन दिया। तत्त्वज्ञानी ऋषियों ने भी युधिष्ठिर को हार्दिक आशीर्वाद दिया, जिसे युधिष्ठिर ने विनम्र भाव से शिरोधार्य किया।

प्रश्न 8
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के आधार पर उसके नायक श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2009, 11, 12, 13, 14, 15, 17]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्यः का नायक कौन है ? उसकी चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। [2009, 10, 11, 12, 13, 14, 17]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के पात्रों में जिस पात्र ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया हो अथवा सर्वश्रेष्ठ पात्र के चरित्र की विशेषताओं का वर्णन कीजिए। [2010]
या
‘अग्रपूजा के किसी प्रमुख पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2011, 12, 16, 17, 18]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के आधार पर श्रीकृष्ण की चारित्रिक विशेषताएँ लिखिए। [2015]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के नायक के गुणों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2015]
या
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के प्रधान पात्र का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2018]
उत्तर
श्री रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित ‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के नायक श्रीकृष्ण हैं। सम्पूर्ण काव्य में श्रीकृष्ण ही प्रमुख पात्र के रूप में उभरकर आये हैं। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की ही पूजा होती है। वे ही समस्त घटनाओं के सूत्रधार भी हैं। हमें उनके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ दिखाई पड़ती हैं

(1) लीलाधारी दिव्य पुरुष–कवि ने मंगलाचरण में श्रीकृष्ण के विष्णु-रूप का स्मरण किया है। विश्वकर्मा से भयानक खाण्डव वन में अलौकिक नगर का निर्माण करवा देने तथा शिशुपाल को अनेक रूपों में दिखाई देने के कारण वे पाठकों को अलौकिक पुरुष के रूप में प्रतीत होते हैं।

(2) शिष्ट एवं विनयी—श्रीकृष्ण सदा बड़ों के प्रति नम्र भाव रखते हैं। वे कुन्ती आदि पूज्यजनों के सम्मुख शिष्टाचार और नम्रता का व्यवहार करते हैं। स्वयं अलौकिक शक्तिसम्पन्न होते हुए भी वे विनम्रता से युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य स्वेच्छा से ग्रहण करते हैं।

(3) पाण्डवों के परम हितैषी-श्रीकृष्ण पाण्डवों के परम हितैषी हैं। वे उनके सभी कार्यों में पूर्ण सहयोग देते हैं। द्रौपदी के स्वयंवर में पाण्डवों को पहचानकर वे उनसे आत्मीयता से मिलने जाते हैं। वे पाण्डवों के लिए इन्द्रपुरी सदृश नगर का निर्माण करवाते हैं और उनके राजसूय यज्ञ की सफलता के लिए जरासन्ध को मारने की योजना बनाते हैं। राजसूय यज्ञ में किसी विरोधी राजा के विघ्न डालने की आशंका से वे ससैन्य यज्ञ में पहुंचते हैं। इन बातों से स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण पाण्डवों के शुभचिन्तक हैं। |

(4) अनुपम सौन्दर्यशाली–श्रीकृष्ण अलौकिक महापुरुष और अनुपम सौन्दर्यशाली थे। इन्द्रप्रस्थ जाते समय सभी नगरवासी उनके सौन्दर्य को देखने के लिए दौड़ पड़े थे। इन्द्रप्रस्थ की नारियाँ उनकी मधुर मुस्कान पर मुग्ध होकर न्योछावर हो जाती हैं

देखा सुना न पढ़ा कहीं भी, ऐसा अनुपम रूप अमन्द।
ऐसी मधु मुस्कान न देखी, हैं गोविन्द सदृश गोविन्द ॥

(5) धैर्यवान् एवं शक्तिसम्पन्न–श्रीकृष्ण परमवीर थे, यही कारण है कि वे केवल अर्जुन और भीम को साथ लेकर जरासन्ध का वध करने पहुँच जाते हैं। शिशुपाल की अशिष्टता और नीचता को भी वे बहुत देर तक सहन करते हैं। भीष्म के समझाने पर भी जब वह दुर्वचन कहने से नहीं माना तो उन्होंने उसे दण्ड देने का निश्चय कर लिया और सुदर्शन-चक्र से उसका वध कर दिया।

(6) धर्म एवं मर्यादापालक-श्रीकृष्ण राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों के चरण धोते हैं एवं यज्ञ में मर्यादा की रक्षा के कारण ही शिशुपाल के निन्दाजनक शब्दों को शान्त-भाव से क्षमा करते हैं। वे आदर्श मानव हैं। भीष्म के शब्दों में

शील, सुजनता, विनय, प्रेम के केशव हैं प्रत्यक्ष शरीर।
मिटा अनीति, धर्म मर्यादा स्थापन करते हैं यदुवीर॥

(7) अनासक्त योगी–श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व में भोग और योग का सुन्दर समन्वय है। वे सांसारिक होते हुए भी संसार से निर्लिप्त हैं। जल में कमल-पत्र की भाँति वे मनुष्यों के सभी कार्यों को अनासक्त रहकर । पूर्ण करते हैं। सबके पूजनीय होने के कारण ही उन्हें अग्रपूजा के लिए चुना जाता है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कृष्ण अत्यन्त शिष्ट और विनम्र हैं। वे पाण्डवों के परम हितचिन्तक और अनुपम सौन्दर्यवान् हैं। वे धर्म एवं मर्यादा के पालक और अलौकिक शक्तिसम्पन्न हैं। उनके बारे में स्वयं भीष्म कहते हैं-“श्रीकृष्ण महामानव हैं, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे रहने वाले हैं। संसार में रहकर भी वे अनासक्त और कर्मयोगी हैं। उनमें रूप, शील एवं शक्ति का अनुपम भण्डार है। योग तथा भोग से पूर्ण इनका व्यक्तित्व अनूठा उदाहरण है। ये सज्जनता, विनम्रता, प्रेम तथा उदारता के पुंज हैं। इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं है कि श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अत्यन्त आदर्शपूर्ण एवं महान् है।”

प्रश्न 9
‘अग्रपूजा के आधार पर युधिष्ठिर का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2010,15]
या
‘अग्रपूजा’ के आधार पर युधिष्ठिर के चरित्र की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [2010, 12, 14]
या
‘अग्रपूजा’ में जिस पात्र के चारित्रिक गुणों ने आपको प्रभावित किया है, उस पर संक्षेप में – प्रकाश डालिए। [2009, 10]
उत्तर
युधिष्ठिर पाण्डवों में सबसे बड़े थे। इन्द्रप्रस्थ में उनका ही राज्याभिषेक किया जाता है। सभी राजा उनकी अधीनता को स्वीकार करते हैं तथा वे ही राजसूय यज्ञ सम्पन्न कराते हैं। इस प्रकार युधिष्ठिर ‘अग्रपूजा’ काव्य के प्रमुख पात्र हैं। उनका चरित्र मानव-आदर्शों की स्थापना करने वाला है, जिसकी मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं–

(1) विनम्र स्वभाव-युधिष्ठिर विनम्र स्वभाव के हैं। इन्द्रप्रस्थ में गुरु द्रोणाचार्य के प्रवेश करते ही वे विनय भाव से उनके चरणों में गिर पड़ते हैं। राजसूय यज्ञ के समय श्रीकृष्ण के आने पर वे उनका रथ स्वयं हाँककर उन्हें नगर में प्रवेश कराते हैं। यज्ञ के समाप्त होने पर वे तत्त्वज्ञानी ऋषियों को पर्याप्त दान-दक्षिणा देते हैं और उनके आशीर्वाद को विनय-भाव से स्वीकार करते हैं।

(2) आदर्श शासक-महाराज युधिष्ठिर एक आदर्श शासक के रूप में हमारे सामने आते हैं। वे राम-राज्य को आदर्श मानकर प्रजा को सुखी-सम्पन्न बनाने का प्रयत्न करते हैं

था प्रयत्न उनकी यह निशदिन, लायें भू पर स्वर्ग उतार।।

वे भारत के सभी राजाओं को जीतकर शक्तिशाली भारत राष्ट्र का निर्माण करते हैं।

(3) धार्मिक तथा सत्य-प्रेमी-युधिष्ठिर धार्मिक और सत्यप्रेमी हैं। वे प्रत्येक कार्य को धर्म और न्याय के अनुसार करते हैं और सदैव सत्य के पथ पर चलते हैं। उनके सम्बन्ध में स्वयं नारद जी इस प्रकार कहते हैं—

बोल उठे गद्गद वाणी से—धर्मराज, जीवन तव धन्य।
धरणी में सत्कर्म-निरत जन नहीं दीखता तुम-सा अन्य।

राजसूय यज्ञ को सम्पन्न करके वे अपने पिता की इच्छा को पूर्ण करते हैं।

(4) उदारहृदय-युधिष्ठिर अत्यन्त उदार हैं। वे राज्य के लिए दुर्योधन से झगड़ा नहीं करते और खाण्डव वन के भाग को ही राज्य के रूप में प्रसन्नता से स्वीकार कर लेते हैं। वे किसी राजा के राज्य को अपने राज्य में नहीं मिलाते। उन्होंने शिशुपाल और जरासन्ध का वध होने पर भी उनके राज्य को उनके पुत्रों को सौंप दिया। वे राजसूय यज्ञ में उदारतापूर्वक ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते हैं।

इस प्रकार युधिष्ठिर परम विनीत, धर्मात्मा, सत्य-प्रेमी, उदारहदय एवं सुयोग्य शासक हैं।

प्रश्न 10
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के आधार पर शिशुपाल का चरित्र-चित्रण कीजिए। [2012, 15]
उत्तर
शिशुपाल भी ‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य को एक प्रमुख चरित्र है। वह चेदि राज्य का स्वामी है। प्रस्तुत खण्डकाव्य में उसकी भूमिका खलनायक की है। वह हमें ईर्ष्यालु, क्रोधी, अविनीत और अशिष्ट व्यक्ति के रूप में दृष्टिगोचर होता है। शिशुपाल का चरित्र-चित्रण इस प्रकार किया जा सकता है-

(1) श्रीकृष्ण का शत्रु-शिशुपाल और श्रीकृष्ण के बीच पुरानी शत्रुता है। शिशुपाल रुक्मी की बहन रुक्मिणी से विवाह करना चाहता था, किन्तु रुक्मिणी श्रीकृष्ण को हृदय से पति-रूप में वरण कर चुकी थी। इसलिए श्रीकृष्ण रुक्मिणी का हरण कर द्वारका ले आये और वहाँ उन्होंने उससे विवाह कर लिया। इस घटना से शिशुपाल श्रीकृष्ण को अपना शत्रु मानने लगा।

(2) ईष्र्यालु व्यक्ति–शिशुपाल स्वभाव से बहुत ईष्र्यालु व्यक्ति है। इन्द्रप्रस्थ में श्रीकृष्ण का अधिक सम्मान होना उसे काँटे की तरह चुभ रहा था। इसी कारण ईर्ष्या की आग में जलते हुए वह अकारण ही श्रीकृष्ण के प्रति जहर उगलता हुआ अपशब्दों का प्रयोग करता है-

आज यहाँ हैं ज्ञानी योगी, पण्डित, ऋषि, नृप, अनुपम वीर।
फिर भी अग्र अर्चना होगी, उसकी जो गोपाल अहीर॥

शिशुपाल ईर्ष्यावश श्रीकृष्ण को नाचने-कूदने वाला, छलिया और अशिष्ट भी बतलाता है।

(3) क्रोधी और अभिमानी–शिशुपाल में क्रोध और अभिमान का भाव कूट-कूटकर भरा था। वह भरी सभा में सीना तानकर श्रीकृष्ण की ओर हाथापाई के लिए बढ़ता है और उन्हें भला-बुरा कहकर ललकारता है-

वह बोला मायावी, छलिया, इन्द्रजाल अब करके बन्द।।
आ सम्मुख तू बच न सकेगा, करके ये सारे छल छन्द ॥

उसके अभिमानी स्वभाव के कारण ही उस पर भीष्म के उपदेश और सहदेव की सूझ-बूझ का कोई प्रभाव नहीं होता।।

(4) अशिष्ट-शिशुपाल की वाणी में दूसरों के प्रति शिष्टता का अभाव है। वह जहाँ एक ओर अग्रपूजा के लिए श्रीकृष्ण का नाम प्रस्तावित करने को सहदेव का लड़कपन बताता है, वहाँ दूसरी ओर भीष्म की बुद्धि को भी मारी गयी कहता है

लगता सठिया गये भीष्म हैं, मारी गयी बुद्धि भरपूर।।
तभी अनर्गल बातें करते, करो यहाँ से इनको दूर ॥

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शिशुपाल का चरित्र एक खलनायक के रूप में अनेक दोषों से भरा है।

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