UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 3 Aims of Education (शिक्षा के उद्देश्य)

By | June 2, 2022

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 3 Aims of Education (शिक्षा के उद्देश्य)

UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 3 Aims of Education (शिक्षा के उद्देश्य)

विरतृत उत्तरीय प्रज

प्रश्न 1.
“शिक्षा एक सोद्देश्य प्रक्रिया है।” इस कथन की पुष्टि विभिन्न विचारकों के मत से कीजिए।
या
शिक्षा के उद्देश्य निर्धारण की आवश्यकता पर प्रकाश डालिए। शिक्षा के कौन-कौन-से उद्देश्य हैं ? वर्णन कीजिए।
या
शिक्षा के उद्देश्य-निर्धारण की आवश्यकता क्यों है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा के उद्देश्य निर्धारण की आवश्यकता
(Need for Determining the Aims of Education)

शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण एवं व्यापक प्रक्रिया है जो मानव के सर्वांगीण विकास तथा समाज के निर्माण से जुड़ी हुई है। उद्देश्यहीन शिक्षा एक दिशाहीन तथा निष्फल प्रयास है। इस विषय में डॉ० बी० डी० भाटिया का कथन उल्लेखनीय है, “उद्देश्य के बिना शिक्षक उस नाविक के समान है जो अपना लक्ष्य नहीं जानता तथा शिक्षार्थी उस पतवारविहीन नौका के समान है जो तट से दूर कहीं बही जा रही है। शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण किए बिना शिक्षण-कार्य में सफलता नहीं मिल सकती। बालक के सर्वांगीण विकास हेतु उसमें वांछित परिवर्तन लाने की दृष्टि से शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों का निर्धारित होना अनिवार्य है।

शिक्षा के उद्देश्य एवं लक्ष्य निर्धारित होने पर मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया तीव्र होती है। स्वभावत: उद्देश्यों का ज्ञान होने पर ही उनकी प्राप्ति के उपाय आसानी से खोजे जा सकते हैं और साधनों पर भली-भाँति विचार किया जा सकता है। शैक्षिक गतिविधियों एवं क्रियाकलापों को सम्पादित करने की दृष्टि से पाठ्यक्रम, पाठ-योजना, शिक्षण-विधि, शिक्षक-प्रशिक्षण तथा अभिप्रेरणा के साधनों का उचित संगठन और व्यवस्था का तभी करना सम्भव है जब कि शैक्षिक उद्देश्य सुस्पष्ट हों।

उद्देश्य का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति ही न्यूनतम समय एवं शक्ति लगाकरं जीवन में विषम परिस्थितियों का कुशलतापूर्वक सामना कर सकता है। जिस शिक्षक को अपने उद्देश्यों का ज्ञान नहीं होता, उसे कभी भी शिक्षण-कार्य में सफलता नहीं मिल सकती। उसकी निरुद्देश्य क्रियाएँ अबोध शिक्षार्थियों को भटकाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्र का भविष्य अँधेरे में खो जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि भारत में आधुनिक शिक्षा-प्रणाली की उद्देश्यहीनता ने युवाओं को दिशाहीन, उत्साहहीन, अनुशासनहीन तथा विद्रोही बना दिया है। राष्ट्र को एक सुन्दर एवं कल्याणकारी शिक्षा-व्यवस्था प्रदान करने के लिए शिक्षा को आदर्श उद्देश्यों से युक्त करना होगा।

शिक्षा के उद्देश्य सम्बन्धी शिक्षाशास्त्रियों के विचार
(Views of Educationists Regarding the Aims of Education)

शिक्षा के उद्देश्य प्रतिपादित करने के विषय में विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं, जो निम्न प्रकार हैं|

  1. सुकरात के अनुसार, “शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को सत्य समझाना तथा तदनुसार व्यवहार सिखाना
  2. प्लेटो के अनुसार, “वह शिक्षा अनुदार है जिसका उद्देश्य बुद्धि और न्याय की ओर ध्यान न देकर केवल धन या शारीरिक बल की प्राप्ति है।”
  3. अरस्तू का कथन है, “शिक्षा का उद्देश्य सुख प्राप्त करना है।”
  4. मिल्टन के मतानुसार, “शिक्षा का उद्देश्य शान्ति और युद्ध के काल में निजी तथा सार्वजनिक कार्यों को उचित प्रकार से करने हेतु व्यक्ति को तैयार करना है।”
  5. हरबर्ट स्पेन्सर का मत है, “जीविकोपार्जन के लिए तैयार करना हमारी शिक्षा का आवश्यक अंग
  6. दी० रेमण्ट का कथन है, “अन्ततोगत्वा शिक्षा का उद्देश्य न तो शारीरिक शक्ति उत्पन्न करना है, न ज्ञान की पूर्ण प्राप्ति करना, न विचारधारा का शुद्धीकरण, बल्कि उसका उद्देश्य चरित्र को शक्तिशाली तथा उज्ज्व ल बनाना है।”
  7. हरबर्ट के अनुसार, “शिक्षा की सभी समस्याओं का समाधान नैतिकता’ के अन्तर्गत सीमित है। इसी शब्द से शिक्षा के सभी उद्देश्य व्यक्त होते हैं।’
  8. जॉन डीवी के मतानुसार, “शिक्षा का उद्देश्य इस तरह का वातावरण उत्पन्न करना है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति मानव-जाति की सामाजिक जागृति में सफलता से भाग ले सके।”
  9. टी० पी० नन ने लिखा है, “शिक्षा को ऐसी दशाएँ उत्पन्न करनी चाहिए जिनसे वैयक्तिकता का पूर्ण विकास हो और व्यक्ति मानव-जीवन को अपना मौलिक योग दे सके।”
  10. रॉस के शब्दों में, “वास्तव में, जीवन और शिक्षा के उद्देश्यों के रूप में आत्मानुभूति तथा समाज-सेवा में कोई भेद नहीं है, क्योंकि दोनों एक ही हैं।”
  11. अरविन्द घोष ने लिखा है, “शिक्षा का उद्देश्य विकसित होने वाली आत्मा को सर्वोत्तम प्रकार से विकास करने में सहायता देना और श्रेष्ठ कार्य के लिए पूर्ण बनाना होना चाहिए।”
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  12. माध्यमिक शिक्षा आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, “छात्रों को इस प्रकार का चारित्रिक प्रशिक्षण दिया जाए कि वे नागरिकों के रूप में भावी प्रजातान्त्रिक, सामाजिक व्यवस्था में रचनात्मक ढंग से भाग ले सकें और उनकी व्यावहारिक व व्यावसायिक कुशलता में उन्नति की जाए ताकि वे अपने देश की आर्थिक प्रगति करने में अपना योग दे सकें।”
  13. रिऑर्गेनाइजेशन ऑफ सेकेण्डरी स्कूल-रिपोर्ट (यू० एस० ए०)–“शिक्षा का उद्देश्य हर व्यक्ति के ज्ञान, रुचियों, आदर्शों, आदतों और शक्तियों का विकास करना है ताकि उसे अपना उचित स्थान मिल सके। और वह उस स्थान का प्रयोग स्वयं तथा समाज को उच्च उद्देश्यों की ओर ले जाने के लिए कर सके।” विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों के विचार, विद्वानों के मत एवं वैयक्तिक-सामाजिक जीवन-दर्शन शिक्षा के विविध उद्देश्य निर्धारित करने की प्रेरणा देते हैं जिनमें से कुछ प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं–
    • वैयक्तिक उद्देश्य,
    • सामाजिक उद्देश्य,
    • व्यावसायिक उद्देश्य,
    • चरित्र-निर्माण का उद्देश्य,
    • ज्ञानार्जन का उद्देश्य,
    • शारीरिक विकास का उद्देश्य,
    • सांस्कृतिक उद्देश्य,
    • जीवन को पूर्णता प्रदान करने का उद्देश्य,
    • सर्वांगीण विकास का उद्देश्य,
    • वातावरण से अनुकूलन का उद्देश्य तथा
    • अवकाश-काल के सदुपयोग का उद्देश्य।

वास्तव में शिक्षा एक प्रयोजन मूलक प्रक्रिया है। निश्चित उद्देश्यों को ध्यान में रखकर दी जाने वाली शिक्षा ही शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों में चेतना जगा सकती है। ऊपर हमने शिक्षा के अनेक उद्देश्यों का उल्लेख किया है। जो प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण होते हुए भी अपूर्ण तथा एकांगी हैं। इनमें से कोई भी एक उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करने में सक्षम नहीं है। वास्तव में, शिक्षा का वही उद्देश्य पूर्ण कहा जाएगा जो व्यक्ति तथा समाज दोनों के हित में हो तथा जो शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास की सतत प्रक्रिया का प्रेरक बन सके।

प्रश्न 2.
शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों का विवाद क्या है? शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य का अर्थ स्पष्ट करते हुए इसके पक्ष तथा विपक्ष में प्रस्तुत किए गए तर्को का उल्लेख कीजिए।
या
शिक्षा के वैयक्तिक विकास के उद्देश्य से आप क्या समझते हैं। शिक्षा के वैयक्तिक विकास के उद्देश्य से आप क्या समझते हैं ?
या
इस परिप्रेक्ष्य में व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए विकास के किन पक्षों पर बल दिया जाता है ?
उत्तर:

शिक्षा के वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्य का विवाद
(Dispute of the Individual and Social Aims of Education)

व्यक्ति और समाज का एक-दूसरे से अटूट सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं और इस प्रकार एक-दूसरे के पूरक भी हैं। व्यक्तियों द्वारा समाज निर्मित होता है और समाज से पृथक् होकर व्यक्ति स्वयं को एकाकी, अशक्त, अयोग्य तथा निष्क्रिय अनुभव करता है। व्यक्ति और समाज के सापेक्षिक महत्त्व के विषय में काफी पहले से ही विभिन्न वैयक्तिक तथा सामाजिक समस्याओं पर विचार-विनिमय एवं वाद-विवाद चला आ रहा है। यह तर्क-वितर्क शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं को लेकर भी रहता है कि शिक्षा का लक्ष्य व्यक्ति है अथवा उसका समाज। शिक्षा के वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्यों के सम्बन्ध में कुछ प्रश्नों को लेकर भारी मतभेद हैं; जैसे—शिक्षा पर पहला अधिकार व्यक्ति का है या समाज का? शिक्षा को व्यक्ति की आवश्यकताएँ पूरी करनी चाहिए या समाज की? शिक्षा व्यक्तियों के निर्माण की प्रक्रिया है या समाज के निर्माण की? आधुनिक विचारधारा शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों का समन्वय प्रस्तुत करती है। इस विचारधारा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का विकास इस भाँति होना चाहिए कि वह समाज के हित में अधिक-से-अधिक सहयोग दे सके।

शिक्षा के वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्यों में विरोध है अथवा समन्वय–इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए। हमें वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्यों का अलग-अलग अध्ययन करना होगा।

वैयक्तिक उद्देश्य
(Individual Aim)

वैयक्तिक उद्देश्य का अर्थ- शिक्षा एक व्यक्तिगत प्रयास है। व्यक्ति को केन्द्र मानकर दी जाने वाली शिक्षा ही वास्तविक एवं वैज्ञानिक शिक्षा है। शिक्षा के माध्यम से बालक के अन्तर्निहित गुणों का विकास होता है। और बालकों का सर्वांगीण विकास समाज की प्रगति का द्योतक है। अत: शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य बालक को स्वतन्त्र रूप से अपनी प्रगति का अवसर देना है। शिक्षा के माध्यम से बालकों की रुचियों, क्षमताओं, प्रवृत्तियों तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ऐसी परिस्थिति पैदा की जानी चाहिए ताकि उनकी वैयक्तिकता का पूर्ण विकास हो और वह भविष्य में सुखमय जीवन बिता सके। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री सुबोध अदावल का कथन इस मत की पुष्टि करता है, “बालक का निजत्व ही उसका जीवन है और वही न रहा तो उसका समूचा जीवन केवल यन्त्र बनकर रह जाएगा।” क्योंकि सृष्टि की समस्त रचनाओं में व्यक्ति ही सर्वश्रेष्ठ एवं प्रधान है; अतः शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तिगत’ ही होना अभीष्ट है।

शिक्षा की प्राचीन विचारधारा शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य की पक्षधर रही है। भारतीय मनीषियों ने व्यक्ति के विकास एवं हित में ही सम्पूर्ण समाज का कल्याण अनुभव किया। यूनान के सोफिस्टों (Sophists) ने भी शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य का ही समर्थन किया। आधुनिक समय में रूसो, फ्रॉबेल, पेस्टालॉजी तथा टी० पी० नन आदि विचारकों ने शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य पर बल दिया है। रूसो ने व्यक्तिगत गुणों को शिक्षा को आधार मानते हुए बालक को केन्द्र मानकर शिक्षा की योजना बनाई। पेस्टालॉजी ने बालक को मनोवैज्ञानिक अध्ययन का विषय बनाकर उसकी नैसर्गिक प्रवृत्तियों पर आधारित शिक्षा-व्यवस्था दी। टी० पी० नन के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य बालक के जन्मजात गुणों का अभिप्रकाशन है। उनकी दृष्टि में शिक्षा की वही योजना उत्तम है जो व्यक्ति की उन्नति में सहयोग देती है। नन लिखते हैं, “वैयक्तिकता ही जीवन का आदर्श है। एक शिक्षा की योजना का मूल्यांकन इस बात पर निर्भर करता है कि उससे किसी व्यक्ति को चरम सीमा की कुशलता प्राप्त करने में कितनी सफलता मिली है?”

यूकेन (Eucken) ने वैयक्तिकता को आध्यात्मिक अर्थ देते हुए कहा है, “वैयक्तिक का अर्थ आध्यात्मिक वैयक्तिकता होना चाहिए, जिसे मनुष्य अपने सामने उपस्थित अन्तर्जगत द्वारा अपनी आन्तरिक शक्ति में वृद्धि कर प्राप्त करता है।

वैयक्तिक उद्देश्य का अर्थ समझाते हुए रॉस ने लिखा है, “शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य का अर्थ जो हमारे स्वीकार करने योग्य है, वह केवल यह है-महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व और आध्यात्मिक वैयक्तिकता का विकास।”

वैयक्तिक उद्देश्य को अर्थ स्पष्ट करने वाले विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों के विचार उसी शिक्षा को उचित एवं लाभकारी बताते हैं जो बालक के व्यक्तिगत विकास को ध्यान में रखकर प्रदान की जाती है। आधुनिक समय में मनोवैज्ञानिक शोधों के निष्कर्ष व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर आधारित शिक्षा का सशक्त समर्थन करते हैं। अतः कहा जा सकता है कि वैयक्तिक उद्देश्य ही शिक्षा का मौलिक एवं प्रमुख उद्देश्य है।

वैयक्तिक उद्देश्य के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क
(Arguments in Favour and Against the Individual Aim)

वैयक्तिक उद्देश्य के समर्थक तथा विरोधी विचारकों ने इसके पक्ष एवं विपक्ष में अपने-अपने तर्क दिए हैं, जो निम्न प्रकार प्रस्तुत हैं–
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प्रश्न 3.
शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य से क्या आशय है? शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य के पक्ष एवं विपक्ष में प्रस्तुत किए गए तक का उल्लेख कीजिए।
या
शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क दीजिए।
या
शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:

सामाजिक उद्देश्य का अर्थ
(Meaning of Social Aims)

प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री रेमण्ट ने लिखा है, “समाजविहीन व्यक्ति कोरी कल्पना है। इसमें सन्देह नहीं कि व्यक्ति समाज के बीच रहकर ही अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है तथा अपना बहुमुखी विकास । कर प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है। समाज के हित में ही व्यक्ति का सभी भाँति हित है और अलग से उसका कोई अस्तित्व भी नहीं है। व्यक्ति और समाज का यह अटूट सम्बन्ध ऐसी शिक्षा का समर्थन करता है। जो समाज का अधिकतम हित कर सके, क्योंकि समाज का विकसित एवं कल्याणकारी स्वरूप स्वयमेव ही व्यक्ति का उत्थान कर देगा। इसके अतिरिक्त समाज अथवा राज्य का स्थान व्यक्ति से कहीं ऊँचा है। इस दृष्टि से शिक्षा का उद्देश्य सामाजिक कल्याण हेतु व्यक्ति को प्रशिक्षित करना है। यही शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य है, जिसे नागरिकता का उद्देश्य (Citizenship Aim) भी कहा जाता है।

शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य व्यक्ति को, आवश्यकता पड़ने पर, समाज के लिए सर्वस्व बलिदान करने की प्रेरणा देता है। विश्व की प्राचीन संस्कृतियों के अन्तर्गत शिक्षा का उद्देश्य नागरिकों को राज्य के हित में अपना सब कुछ न्योछावर करने की भावना पैदा करना था। हीगल तथा काण्ट जैसे विद्वानों ने भी इसी विचारधारा का प्रबल समर्थन किया है।

आधुनिक समय में जॉन डीवी तथा बागले आदि शिक्षाशास्त्रियों के मतानुसार, सामाजिक उद्देश्य को अर्थ सामाजिक कुशलता की प्राप्ति है और तंदनुसार प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक रूप से कुशल तथा दक्ष बनाना ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। सामाजिक रूप से कुशल व्यक्ति में स्वयं अपनी आजीविका चलाने की सामर्थ्य होती है तथा वह आत्मनिर्भर होता है। एक श्रेष्ठ नागरिक के रूप में उसे व्यक्तिगत, सामाजिक, राष्ट्रीय तथा सामाजिक समस्याओं की गहरी समझ होती है और वह राज्य एवं उसके नागरिकों की इच्छाओं व आवश्यकताओं का पूरा सम्मान करता है। जैसा कि स्मिथ ने कहा है, “विद्यालय को विस्तृत कार्य सँभालना चाहिए तथा उसे निश्चित रूप से ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे सामाजिक कृतज्ञता एवं सामुदायिक भक्ति के उत्पन्न और पोषित किए जाने का कार्य हो सके।

शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क
(Arguments in Favour and Against the Social Aim of Education)

शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य के पक्षधर तथा विपक्षी विद्वानों ने इसके समर्थन तथा विरोध में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए हैं–
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प्रश्न 4.
“शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्य परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
या
“शिक्षा के वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्य एक-दूसरे के पूरक हैं।” कैसे ?
उत्तर:

वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्य : एक-दूसरे के पूरक
(Individual and Social Aims : Complementary to Each Other)

शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों की आधारभूत मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि ये दोनों ही उद्देश्य अपनी-अपनी विशिष्टताओं से युक्त होते हुए भी अनेक परिसीमाओं में बँधे हैं। दोनों के ही अपने-अपने गुण तथा दोष हैं। वास्तव में, व्यक्ति और समाज को एक-दूसरे का विरोधी मानने वाले सभी शिक्षाशास्त्रियों ने अपने मत प्रतिपादित करते समय व्यक्ति और समाज को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दे डाला। इसका अच्छा परिणाम नहीं निकला और अन्तत: व्यक्ति एवं समाज दोनों ही पक्षों की पर्याप्त हानि हुई। इस हानि को रोकने की दृष्टि से एक समन्वित विचारधारा के अन्तर्गत अग्रलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देना उपयोगी है–

1. वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्यः एक-दूसरे के पूरक व्यक्ति एवं समाज तथा इन पर आधारित. शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों में से कौन-सा प्रमुख है? इसे लेकर पुराना विवाद है। इस विवाद की समाप्ति के लिए हमें एक मध्य मार्ग चुन लेना चाहिए और दोनों ही पक्षों को एक-दूसरे के समीप लाने का प्रयास करना चाहिए। किसी एक को प्रधानता देकर दूसरे की उपेक्षा करना उचित नहीं है। दोनों को ही समान महत्त्व है। व्यक्तियों के मिलने से समाज बनता है और सामाजिक परम्परा व्यक्ति का निर्माण करती है। दोनों का कहीं कोई विरोध नहीं, अपितु दोनों एक-दूसरे को पूर्ण करने वाली धारणाएँ हैं। मैकाइवर का कथन है, समाजीकरण तथा वैयक्तीकरण एक ही प्रक्रिया के दो पक्ष हैं।” जिस भाँति व्यक्ति’ और ‘समाज’ अपनी प्रगति के लिए एक-दूसरे का सहारा चाहते हैं और एक-दूसरे की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, ठीक वैसे ही शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्य भी एक-दूसरे के पूरक हैं।

2. वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्यों में समन्वय-व्यक्ति और समाज की पारस्परिक घनिष्ठता इतनी है कि उनके बीच कोई सीमा-रेखा नहीं खींची जा सकती। फूलों की माला के विभिन्न फूलों को एक-दूसरे से या अपने ही समूह से कैसे अलग किया जा सकता है? माला तो सभी फूलों का एक समन्वित रूप है। प्रसिद्ध विचारक रॉस (Ross) तथा टी० पी० नन (Nunn) ने वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्यों में समन्वय स्थापित किया है। उनकी दृष्टि में व्यक्ति समाज में रहकर समाज-सेवा द्वारा आत्मानुभूति प्राप्त करता है। उसके व्यक्तित्व का विकास, प्रकाशन एवं मूल्यांकन भी समाज में रहकर ही होता है। रॉस ने व्यक्ति के लिए समाज का महत्त्व बताते हुए लिखा है, “वैयक्तिकता का विकास केवल सामाजिक वातावरण में होता है, जहाँ सामान्य रुचियों और सामान्य क्रियाओं से उसका पोषण हो सकता है। यह भी सच है कि अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्र वातावरण मिलना चाहिए ताकि वह स्वयं को अपनी प्रकृति के अनुसार विकसित कर सके, क्योंकि व्यक्ति और उसका समाज एक-दूसरे के सहयोग से अपना विकास कर सकते हैं। अत: वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों को समन्वयात्मक दृष्टि से व्यावहारिक बनाना उपयुक्त है। पुनः रॉस के ही शब्दों में, “वस्तुतः इस बात में कोई पारस्परिक विरोध नहीं है कि

आत्मानुभूति और समाज-सेवा ये दोनों जीवन तथा शिक्षा के उद्देश्य हैं, क्योंकि वे एक ही हैं।” इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता हैं, कि शिक्षा के वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्यों में कोई विरोध नहीं है। वे एक-दूसरे के पूरक और समन्वग्नक हैं। इस समन्वयवादी विचारधारा के अन्तर्गत शिक्षा की ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें न तो समाजव्यक्ति को अपना दास बना पाए और न व्यक्ति ही इतना स्वतन्त्र हो जाए कि वह सामाजिक विधि-विधानों को ठुकराकर अपनी मनमानी करने लगे। व्यक्ति और समाज की स्वतन्त्रता अपनी परिसीमाओं में उचित है ताकि दोनों का विकास तथा कल्याण हो सके।

प्रश्न 5.
शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य का अर्थ स्पष्ट कीजिए। शिक्षा के इस उद्देश्य के पक्ष तथा विपक्ष में प्रस्तुत किए गए तक का भी उल्लेख कीजिए।
या
शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य से क्या तात्पर्य है ? व्यक्ति और समाज की दृष्टि से इस उद्देश्य की उपयोगिता बताइए।
उत्तर:

शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य का अर्थ
(Meaning of the Vocational Aim of Education)

रोटी, कपड़ा, घर, चिकित्सा और शिक्षा- प्रत्येक व्यक्ति की ये पाँच आधारभूत आवश्यकताएँ हैं जो उसके जन्म से प्रारम्भ होकर मृत्यु तक बनी रहती हैं। स्वयं अपने तथा अपने आश्रितों के लिए इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु व्यक्ति को निश्चय ही कोई-न-कोई व्यवसाय करना पड़ता है। जीविकोपार्जन एवं व्यवसाय की दृष्टि से शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि शिक्षा बालकों को जीविकोपार्जन के लिए सुन्दर, योजनाबद्ध, व्यवस्थित एवं मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार करती है। यही कारण है कि आज के इस आर्थिक युग में शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। आधुनिक युग की औद्योगिक क्रान्ति ने तो व्यावसायिक अथवा जीविकोपार्जन के उद्देश्य को सर्वाधिक श्रेष्ठ एवं उपयोगी बना दिया है।

जॉन डीवी का मत है, “यदि व्यक्ति अपनी जीविका स्वयं नहीं कमा सको तो वह दूसरों के काम पर जीवित रहने वाला अर्थात् परजीवी है और जीवन के बहुमूल्य अनुभव खो रहा है। यही कारण है कि मनुष्य के भौतिक, मानसिक, सांवेगिक, नैतिक तथा चारित्रिक विकास के लिए पर्याप्त धनोपार्जन अनिवार्य है। विशेषकर इस भौतिकवादी समय में व्यक्ति की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति उसके जीवन की पहली शर्त है, जिसे पूरा करने

के लिए मनुष्य को उचित ‘आजीविका या व्यवसाय उपलब्ध कराया जाना चाहिए। टी० रेमण्ट ने लिखा है, प्रत्येक नागरिक को स्वयं और अपने आश्रितों का भरण-पोषण करना आवश्यक है। इस कार्य में शिक्षा मनुष्य की सर्वाधिक सहायता करती है।” हरबर्ट स्पेन्सर ने ठीक ही कहा है, “जीविकोपार्जन के लिए तैयार करना हमारी शिक्षा का आवश्यक अंग है।”

शिक्षा में व्यावसायिक उद्देश्य से अभिप्राय है कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जीवन-यापन के लिए किसी विशेष व्यवसाय का प्रशिक्षण प्रदान किया जाए। ताकि वह उस व्यवसाय में दक्षता एवं कुशलता प्राप्त कर धनोपार्जन कर सके। ऑ० जाकिर हुसैन के शब्द व्यावसायिक उद्देश्य स्पष्ट करते हैं, “राज्य का पहला कार्य यह होना चाहिए कि वह नागरिक को किसी लाभप्रद कार्य के लिए वे समाज में किसी निश्चित कार्य के लिए शिक्षित करना अपनी उद्देश्य बनाए।’ शिक्षा में व्यावसायिक उद्देश्य को मान्यता देने का अर्थ समाज (या राज्य) के बालकों को उनकी आवश्यकताओं, रुचियों, अभिरुचियों, योग्यताओं तथा क्षमताओं के अनुसार किसी व्यवसाय या उत्पादन कार्य को सिखाकर इस योग्य बना देने से है ताकि वे अपनी जीविकोपार्जन भली प्रकार कर सकें। व्यावसायिक उद्देश्य बालक को आजीविका की दृष्टि से आत्मनिर्भर तथा स्वावलम्बी बनाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण एवं सार्थक प्रयास है। अत: इसे जीविकोपार्जन या उपयोगिता का उद्देश्य भी कहा जाता है। कुछ विद्वानों ने इसे दाल-रोटी का उद्देश्य, ह्वाइट-कॉलर उद्देश्य (White-Collar Aim) या ब्लू जैकिट उद्देश्य (Blue Jacket Aim) का नाम दिया है।

व्यावसायिक उद्देश्य के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क
(Arguments in Favour and Against the Vocational Aim)

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व्यावसायिक उद्देश्य की समीक्षा
(Evaluation of Vocational Aim)

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शिक्षा के व्यावसायिक या जीविकोपार्जन उद्देश्य के पक्ष एवं विपक्ष में विभिन्न विचारों का अध्ययन हमें इस सुनिश्चित निष्कर्ष की ओर ले जाता है कि यह उद्देश्य स्वयं में महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी होते हुए भी शिक्षा का , एकमात्र उद्देश्य नहीं है। व्यावसायिक उद्देश्य का दृष्टिकोण किसी प्रकार भी उदार एवं व्यापक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि इसके अन्तर्गत मानव-जीवन के मानसिक, सांवेगिक, नैतिक, चारित्रिक तथा आध्यात्मिक विकास की अवहेलना की जाती है। इस भाँति, कुल मिलाकर मनुष्य का सर्वांगीण विकास बाधित होता है।

यद्यपि व्यावसायिक उद्देश्य व्यक्ति को भौतिक सम्पन्नता प्रदान करता है, किन्तु यह उसे न तो जीवन के उच्च आदर्शों को प्राप्त करने में सहायता देता है और न पूर्ण जीवन के लिए तैयार ही करता है। व्यक्ति के जीने के लिए रोटी आवश्यक है, लेकिन व्यक्ति सिर्फ रोटी के लिए ही नहीं जीता। उसे जीवन की कोमल भावनाओं तथा मानवीय गुणों; जैसे—प्रेम, दया, करुणा, सद्भाव, भ्रातृत्व-भाव, सेवा तथा त्याग की वास्तविक अनुभूति भी होनी चाहिए, तभी वह आत्मानुभूति के माध्यम से जीवन की पूर्णता प्राप्त कर सकेगा। इसके विपरीत, व्यावसायिक शिक्षा मनुष्य को प्राकृतिक वातावरण से परे कृत्रिम एवं नीरस वातावरण में ले जाती

मानव इस सृष्टि की उत्कृष्ट रचना है। यदि शिक्षा मानव-जीवन को यथार्थ, सुन्दर तथा कल्याणकारी बनाने के लिए है तो मानव को किसी व्यवसाय या सिर्फ जीविकोपार्जन के लिए तैयार करना ही शिक्षा का उद्देश्य नहीं हो सकता। शिक्षा का उद्देश्य जीविकोपार्जन के साथ ही व्यक्ति में मानवीय एवं दिव्य गुणों का विकास करना है और यही अभिव्यक्ति हमें स्पेंस रिपोर्ट के इन शब्दों से भी मिलती है, “जीविकोपार्जन की तैयारी हमारी शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।”

प्रश्न 6.
“मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता और सबसे बड़ा रक्षक चरित्र है, शिक्षा नहीं।” हरबर्ट स्पेन्सर के इस कथन की आलोचना कीजिए।
या
“शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य चरित्र का निर्माण है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
शिक्षा के अन्तर्गत चरित्र-निर्माण का उद्देश्य क्यों आवश्यक है?
उत्तर:

मानव-जीवन में चरित्र का महत्त्व
(Importance of Character in Human Life)

एक प्राचीन प्रचलित कहावत् है, ‘यदि धन नष्ट हो गया तो कुछ नष्ट नहीं हुआ, यदि स्वास्थ्य नष्ट हो गया तो कुछ नष्ट हो गया, किन्तु यदि चरित्र नष्ट हो गया तो सभी कुछ नष्ट हो गया।’ (If wealth is lost nothing is lost. If health is lost something is lost. If character is lost everything is lost.) अभिप्राय यह है कि चरित्र व्यक्ति की सर्वाधिक मूल्यवान् वस्तु है। आज व्यक्तिगत, सामूहिक तथा राष्ट्रीय स्तर पर मानवीय मूल्यों का तेजी से पतन हो रहा है, जिससे समाज में दु:ख, तनाव तथा कष्ट बढ़ रहे हैं। इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि चरित्र एवं नैतिक मूल्यों की वृद्धि में आधुनिक शिक्षा प्रणाली का योगदान नगण्य है।

डॉ० राधाकृष्णन का कहना है, “भारत सहित सारे संसार के कष्टों का कारण यह है कि शिक्षा का सम्बन्ध नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति से न रहकर, केवल मस्तिष्क के विकास से रह गया है। वास्तव में राष्ट्र का निर्माण पत्थर की निर्जीव मूर्तियों से नहीं, बल्कि उसके नागरिकों के दृढ़ चरित्र से होता है। चरित्रहीन एवं अनैतिक लोगों की भीड़ आदर्श समाज का निर्माण नहीं कर सकती। वास्तव में, शिक्षा का उद्देश्य शारीरिक व बौद्धिक शक्तियों का विकास ही नहीं है, वरन् उत्तम चरित्र तथा आध्यात्मिकता में प्रतिष्ठित नैतिकता का सृजन करना है। अतः बालकों में समुचित नैतिक आदर्शों का विकास करने की दृष्टि से चरित्र-प्रधान शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए।

शिक्षा का चरित्र-निर्माण का उद्देश्य
(Character-Formation-An Aim of Education)

अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालक के चरित्र का निर्माण बताया है। इस मान्यता के अनुसार बालकों को ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जो उनके चरित्र को सुदृढ़ तथा पवित्र बनाने में सहायक हो और इस भाँति उनका आचरण श्रेष्ठ बन सके। शिक्षा में चरित्र-निर्माण के उद्देश्य का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है

1. चरित्र की महत्ता एवं अपरिहार्यता- विश्वभर में प्राचीनकाल से आज तक मानव व्यक्तित्व के विविध पक्षों के अन्तर्गत चरित्र की प्रतिष्ठा एवं महत्ता सर्वोपरि तथा अक्षुण्ण है। भारतीय धर्मशास्त्रों में कहा गया है—’वृत्तं यत्नेन संरक्षेत वित्तमेति च यातिच’ अर्थात् चरित्र की रक्षा यत्नपूर्वक की जानी चाहिए। धन तो आता है और चला जाता है, किन्तु उत्तम चरित्र मनुष्य का जीवन भर साथ देता है। पाश्चात्य विद्वान् वूल्जे ने कहा है-“संसार में न तो धन का प्रभुत्व है और न बुद्धि का, प्रभुत्व होता है चरित्र और बुद्धि के साथ-साथ उच्च पवित्रता का प्रसिद्ध विचारक बारतोल की दृष्टि में, “सभी धर्म परस्पर भिन्न हैं, क्योंकि उनका निर्माता मनुष्य है; किन्तु चरित्र की महत्ता सर्वत्र एकसमान है, क्योंकि चरित्र ईश्वर बनाता है। वस्तुत: चरित्र उन प्रधान सद्गुणों में से है जिनकी वजह से मानव पशु से श्रेष्ठ समझा जाता है। चरित्रहीन मानव-जीवन पशु से भी अधम जीवन है। अतः मनुष्य के जीवन में चरित्र न केवल महत्त्वपूर्ण, बल्कि अपरिहार्य है।

2. चरित्र क्या है?- चरित्र की महत्ता एवं अपरिहार्यता निश्चय ही यह जिज्ञासा उत्पन्न करती है कि . ‘चरित्र’ क्या है ? बारतोल ने चरित्र की तुलना उस हीरे से की है जो सभी पत्थरों में अधिक मूल्यवान है, किन्तु चरित्र का प्रत्यक्ष सम्बन्ध क्योंकि मानव से है और मानव एक गतिशील, विवेकशील तथा सामाजिक प्राणी है; अत: यहाँ हम चरित्र के दार्शनिक एवं शैक्षिक पक्ष से सम्बन्धित हैं।

कुछ शिक्षाशास्त्री चरित्र का अर्थ आन्तरिक दृढ़ता और व्यक्तित्व की एकता से लगाते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि चरित्रवान् मनुष्य किसी बाहरी दबाव से भयभीत हुए बिना अपने सिद्धान्तों तथा आदर्शों के अनुरूप कार्य करता है, लेकिन उसके सिद्धान्त नैतिक और अनैतिक दोनों ही हो सकते हैं। अत: मात्र चरित्र ही पर्याप्त नहीं है, चरित्र को अनिवार्य रूप से नैतिक होना चाहिए। इस सन्दर्भ में हैण्डरसन लिखते हैं, “इसकी अर्थ यह है कि मनुष्यों को उन सिद्धान्तों के अनुसार काम करना सीखना चाहिए, जिनसे उनमें सर्वोत्तम व्यक्तित्व का विकास हो।” कुछ दार्शनिकों के अनुसार, चरित्र के दो मुख्य आधार-स्तम्भ हैं—नैतिकता एवं आध्यात्मिकता। नैतिक गुणों के अन्तर्गत सत्य, न्याय, ईमानदारी, दया, करुणा, सहानुभूति तथा प्रेम-भावना आदि आते हैं, जिनके समुचित विकास से व्यक्ति श्रेष्ठ एवं नैतिक आचरण करता हुआ सच्चरित्र बनता है। स्पष्टतः चरित्र-निर्माण के उद्देश्य में उत्तम नैतिकता का विकास भी समाहित है। इन समस्त गुणों को, सहज एवं स्वाभाविक रूप से, शैक्षिक प्रक्रिया के माध्यम से उपलब्ध किया जा सकता है।

3. नैतिक चरित्र- निर्माण में शिक्षा की उपयोगिता : सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दृष्टि-नैतिक चरित्र’ मानव का वास्तविक आभूषण है और शिक्षा समाज के लिए सभ्य एवं सुसंस्कृत नागरिक बनाने की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। अत: शिक्षा की प्रक्रिया में व्यक्ति के नैतिक चरित्र-निर्माण का उद्देश्य सहज रूप से समाविष्ट है। शिक्षा के माध्यम से नैतिक एवं चरित्रवान् व्यक्तियों का निर्माण कैसे हो ? यहाँ हम इस विचार-बिन्दु के सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक पक्ष का संक्षिप्त उल्लेख करेंगे

(i) वैदिक शिक्षा और चरित्र-निर्माण-वैदिक काल में शिक्षा का प्रधान उद्देश्य शिक्षार्थियों का चरित्र-निर्माण करना था। मनुस्मृति में सच्चरित्र व्यक्ति को विद्वान् से ऊँचा माना गया है-“उस वेदों के विद्वान् से जिसका जीवन पवित्र नहीं है, वह व्यक्ति कहीं अच्छा है जो सच्चरित्र है, किन्तु वेदों का कम ज्ञान रखता है।”

(ii) गुरुकुलों में चरित्र-निर्माण–प्राचीन समय में गुरुकुलों में चरित्र-निर्माण हेतु छात्रों में नैतिक प्रवृत्तियों का विकास, सदाचार का उपदेश, सद्पुरुषों के महान् आदर्शों का प्रस्तुतीकरण, आत्मसंयम व आत्मनियन्त्रण पर बल, शिक्षालयों का सरल एवं पवित्र वातावरण और कठोर अनुशासन में बँधी दिनचर्या का अभ्यास आदि के माध्यम से 25 वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कराया जाता था।

(iii) भारतीय एवं पाश्चात्य शिक्षाशास्त्रियों का मत- आधुनिक भारत के यशस्वी विचारक स्वामी विवेकानन्द ने उत्तम चरित्र को शिक्षा का मुख्य मानदण्ड मानते हुए कहा है-“यदि आपने स्वच्छ विचारों को ग्रहण कर लिया है, उन्हें अपने जीवन और चरित्र का आधार बना लिया है तो आपने उस व्यक्ति से अधिक शिक्षा ग्रहण कर ली है जिसने सम्पूर्ण पुस्तकालय को कण्ठाग्र कर लिया है। पाश्चात्य जगत् के महान् विचारकों तथा दार्शनिकों ने भी बालक में सच्चरित्रता के विकास को सर्वोच्च महत्ता प्रदान की है। अरस्तू ने शिक्षा का उद्देश्य चरित्र-निर्माण बताया था। जॉन डीवी के अनुसार, “समस्त शिक्षा मानसिक और नैतिक चरित्र से सम्बन्धित है।’

(iv) विचारों का परिष्कार- व्यावहारिक दृष्टि से व्यक्ति का आचरण उसकी रुचियों द्वारा निर्धारित होता है और रुचियों का आधार व्यक्ति के अपने विचार होते हैं। बालक का सदाचरणं उसके विचारों की शुद्धता में निहित है। उत्तम चरित्र एवं आचरण का निर्माण विचारों में परिष्कार (सुधार) द्वारा सम्भव है, जिसके लिए अभीष्ट शिक्षा-प्रणाली की आवश्यकता है।

(v) पाठ्यक्रम द्वारा सदाचार की शिक्षा- विचारों में परिष्कार या सुधार लाने के लिए आवश्यक है कि विद्यालयों के पाठ्यक्रम में अच्छे संस्कार उपजाने वाले विषयों का समावेश किया जाए। धर्मशास्त्र, नैतिक शिक्षा, साहित्य, ललित कलाएँ तथा इतिहास आदि विभिन्न विषयों का ज्ञान बालकों के चरित्र-निर्माण में अधिक सहायक हो सकता है। ऐतिहासिक तथा धार्मिक चरित्रों; यथा-शिव, कृष्ण, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, शिवाजी, राजा हरिश्चन्द्र, श्रवण तथा सुभाषचन्द्र बोस का आदर्श प्रस्तुत कर बालक-बालिकाओं को सदाचारी बनने की प्रेरणा दी जा सकती है।

(vi) शिक्षक का आदर्श चरित्र-शिक्षक का व्यक्तित्व एवं चरित्र शिक्षार्थियों के लिए सबसे अधिक अनुकरणीय तथा प्रभावोत्पादक होता है। कक्षागत परिस्थितियों में शिक्षक-छात्र की अन्त:क्रियाएँ एक-दूसरे को अनेक प्रकार से प्रभावित करती हैं। अत: अनिवार्य रूप से शिक्षक को विषय का ज्ञाता, सरल-उदार एवं आदर्श चरित्र वाला तथा मानव-प्रेमी होना चाहिए।

शिक्षाविद् टी० रेमण्ट ने उचित ही कहा है, “अन्ततोगत्वा शिक्षा का उद्देश्य न तो शारीरिक शक्ति उत्पन्न करना है, न ज्ञान की पूर्ण प्राप्ति करना, न विचारधारा का शुद्धीकरण, बल्कि उसका उद्देश्य चरित्र को शक्तिशाली एवं उज्ज्वल बनाना है।”

शिक्षा के चरित्र-निर्माण के उद्देश्य की समीक्षा
(Evaluation of the Aim of Character-Formation by Education)

विभिन्न विद्वानों ने शिक्षा के चरित्र-निर्माण के उद्देश्य के पक्ष एवं विपक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए विश्व के प्राय: सभी दार्शनिकों, विचारकों तथा शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत चरित्र-निर्माण तथा नैतिक विकास के उद्देश्य को एकमत से स्वीकार किया है। जहाँ एक ओर चरित्र-निर्माण के उद्देश्य के समर्थकों ने इसकी महत्ता तथा उपयोगिता की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया है, वहीं दूसरी ओर इसके आलोचकों ने इसे अपूर्ण, अव्यावहारिक, विवादास्पद, एकांगी तथा अमनोवैज्ञानिक सिद्ध किया है। यह सच है कि मात्र चरित्र-निर्माण की शिक्षा के बल पर ही मानवता का हित नहीं किया जा सकता। व्यक्ति एवं समाज के हित में चरित्र-निर्माण शिक्षा का एक अनुपम आदर्श अवश्य है, किन्तु शिक्षा का परम उद्देश्य नहीं है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
आधुनिक युग में व्यावसायिक उद्देश्य की उपयोगिता एवं महत्त्व का उल्लेख कीजिए।
या
शिक्षा का व्यावसायिक उद्देश्य शिक्षित बेरोजगारी को किस प्रकार समाप्त कर सकेगा ?
या
“शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य पर बल देने की आज देशहित में सख्त जरूरत है।” इस कथन की विवेचना कीजिए।
या
भारत के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शिक्षा का व्यावसायिक उद्देश्य’ अत्यधिक महत्त्व रखता है। स्पष्ट कीजिए।
या
शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य की उपयोगिता बताइट।
या
“शिक्षा जीविकोपार्जन के लिए है।” इस विचार से आप कहाँ तक सहमत हैं? तर्क सहित अपने उत्तर की पुष्टि कीजिए।
या
“देश के वर्तमान परिदृश्य में शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।” स्पष्ट कीजिए।
या
शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य जीविकोपार्जन होना चाहिए।” क्यों?
उत्तर:

आधुनिक युग में शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य की उपयोगिता एवं महत्त्व
(Utility and Importance of Vocational Aims of Education in Modern Age)

आधुनिक युग में शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य की अत्यधिक उपयोगिता एवं महत्त्व है। अब यह माना जाने लगा है कि शिक्षा जीविकोपार्जन के लिए ही है। शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य के अनुसार, शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार से होनी चाहिए कि उसे प्राप्त करके व्यक्ति समाज द्वारा मान्यता प्राप्त किसी व्यवसाय का वरण कर सके। शिक्षा के व्यावसायिक अथवा जीविकोपार्जन सम्बन्धी उद्देश्य के महत्त्व एवं आवश्यकता का विवरण निम्नवत् है

  1. आधुनिक युग भौतिकवादी प्रतिस्पर्धा का युग है। आवश्यकताओं की कोई सीमा नहीं है और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संसाधन चाहिए। इसीलिए समूचा विश्व अधिक-से-अधिक भौतिक संसाधनों को इकट्ठा करने की होड़ में एक अन्तहीन दौड़, दौड़ रहा है। इस स्थिति में शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य का विशेष महत्त्व है।
  2. इस दौड़ में सफल होने के लिए वर्तमान और भावी पीढ़ियों को पर्याप्त शक्ति, स्फूर्ति, जागरूकता एवं प्रशिक्षण की जरूरत है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को आत्मनिर्भरता एवं कार्यकुशलता विकसित करने की दृष्टि से अभीष्ट उत्पादन कार्य से जुड़ना होगा।
  3. देश के बालकों को उत्पादकता से जोड़ने का तात्पर्य उन्हें शिक्षा-प्रक्रिया के अन्तर्गत किसी उपयुक्त एवं अनुकूल उद्योग-धन्धे में प्रशिक्षण देने से है और यही शिक्षा का व्यावसायिक उद्देश्य है।
  4. जब व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त कर देश का प्रत्येक नागरिक आजीविका के क्षेत्र में आत्मनिर्भर • बनेगा तो उसके व्यक्तिगत जीवन का सुख एवं शान्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समाज तथा राष्ट्र की प्रगति में अवश्य ही सहयोग प्रदान करेंगे। इस प्रकार व्यावसायिक उद्देश्य देश की प्रगति का निर्धारक है।
  5. इस उद्देश्य को स्वीकार कर राष्ट्रीय स्तर पर बेरोजगारी की ज्वलन्त समस्या का भी समाधान होगा। उल्लेखनीय रूप से बेरोजगारी, निर्धनता तथा भुखमरी आदि के कारण समाज में अनैतिक कार्य बढ़ते हैं, जिनका अन्त व्यावसायिक शिक्षा द्वारा ही हो सकता है। स्पष्टतः आधुनिक भारत की वर्तमान परिस्थितियों में शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य का वैयक्तिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर विशेष महत्त्व है। वर्तमान समय में हमारे देश में शिक्षित बेरोजगारी की जो गम्भीर समस्या है उस समस्या के निवारण के लिए शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य को प्राथमिकता देनी होगी। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए अब सामान्य रूप से यह माना जाने लगा है कि शिक्षा जीविकोपार्जन के लिए ही है।

प्रश्न 2.
शिक्षा के जीवन की पूर्णता के उद्देश्य से क्या आशय है ?
उत्तर:

शिक्षा के जीवन की पूर्णता के उद्देश्य
(Aim of Completion in Education Life)

शिक्षा के जीवन की पूर्णता के उद्देश्य का अर्थ यह है कि शिक्षा के माध्यम से जीवन के सभी अंगों या पक्षों का विकास किया जाए ताकि व्यक्ति का जीवन पूर्णता की ओर बढ़ सके। व्यक्ति का सर्वांगीण विकासे उसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र और परिस्थिति के लिए तैयार कर देता है। इस भाँति, जीवन के विविध पक्षों से ।। सम्बन्धित ज्ञान से युक्त मानव समाज में अपने अधिकार और कर्तव्यों के प्रति सजग हो जाता है। वह भली प्रकार जानता है कि उसे स्वयं अपने लिए, मित्रों, समुदाय तथा राष्ट्र के लिए क्या-क्या कार्य करने हैं। शिक्षा उसे जीवन के समस्त क्रिया-कलापों को सफलतापूर्वक करने के लिए पूरी तरह तैयार कर देती है। इस उद्देश्य के प्रणेता एवं प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री हरबर्ट स्पेन्सर का कथन है, “शिक्षा को हमें पूर्ण जीवन के नियमों और ढंगों से परिचित कराना चाहिए। शिक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य हमें जीवन के लिए इस प्रकार तैयार करना है कि हम उचित प्रकार का व्यवहार कर सकें और शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा का सदुपयोग कर सकें।”

शिक्षा की प्रक्रिया के अन्तर्गत जीवन की पूर्णता के उद्देश्य की पर्याप्त आलोचना-प्रत्यालोचना हुई है। इसके समर्थन एवं विरोध में विद्वानों ने अनेकानेक तर्क प्रस्तुत किए हैं। उद्देश्य के पक्षधरों की दृष्टि में यह शिक्षा का एक सर्वश्रेष्ठ उद्देश्य है, जब कि आलोचकों ने इसे संकीर्ण, अमनोवैज्ञानिक, अपूर्ण तथा अव्यावहारिक उद्देश्य बताया है। आलोचकों का एक प्रमुख तर्क यह भी है कि शिक्षा में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की अवहेलना कर मानव-निर्माण की बात करना एकांगी तथा निर्मूल विचार है, लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है कि हरबर्ट स्पेन्सर महोदय ने पूर्ण जीवन के उद्देश्य का प्रतिपादन करते समय कहीं भी बालक के चारित्रिक एवं आध्यात्मिक पक्षों के विकास का विरोध नहीं किया है। निष्कर्षत: जीवन की पूर्णता के उद्देश्य के अन्तर्गत यदि हम मानव-जीवन के सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक पक्षों को भी सम्मिलित कर लें तो शिक्षा का पाठ्यक्रम सर्वांगी तथा सर्वोत्कृष्ट बन जाएगा।

प्रश्न 3.
शिक्षा के जीवन की पूर्णता के उद्देश्य के पक्ष में प्रस्तुत किए गए तर्को का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा के जीवन की पूर्णता के उद्देश्य’ के पक्ष में तर्क
(Arguments in Favour of Aims of Completion in Education Life)

शिक्षा के जीवन की पूर्णता के उद्देश्य के पक्ष में मुख्य रूप से निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए गए हैं–

  1. सर्वांगीण एवं व्यापक उद्देश्य- जीवन की पूर्णता का उद्देश्य स्वयं में जीवन के सभी पक्षों को समाहित किए हुए है। यह एकांगी व संकीर्ण न होकर सर्वांगीण व्यापक उद्देश्य है तथा हर प्रकार से श्रेष्ठ है।
  2. समूचे व्यक्तित्व का विकास- इस उद्देश्य के अन्तर्गत मानव व्यक्तित्व के सभी पक्षों का विकास निहित है।
  3. हर परिस्थिति के लिए उपयुक्त-मनुष्य को जीवन में अनेक प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं। यह उद्देश्य उसे हर परिस्थिति में जीने के लिए तैयार करता है तथा सभी कार्यों हेतु उपयुक्त बनाता है। स्वयं स्पेन्सर ने लिखा है, “जिस प्रकार एक घोड़ा अपनी आदतों, माँग, शक्ति और गति के अनुसार कभी गाड़ी खींचने के लिए और कभी दौड़ में दौड़ने के लिए प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार मानव-शक्तियों को सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार पूर्ण रूप से उपयोगी बनाया जाना चाहिए।’
  4. प्राथमिक आवश्यकताओं पर बल-जीवन की पूर्णता का उद्देश्य मानव-जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं को पूरा करने पर बल देता है। इस विषय में ग्रीब्ज़ कहते हैं, “हरबर्ट स्पेन्सर विज्ञानों और जीवन की एक नई योजना की सिफारिश करती है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति सम्बन्धित मूल्यों के अनुसार सब प्रकार के लाभों का आनन्द लेता है।”
  5. मूल्यवान् तत्त्वों पर ध्यान इस उद्देश्य से प्रेरित शिक्षा-पद्धति में वैज्ञानिकता, उपयोगिता तथा सामाजिकता आदि सभी मूल्यवान् तत्त्वों पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया है।
  6. जीवनोपयोगी विषयों का समावेश- इस उद्देश्य के अन्तर्गत मानव-जीवन के लिए उपयोगी प्रायः सभी विषयों; जैसे—साहित्य, सामाजिक शास्त्र, मनोविज्ञान, गृहशास्त्र, विज्ञान तथा कलाओं का समावेश किया गया है।
  7. सभी उद्देश्यों की पूर्ति- जीवन की पूर्णता का उद्देश्य शिक्षा के अन्य सभी उद्देश्यों की पूर्ति कर देता है। उद्देश्य के समर्थन में शेरवुड ऐंडरसन ने लिखा है, “व्यक्ति को जीवन की विभिन्न समस्याओं के लिए तैयार करना शिक्षा का पूर्ण उद्देश्य है या होना चाहिए।”

प्रश्न 4.
शिक्षा के जीवन की पूर्णता के उद्देश्य के विपक्ष में तर्क प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा के जीवन की पूर्णता के उद्देश्य के विपक्ष में तर्क
(Arguments Against Aims of Completion in Education Life)

शिक्षा के जीवन की पूर्णता के उद्देश्य के विपक्ष में मुख्य रूप से निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए गए हैं—

  1. अनिश्चित एवं विवादग्रस्त- यह निश्चित करना ही कठिन है कि जीवन की पूर्णता क्या है ? विभिन्न विचारकों और दार्शनिकों ने जीवन की पूर्णता के विषय में विभिन्न मत प्रतिपादित किए हैं। ऐसे गम्भीर विषय को अनिश्चित एवं विवादग्रस्त विचारों, अनुमानों या अटकलबाजियों द्वारा भली प्रकार नहीं समझा जा सकता।
  2. अध्यात्म एवं नैतिकता की उपेक्षा- यह उद्देश्य पूरी तरह से लौकिक है, क्योंकि हरबर्ट स्पेन्सर ने इसमें अध्यात्म तथा नैतिकता को कोई स्थान नहीं दिया है। अध्यात्म एवं नैतिकता मानव की भावनाओं से जुड़े जीवन के अति महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं, जिनकी किसी भी प्रकार उपेक्षा नहीं की जा सकती। नैतिकता एवं अध्यात्म में प्रतिष्ठित व्यक्ति का जीवन ही भीतर से पवित्र एवं समृद्ध हो सकता है और ऐसा जीवन ही वास्तव में पूर्णता को प्राप्त होता है।
  3. अमनोवैज्ञानिक पाठ्यक्रम- जीवन की पूर्णता के उद्देश्य की प्राप्ति हेतु सुनिश्चित पाठ्यक्रम अमनोवैज्ञानिक है। विषयों के चुनाव को क्रम सर्वथा मानव-मन के प्रतिकूल है। इसके अलावा पाठ्यक्रम के अध्ययन विषय भी बालकों की स्वतन्त्र रुचियों तथा प्रवृत्तियों से मेल नहीं खाते।
  4. बालक के भविष्य की चिन्ता नहीं-हरबर्ट स्पेन्सर द्वारा प्रतिपादित इस उद्देश्य में सिर्फ वर्तमान को ही ध्यान में रखा गया और बालक के भविष्य की चिन्ता नहीं की गई है। सच तो यह है कि मानव-जीवन का वास्तविक एवं एकमात्र उद्देश्य सांसारिक सुखों को प्राप्त करना ही नहीं है, बल्कि दूसरे अर्थात् पारलौकिक जीवन के लिए तैयार होना भी है।
  5. सीमित एवं संकीर्ण-अनेक विद्वानों ने जीवन की पूर्णता के उद्देश्य को शिक्षा के अभीष्ट एवं व्यापक लक्ष्य से हटकर अपूर्ण, सीमित एवं संकीर्ण मनोवृत्ति का द्योतक बताया है।
  6. शैक्षिक आदर्श के प्रतिकूल-जीवन की पूर्णता का उद्देश्य शिक्षा के उच्च एवं सर्वमान्य आदर्शों के इसलिए प्रतिकूल है, क्योंकि इसके अन्तर्गत शिक्षा-योजना में दूसरे विषयों की अपेक्षा कला एवं साहित्य को गौण स्थान दिया गया। साहित्य, कला एवं संगीत की शिक्षा मानव को सभ्य तथा सुसंस्कृत बनाती है, जिसके अभाव में मनुष्य जंगली हो जाएगा।
  7. अव्यावहारिक तथा भ्रामक बालक के वर्तमान तथा आभ्यन्तर की उपेक्षा करने वाली शिक्षा कभी सम्मान के योग्य नहीं हो सकती। यह कथन सर्वथा भ्रामक, अव्यावहारिक तथा असंगत है कि इस उद्देश्य के माध्यम से समस्त उद्देश्यों की प्राप्ति हो सकती है।

प्रश्न 5.
शिक्षा के ‘शारीरिक विकास के उद्देश्य से क्या आशय है ?
उत्तर:

शिक्षा के शारीरिक विकास के उद्देश्य’ का अर्थ
(Meaning of ‘Physical Development’s Aims of Education)

मनुष्य के जीवन के तीन विशिष्ट पक्ष हैं- शरीर, मन और आत्मा। शरीर, मन एवं आत्मा का आधार है और इसीलिए महत्त्वपूर्ण है। कहा जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क रहता है; अत: प्रत्येक देश और काल के अन्तर्गत शारीरिक विकास को शिक्षा का अनिवार्य तथा श्रेष्ठ उद्देश्य माना गया है। शारीरिक विकास के उद्देश्य के पक्षधरों ने ऐसी शिक्षा-व्यवस्था का समर्थन किया है जो बालक को शरीर स्वस्थ, सुन्दर तथा बलशाली बनाने पर विशेष ध्यान देती है।

प्राचीन समय से ही, बहुत-से देशों में, शारीरिक विकास पर पर्याप्त बल दिया गया। लोग आज भी यूनान स्थित स्पार्टा राज्य के वीरों की शौर्य गाथाएँ चाव से सुनते-सुनाते हैं, क्योंकि उस काल में शारीरिक विकास ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य था। विश्व प्रसिद्ध विचारक प्लेटो तथा रूसो ने अपनी शिक्षा-योजना में शारीरिक विकास को मुख्य स्थान दिया। रूसो का कथन है, शारीरिक शक्ति से ही व्यक्ति स्फूर्तिवान् और क्रियाशील बनता है। मनुष्य स्वस्थ शरीर लेकर ही अपने जीवन, परिवार एवं समाज की आवश्यकताएँ पूरी कर सकता है। निर्बल शरीर वाला व्यक्ति न तो अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकता है और न दूसरों की ही। इसके अतिरिक्त, वही राष्ट्र शक्तिशाली कहा जाता है जिसके नागरिक शारीरिक रूप से बलवान् होते हैं। शारीरिक विकास के समर्थन में रेबेले ने ठीक ही कहा है, “स्वास्थ्य के बिना जीवन, जीवन नहीं है। यह केवल स्फूर्तिहीनता तथा वेदना की दशा है, मृत्यु का प्रतिरूप है।”

प्रश्न 6.
शिक्षा के शारीरिक विकास के उद्देश्य के पक्ष में तर्क प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा के शारीरिक विकास के उद्देश्य’ के पक्ष में तर्क :
(Arguments in Favour of ‘Physical Development’s Aims of Education)

शारीरिक विकास के उद्देश्य के समर्थन में विभिन्न विचारकों द्वास निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए गए हैं

  1. सफलता की कुंजी-स्वस्थ शरीर में मानव-जीवन की सफलता का रहस्य निहित है। शारीरिक शक्ति से मनुष्य स्फूर्तिमान, उत्साही एवं क्रियाशील बना रहता है। वह लगातार काम करने की क्षमता रखता है। और अपने कार्यों में सफलता प्राप्त करता है। शारीरिक विकास का उद्देश्य सफल जीवन की कुंजी है।
  2. मानसिक विकास का आधार- शारीरिक विकास, मानसिक विकास का आधार है। अनेक मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है कि कमजोर शरीर मानसिक रोगों को घर बन जाता है। कहते हैं। दुर्बलता दुष्टता को जन्म देती है।” अत: चिन्तन, कल्पना, स्मरण तथा सृजन आदि मानसिक शक्तियों के विकास हेतु स्वस्थ एवं हृष्ट-पुष्ट शरीर एक पूर्व आवश्यकता है।
  3. सामाजिक गुणों की अभिवृद्धि- उत्तम स्वास्थ्य से युक्त व्यक्ति सद्गुणों को प्राप्त करता है। स्वस्थ शरीर चारित्रिक, नैतिक एवं सामाजिक गुणों की अभिवृद्धि में सहायक है। डॉ० जानसन कहते हैं, “स्वास्थ्य को बनाए रखना नैतिक और धार्मिक कर्तव्य है, क्योंकि स्वास्थ्य ही सब सामाजिक गुणों का आधार है।” इसलिए शारीरिक विकास का उद्देश्य प्रशंसनीय है।
  4. वैयक्तिक एवं राष्ट्र का हित- इस उद्देश्य में व्यक्ति एवं राष्ट्र, दोनों का हित समाहित है। शारीरिक विकास से व्यक्ति में शक्ति का संचार होता है और व्यक्तियों की शक्ति से राष्ट्र बलशाली होता है। अतः वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय उत्थान की दृष्टि से शारीरिक विकास का उद्देश्य सर्वमान्य है।

प्रश्न 7.
शिक्षा के ‘शारीरिक विकास के उद्देश्य के विपक्ष में तर्क प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा के शारीरिक विकास के उद्देश्य के विपक्ष में तर्क
(Arguments Against ‘Physical Developments Aims’ of Education)

कुछ विद्वानों ने शारीरिक विकास के उद्देश्ये, की निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर आलोचना की है

  1. एकांगी उद्देश्य- शारीरिक विकास को शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य मानकर चलने से शिक्षा का स्वरूप एकांगी हो जाएगा और इससे बालक के सर्वांगीण विकास में बाधा पहुँचेगी।
  2. पाशविक प्रवृत्तियों को बल- शारीरिक शक्ति पर आवश्यकता से अधिक जोर देने के भयंकर दुष्परिणाम देखने में आए हैं। इस उद्देश्य के अन्तर्गत बालक की पाशविक प्रवृत्तियाँ बलशाली हो उठती हैं, जिससे चारित्रिक, नैतिक एवं मानवीय गुणों का विकास बाधित होता है। इस दृष्टि से शारीरिक उद्देश्य अनुचित है।।
  3. संकीर्ण एवं अपूर्ण उद्देश्य- शिक्षा में शारीरिक विकास का उद्देश्य एक संकीर्ण अधूरा उद्देश्य है। सिर्फ शारीरिक शक्ति, पौरुष एवं बल अर्जित करना ही मानव-जीवन का ध्येय नहीं है। मानव-जीवन का चरम लक्ष्य एवं आदर्श तो जनसेवा के माध्यम से मोक्ष या विमुक्ति है। उपर्युक्त तर्कों के आधार पर विद्वानों ने स्पष्ट किया है कि शिक्षा के शारीरिक विकास के उद्देश्य को एकमात्र उद्देश्य स्वीकार कर लेना उचित नहीं है।

प्रश्न 8.
शिक्षा के सांस्कृतिक विकास के उद्देश्य से क्या आशय है ?
उत्तर:

शिक्षा के सांस्कृतिक विकास के उद्देश्य का अर्थ
(Meaning of Cultural Development of Education)

विश्व के अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा के सांस्कृतिक विकास के उद्देश्य का विशेष महत्त्व प्रतिपादित किया है। सांस्कृतिक उद्देश्य के समर्थकों के मतानुसार, शिक्षा मानव और उसके समाज के सांस्कृतिक उत्थान की सतत प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत मानव साहित्यिक, कलात्मक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अनुभव प्राप्त करता हुआ अपने समुदाय का सभ्य एवं सुसंस्कृत नागरिक बनता है। जो देश, समाज या जाति सांस्कृतिक रूप से जितना उन्नत होती है, जीवन की दौड़ में वह उतना ही आगे बढ़ जाती है।

शिक्षा के सांस्कृतिक उद्देश्य का अर्थ भली प्रकार से समझने के लिए संस्कृति शब्द पर ध्यान देना आवश्यक है। संस्कृति से अभिप्राय है-‘सुधरा हुआ’, ‘परिमार्जित’ या ‘परिष्कृत’। संस्कृति व्यक्ति के ज्ञान, आस्था, विश्वास, रीति-रिवाज, परम्परा, विचारधारा, व्यवहार, रहन-सहन, जीवन-मूल्य एवं आदर्श, साहित्य, कला और भौतिक उपलब्धियों आदि का ऐसा सुन्दर व सन्तुलित समाहार है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता रहता है। ई० बी० टायलर के अनुसार, संस्कृति वेह जटिल समग्रता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, प्रथा तथा अन्य योग्यताएँ व आदतें सम्मिलित होती हैं, जिनको मनुष्य समाज के सदस्य के रूप में प्राप्त करता है। शिक्षा का कार्य व्यक्ति का विकास करना है, ताकि वह अपने चिन्तन, आचरण एवं व्यवहार को परिमार्जित और परिष्कृत कर सके। इस सन्दर्भ में ओटावे का कथन है, “शिक्षा का एक कार्य समाज के सांस्कृतिक मूल्यों और व्यवहार के प्रतिमानों को अपने तरुण व शक्तिशाली सदस्यों को प्रदान करना है।” बालक पर अच्छे संस्कारों का प्रभाव उसके जीवन को अद्भुते, तेजवान् और कल्याणमय बनाता है।

प्रश्न 9.
शिक्षा के सांस्कृतिक विकास के उद्देश्य के पक्ष में प्रस्तुत किए गए तर्को का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा के सांस्कृतिक विकास के उद्देश्य के पक्ष में तर्क
(Arguments in Favour of ‘Cultural Development’s Aims’ of Education)

शिक्षा के सांस्कृतिक विकास के उद्देश्य के पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए गए हैं

  1. सन्तुलित शिक्षा- संस्कृति मानव-जीवन के बाह्य (भौतिक) तथा आन्तरिक (आध्यात्मिक) दोनों ही पक्षों को प्रेरित एवं विकसित करती है। भौतिक दृष्टि से यह मनुष्य के उच्च विचारों, रुचियों, सौन्दर्यानुभूति तथा कलात्मक शक्तियों को प्रेरणा देती है।
  2. अनुभवों से ज्ञान- संस्कृति के अन्तर्गत वे सभी अनुभवं सम्मिलित होते हैं जो मनुष्य जाति ने आदिकाल से अब तक प्राप्त किए हैं। शिक्षा प्रक्रिया के माध्यम से इन अनुभवों को न केवल सुरक्षा मिलती है, बल्कि इनका अधिकतम उपयोग भी होता है। शिक्षा का यह उद्देश्य अनुभवों द्वारा ज्ञान देने का प्रबल पक्षधर
  3. पाशविक वृत्तियों का शोधन- संस्कृति का अर्थ ही परिष्कार या शोधन है। संस्कृति द्वारा मनुष्य की पाशविक वृत्तियों का दमन व शोधन होता है और इस प्रकार उसमें दिव्य मानवीय गुणों का विकास होता है।
  4. जीवनोपयोगी उद्देश्य- शिक्षा के अन्तर्गत सांस्कृतिक विकास का उद्देश्य जीवन के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी विचार है। विभिन्न विद्वानों ने इसका समर्थन किया है। महात्मा गांधी के अनुसार, संस्कृति ही मानव-जीवन की आधारशिला एवं प्रमुख वस्तु है। यह आपके आचरण और व्यक्तिगत व्यवहार की छोटी-से-छोटी बात में व्यक्त होनी चाहिए।’ संस्कृति के उपर्युक्त महत्त्वों को ध्यान में रखते हुए विभिन्न विद्वानों ने स्पष्ट किया है कि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य सांस्कृतिक विकास होना चाहिए।

प्रश्न 10.
शिक्षा के सांस्कृतिक विकास के उद्देश्य के विपक्ष में प्रस्तुत किए गए तर्कों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा के सांस्कृतिक विकास के उद्देश्य के विपक्ष में प्रस्तुत किए गए तर्क
(Arguments Against ‘Cultural Development Aims’ of Education)

इसके विपक्ष में मुख्य रूप से निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए गए हैं—

  1. भ्रामक एवं अक्षम उद्देश्य-संस्कृति’ शब्द आज भी इतना अस्पष्ट, भ्रामक तथा जटिल है कि इसके उपादानों के बारे में कोई सुनिश्चित विचार प्रकट करना प्रायः असम्भव है। उधर समाज में सबसे अधिक सांस्कृतिक रूप से विकसित लोग भी चिन्ताओं, तनावों तथा सन्देहों के शिकार हैं। सच तो यह है कि संस्कृति मानव-मात्र को जीवन के चरम आदर्श एवं मूल्यों को उपलब्ध कराने में पूरी तरह असक्षम रही है। अतः सांस्कृतिक विकास को शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य नहीं बनाया जा सकता।
  2. अमनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक उद्देश्य से प्रेरित शिक्षा- प्रणाली बालक की रुचियों, अभिरुचियों, आदतों तथा भावनाओं का दमन करके उसे केवल सांस्कृतिक प्रतिमानों के अनुसार कार्य करने के लिए। विवश करती है। यह उद्देश्य बालक के स्वतन्त्र विकास में बाधक है और पूर्णत: अमनोवैज्ञानिक है। टी० पी० नन कहते हैं, “राष्ट्रीय रीति-रिवाजों का स्थायीपन वैयक्तिक जीवन को एक तुच्छ वस्तु बना देता है।”
  3. रचनात्मक शक्तियाँ कुण्ठित- बालक की रचनात्मक शक्तियाँ ही उसकी उन्नति की वास्तविक आधारशिला हैं। शिक्षा का सांस्कृतिक पक्ष अपने पुरातन एकरूप तथा स्थायी स्वरूप के कारण शिक्षार्थी की रचनात्मक प्रवृत्तियों को कुण्ठित कर देता है। इसके परिणामस्वरूप बालक अपनी रचनात्मक क्षमताओं का उपयोग भविष्य के निर्माण में नहीं कर पाता।।
  4. संकुचित दृष्टिकोण- शिक्षा का सांस्कृतिक उद्देश्य बार-बार अपने अतीत को दोहराकर कोई विस्तृत एवं सन्तुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत नहीं करता। इसके साथ ही वर्तमान में नव-स्फूर्ति उत्पन्न करने के बजाय यह बीते समय की अरुचिकर एवं अर्थहीन बातों पर ध्यान देता है। स्पष्टतः यह एक संकुचित दृष्टिकोण है।
  5. भावी जीवन की तैयारी नहीं- सांस्कृतिक उद्देश्य बालक को भावी जीवन के लिए तैयार करने में असमर्थ है। संगीत, साहित्य, कला, धर्म, प्रथाओं तथा रीति-रिवाजों की शिक्षा से रोटी-रोजी की समस्या हल नहीं होती। इस तरह यह आजीविका की समस्या का कोई समाधान नहीं करती। वस्तुत: शिक्षा के उद्देश्य द्वारा बालक में वे समस्त क्षमताएँ विकसित की जानी चाहिए जो उसे जीवन के संघर्षों से लोहा लेने की शक्ति तथा साहस दे सकें।

प्रश्न 11.
शिक्षा के ‘अवकाश के सदुपयोग के उद्देश्य से क्या आशय है ?
उत्तर:

शिक्षा के ‘अवकाश के सदुपयोग के उद्देश्य’ का अर्थ
(Meaning of ‘Aims of Good use of Vacations’ of Education)

मनुष्य के जीवन में अवकाश का विशेष महत्त्व है। अवकाश के सदुपयोग से अभिप्राय व्यक्ति द्वारा स्वयं को खाली समय में किसी सुरुचिपूर्ण कार्य में व्यस्त रखना है ताकि उसे आनन्द, शक्ति एवं उत्साह मिल सके। इस उद्देश्य के समर्थक विद्वान् मानते हैं कि प्रत्येक मनुष्य चाहे वह बच्चा हो, युवक-युवती, प्रौढ़ अथवा वृद्ध हो अपने दैनिक कार्यों के बाद पर्याप्त अवकाश (खाली समय) रखता है। इस समय का सदुपयोग करने की दृष्टि से शिक्षा की आवश्यकता होती है। इधर आधुनिक युग में विज्ञान एवं तकनीकी की प्रगति ने मनुष्यों के अवकाश की अवधि बढ़ा दी है। आज कम्प्यूटर तथा रोबोट का समय है। प्रायः सभी मशीनें पूर्णत: स्वचालित हैं, जो न्यूनतम समय में अधिकतम उत्पादन कर काफी समय बचाती हैं। शिक्षा इस खाली समय को काटने का एक सशक्त साधन है। यही कारण है कि अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ‘व्यक्ति को समय का सदुपयोग सिखाना’ स्वीकार किया है।

प्रश्न 12.
शिक्षा के ‘अवकाश के सदुपयोग के उद्देश्य के पक्ष में प्रस्तुत किए गए तक का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा के ‘अवकाश के सदुपयोग के उद्देश्य’ के पक्ष में तर्क
(Arguments in Favour of ‘Aim of Good Use of Vacation’ Education)

अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा को अवकाश के सदुपयोग से जोड़ते हुए इस उद्देश्य के समर्थन में अपने विचार प्रकट किए हैं। ये विचार इस प्रकार हैं

  1. समय का सदुपयोग कहते हैं ‘खाली मस्तिष्क शैतान का घर है। यदि व्यक्ति अवकाश-काल में मस्तिष्क का उपयोग स्वस्थ एवं उपयोगी कार्यों में नहीं करेगा, तो निश्चय ही वह उसे लड़ाई-झगड़ों, मद-व्यसन तथा समाज-विरोधी कार्यों में व्यतीत करेगा। इस उद्देश्य का सबसे पहला कर्तव्य शिक्षा द्वारा व्यक्ति को समय का सदुपयोग सिखाना है।
  2. सृजनात्मक शक्ति का विकास-इस उद्देश्य से अभिप्रेरित लोग अवकाश के समय सृजनात्मक कार्यों में लगे रहते हैं। इसके परिणामस्वरूप जहाँ एक ओर व्यक्तियों की रचनात्मक शक्ति का विकास होता .. है, वहीं दूसरी ओर समाज की भी प्रगति होती है।
  3. स्वास्थ्य एवं स्फूर्ति-कार्यरत व्यक्ति का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है। अवकाश के सदुपयोग से मनुष्य के जीवन में स्फूर्ति, शक्ति व गतिशीलता बनी रहती है।
  4. शिक्षण के साथ मनोरंजन भी- शिक्षा से लोगों का समय बरबाद नहीं होता। खाली समय को रुचिपूर्ण पढ़ाई-लिखाई में व्यतीत कर वे शिक्षण के साथ-साथ अपना मनोरंजन भी करते हैं।
  5. कला एवं सौन्दर्यानुभूति का विकास- शिक्षा का यह उद्देश्य जीवन में कलाओं को प्रोत्साहित करता है, जिसके साथ मनुष्य में सौन्दर्यानुभूति को विकास भी होता है। साहित्य, संगीत, ललित कलाएँ तथा प्रकृति-प्रेम द्वारा मस्तिष्क ताजा एवं सक्रिय होता है। अतः सभी प्रकार से अवकाश के सदुपयोग का उद्देश्य महत्त्वपूर्ण तथा लाभकारी है।

प्रश्न 13.
शिक्षा के अवकाश के सदुपयोग के उद्देश्य के विपक्ष में प्रस्तुत किए गए तर्को का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

शिक्षा के ‘अवकाश के सदुपयोग के उद्देश्य के विपक्ष में तर्क
(Arguments Against ‘Aims of Good Use of Vacation of Education)

शिक्षा के अवकाश के सदुपयोग सम्बन्धी उद्देश्य के विपक्ष में प्रस्तुत किए गए मुख्य तर्क निम्नलिखित

  1. संकुचित उद्देश्य- शिक्षा का यह उद्देश्य संकुचित है। आलोचकों के अनुसार शिक्षा की आवश्यकता सिर्फ उन लोगों को है जिनके पास खाली समय होता है। इस दृष्टि से निरन्तर काम में व्यस्त रहने वाले लोगों को शिक्षा की आवश्यकता ही नहीं है।
  2. धनी एवं विशेष वर्ग तक सीमित-इस उद्देश्य के अनुसार, शिक्षा समाज के धनी और विशिष्ट वर्ग तक ही सीमित रह जाएगी। किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है।
  3. शिक्षा सभी कार्यों के लिए शिक्षा का उद्देश्य प्रत्येक बालक को जीवन के लिए उपयोगी तथा सभी कार्यों के लिए योग्य बनाना है। यह एकमात्र अवकाश काल के लिए ही नहीं है।
  4. अवकाश का उपयोग सन्देहास्पद-शिक्षा के अन्तर्गत अवकाश हेतु प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति अवकाश का सदुपयोग करेगा भी या नहीं, यह एकदम सन्देहास्पद है। उपर्युक्त तक के आधार पर कहा गया है कि अवकाश के सदुपयोग के उद्देश्य’ को शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य निर्धारित करना उचित नहीं है।

अतिलघु उत्तरीय प्रत

प्रश्न 1.
शिक्षा के सामाजिक उद्देश्यों के क्या लाभ हैं?
उत्तर:
शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य समाज के हितों के अनुकूल होते हैं। इन उद्देश्यों के अनुसार की गई शिक्षा-व्यवस्था के परिणामस्वरूप व्यक्ति सामाजिक मान्यताओं, आदर्शों एवं सद्गुणों को आत्मसात कर लेता है तथा समाज के अधिकतम उत्थान एवं विकास के लिए कार्य करता है। इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त । व्यक्ति राष्ट्रहितों को सर्वोपरि मानता है।

प्रश्न 2.
स्पष्ट कीजिए कि शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य साहित्य एवं कलाओं के विकास में बाधक है।
उत्तर:
मानव समाज में साहित्य एवं विभिन्न ललित कलाओं का विशेष महत्त्व है, परन्तु यदि शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य की अवहेलना करके उसके सामाजिक उद्देश्य को प्राथमिकता दी जाए तो उस स्थिति में साहित्य एवं अन्य कलाओं का समुचित विकास नहीं हो पाता। शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य के अन्तर्गत व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, इच्छाओं एवं भावनाओं की उपेक्षा होने के कारण व्यक्तिगत प्रयासों पर ध्यान नहीं दिया जाता। साहित्य, कला तथा संगीत आदि का विकास तभी सम्भव है जब व्यक्ति स्वयं को अभिव्यक्त करने में स्वतन्त्र हो और उसे व्यक्तिगत प्रयासों के माध्यम से अनवरत अभ्यास करने की पूरी छूट हो। शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य के अन्तर्गत यह छूट प्राय: उपलब्ध नहीं होती; अत: हम कह सकते हैं कि शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य साहित्य एवं कलाओं के विकास में बाधक है।

प्रश्न 3.
शिक्षा के व्यक्तिगत उद्देश्य से आप क्या समझते हैं?
या
टिप्पणी लिखिए-शिक्षा का वैयक्तिक उद्देश्य।
उत्तर:
शिक्षा के उस उद्देश्य को शिक्षा का व्यक्तिगत उद्देश्य माना जाता है, जिसमें शिक्षा की व्यवस्था इस ढंग से की जाती है कि उससे व्यक्ति की वैयक्तिकता का अधिक-से-अधिक विकास सम्भव है। इस उद्देश्य के अन्तर्गत बालक को स्वतन्त्र रूप से अपने सर्वांगीण विकास के अवसर प्रदान किए जाते हैं।

प्रश्न 4.
आपके विचार से क्या शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य को शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य माना जा सकता है ?
उत्तर:
शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य के अन्तर्गत व्यक्ति के विकास को प्राथमिकता दी जाती है तथा समाज के विकास की ओर प्राय: कोई ध्यान नहीं दिया जाता; अर्थात् उसकी अवहेलना ही की जाती है। शिक्षा के इस उद्देश्य को शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य स्वीकार कर लेने की स्थिति में व्यक्ति में अहम् भाव का आवश्यकता से अधिक विकास हो जाने की आशंका रहती है। इस दशा में यह आशंका रहती है कि बालक उद्दण्ड न बन जाए। इन परिस्थितियों में कुछ बालक समाज-विरोधी कार्य भी कर सकते हैं। हमारा विचार है। कि यदि शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य को ही शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य स्वीकार कर लिया जाए तो बच्चों में सामाजिक सद्गुणों (अर्थात् सहयोग, सहानुभूति तथा सामाजिक एकता आदि) का समुचित विकास नहीं हो पाता। इन समस्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य को शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य नहीं माना जा सकता।

प्रश्न 5.
आपके विचार से क्या शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य को शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य माना जा सकता है ?
उत्तर:
शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य की मान्यता शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य के विपरीत है। शिक्षा के इस उद्देश्य के अन्तर्गत समाज के अधिक-से-अधिक विकास को शिक्षा का लक्ष्य माना जाता है। इसके विपरीत, व्यक्ति के विकास को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता। इसे सैद्धान्तिक मान्यता को स्वीकार कर लेने पर बालकों के कुण्ठाग्रस्त हो जाने की आशंका रहती है। शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य को प्राथमिकता प्रदान करने की स्थिति में संकीर्ण राष्ट्रीयता की भावना प्रबल हो जाती है तथा व्यापक मानवता की अवहेलना हो जाती है। यही नहीं, शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य को अनावश्यक महत्त्व देने की स्थिति में व्यक्ति के जीवन में संस्कृति, सौन्दर्य, कला, धर्म आदि का महत्त्व घट जाता है तथा इन महत्त्वपूर्ण मूल्यों की अवहेलना होने लगती है। इन समस्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य को शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य नहीं माना जा सकता।

प्रश्न 6.
शिक्षा के शारीरिक विकास के उद्देश्य का तटस्थ मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
शारीरिक शक्ति को मानसिक एवं आत्मिक शक्तियों से अधिक मूल्य देने से समाज में बलशाली व्यक्तियों का एकाधिकार हो जाएगा। शरीर से कमजोर लोगों पर अत्याचार होंगे और उन्हें अमानवीय यातनाओं व शोषण के दुष्चक्र से गुजरना होगा। निश्चय ही शिक्षा का यह उद्देश्य इस आधुनिक, सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज को उस जंगली एवं पाषाण काल में पहुँचा देगा जहाँ से वर्तमान तक आने में कई युग लगे हैं। शरीर के साथ मनुष्य की बुद्धि, चरित्र, नैतिकता, आचरण एवं आत्मा का विकास भी होना चाहिए। डियो लेविस कहते हैं, “स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण सबसे बड़ी सांसारिक समस्या और मानव-जाति की सबसे बड़ी आशा है। इस स्थिति में हम कह सकते हैं कि शारीरिक विकास भी शिक्षा का एक उद्देश्य होना चाहिए, परन्तु शारीरिक विकास को ही शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य स्वीकार नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 7.
“शिक्षा आत्मानुभूति है।” यदि ऐसा है, तो इसके क्या लाभ हैं ?
उत्तर:
शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य का समर्थन करने वाले विद्वानों ने शिक्षा के अर्थ एवं स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है, शिक्षा आत्मानुभूति है। शिक्षा के इस स्वरूप को स्वीकार कर लेने पर व्यक्ति शिक्षा के माध्यम से अपनी निजी विशेषताओं का समुचित विकास कर सकता है। व्यक्ति की मुख्य निजी विशेषताएँ हैं-व्यक्ति की रुचियाँ, प्रवृत्तियाँ तथा विभिन्न आन्तरिक गुण। यदि व्यक्ति अपनी निजी विशेषताओं का समुचित विकास कर लेता है तो वह एक अच्छा नागरिक तथा अच्छा व्यक्ति बन सकता है। यही शिक्षा का प्रमुख लाभ होगा।

निश्चित उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“शिक्षा अर्थपूर्ण और नैतिक क्रिया है। अतः यह कल्पना ही नहीं की जा सकती कि यह उद्देश्यहीन है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
रिवलिन का।

प्रश्न 2.
“उद्देश्यों के ज्ञान के अभाव में शिक्षक उस नाविक के समान है जो अपने लक्ष्य या मंजिल को नहीं जानता और बालक उस पतवारविहीन नौका के समान है जो तट से दूर कहीं बही जा रही है।” यह कथन किसका है ?
उत्तर:
बी० डी० भाटिया का।

प्रश्न 3.
आपके अनुसार शिक्षा का कौन-सा उद्देश्य पूर्ण कहा जाएगा ?
उत्तर:
वास्तव में, शिक्षा का वही उद्देश्य पूर्ण कहा जाएगा जो व्यक्ति तथा समाज दोनों के हित में शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास की सतत प्रक्रिया का प्रेरक बन सके।

प्रश्न 4.
आधुनिक युग में मुख्य रूप से किन शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य कासमर्थन किया है ?
उत्तर:
आधुनिक युग में रूसो, फ्रॉबेल, पेस्टालॉजी तथा टी० पी० नन आदि शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य का समर्थन किया है।

प्रश्न 5 शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य की प्रमुख मान्यता क्या है ?
उत्तर:
शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य के अनुसार शिक्षा का प्रमुख कार्य व्यक्ति की निजी विशेषताओं का अधिकतम विकास करना प्रतिपादित किया गया है।

प्रश्न 6.
शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य के मुख्य प्रतिपादक कौन-कौन-से शिक्षाशास्त्री हैं?
उत्तर:
शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य के मुख्य प्रतिपादक शिक्षाशास्त्री हैं-हरबर्ट स्पेन्सर, जॉन डीवी, टी० रेमण्ट, प्रो० जेम्स तथा स्मिथ।

प्रश्न 7.
शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य की प्रमुख मान्यता का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य के अनुसार शिक्षा का प्रमुख कार्य समाज का अधिकतम उत्थान एवं विकास करना प्रतिपादित किया गया है।

प्रश्न 8.
आपके विचार से वर्तमान परिस्थितियों में शिक्षा का कौन-सा उद्देश्य अधिक लोकप्रिय है?
उत्तर:
वर्तमान परिस्थितियों में शिक्षा का जीविकोपार्जन सम्बन्धी उद्देश्य अधिक लोकप्रिय है।

प्रश्न 9.
शिक्षा के व्यावसायिक अथवा जीविकोपार्जन सम्बन्धी उद्देश्य से क्या आशय है?
उत्तर:
शिक्षा के जीविकोपार्जन सम्बन्धी उद्देश्य के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार से होनी चाहिए कि उसे प्राप्त करके व्यक्ति समाज द्वारा मान्यता प्राप्त किसी व्यवसाय का वरण कर सके।

प्रश्न 10.
शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य को समाज एवं राष्ट्र के लिए क्यों लाभकारी माना जाता है?
उत्तर:
शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य को समाज एवं राष्ट्र के लिए लाभकारी माना जाता है, क्योंकि इस प्रकार की शिक्षा-व्यवस्था से समाज एवं राष्ट्र प्रगति के र्ग पर अग्रसर होता है।

प्रश्न 11.
देश में बेरोजगारी की समस्या किस प्रकार की शिक्षा द्वारा हल हो सकती है?
उतर:
देश में बेरोजगारी की समस्या को व्यावसायिक शिक्षा के द्वारा हल किया जा सकता है।

प्रश्न 12.
यदि शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य को अधिक महत्त्व दिया जाता है तो समाज के अधिकांश व्यक्तियों का दृष्टिकोण कैसा हो जाता है?
उत्तर:
शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य को अधिक महत्त्व देने से अधिकांश व्यक्तियों को दृष्टिकोण क्रमशः भौतिकवादी बन जाता है।

प्रश्न 13.
“मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता और सबसे बड़ा रक्षक चरित्र है, शिक्षा नहीं।” यह कथन किस विद्वान् का है ?
उत्तर:
यह कथन हरबर्ट स्पेन्सर का है।

प्रश्न 14.
शिक्षा के चरित्र-निर्माण सम्बन्धी उद्देश्य के विषय में आपका क्या विचार है ?
उत्तर:
व्यक्ति एवं समाज के हित में चरित्र-निर्माण शिक्षा का एक अनुपम उद्देश्य अवश्य है, किन्तु इसे शिक्षा का मुख्य एवं एकमात्र उद्देश्य नहीं माना जा सकता।

प्रश्न 15.
शिक्षा के जीवन की पूर्णता के उद्देश्य का मुख्य रूप से प्रतिपादन किसने किया है ?
उत्तर:
शिक्षा के जीवन की पूर्णता के उद्देश्य के मुख्य प्रतिपादक हैं-हरबर्ट स्पेन्सर।

प्रश्न 16.
शिक्षा का कौन-सा उद्देश्य सामाजिक कार्यक्षमता को सर्वाधिक महत्त्व देता है ?
उत्तर:
शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य सामाजिक कार्यक्षमता को सर्वाधिक महत्त्व देता है।

प्रश्न 17.
शिक्षा के ज्ञानार्जन सम्बन्धी उद्देश्य का समर्थन मुख्य रूप से किन विद्वानों ने किया है ?
उत्तर:
शिक्षा के ज्ञानार्जन सम्बन्धी उद्देश्य का समर्थन करने वाले मुख्य विद्वान् हैं—सुकरात, प्लेटो, अरस्तू, दान्ते तथा बेकन।

प्रश्न 18.
शिक्षा का कौन-सा उद्देश्य स्व-अनुभूति पर बहुत जोर देता है ?
उत्तर:
सामाजिक उद्देश्य।

प्रश्न 19.
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य–

  1. सुकरात ने शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य को ही शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य माना था।
  2. शिक्षा के व्यक्तिगत विकास और सामाजिक विकास के उद्देश्य परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं।
  3. प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति था।
  4. समाज में भौतिकवादी दृष्टिकोण के विकास के परिणामस्वरूप शिक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य का महत्त्व समाप्त हो गया है।
  5. यदि जीविकोपार्जन को शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य स्वीकार कर लिया जाए तो उस दशा में शिक्षा साधन बन जाती है।

उत्तर:

  1. असत्य,
  2. सत्य,
  3. असत्य,
  4. असत्य,
  5. सत्य।

‘बहुविकल्पीय प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1.
“शिक्षा को उद्देश्य सुख प्राप्त करना है।” यह कथन किसका है?
(क) सुकरात को
(ख) प्लेटो का
(ग) अरस्तू का
(घ) मिल्टन का

प्रश्न 2.
प्राचीन भारत में शिक्षा को उद्देश्य क्या था ?
(क) भौतिक उन्नति
(ख) आध्यात्मिक उन्नति
(ग) राष्ट्रीय सेवा की प्राप्ति
(घ) नागरिकता का विकास

प्रश्न 3.
आधुनिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है:
(क) अवकाश का सदुपयोग
(ख) रोजगार की प्राप्ति।
(ग) सांस्कृतिक विकास
(घ) आध्यात्मिक विकास

प्रश्न 4.
शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य का प्रमुख गुण है
(क) व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन।
(ख) पौरिवारिक संगठन को प्रोत्साहन
(ग) समाजवाद को बढ़ावा।
(घ) छात्रों के व्यक्तित्व का विकास

प्रश्न 5.
“समाजविहीन व्यक्ति कोरी कल्पना है।” यह कथन किसका है?
(क) हार्नी को
(ख) टी० रेमण्ट का
(ग) टी० पी० नन का
(घ) हरबर्ट स्पेन्सर का

प्रश्न 6.
शिक्षा के उद्देश्यों के सन्दर्भ में कौन-सा कथन सत्य है
(क) व्यक्तिगत विकास का उद्देश्य अधिक महत्त्वपूर्ण है।
(ख) शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य अधिक महत्त्वपूर्ण है।
(ग) शिक्षा के व्यक्तिगत और सामाजिक उद्देश्य परस्पर विरोधी हैं।
(घ) शिक्षा के व्यक्तिगत एवं सामाजिक उद्देश्य परस्पर पूरक हैं।

प्रश्न 7.
शिक्षा के किस उद्देश्य के अनुसार शिक्षा का मुख्य कार्य व्यक्ति को उचित व्यवसाय के वरण के योग्य बनाना है?
(क) शिक्षा का ज्ञानार्जन सम्बन्धी उद्देश्य
(ख) शिक्षा का जीवन की पूर्णता सम्बन्धी उद्देश्य
(ग) शिक्षा का व्यावसायिक उद्देश्य
(घ) शिक्षा का शारीरिक विकास सम्बन्धी उद्देश्य

प्रश्न 8.
“यदि व्यक्ति अपनी जीविका स्वयं नहीं कमा सकता तो वह दूसरों के काम पर जीवित रहने वाला अर्थात् परजीवी है और जीवन के बहुमूल्य अनुभव खो रहा है।”यह कथन किस शिक्षाशास्त्री का है?
(क) जॉन डीवी का
(ख) फ्रॉबेल का
(ग) मैडम मॉण्टेसरी को
(घ) महात्मा गांधी का

प्रश्न 9.
निम्नलिखित में से कौन सामाजिक उद्देश्यों से सम्बन्धित नहीं है?
(क) परिवार
(ख) समाज
(ग) धर्म
(घ) राष्ट्र

प्रश्न 10.
शिंक्षा के व्यावसायिक उद्देश्य को शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य मान लेने पर क्या लाभ है?
(क) समाज एवं राष्ट्र प्रगति कर सकता है।
(ख) व्यक्ति के लिए व्यवसाय का वरण सरल हो जाता है।
(ग) व्यक्ति सामान्य रूप से सक्रिय रहता है।
(घ) उपर्युक्त सभी लाभ हैं

प्रश्न 11.
शिक्षा के ‘शारीरिक विकास सम्बन्धी उद्देश्य’ को एकमात्र उद्देश्य मान लेने से क्या हानियाँ हैं?
(क) व्यक्ति की जीविकोपार्जन सम्बन्धी समस्या प्रबल रहती है।
(ख) व्यक्ति के चारित्रिक तथा आध्यात्मिक विकास की अवहेलना होती है।
(ग) व्यक्ति के कुछ महत्त्वपूर्ण पक्षों के विकास की अवहेलना होती है।
(घ) उपर्युक्त सभी हानियाँ हो सकती हैं।

प्रश्न 12.
शिक्षा में सामाजिक दक्षता का उद्देश्य किसने दिया है? या सामाजिक दक्षता का शैक्षिक उद्देश्य किसने दिया है?
(क) प्लेटो ने
(ख) सुकरात ने
(ग) रूसो ने
(घ) डीवी ने

प्रश्न 13.
शिक्षा के वैयक्तिक विकास के उद्देश्य के दो पक्ष हैं।
(क) आत्मानुभूति एवं आत्माभिव्यक्ति
(ख) आत्माभिव्यक्ति एवं आत्म-सम्मान
(ग) आत्मानुभूति एवं आत्मप्रधानता
(घ) आत्माभिव्यक्ति एवं आत्मप्रशंसा
उत्तर:

  1. (ग) अरस्तू का,
  2. (ख) आध्यात्मिक उन्नति,
  3. (ख) रोजगार की प्राप्ति,
  4. (घ) छात्रों के व्यक्तित्व का विकास,
  5. (ख) रेमण्ट का,
  6. (घ) शिक्षा के व्यक्तिगत एवं सामाजिक उद्देश्य परस्पर पूरक हैं,
  7. (ग) शिक्षा का व्यावसायिक उद्देश्य,
  8. (क) जॉन डीवी का,
  9. (क) परिवार,
  10. (घ) उपर्युक्त सभी लाभ हैं,
  11. (घ) उपर्युक्त सभी हानियाँ हो सकती हैं,
  12. (घ) डीवी ने,
  13. (क) आत्मानुभूति एवं आत्माभिव्यक्ति।

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