UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 4 Aims of Education in Present Democratic India (वर्तमान लोकतन्त्रीय भारत में शिक्षा के उद्देश्य)
UP Board Solutions for Class 11 Pedagogy Chapter 4 Aims of Education in Present Democratic India (वर्तमान लोकतन्त्रीय भारत में शिक्षा के उद्देश्य)
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
शिक्षा के उद्देश्यों के निर्धारण के दृष्टिकोण से अपने देश की वर्तमान परिस्थितियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
शिक्षा अपने आप में एक व्यापक प्रक्रिया है। इसके अनेक उद्देश्य महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। इसके उद्देश्य सापेक्ष होते हैं। इसके उद्देश्यों के निर्धारण के लिए सम्बन्धित देशकाल की समस्त परिस्थितियों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। वास्तव में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में शिक्षा के भिन्न-भिन्न उद्देश्यों को प्राथमिकता प्रदान की जाती है।
आधुनिक भारत संक्रमण काल से होकर गुजर रहा है। एक तरफ जहाँ भारतीय समाज की पुरानी मान्यताएँ, सिद्धान्त तथा आदर्श मूल्यहीन होकर पतन की ओर बढ़ रहे हैं, वहाँ दूसरी तरफ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकसित होते नवीन दृष्टिकोण अभी पूर्णतः स्वीकृत नहीं हो पाए हैं। अत: स्थिति उलझन एवं निराशा भरी और विचित्र है। देश के धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षिक आदि सभी क्षेत्रों में भीषण समस्याओं ने जन्म ले लिया है। शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करने के लिए देश की निम्नलिखित परिस्थितियों को ध्यान में रखना आवश्यक है
1. धार्मिक दिशाहीनता- पारम्परिक रूप से भारत प्रारम्भ से ही एक धर्म-प्रधान देश रहा है, किन्तु वर्तमान में धर्म अपना वास्तविक | धार्मिक दिशाहीनता स्वरूप खो चुका है। आजकल धर्म के नाम पर मजहबी झगड़े और चारित्रिक एवं नैतिक पतन साम्प्रदायिक उन्माद ही दिखाई पड़ते हैं। स्वार्थी एवं दिशाहीन धार्मिक, सामाजिक विकृतियाँ एवं नेतृत्व ने समूचे भारत को साम्प्रदायिक विद्वेष की आग में झोंक दिया विखण्डन
2. चारित्रिक एवं नैतिक पतन- देश में चारों ओर छल, फरेब, बेरोजगारी तथा निर्धनता जालसाजी, घूसखोरी तथा भ्रष्टाचार फैला हुआ है। व्यक्ति का आर्थिक विषमताओं के कुप्रभाव चारित्रिक एवं नैतिक पतन समूचे समाज के पतन का कारण बनता जा राजनीतिक नेतृत्वहीनता रहा है। देश के नागरिकों के चरित्र एवं नैतिकता में निरन्तर पतन से 9 सांस्कृतिक विघटन राष्ट्रीय चरित्र का भारी अवमूल्यन हुआ है।
3. सामाजिक विकृतियाँ एवं विखण्डन- अशिक्षा एवं अज्ञानता पड़ोसी देशों से खतरा के कारण आज भी भारतीय समाज में नाना प्रकार की सामाजिक कुप्रथाएँ, रूढ़ियाँ तथा विकृतियाँ व्याप्त हैं। अन्धविश्वास, नारी उत्पीड़न, दहेज-प्रथा, मद्यपान, जूआखोरी जैसे दोषों ने समाज को रोगी बना दिया है। जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद एवं प्रान्तवाद की संकीर्ण विचारधाराओं ने राष्ट्र की एकता और अखण्डता को गम्भीर चुनौती दी है। यदि ये सामाजिक दोष एवं विखण्डनकारी प्रवृत्तियाँ इसी प्रकार बढ़ती रहीं तो एक दिन देश टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।
4. भौतिकवादी मनोवृत्ति- पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के बढ़ते हुए प्रभाव ने भारतीयों के आध्यात्मिक मूल्यों तथा आदर्शों पर गहरी चोट की है। लगता है कि जैसे धर्म का आदि-स्रोत सूखकर शनैः-शनै: भौतिकवाद के रेगिस्तान में बदल रहा है। अधिक-से-अधिक भौतिक सुख और समृद्धि पाने की लालसा में लोग प्राचीन भारतीय संस्कृति को भुला बैठे हैं। भौतिकता की अन्धी दौड़ में जीवन का चरम लक्ष्य उपेक्षित हो रहा है।
5. बेरोजगारी तथा निर्धनता- विभिन्न कारणों से हमारे देश में दिन-प्रतिदिन बेरोजगारी की समस्या बढ़ रही है। शिक्षित तथा अशिक्षित दोनों ही प्रकार के बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही है। बेरोजगारी से समाज में असन्तोष तथा आर्थिक संकट की स्थिति उत्पन्न हो रही है। इसके साथ-ही-साथ समाज के एक बड़े वर्ग में निर्धनता की स्थिति उत्पन्न हो रही है। निर्धनता अपने आप में एक अभिशाप है।।
6. आर्थिक विषमताओं के कुप्रभाव- देश की अर्थव्यवस्था अभूतपूर्व संकट की स्थिति में है। देश के कन्धे विदेशी ऋणों के भार से दबे जा रहे हैं। निर्धनता के दुष्चक्र में फंसे देशवासियों का शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ रहा है। देश के लगभग 60% से अधिक लोग ‘निर्धनता की रेखा से नीचे जीवन बिताने पर मजबूर हैं। शिक्षित एवं अशिक्षित दोनों ही तरह की निरन्तर बढ़ती हुई बेरोजगारी ने युवाओं में विद्रोह को जन्म दिया है, जिसके परिणामस्वरूप आतंकवाद, लूटमार, हत्या तथा डकैती की घटनाएँ बढ़ रही हैं।
7. राजनीतिक नेतृत्वहीनता-वर्तमान समय में राजनीति भ्रष्टाचार एवं स्वार्थ की नीति का पर्याय बन चुकी है। जनकल्याण की भावना से प्रेरित राजनैतिक नेतृत्व शून्यप्रायः है। पदलोलुप नेता वोट बटोरने की खातिर संकीर्ण विचारधारा पर आधारित मनोभावों को भड़काकर जनता को आपस में लड़ा रहे हैं। राज्य और केन्द्र की अस्थिर सरकारों ने देश के सामने आन्तरिक तथा बाहरी, दोनों ही प्रकार की असुरक्षा का संकट उत्पन्न कर दिया है।
8. सांस्कृतिक विघटन- भारत की विश्वप्रसिद्ध सांस्कृतिक धरोहर आज क्रमशः विघटन की ओर है। आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी जगत् के अनमेल संस्कार भारतीयों के दिल-दिमाग पर हावी हो गए हैं, जिससे उनका नैतिक-चरित्र तथा आचरण गिरा है। इस सांस्कृतिक विघटन के कारण मनुष्य-मात्र मानवीय गुणों से हीन होता जा रहा है।
9. शिक्षा की शोचनीय दशा- वर्तमान शिक्षा-प्रणाली की विकृतियों ने उसके सभी अंगों; जैसे—शिक्षक, शिक्षार्थी, पाठ्यक्रम, शिंक्षण-नीति तथा मूल्यांकन-पद्धति को दोषों से भर दिया है। यही कारण है कि आज शैक्षिक प्रक्रिया का उत्पादन. (अर्थात् शिक्षार्थी) वांछित गुणों से युक्त नहीं है और शिक्षा की सम्पूर्ण व्यवस्था में परिवर्तन की माँग उठ रही है।
10. पड़ोसी देशों से खतरा- हमारे देश को अपने पड़ोसी देशों से भी समय-समय पर खतरा बना रहता है। इस कारण हमें अपने सैन्य बल को निरन्तर बढ़ाना पड़ रहा है।
प्रश्न 2.
वर्तमान भारतीय परिस्थितियों में व्यक्ति के दृष्टिकोण से शिक्षा के मुख्य उद्देश्य क्या निर्धारित किए जा सकते हैं ? ‘
या
हमारे देश की वर्तमान व्यवस्था के सन्दर्भ में शिक्षा के उद्देश्य क्या होने चाहिए ?
या
वर्तमान भारत में माध्यमिक शिक्षा के क्या उद्देश्य होने चाहिए ? सविस्तार व्याख्या कीजिए।
या
भारत की वर्तमान सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर आप शिक्षा के किन उद्देश्यों का निर्धारण करेंगे ?
या
आधुनिक लोकतन्त्रीय भारत में शिक्षा के क्या उद्देश्य होने चाहिए ?
या
भारत में उभरते हुए लोकतन्त्र में शिक्षा के क्या उद्देश्य होने चाहिए?
या
भारत की वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार शिक्षा के क्या उद्देश्य होने चाहिए। इनकी विस्तृत विवेचना कीजिए।
या
भारत के वर्तमान सन्दर्भ में शिक्षा के विभिन्न उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। कौन-से उद्देश्य व्यक्तिगत विकास में सहायक हैं ?
उत्तर:
वर्तमान लोकतान्त्रिक भारत की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों के अन्तर्गत भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों का अध्ययन दो आधारों पर किया जा सकता है
(अ) व्यक्ति की दृष्टि से शिक्षा के उद्देश्य तथा
(ब) समाज की दृष्टि से शिक्षा के उद्देश्य।
व्यक्ति की दृष्टि से शिक्षा के उद्देश्य
(Aims of Education According to Man)
व्यक्ति से सम्बन्ध रखने वाले शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हो सकते हैं—
1.शारीरिक विकास- लोकतन्त्र में नागरिकों के शारीरिक विकास एवं स्वास्थ्य की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। स्वस्थ शरीर ही स्वस्थ मस्तिष्क का सूचक है। स्वस्थ व्यक्ति ही परिश्रम के साथ उत्तम कार्य करने की क्षमता रखता है, वही व्यवसाय में सफल हो सकता है जो मानव-मात्र और राष्ट्र की सेवा कर सकता है। यही कारण है कि लोकतन्त्र में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य । व्यक्ति की दृष्टि से शिक्षा। बालकों के शरीर का विकास करना होना चाहिए। विश्वविद्यालय के उद्देश्य शिक्षा आयोग, माध्यमिक शिक्षा आयोग तथा अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने । इस उद्देश्य पर बल दिया है। जवाहरलाल नेहरू के अनुसार, “मेरा विचार है कि जब तक हमारा शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा नहीं होगा, तब। तक हम वास्तव में अधिक मानसिक प्रगति नहीं कर सकते।”चारोत्रक विकास
2. मानसिक विकास- लोकतन्त्र के आदर्श नागरिकों में वकास शारीरिक बल से भी अधिक मानसिक शक्तियों का विकास आवश्यक का विकास समझा जाता है। दुर्भाग्यवश हमारा देश सदियों तक कई विदेशी ताकतों . का गुलाम रहा, जिसके परिणामस्वरूप भारतीयों में स्वतन्त्र चिन्तने, व्यावसायिक कुशलता की उन्नति तर्क एवं आत्मनिर्णय आदि की मानसिक शक्तियाँ क्षीण पड़ गयीं। वर्तमान में इन शक्तियों को विकसित करने की सर्वाधिक आवश्यकता है। अत: हमारी शिक्षा का पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जिसके माध्यम से बालकों के मस्तिष्क व्यापक बनें और उनमें विभिन्न मानसिक शक्तियाँ विकसित हो सकें। प्रसिद्ध विचारक हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार, “मस्तिष्क ही व्यक्ति को अच्छा या बुरा, दुःखी या सुखी, धनी और निर्धन बनाता है।”
3.आध्यात्मिक विकास- महर्षि अरविन्द ने लिखा है, “हम में से हर एक कुछ दैवीय है, कुछ अपना स्वयं का है जो हमें पूर्णता और शक्ति प्राप्त करने का अवसर देता है। हमारा कार्य है इसकी खोज करना, इसे विकसित करना और इसका प्रयोग करना। शिक्षा का उद्देश्य विकसित होने वाली आत्मा को सर्वोत्तम प्रकार से विकास करने में मदद देना तथा श्रेष्ठ कार्य के लिए पूर्ण बनाना, होना चाहिए।” यह सच है कि पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध और लौकिकता के उन्माद में हम भारतीय अध्यात्म के महान् आदर्श को भूल चुके हैं। शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण कार्य आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति, इसके विकास तथा प्रयोग की क्षमता देना है। अतः बालक में आध्यात्मिक गुणों का विकास करना शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए।
4. चारित्रिक विकास-कि सी लोकतन्त्र की उन्नति उसके नागरिकों के आदर्श चरित्र पर निर्भर करती है। आजकल भारतीय जनों के आचार-विचार तथा कर्तव्यों एवं दायित्वों के प्रति उदासीनता का भाव, प्रपंच, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार तथा देशद्रोह जैसी प्रवृत्तियाँ समा गई हैं। इसका परिणाम यह है कि वैयक्तिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर चरित्र का पतन हुआ है। अत: भारतीय शिक्षा प्रणाली में बालकों के चारित्रिक विकास पर सर्वाधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। शिक्षा का उद्देश्य श्रेष्ठ चरित्र का निर्माण होना चाहिए। जैसा कि डॉ० जाकिर हुसैन का विचार है, “हमारे शिक्षा-कार्य का पुनर्संगठन और व्यक्तियों का नैतिक पुनरुत्थान एक-दूसरे में अविच्छिन्न रूप से गुंथे हुए हैं।”
5. व्यक्तित्व का विकास-भारत जैसी लोकतान्त्रिक शासन-पद्धति के अन्तर्गत शिक्षा का एक अपरिहार्य उद्देश्य बालक के व्यक्तित्व का विकास करना है। बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करने के लिए उसकी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, चारित्रिक, रचनात्मक तथा कलात्मक आदि सभी शक्तियों का समुचित प्रयोग किया जाना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि शिक्षा बालक की मनोवैज्ञानिक, भावात्मक, सामाजिक तथा व्यावहारिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे और उसमें अच्छी रुचियों का निर्माण करे। यह तभी सम्भव है जब शिक्षा के पाठ्यक्रम को इस प्रकार सुगठित किया जाए जिससे कि शिक्षार्थियों में साहित्य, कला, ” हस्तकौशल, नृत्य तथा संगीत आदि के प्रति अनुराग उत्पन्न हो सके।
6. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास- आधुनिक युग में विज्ञान एवं तकनीक का विकास किसी भी अर्थव्यवस्था की उन्नति का मूलतन्त्र है। विश्व का हर कोई फ्रगतिशील देश विज्ञान का सहारा लेकर ही आगे बढ़ रहा है। अतः शिक्षा का उद्देश्य शिक्षार्थियों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा अभिवृत्तियों का विकास करना होना चाहिए। नि:सन्देह तर्क पर आधारित विज्ञान की शिक्षा ही भारतीयों को अन्धविश्वासों, आधारहीन मान्यताओं, कूप-मण्डूकता तथा रुग्ण विचारों से मुक्ति दिला सकती है। स्वामी विवेकानन्द का कथन है-“हमारे लिए पश्चिमी विज्ञान का अध्ययन आवश्यक है। हमें तकनीकी शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे हमारे देश के उद्योगों का विकास होगा।’
7. व्यावसायिक कुशलता की उन्नति- बालकों की व्यावसायिक कुशलता में उन्नति लाना लोकतान्त्रिक देश की शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। शिक्षार्थियों को व्यावसायिक शिक्षा के सैद्धान्तिक तथा क्रियात्मक दोनों ही पक्षों का पर्याप्त ज्ञान सुलभ कराया जाए। शिक्षा के दौरान ही वे इस तथ्य को अच्छी प्रकार समझ लें कि उनके देश की उन्नति सिर्फ कार्य द्वारा सम्भव है तथा शिक्षा की समाप्ति के बाद जब वे किसी व्यवसाय में लगें तो उसे कुशलता के साथ पूर्ण करने का प्रयत्न करें। अतः शिक्षा को छात्रों की व्यावसायिक कुशलता की उन्नति पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। भारत की वर्तमान आर्थिक परिस्थितियों में शिक्षा के व्यावसायिक कुशलता सम्बन्धी उद्देश्य का विशेष महत्त्व है।
8. जीवन-यापन की कला का विकास- भारतीय शिक्षा का यह उद्देश्य होना चाहिए कि वह बालकों को समाज में जीवन-यापन की कला में दीक्षित करे। सर्वमान्य रूप से मनुष्य अकेला रहकर जीवन का सुख नहीं पा सकता। अपने सर्वांगीण विकास तथा समाज के हित के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति दूसरे लोगों के साथ रहने तथा उन्हें सहयोग देने का महत्त्व समझे। बालक को जीवन-यापन का प्रशिक्षण देने सम्बन्धी शिक्षा के उद्देश्य के बारे में डॉ० राधाकृष्णन ने लिखा है, “हमें युवकों को यथासम्भव सर्वोत्तम प्रकार के सर्व कार्यकुशल, व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए। उन्हें शिष्टाचार और सम्मान के अलिखित नियमों को अपनी इच्छा से मानना एवं सीखना चाहिए।”
9. अवकाश का सदुपयोग- लोकतन्त्रीय शिक्षा-प्रणाली को एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह भी होना चाहिए कि वह हमें समय का सदुपयोग करना सिखाए। सम्भवतः हम भारतीय लोग समय का जितना दुरुपयोग करते हैं, उतना दुनिया के किसी भी देश के लोग नहीं करते। अवकाश काल में अनर्गल बातें करना, उद्देश्यहीन इधर-उधर घूमना, दूसरों के अहित की कामना करना या फिर क्षुद्र राजनीति का शिकार होना–ऐसी बातों से मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता। अवकाश के समय में भी व्यक्ति को किसी-न-किसी सत्कर्म में रत रहना चाहिए। नैपोलियन के इन शब्दों ने फ्रांस के छात्रों को प्रेरणा से भर दिया था, “अपने अवसरों से लाभ उठाओ, प्रत्येक घण्टा जो तुम अब तक नष्ट कर चुके हो वह तुम्हारे भावी दुर्भाग्य को मौका देता है। अतः अवकाश का उचित उपयोग सिखाना शिक्षा का परम कर्तव्य है।
10. सांस्कृतिक विकास- भारत देश की संस्कृति ने सदैव ही विश्व में इस धरती का मस्तक ऊँचा किया है। संस्कृति की सामंजस्य एवं समन्वयवादी विशेषता के कारण अगणित झंझावातों से निकलकर आज भी भारतीय समाज अखण्ड एवं अक्षुण्ण बना है, किन्तु दुर्भाग्यवश पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण भारतवासी अपनी बहुमूल्य संस्कृति को हीन समझने लगे हैं। परिणामतः भारतीय समाज की सांस्कृतिक स्थिति डगमगा गई है। स्पष्टतः वर्तमान भारत में सांस्कृतिक पुनरुत्थान की दृष्टि से शिक्षा में सांस्कृतिक विकास के उद्देश्य को उच्च एवं सम्मानयुक्त स्थान देना होगा। प्रश्न 3 वर्तमान भारतीय परिस्थितियों में समाज के दृष्टिकोण से शिक्षा के मुख्य उद्देश्य क्या निर्धारित किए जा सकते हैं ?
समाज के दृष्टिकोण से शिक्षा के उद्देश्य
(Aims of Education According to Society)
वर्तमान भारत का धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वातावरण विभिन्न प्रकार की कुप्रवृत्तियों, शोषण एवं उत्पीड़न के कारण विषाक्त है। यदि हमें एक सुन्दर समाज की स्थापना करनी है, तो आवश्यक रूप से शिक्षा के ढाँचे में आमूल परिवर्तन करना होगा। इसके लिए शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य निश्चित । किए जा सकते हैं।
1. लोकतान्त्रिक नागरिकता का विकास- विश्व का प्रत्येक लोकतन्त्र अपने नागरिकों की श्रेष्ठता पर निर्भर करता है। अतः लोकतन्त्र में हर एक व्यक्ति को उत्तम नागरिकता के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। उत्तम नागरिकता के लिए आवश्यक मानसिक, सामाजिक और नैतिक गुण व्यक्ति में तभी विकसित होते हैं, जब–
- वह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं समाज के दृष्टिकोण से शिक्षा के का समाधान स्वतन्त्रतापूर्वक खोज सके,
- अपने कार्य की विधि को स्वयं निश्चित कर सके और
- उसमें स्पष्ट रूप से विचार व्यक्त करने की क्षमता हो। अत: अच्छे नागरिक को मानसिक
दृष्टि से स्वस्थ, योग्यता से युक्त, तर्कशील, विवेकपूर्ण तथा स्पष्ट वक्ता होना चाहिए। इन समस्त विशेषताओं वाला नागरिक ही अन्त शोषण एवं कुरीतियों का साहसपूर्वक विरोध करता हुआ का विकास सामाजिक दोषों को दूर करने में सफल हो सकता है। लोकतन्त्र जन-शिक्षा की व्यवस्था को सफल बनाने के लिए नागरिकों में लेखन और भाषण की स्पष्टता का होना भी अनिवार्य है, क्योंकि स्वतन्त्र विचार-विनिमय एवं वाद-विवाद ही लोकतन्त्र के वास्तविक भावात्मक एकता आधार हैं। उत्तम नागरिकता के लिए अपरिहार्य तथा उपर्युक्त सभी नि:स्वार्थ कार्य की भावना का विकास गुण व्यक्ति में स्वयं ही नहीं आ जाते, अपितु इन्हें शिक्षा द्वारा अन्तर-सांस्कृतिक भावना का विकास उत्पन्न किया जाता है। अत: लोकतन्त्रीय नागरिकता का विकास शिक्षा का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है।
2.समाजवादी समाज की स्थापना- स्वतन्त्र भारत एक सुन्दर “समाजवादी समाज की स्थापना का स्वप्ने मन में सँजोए हुए है। इस अनोखी समाज-व्यवस्था में–
- प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक वे आर्थिक सुरक्षा प्रदान की जाएगी,
- सभी को स्वस्थ जीवन व्यतीत करने के समान अवसर प्रदान किए जाएँगे तथा
- जीवन के किसी भी क्षेत्र में असमानता की भावना न होगी।
स्पष्टत: यह भारतीय समाज का नवीन दिशा में रूप परिवर्तन होगा और यह परिवर्तन सिर्फ शिक्षा के माध्यम से ही लाना सम्भव है। इसीलिए शिक्षा का यह उद्देश्य होना चाहिए कि वह बालकों में नई सामाजिक व्यवस्था के प्रति प्रेम एवं सद्भाव पैदा करे तथा भारतीय समाज के प्रत्येक सदस्य को समाजवादी समाज के सिद्धान्तों की ओर ले जाए। नेहरू जी का विचार था, “मैं समाजवादी राज्य में विश्वास करता हूँ और चाहता हूँ कि शिक्षा का इस उद्देश्य की तरफ विकास किया जाए।
3. सामाजिक कुप्रथाओं का अन्त- आधुनिक भारतीय समाज में अनेक प्रकार की सामाजिक कुप्रथाएँ व्याप्त हैं, जिनमें जाति-प्रथा, परदा-प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-पुनर्विवाह निषेध तथा अस्पृश्यता आदि प्रमुख हैं। सुन्दर समाज की स्थापना तथा सामाजिक प्रगति के विचार से उचित शिक्षा द्वारा सभी कुप्रथाओं का अन्त करना होगा। इस सम्बन्ध में नेहरू जी का यह कथन उल्लेखनीय है, “मैं चाहता हूँ कि धर्म या जाति, भाषा या प्रान्त के नाम में जो संकीर्ण संघर्ष आजकल चल रहे हैं, वे समाप्त हो जाएँ और वर्गविहीन तथा जातिविहीन समाज का निर्माण हो जिसमें हर एक व्यक्ति को अपने गुण और योग्यता के अनुसार उन्नति करने का पूरा अवसर मिले। निष्कर्षत: भारतीय शिक्षा का उद्देश्य प्रचलित सामाजिक कुप्रथाओं का अन्त करना होना चाहिए।’
4. सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना का विकास- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे अपनी अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज के अन्य व्यक्तियों पर निर्भर रहना पड़ता है। वस्तुत: व्यक्ति की शारीरिक, बौद्धिक तथा आत्मिक आवश्यकताओं को समाज के दूसरे सदस्य ही पूरा करते हैं। इस प्रकार से समाज के प्रत्येक व्यक्ति के कन्धे पर अनेक सामाजिक उत्तरदायित्व आ जाते हैं। इस दृष्टि से यह आवश्यक हो जाता है कि व्यक्ति सभी के साथ मिलकर समाज के जीवन को भौतिक एवं नैतिक रूप से उत्तम बनाने का दायित्व ले। लोगों में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना का विकास करने का कार्य शिक्षा ही करती है। डॉ० जाकिर हुसैन लिखते हैं, “सामुदायिक उत्तरदायित्व की शिक्षा देने के लिए स्वयं शिक्षा संस्थाओं को सामुदायिक जीवन की इकाइयों के रूप में संगठित किया जाना चाहिए।’
5. जन-शिक्षा की व्यवस्था—भारतीय समाज की निर्धनता, पिछड़ेपन, बदहाली, संकीर्ण मनोवृत्ति तथा अवनति का मूल कारण राष्ट्रव्यापी निरक्षरता है। लोकतान्त्रिक शासन-पद्धति में शिक्षित नागरिक ही देश की उन्नति कर सकते हैं, लेकिन देश के बहुसंख्यक लोग अशिक्षित हैं। अत: देश में जन-शिक्षा की प्रभावपूर्ण एवं श्रेष्ठ व्यवस्था की जानी चाहिए। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, “मेरे विचार से जनता की अवहेलना महान् राष्ट्रीय पाप है। कोई भी राजनीति उस समय तक सफल नहीं होगी, जब तक कि भारत की जनता एक बार पुनः अच्छी तरह शिक्षित न हो जाएगी।
6. नेतृत्व के गुणों का विकास- माध्यमिक शिक्षा आयोग की दृष्टि में-“लोकतान्त्रिक भारत में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य व्यक्तियों में नेतृत्व के गुणों का विकास करना है।” लोकतन्त्र का कार्य सबसे बुद्धिमान् निर्वाचित नागरिकों के नेतृत्व में सबकी प्रगति करना है। यदि बालकों को उचित शिक्षा द्वारा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों; जैसे-धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, औद्योगिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक–में आवश्यक प्रशिक्षण नहीं दिया जाएगा तो वे भारत के भावी समाज को नेतृत्व न दे सकेंगे। निश्चय ही, शिक्षा का एक विशिष्ट उद्देश्य शिक्षार्थियों में नेतृत्व के गुणों का विकास करना है।
7.भावात्मक एकता- भावात्मक एकता से अभिप्राय देश के विभिन्न क्षेत्रों के व्यक्तियों को भावात्मक रूप से एक रखने से है। जीवन के कुछ ऐसे मूल्य होते हैं जिन्हें ‘राष्ट्र के रूप में सामान्य समझा जाता है। भावात्मक एकता ऐसे ही मूल्यों की भावात्मक चेतना और उन सब मूल्यों के प्रति भावनाओं के विकास का नाम है। वर्तमान भारत में जो सांस्कृतिक संघर्ष चल रहे हैं उन्हें कम करने में भावात्मक एकता सशक्त भूमिका निभा सकती है। भावात्मक एकता प्राप्त करने के लिए भारत के लोगों को समान रूप में सोचने-समझने, कार्य करने, समान जीवन के ढंग स्वीकार करने, विभिन्न धर्मों में समान आधार खोजने, समान सार्वजनिक परम्पराओं को अपनाने तथा समान भाषा को स्वीकार करने के लिए प्रशिक्षित करना होगा। इस दिशा में शिक्षा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकती है। सर्वमान्य रूप से लोकतान्त्रिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य देश के बालकों को भावात्मक एकता की प्राप्ति के लिए प्रचेष्ट करना है।
8. निःस्वार्थ कार्य की भावना का विकास- भौतिकवादी पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के प्रभाव ने नि:स्वार्थ त्याग के प्रतीक महर्षि दधीचि के देश भारत को स्वार्थपरता की भावनाओं से भर दिया है। हर कोई स्वार्थसिद्धि की आशा लेकर ही कार्य करता है। जिनसे स्वार्थ पूरा होने की आशा नहीं होती, उनसे बात तक नहीं की जाती और मतलब निकल जाने पर फिर कोई सम्बन्ध भी रखना नहीं चाहता। स्वार्थपरता की प्रबल भावना लोगों के मस्तिष्क में दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है, लेकिन ऐसी भावना मानवीय मूल्यों के एकदम विरुद्ध है। अतः शिक्षा के माध्यम से देशवासियों में नि:स्वार्थ भाव से कार्य करने की भावना का विकास करने की आवश्यकता है। जैसा कि डॉ० राधाकृष्णन ने लिखा है, “भारतमाता आपसे आशा करती है कि आपका जीवन शुद्ध, श्रेष्ठ और नि:स्वार्थ कार्य के लिए अर्पित हो।”
9. अन्तर-सांस्कृतिक भावना का विकास- हमारे देश में अनादिकाल में विभिन्न सांस्कृतिक धाराएँ प्रवाहित होती रही हैं। दूसरे शब्दों में, भारतीय संस्कृति अनेक संस्कृतियों का सुन्दर समाहार है। हमारी संस्कृति की इसी विशेषता ने उसे विश्व की अन्य संस्कृतियों से पृथक् एवं विशिष्ट बना दिया है। प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है कि वह विश्व के अन्य देशों की संस्कृतियों को समझे और उन्हें उचित सम्मान दे। इस कार्य में शिक्षा को सबसे अधिक योगदान करना होगा। उदाहरण के लिए–(i) शैक्षिक पाठ्यक्रम के अन्तर्गत बालकों को देश के विभिन्न भागों तथा विश्व की विविध संस्कृतियों का ज्ञान दिया जाए, (ii) विश्व इतिहास के अध्ययन पर जोर दिया जाए, (iii) देश के विश्वविद्यालय समय-समय पर सांस्कृतिक संगोष्ठियों का आयोजन करें, (iv) सभी राज्यों के शिक्षक परस्पर ज्ञान का विनिमय करें तथा (v) विश्व के सांस्कृतिक-मण्डलों, नृत्यकारों, लेखकों, संगीतज्ञों तथा कलाकारों के बीच ज्ञान एवं कलाओं के आदान-प्रदान की सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ।।
10. विश्व-बन्धुत्व की भावना- आधुनिक युग विश्व-बन्धुत्व की ओर बढ़ रहा है। ज्ञान, विज्ञान एवं तकनीकी की उन्नति ने समूचे भूमण्डल को एक इकाई का रूप दे दिया है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में, संसार से अलग रहकरे भारत समय के साथ कदम नहीं मिला सकेगा; अत: अन्तर्राष्ट्रीय ज्ञान एवं सद्भावना का विकास प्रगति का वास्तविक मानदण्ड बन गया है। पण्डित नेहरू के शब्दों में, “प्राचीन संसार बदल गया है और प्राचीन बाधाएँ समाप्त होती जा रही हैं। जीवन अधिक अन्तर्राष्ट्रीय होता जा रहा है। हमें आने वाली अन्तर्राष्ट्रीयता में अपनी भूमिका अदा करनी है। इस कार्य के लिए, संसार से सम्पर्क आवश्यक है। अतएव यह कार्य शिक्षा द्वारा प्रभावशाली ढंग से किया जाना चाहिए।’
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
वर्तमान भारतीय सन्दर्भ में शैक्षिक आवश्यकताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
शैक्षिक आवश्यकताएँ
(Educational Needs)
माध्यमिक शिक्षा आयोग ने भारत में समाजवादी समाज की स्थापना के लिए देश की शैक्षिक आवश्यकताओं को इस प्रकार बताया है
1. बहुआयामी समस्याओं का समाधान- आज भारत धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षिक आदि गम्भीर बहुआयामी समस्याओं के साथ जूझ रहा है। शिक्षाशास्त्रियों के अनुसार इनमें से अधिकांश समस्याओं का समाधान उपयुक्त शिक्षा द्वारा ही सम्भव है।
2. नैतिक-चरित्र एवं सदगुणों का विकास- चरित्रवान्, नैतिक तथा मानवीय गुणों से युक्त नागरिक बनना किसी लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की पहली आवश्यकता है। श्रेष्ठ नागरिक ही स्वस्थ वे प्रगतिशील विचार रखते हैं। वे अपने अधिकार व उत्तरदायित्वों के प्रति भी सजग होते हैं। अत: उत्कृष्ट शिक्षा के माध्यम से नागरिकों में उत्तम चरित्र, आदतों, अभिरुचियों तथा नैतिक गुणों का विकास किया जाना चाहिए।
3. आर्थिक समृद्धि- भारत प्राकृतिक साधनों से सम्पन्न, किन्तु एक निर्धन अर्थव्यवस्था वाला देश है, जिसकी अधिकांश जनता दरिद्र है। वर्तमान समय में देश के आर्थिक, तकनीकी व औद्योगिक विकास द्वारा सर्वप्रथम, निर्धनता तथा बेरोजगारी की समस्या का समाधान आवश्यक है। शिक्षा द्वारा देशवासियों की उत्पादन-शक्ति में वृद्धि कर राष्ट्रीय आय बढ़ाई जानी चाहिए, ताकि लोगों के रहन-सहन का स्तर ऊँचा हो सके। स्पष्टतः आर्थिक समृद्धि का विचार उचित शिक्षा के साथ जुड़ा है।
4. सांस्कृतिक पुनरुत्थान- भारत की अधिकांश जनता रोजी-रोटी की समस्या में इस तरह उलझी हुई है कि उसके पास सांस्कृतिक कार्यों की ओर ध्यान देने का समय ही नहीं है। देश में सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए वर्तमान शिक्षा पद्धति में वांछित एवं आवश्यक सुधार किए जाने चाहिए। प्रश्न 2 “हमारे देश में शिक्षा को बहु-उद्देशीय होना चाहिए।” इस विषय में आपके क्या विचार हैं? ट
भारतीय शिक्षा को बहुउद्देशीय होना चाहिए
(Indian Educations should be Multi-Aimed)
किसी भी देश की शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण उस देश की विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही किया जाता है। हमारे देश की वर्तमान परिस्थितियाँ अत्यधिक जटिल तथा कुछ विशेष प्रकार की हैं। इन परिस्थितियों में यदि शिक्षा के किसी एक या दो उद्देश्यों को ही प्राथमिकता दी जाए तो शिक्षा अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकती। इस स्थिति में हम कह सकते हैं कि हमारे देश में शिक्षा को बहु-उद्देशीय होना चाहिए। इसी तथ्य को डॉ० सुबोध अदावल ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है, “भारतीय व्यक्ति तथा समाज के सर्वांगीण विकास के निमित्त शिक्षा में विभिन्न उद्देश्यों का महत्त्व समान रूप से है। हमारी शिक्षा एक सीमित उद्देश्य को लेकर व्यक्ति तथा राष्ट्र की सब समस्याओं को नहीं सुलझा सकती। हमारा जीवन जितना विविध दिशाओं में उन्मुख और व्यापक है, शिक्षा का उद्देश्य भी उतना ही विषद् और आकर्षक होना चाहिए। हमें व्यक्ति तथा समाज की उन्नति के लिए अपना प्रयत्न विविध दिशाओं में आयोजित करना पड़ेगा और शिक्षा के बहु-उद्देश्य ही इस कार्य में सफल हो सकते हैं।”
प्रश्न 3.
विभिन्न शिक्षा आयोगों के सुझावानुसार वर्तमान भारत में शिक्षा के उद्देश्यों का उल्लेख : कीजिए।
उत्तर:
शिक्षा आयोगों के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
(Aims of Education According to Éducation Commissions)
स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत की केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों ने शिक्षा-व्यवस्था के पुनर्गठन एवं निर्माण हेतु समय-समय पर शिक्षा आयोगों का गठन किया। इन आयोगों द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों तथा साधनों पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया गया, जिसका प्रस्तुतीकरण निम्न प्रकार किया जा सकता–
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
वर्तमान परिस्थितियों में भारत में व्यक्ति के दृष्टिकोण से शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
हमारे देश की वर्तमान परिस्थितियाँ अत्यधिक जटिल तथा विशिष्ट हैं। इन परिस्थितियों में व्यक्ति के दृष्टिकोण से शिक्षा का मुख्यतम उद्देश्य है-व्यक्ति का बहुपक्षीय विकास। इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, चारित्रिक तथा सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति के दृष्टिकोण को वैज्ञानिक बनाना भी शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। व्यक्ति की व्यावसायिक कुशलता की उन्नति, जीवन-यापन की कला का विकास, अवकाश को ” सदुपयोग तथा सांस्कृतिक विकास भी व्यक्ति की शिक्षा के कुछ मुख्य उद्देश्य हैं।
प्रश्न 2.
वर्तमान युग में शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करना क्यों माना गया है ?
या
वैज्ञानिक शिक्षा का क्या अर्थ है? वर्तमान में उसकी उपयोगिता को सिद्ध कीजिए।
उत्तर:
वैज्ञानिक शिक्षा का आशय है वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दी जाने वाली शिक्षा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दी जाने वाली शिक्षा तथ्यों पर आधारित होती है तथा उसमें वैज्ञानिक पद्धति को अपनाया जाता है। वैज्ञानिक पद्धति सार्वभौमिक होती है तथा उसके द्वारा प्राप्त सिद्वान्तों का सत्यापन किया जा सकता है। वर्तमान युग विज्ञान तथा औद्योगिक क्रान्ति का युग है। आज हमारे जीवन का प्रत्येक पक्ष विज्ञान पर निर्भर हो गया है। अतः इस दशा में वही राष्ट्र प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा जो वैज्ञानिक क्षेत्र में प्रगति करेगा। परन्तु भारत जैसे अनेक विकासशील देश आज भी परम्पराओं, रूढ़ियों एवं अन्धविश्वासों से घिरे हुए हैं। ये समस्त कारक देश की प्रगति में बाधक हैं। इस स्थिति में हमारी शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए जिससे जनसाधारण का दृष्टिकोण वैज्ञानिक बने तथा अन्धविश्वासों को उन्मूलन हो। इस प्रकार हम कह सकते हैं। कि वर्तमान युग में शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करना होना चाहिए।
प्रश्न 3 वर्तमान में व्यावसायिक शिक्षा की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर:
भारत प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न, किन्तु एक विकासशील अर्थव्यवस्था वाला देश है, जिसकी अधिकांश जनता निर्धन है। वर्तमान समय में देश के आर्थिक, तकनीकी व औद्योगिक विकास द्वारा सर्वप्रथम और अपरिहार्य रूप से निर्धनता तथा बेरोजगारी की समस्या का समाधान आवश्यक है। शिक्षा द्वारा देशवासियों की उत्पादन-शक्ति में वृद्धि कर राष्ट्रीय आय बढ़ानी चाहिए ताकि लोगों के रहन-सहन का स्तर ऊँचा हो सके। स्पष्टतः आर्थिक समृद्धि का विचार व्यावसायिक शिक्षा के बिना अधूरा है।
निश्चित उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
किसी भी देशकाल में शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण मुख्य रूप से किस कारक के आधार पर होता है ?
उत्तर:
किसी भी देशकाल में शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण उस देशकाल की समस्त परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किया जाता है।
प्रश्न 2.
पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से भारतीय समाज में कौन-सी मनोवृत्ति प्रबल हुई हैं ?
उत्तर:
पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से भारतीय समाज में भौतिकवादी मनोवृत्ति प्रबल हुई है।
प्रश्न 3.
वर्तमान भारतीय अर्थव्यवस्था तथा रोजगारों की स्थिति क्या है ?
उत्तर:
वर्तमान भारतीय अर्थव्यवस्था दुल-मुल है तथा बेरोजगारी की समस्या प्रबल है।
प्रश्न 4.
विज्ञान-शिक्षा की आवश्यकता क्यों है ?
उत्तर:
‘अन्धविश्वासों के उन्मूलन, औद्योगिक उन्नति एवं प्रगति तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास के लिए विज्ञान-शिक्षा आवश्यक है।
प्रश्न 5.
“मेरा विचार है कि जब तक हमारा शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा नहीं होगा, तब तक हम वास्तव में अधिक मानसिक प्रगति नहीं कर सकते।” यह कथन किसका है ?
उत्तर प्रस्तुत कथन पं० जवाहरलाल नेहरू का है।
प्रश्न 6.
शिक्षा में विज्ञान के समावेश के महत्त्व सम्बन्धी स्वामी विवेकानन्द का कथन लिखिए।
उत्तर:
स्वामी विवेकानन्द के कथनानुसार, “हमारे लिए पश्चिमी विज्ञान का अध्ययन आवश्यक है। हमें तकनीकी शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे हमारे देश के उद्योगों का विकास होगा।”
प्रश्न 7.
समाज के दृष्टिकोण से शिक्षा के चार मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
समाज के दृष्टिकोण से शिक्षा के चार प्रमुख उद्देश्य हैं–
(i) लोकतन्त्रीय नागरिकता का विकास,
(ii) सामाजिक कुप्रथाओं का अन्त,
(iii) सामाजिक उत्तरदायित्वों की भावना का विकास तथा
(iv) जन-शिक्षा की व्यवस्था करना।
प्रश्न 8.
स्वतन्त्र भारत में शिक्षा के उद्देश्यों के निर्धारण के लिए गठित किए गए मुख्य शिक्षा आयोगों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्र भारत में गठित किए गए मुख्य शिक्षा आयोग हैं
(i) विश्वविद्यालय आयोग–1948,
(ii) माध्यमिक शिक्षा आयोग-1952-53 तथा
(iii) राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (कोठारी कमीशन)-1964-66.
प्रश्न 9.
किस शिक्षा आयोग ने व्यक्तियों में नेतृत्व के गुणों के विकास की शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य निर्धारित करने का सुझाव दिया है?
उत्तर:
माध्यमिक शिक्षा आयोग ने नेतृत्व के गुणों के विकास की शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य … निर्धारित करने का सुझाव दिया है।
प्रश्न 10.
निम्नलिखित कथन सत्य हैं या असत्य
- वर्तमान परिस्थितियों में शिक्षा के किसी एक उद्देश्य को प्राथमिकता देना उचित नहीं है।
- भारत में शिक्षा का एक उद्देश्य निरक्षरता समाप्त करना भी है।
- भारत में शिक्षा का उद्देश्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना कदापि नहीं है।
- भारत में शिक्षा का एक उद्देश्य व्यावसायिक कुशलता में वृद्धि करना भी है।
- शिक्षा के माध्यम से विश्व-बन्धुत्व की भावना को विकसित करना व्यर्थ एवं अनावश्यक है।
उत्तर:
- सत्य,
- सत्य,
- असत्य,
- सत्य,
- असत्य।
बहुविकल्पीय प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए
प्रश्न1.
“भारत में शिक्षा द्वारा लोकतन्त्रीय चेतना, वैज्ञानिक खोज और दार्शनिक सहिष्णुता का निर्माण किया जाना चाहिए।” यह कथन किसका है ?
(क) महात्मा गांधी का
(ख) हुमायूँ कबीर का
(ग) पं० जवाहरलाल नेहरू का
(घ) जाकिर हुसैन का
प्रश्न 2.
ब्रिटिश काल में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य था
(क) आध्यात्मिक उन्नति।
(ख) जीविकोपार्जन
(ग) चरित्र-निर्माण..
(घ) व्यक्तित्व का बहुपक्षीय विकास
प्रश्न 3.
विभिन्न सामाजिक समस्याओं के निराकरण के लिए शिक्षित करना चाहिए
(क) ग्रामीण समुदाय को
(ख) समाज के पिछड़े वर्ग को।
(ग) स्त्रियों को।
(घ) जनसाधारण को
प्रश्न 4.
हमारे देश में शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण होना चाहिए
(क) अमेरिकी शिक्षा के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर
(ख) प्राचीन भारतीय आदर्शों को ध्यान में रखकर
(ग) औद्योगिक उन्नति को ध्यान में रखकर।
(घ) भारतीय समाज की विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखकर
प्रश्न 5.
भारत में बेरोजगारी की समस्या का हल सम्भव है
(क) चरित्र-निर्माण द्वारा
(ख) ज्ञानार्जन द्वारा
(ग) मानसिक विकास द्वारा
(घ) व्यावसायिक शिक्षा द्वारा
प्रश्न 6.
लोकतन्त्रीय भारत में व्यक्ति के दृष्टिकोण से शिक्षा का उद्देश्य है
(क) शारीरिक स्वास्थ्य का विकास
(ख) वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकास
(ग) व्यावसायिक कुशलता अर्जित करना
(घ) उपर्युक्त सभी
प्रश्न 7.
वर्तमान लोकतन्त्रीय भारत में समाज के दृष्टिकोण से शिक्षा के उद्देश्य हैं
(क) सहयोग की भावना को विकसित करना
(ख) समाज में व्याप्त बुराइयों को समाप्त करना।
(ग) सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता में वृद्धि करना
(घ) उपर्युक्त सभी
प्रश्न 8.
किसी देश की शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण नहीं होना चाहिए
(क) देश की संस्कृति के अनुसार
(ख) देश की वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार
(ग) विदेश की संस्कृति के अनुसार
(घ) देश की आवश्यकता के अनुसार
उत्तर:
1. (ख) हुमायूँ कबीर का,
2. (ख) जीविकोपार्जन,
3. (घ) जनसाधारण को,
4. (घ) भारतीय समाज की विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखकर,
5. (घ) व्यावसायिक शिक्षा द्वारा,
6. (घ) उपर्युक्त सभी,
7.(घ) उपर्युक्त सभी,
8. (ग) विदेश की संस्कृति के अनुसार।
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