UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 4 Emotional Bases of Behaviour (व्यवहार के संवेगात्मक आधार)
UP Board Solutions for Class 11 Psychology Chapter 4 Emotional Bases of Behaviour (व्यवहार के संवेगात्मक आधार)
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
संवेग (Emotion) से आप क्या समझते हैं? संवेगों की सामान्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
या
संवेग का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा परिभाषा निर्धारित कीजिए। संवेग की मुख्य विशेषताएँ भी बताइए।
या
संवेग को परिभाषित कीजिए।
उत्तर :
संवेग का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Emotion)
‘संवेग’ अंग्रेजी भाषा के शब्द Emotion का हिन्दी रूपान्तर है, जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द Emovere (इमोवेयर) से हुई है। इमोवेयर का शाब्दिक अर्थ है–‘हिला देना, क्रियाशील बना देना या उत्तेजित कर देना। इसका अभिप्राय यह है कि शारीरिक प्रेरणाओं के समान ही संवेग मनुष्य को हिला देते हैं, क्रियाशील बना देते हैं अथवा उसे उत्तेजित कर देते हैं। यह उत्तेजना उसके कार्यों और व्यवहारों को प्रभावित करती है।
संवेग एक जटिल, भावात्मक और मानसिक प्रक्रिया है। जब भाव का प्रकटीकरण बाहरी तथा आन्तरिक शारीरिक परिवर्तनों में हो जाता है, तब यह संवेग कहलाता है। । विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा संवेग को भिन्न-भिन्न प्रकार से परिभाषित किया गया है। प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं –
(1) गेलडार्ड के मतानुसार, “संवेग क्रियाओं को उत्तेजक होता है। प्रस्तुत कथन द्वारा स्पष्ट होता है कि संवेग से व्यक्ति की क्रियाओं में गति आती है।
(2) आर्थर टी० जर्सील्ड के अनुसार, “संवेग शब्द किसी भी प्रकार के आवेग में आने, भड़क उठने या उत्तेजित होने की दशा को सूचित करता है।” प्रस्तुत परिभाषा में संवेगावस्था के मुख्य लक्षणों का उल्लेख किया गया है।
(3) इंगलिश तथ इंगलिश के अनुसार, “संवेग एक जटिल भावात्मक अवस्था है जिसमें कुछ विशेष शारीरिक तथा ग्रन्थीय क्रियाएँ होती हैं। प्रस्तुत कथन द्वारा स्पष्ट होता है कि संवेगों में भावात्मक तत्त्व की प्रधानता होती है तथा इनके परिणामस्वरूप कुछ क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं।
(4) वुडवर्थ के मतानुसार, “प्रत्येक संवेग एक अनुभूति होता है तथा साथ ही प्रत्येक संवेग उसी समय एक गत्यात्मक तत्परता होता है।”
(5) पी० टी० यंग के कथनानुसार, “संवेग सम्पूर्ण व्यक्ति का तीव्र उपद्रव है, जिसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है तथा जिसके अन्तर्गत व्यवहार चेतन अनुभूति तथा जाठरिक क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।” प्रस्तुत कथन द्वारा स्पष्ट होता है कि संवेगों की उत्पत्ति सदैव मनोवैज्ञानिक कारकों से होती है तथा इनकी परिणति व्यवहार, अनुभवों तथा जाठरिक क्रियाओं में होती हैं।
इन परिभाषाओं के अध्ययन के उपरान्त हमें संवेग से सम्बन्धित जिन तत्त्वों का ज्ञान होता है, वे इस प्रकार हैं–एक विशिष्ट परिस्थिति उत्पन्न होती है—मनुष्य इस परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण करते हैं–परिस्थिति के प्रति अनुक्रिया के कारण मनुष्य में उत्तेजना का जन्म होता है—मनुष्य सचेतन रूप से उत्तेजना का अनुभव करता है और अन्ततः–मनुष्य का संवेगात्मक व्यवहार अभिव्यक्त होता है।
संवेगों की विशेषताएँ
(Characteristics of Emotions)
संवेगों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
(1) मनोवैज्ञानिक कारणों से उत्पन्न – संवेग की उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है। उदाहरण के लिए, बच्चा अचानक किसी अजीब-सी चीज को देखकर भयभीत हो जाता है। वह इसलिए भयभीत हुआ क्योंकि उसने उस अजीब चीज को अचानक देखा। यदि बच्चा उस वस्तु को देखने का अभ्यस्त होता या उसे ऐसी किसी वस्तु के पहले से दिखाई पड़ने की सम्भावना रहती और वह उसे अपने लिए खतरनाक न समझता तो भय का संवैग उत्पन्न ही नहीं होता। स्पष्टतः यदि मनोवैज्ञानिक कारण पर्याप्त रूप में विद्यमान नहीं हैं तो संवेग उत्पन्न नहीं होगा। वास्तव में, पर्याप्त मनोवैज्ञानिक कारणों के अभाव में संवेगों की उत्पत्ति कदापि नहीं हो सकती। कुछ विद्वान मानते हैं कि मादक द्रव्यों के सेवन के उपरान्त भी संवेगों की अनुभूति हो सकती है, परन्तु यह धारणा न तो उचित है। और न ही मान्य है। मादक द्रव्यों के प्रभाव से व्यक्ति की मनोदशा अस्त-व्यस्त हो जाती है, परन्तु वह संवेगावस्था नहीं होती।
(2) यकायक एवं तीव्र उपद्रव – संवेग मनोवैज्ञानिक कारणों से यकायक उत्पन्न होने वाला सम्पूर्ण जीव के सापेक्ष एक तीव्र उपद्रव है। यह यकायक उत्पन्न होता है और कुछ क्षणों के उपरान्त लुप्त हो जाता है। यद्यपि संवेग तीव्रता लिये होता है, किन्तु सभी संवेग तीव्र नहीं होते। कभी-कभी संवेग की अवस्था में व्यक्ति कुछ भी कर पाने में असमर्थ रहता है और निष्क्रिय-सा हो जाता है। अत: कहा जा सकता है कि संवेग अन्य मानसिक प्रक्रियाओं; यथा–भाव, स्थिति (मूड) आदि की अपेक्षा अधिक तीव्र होते हैं।
(3) सार्वभौमिकता – संवेग सार्वभौमिक हैं अर्थात् ये हर एक प्राणी में पाये जाते हैं। मनुष्य को शिशु, बाल, किशोर, प्रौढ़ तथा वृद्ध प्रत्येक अवस्था में संवेग दिखाई पड़ते हैं। पशुओं में भी संवेग दृष्टिगोचर होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में इनकी प्रबलता एकसमान नहीं होती, यह बदल जाती है; जैसे—बालक एवं कम पढ़े-लिखे लोगों में संवेगों की अभिव्यक्ति स्वतन्त्र रूप से तथा अत्यन्त तीव्र रूप में दिखाई पड़ती है तो वृद्ध एवं पढ़े-लिखे लोगों में यह अभिव्यक्ति नियन्त्रित तथा अपेक्षाकृत कम तीव्रता लिये होती है।
(4) शारीरिक परिवर्तन – संवेग की अवस्था में व्यक्ति के शरीर में मुख्यतया दो प्रकार के परिवर्तन उत्पन्न होते हैं-आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन एवं बाह्य शारीरिक परिवर्तन। हृदय की धड़कन तथा रक्तचाप में परिवर्तन, श्वसन क्रिया की तीव्रता, अन्त:स्रावी ग्रन्थियों से हॉर्मोन्स का निकलना और पाचन-क्रिया का धीमा पड़ना या रुक जाना आदि आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन हैं। संवेग की दशा में कुछ बाह्य शारीरिक परिवर्तन भी होते हैं; यथा-चेहरे की रेखाओं तथा शारीरिक आसनों में परिवर्तन, शरीर काँपना, स्वर बदल जाना, पसीना निकलना, नेत्रों का लाल हो जाना तथा शरीर का रोमांचित हो उठना आदि विभिन्न क्रियाएँ।।
(5) व्यक्तिगत विभेद – संवेग की अभिव्यक्ति में व्यक्तिगत विभेद पाये जाते हैं। संवेगात्मक संरचना तथा प्रकटीकरण सम्बन्धी विशिष्टता के कारण हर एक व्यक्ति संवेग की अभिव्यक्ति अपने अलग ढंग से करता है। वातावरण का एक ही उत्तेजक विभिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न संवेग उत्पन्न कर देता है। उदाहरणतः, केले के छिलके से फिसलकर गिरते व्यक्ति को देखकर किसी के मन में सहानुभूति पैदा होती है तो किसी में दया और कोई उसे देखकर हँस पड़ता है। उत्तेजक एक है जबकि प्रतिक्रियाएँ विभिन्न हैं।
(6) स्थानान्तरण – संवेगों की विशेषता स्थानान्तरण भी है। ये एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में स्थानान्तरित हो जाते हैं। संवेग की अवस्था में संवेग की अभिव्यक्ति के समय जो भी व्यक्ति मौजूद होते हैं, उनमें से किसी भी व्यक्ति में संवेगात्मक क्रिया स्थानान्तरित हो सकती है। उदाहरण के लिए-एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के प्रति अपना क्रोध प्रकट कर रहा है और इसी दौरान एक अन्य व्यक्ति भी उपस्थित हो जाए तो वह भी क्रोध को भागी बन सकता है।
(7) अस्थिर एवं परिवर्तनशील – संवेग की अवस्था अस्थिर एवं परिवर्तनशील होती है। यह अधिक समय तक नहीं रहती। जैसे ही वातावरण का कोई उत्तेजक संवेग की दशा उत्पन्न करता है और उससे सम्बन्धित क्रिया समाप्त होती है, वैसे ही उसका स्वरूप भी बदल जाता है। इसके अलावा, एक उत्तेजक द्वारा उत्पन्न संवेग उस समय समाप्त हो जाता है जब दूसरे उत्तेजक द्वारा किसी अन्य प्रकार के संवेग की उत्पत्ति होती है। स्पष्टतः संवेगावस्था में चंचलता का गुण विद्यमान है।
(8) स्थायित्व – चंचल प्रवृत्ति के बावजूद भी संवेगों में कुछ-न-कुछ स्थायित्व अवश्य रहता , है। संवेग की मुख्य अवस्था समाप्त होने के बाद व्यक्ति की अवशिष्ट मनोदशा इस संवेग के स्थायित्वं की परिचायक है। उदाहरणार्थ-महान् शोक से पीड़ित व्यक्ति शोक की तीव्र परिस्थिति से उबरकर भी कुछ समय तक मायूस पाया जाता है।
(9) विचार-शक्ति का लोप – संवेगावस्था में भावात्मक पहलू की प्रबलता तथा तीव्र शारीरिक हलचल के कारण विचार-शक्ति क्षीण पड़ जाती है अथवा इसका लोप हो जाता है। यही कारण है कि संवेग के वशीभूत व्यक्ति कभी-कभी ऐसा काम कर देता है जिसके लिए बाद में उसे गहरा प्रायश्चित करना पड़ता है।
(10) सुख-दुःख की अनुभूतियाँ – विभिन्न प्रकार के संवेगों में से कुछ सुख उत्पन्न करते हैं। तो कुछ दु:ख। प्रेम का संवेग सुख उत्पन्न करता है, जबकि भय को संवेग दुःख उत्पन्न करता है।
(11) क्रियात्मक पक्ष – भावात्मक पक्ष के अतिरिक्त संवेग का एक क्रियात्मक पक्ष भी है। संवेगावस्था में क्रियात्मक पक्ष की क्रियाशीलता के कारण व्यक्ति कोई-न-कोई काम करने के लिए विवश एवं तत्पर हो जाता है।
(12) मूल प्रवृत्तियों से सम्बन्ध – संवेग का सम्बन्ध मूल प्रवृत्ति से है। मूल प्रवृत्ति द्वारा अपनी सन्तुष्टि की आवश्यकता उत्पन्न होने पर या सन्तुष्टि में अवरोध पैदा होने पर संवेग का प्रकटीकरण होता
संवेग की उपर्युक्त विशेषताओं के अध्ययन से जहाँ एक ओर संवेग का अर्थ अधिक स्पष्ट होता है, वहीं दूसरी ओर, संवेग के स्वरूप का एक विस्तृत चित्र भी उभरकर सामने आता है।
प्रश्न 2.
भाव अथवा अनुभूति (Feeling) तथा संवेग (Emotion) की समानताओं तथा भिन्नताओं का उल्लेख कीजिए।
या
भाव तथा संवेग में पाये जाने वाले अन्तरों का विस्तार से विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
भाव और संवेग में अन्तर
(Difference between Feeling and Emotion)
मानव-मन के तीन प्रमुख पक्ष हैं : ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक। मन के भावात्मक पक्ष से सम्बन्धित एक प्रारम्भिक सरल मानसिक प्रक्रिया भाव है जो प्राणी को सुख या दु:ख का अनुभव कराती है। मन के चेष्टात्मक अथवा इच्छात्मक और ज्ञानात्मक, इन दो पक्षों के माध्यम से भाव का अनुभव होता है। इसी को हम ‘अनुभूति’ (Feeling) भी कहते हैं जिसे मन की चेतनावस्था में अनुभव किया जाता है। उदाहरण के लिए प्रसन्नता, सन्तोष, करुणा, चिन्ता, उल्लास तथा आश्चर्य आदि भाव या अनुभूतियाँ हैं। भाव और संवेग कुछ बिन्दुओं पर समानताएँ रखते हैं तो कुछ बिन्दुओं पर एक-दूसरे से भिन्नताएँ। ये समानताएँ और भिन्नताएँ निम्न प्रकार हैं –
समानताएँ – भाव और संवेग के मध्य गहरा सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध की घनिष्ठता इतनी अधिक है कि कुछ मनोवैज्ञानिक भाव और संवेग में अन्तर नहीं करते और दोनों को एक ही स्वीकार करते हैं। ये समानताएँ इस प्रकार हैं –
- भाव और संवेग, इन दोनों का सम्बन्ध स्नायु-संस्थान के अन्तर्गत मस्तिष्क से होता है।
- अनेक संवेग साधारणतया भाव होते हैं, जबकि भाव तीव्र रूप में संवेग बन जाता है।
- भाव और संवेग दोनों में ही सुख या दु:ख पाया जाता है।
अन्तर – यद्यपि भाव और संवेग दोनों का सम्बन्ध मन के भावात्मक पक्ष से है, तथापि ये दोनों भिन्न मानसिक प्रक्रियाएँ हैं। दोनों के मध्य निम्नलिखित अन्तर पाये जाते हैं –
(1) जटिलता सम्बन्धी अन्तर – संवेग एक जटिल भावात्मक मानसिक प्रक्रिया है, जबकि भाव एक सरल तथा प्राथमिक मानसिक प्रक्रिया है। संवेग परिस्थिति-विशेष की भूतकालीन स्मृति या भावी कल्पना द्वारा उत्तेजना पाकर भी उत्पन्न हो सकते हैं। इनकी उत्पत्ति के लिए किसी प्रत्यक्ष परिस्थिति का होना अनिवार्य नहीं है। उदाहरण के लिए-शीतकाल की बर्फीली रात में एक बीमार बूढ़े आदमी का नंगे बदन ठिठुरना, जब भी स्मृति में आता है तो वह करुणा का संवेग उत्पन्न करता है। विमान परिचारिका बनकर दुनियाभर की सैर करने की भावी कल्पना किसी लड़की के मन में उत्साह । पैदा करती है। इसके विपरीत, भावों की उत्पत्ति इन्द्रियजनित सरल संवेदनाओं के फलस्वरूप होती है। उदाहरण के लिए-पुरस्कार की प्राप्ति से सुख का भाव तथा शरीर में चोट लगने से दु:ख का भाव उत्पन्न होता है।
(2) व्यापकता सम्बन्धी अन्तर – संवेग भाव से अधिक व्यापक होते हैं। संवेग की स्थिति में शरीर और मन पर्याप्त रूप से प्रभावित होते हैं। इसके अन्तर्गत हृदय की धड़कन, श्वास की गति, रक्तचाप, रक्त संचार, नलिकाविहीन एवं आमाशय की ग्रन्थियाँ आदि सभी परिवर्तित दिखाई पड़ते हैं। वस्तुतः संवेग में भाव का होना आवश्यक है, किन्तु संवेग के बिना ही भाव की अनुभूति होती है अर्थात् भाव में संवेग सम्मिलित नहीं होता, किन्तु संवेग भावयुक्त होता है। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति के बाहरी तथा आन्तरिक व्यवहारों में भाव का प्रकटीकरण होने से वह संवेग का रूप धारण कर लेता है। स्पष्ट रूप से संवेग का क्षेत्र अधिक विस्तृत है। इसके विपरीत, भाव एक सीमित और संकुचित मन:स्थिति है, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति के शरीर और मन की दशा में विशेष बदलाव नहीं आते।
(3) उग्रता सम्बन्धी अन्तर – भाव और संवेग के बीच एक अन्तर उग्रता का है। संवेग अपेक्षाकृत उग्र होता है। संवेग में एक अजीब उथल-पुथल के कारण व्यक्ति असामान्य अवस्था धारण कर लेता है। और अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठता है। वस्तुत: ‘उग्र भाव’ का ही दूसरा नाम संवेग है, जिसका प्रभाव स्मृति पर एक लम्बे समय तक बना रहता है। किसी शव को देखकर दु:ख का भाव उत्पन्न होता है, किन्तु घर में जवान मौत हो जाए तो दुःख का भाव उग्र होकर संवेग में बदल जाएगा। स्पष्टत: संवेग के विपरीत भाव में थोड़ी बहुत अव्यवस्था के बावजूद भी व्यक्ति की सामान्य अवस्था पाई जाती है।
(4) सक्रियता सम्बन्धी अन्तर – भाव की अपेक्षा संवेग के समय व्यक्ति में अधिक सक्रियता दिखाई पड़ती है। संवेग के दौरान हमारे शरीर का एक बड़ा भाग (जिसमें वृहद् मस्तिष्क की कॉर्टेक्स स्वत:संचालित स्नायुमण्डल तथा हाइपोथैलेमस होते हैं) प्रभावित होता है, जबकि भाव की दशा में केवल वृहद् मस्तिष्क की कॉर्टेक्स ही प्रभावित होती है, परिणामस्वरूप भाव की अपेक्षा संवेग की दशा में व्यक्ति अधिक सक्रिय रहता है।
(5) प्रकार सम्बन्धी अन्तर – संवेग के विभिन्न प्रकार हैं जिसके अन्तर्गत भय, शोक, क्रोध, घृणा, प्रेम तथा आश्चर्य के संवेग आते हैं। इसके विपरीत भाव के दो ही प्रकार, सुख और दुःख का भाव, मान्य हैं।
(6) उपागम सम्बन्धी अन्तर – भाव और संवेग के मध्य एक प्रमुख अन्तर उपागम (Approach) को लेकर है। उपागम (पहुँच के मार्ग) दो हैं-आत्मगत (Subjective) तथा वस्तुगत (Objective), क्योंकि भाव की अनुभूति व्यक्ति को स्वयं अपने अन्दर होती है और वह किसी अन्य के भाव को प्रत्यक्ष रूप में नहीं देख सकता; अत: भाव ‘आत्मगत’ होता है। संवेग को व्यक्ति स्वयं में तो अनुभव करता ही है, इसके साथ ही व्यवहारों के माध्यम से इसका प्रकटीकरण भी हो जाता है; अतः संवेग ‘आत्मगत और वस्तुगत’ दोनों है। व्यक्ति अपने दुःख-सुख के भाव की अनुभूति तो कर सकता है, लेकिन दूसरों की नहीं—इसलिए आत्मगत है, किन्तु क्रोध का संवेग स्वयं भी अनुभव होता है और व्यवहार द्वारा इसकी अभिव्यक्ति भी होती है-इसलिए आत्मगत के साथ वस्तुगत भी है।
प्रश्न 3.
संवेगों का एक व्यवस्थित वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए। मुख्य सरल एवं जटिल संवेगों का सामान्य विवरण प्रस्तुत कीजिए।
या
सरल एवं जटिल संवेगावस्था का सामान्य परिचय देते हुए मुख्य संवेगों की उत्पत्ति, अभिव्यक्ति तथा लाभ एवं हानि का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
संवेगों का वर्गीकरण
(Classification of Emotions)
विभिन्न प्राणियों के व्यवहार की पृष्ठभूमि में संवेगों का अत्यधिक महत्त्व है। मानव-व्यवहार के विश्लेषणात्मक अध्ययन से ज्ञात होता है कि मानव आवश्यकतानुसार अनेक प्रकार के संवेगों को प्रकट करता है। संवेगों के प्रकार के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों में मतभेद हैं। मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत भिन्न-भिन्न वर्गीकरण निम्नलिखित हैं –
सरल एवं जटिल संवेगात्मक अवस्थाएँ
व्यक्ति की संवेगात्मक अवस्था को ‘सरलता या जटिलता के आधार पर भी वर्गीकृत किया जा सकता है–
(1) सरल संवेगात्मक अवस्था (Simple Emotional State) – सरल संवेगात्मक अवस्था के अन्तर्गत सामान्यतया एक ही. संवेग उत्पन्न होता है और इनमें कोई अन्य संवेग मिश्रित नहीं होता। सरल संवेग स्पष्ट एवं स्वाभाविक होते हैं और अपनी शुद्ध अवस्था में साधारण रूप से बालकों में देखे जा सकते हैं। इन्हें समझने में कोई कठिनाई नहीं आती। क्रोध, भय, आश्चर्य, हर्ष एवं शोक आदि सरल संवेग हैं।
(2) जटिल संवेगात्मक अवस्था (Complicated Emotional State) – जटिल संवेगात्मक अवस्था में कई प्रकार के संवेग मिश्रित रहते हैं। ये सामाजिक परिस्थितियों में क्रमश: विकसित होते हैं। और इनकी अभिव्यक्ति जटिल होती है। बढ़ती हुई आयु और परिपक्वता के साथ जब अनुभव तथा सीखने का प्रभाव पड़ने लगता है तो संवेग अस्पष्ट व अस्वाभाविक होते जाते हैं, जिन्हें समझना प्रायः कठिन होता है। क्रोध की संवेगावस्था में ईष्र्या, द्वेष, घृणा और हीनता का भाव मिश्रित रहता है। कपटी और धूर्त व्यक्तियों की संवेगात्मक अवस्थाएँ अत्यन्त जटिल होती हैं, जिन्हें सहज ही नहीं समझा जा सकता है।
कुछ प्रमुख संवेग
(Some Important Emotions)
कुछ विशिष्ट संवेगों का विवेचन निम्नलिखित है –
सरल संवेगावस्था के उदाहरण
(1) क्रोध (Ange) – क्रोध एक द्वेषात्मक प्रबल संवेग है जिसे आधुनिक मनोविज्ञान में अर्जित संवेग माना गया है। मैक्डूगल ने इसे लड़ने की मूल-प्रवृत्ति का संवेगात्मक पक्ष स्वीकार किया है तो गिलफोर्ड ने इसे प्राथमिक संवेग माना है।
उत्पत्ति का कारण – क्रोध की उत्पत्ति सम्बन्धी कारणों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि क्रोध के मूल में ऐसी इच्छाएँ, आशाएँ अथवा धारणाएँ कार्य करती हैं जिनकी पूर्ति नहीं हो पाती या जिनकी पूर्ति में रुकावट पैदा होने लगती है। लक्ष्य-सिद्धि में अवरोधक या बाधक वस्तु, संवेग को उत्तेजक (प्रेरक) कही जाती है और उसके विरुद्ध संवेगयुक्त व्यक्ति में तीव्र विद्वेष तथा वैमनस्य का भाव जाग्रत हो जाता है, परिणामस्वरूप क्रुद्ध व्यक्ति वस्तु या व्यक्ति की बड़ी-से-बड़ी हानि के लिए उद्यत हो उठता है।
क्रोध की अभिव्यक्ति – क्रोध के संवेग से ग्रस्त शक्तिहीन शिशु रोने-चिल्लाने लगता है, हाथ-पैरं पटकने लगता है तथा आन्तरिक विद्रोह को व्यक्त करने लगता है। शनैः-शनैः शक्ति प्राप्त करता हुआ उसकी अभिव्यक्ति का ढंग भी बदलता है और वह आज्ञा न मानना, अपमान व बुराई करना, डाँट-फटकार, गाली या मारपीट करना जैसे कार्य करता है। क्रोध में व्यक्ति आक्रामक (Aggressive) स्वरूप धारण कर लेता है। इस दशा में उसकी शारीरिक क्रियाएँ चेहरा लाल होना, भौंहें चढ़ना, होंठ काँपना, मुट्ठी कसना, दाँत पीसना, काँपना, आघात या ठोकर मारना तथा गरजना आदि हैं। हत्या इसकी चरम परिणति है।
क्रोध से हानि – क्रोध की संवेगावस्था में शारीरिक-मानसिक शक्ति का ह्रास होता है। रक्त चाप, रक्त परिसंचरण तथा पाचन क्रिया बुरी तरह प्रभावित होते हैं। शरीर में निकले कुछ रासायनिक द्रव्य रक्त से मिलकर स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। क्रोध की अवस्था विवेकहीनता को जन्म देती है, जिसमें भयंकरतम भूल तथा अक्षम्य अपराध भी हो सकते हैं।
क्रोध से लाभ – क्रुद्ध व्यक्ति प्रेरित होकर अधिक शक्ति प्राप्त करता है, जिससे उसे असामान्य कार्य करने में मदद मिलती है। युद्ध में सैनिक का क्रोध राष्ट्रहित में कार्य करता है, जिससे शत्रु परास्त होता है। अपनी असफलताओं पर क्रुद्ध व्यक्ति कई गुनी ताकत से सफलता के लिए जुट जाता है।
(2) भय (Fear) – भय भी एक द्वेषीत्मक संवेग है। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इसे झगड़ा करने की प्रवृत्ति से जोड़ा है, जबकि मैक्डूगल ने इसे पलायन की मूल-प्रवृत्ति से सम्बन्धित किया है। वस्तुतः व्यक्ति भय के कारण से दूर रहना चाहता है या उससे स्वयं को छिपाना चाहती है। विद्वानों की दृष्टि में भय दो प्रकार के हैं-वास्तविक और काल्पनिक। शेर को देखकर वास्तविक भय पैदा होता है, किन्तु राक्षस की कल्पना करके भयभीत होना काल्पनिक भय है।
उत्पत्ति का कारण – भय की उत्पत्ति के अनेकानेक कारण और परिस्थितियाँ हैं। जब किन्हीं भयानक परिस्थितियों से घिरकर व्यक्ति का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है तो उसमें भय की उत्पत्ति होती है। शिशु अवस्था में विपत्ति की आशंका उत्पन्न करने वाली तथा अस्वाभाविक जान पड़ने वाली अनेक परिस्थितियाँ; जैसे–काली चीजें, अन्धकार, बिजली की चमक, अपरिचित आवाज या जोरदार धमाका आदि; भय पैदा करती हैं। विकास की अवस्थी में आयु वृद्धि के साथ पिछले अनुभव तथा मानसिक प्रन्थियाँ भय उत्पादन में सहयोग करते हैं। प्रौढ़ व्यक्ति स्वयं से अधिक बलशाली चीजों या व्यक्तियों, विषैले प्राणियों, हिंसक जीवों, तूफान, समुद्र, पुलिस, जेल तथा कानूनी दण्ड आदि से भय खाती है।
भय की अभिव्यक्ति – भय का संवेग आन्तरिक, व्यावहारिक तथा चेतनात्मक तीनों ही प्रकार के परिवर्तनों को जन्म देता है। भय की अभिव्यक्ति अनेक प्रकार से होती है; जैसे–भागना, मुँह पीला पड़ना, काँपने लगना, पसीना आना, हृदय की धड़कने यी रक्त चाप बढ़ना, चीखना या छिपने की कोशिश करना। व्यक्ति भय की अवस्था में स्वयं को असमर्थ पाता है। कुछ लोग भय को छिपाने के लिए क्रोध का प्रदर्शन करते हैं तो कुछ मृदु-व्यवहार और उपेक्षा का प्रदर्शन करते हैं। अत्यधिक भय के कारण लँगी व्यक्ति सबसे आगे भागने की कोशिश करता है और कुछ लोग तो मलमूत्र-त्याग तक करते देखे गये हैं।
भय से हानि – भय का संवेग हानिकारक है। भयभीत शिशुओं के व्यक्तित्व का ठीक से विकास नहीं हो पाता, उनकी परिलब्धियाँ सीमित रह जाती हैं और वे उन्नति की ओर नहीं बढ़ पाते हैं। डरपोक वयस्कों के लिए उस समय काफी मुश्किलें आती हैं जब मानसिक ग्रन्थियाँ उन्हें जरा-जरा सी चीजों से भयभीत करती हैं। इसी कारण बहुत-से लोग प्रौढ़ अवस्था में भी रात को अकेले नहीं सो सकते और यहाँ तक कि केचुएँ, कॉकरोच और चूहे से भी डर जाते हैं।
भय से लाभ – मानव-जीवन को सुव्यवस्थित एवं अनुशासित रूप में संचालित करने की दृष्टि से भय का महत्त्वपूर्ण स्थान है और इसी कारण यह संवेग लाभकारी भी है। भय के कारण व्यक्ति खतरनाक और जोखिम भरी चीजों से बचने की कोशिश करता है। धर्म, समाज, शिक्षा, अर्थ एवं राष्ट्रीय क्षेत्रों में भय की संवेगावस्था सुचारु व्यवस्था को कायम रखती है। यदि कानून और पुलिस का भय समाप्त हो जाए तो अपराधी सामान्यजनों को एक पल भी न जीने देंगे।
(3) हर्ष (Joy) – हर्ष नामक संवेग की दशा में उत्साह और उल्लास की उमंग से प्रेरित व्यक्ति प्रत्येक कार्य को करने के लिए उद्यत होती है। हर्ष, मानव-मन को हल्का कर उसे प्रसन्नता से भर देता है। यह शोक की विपरीत संवेगावस्थी मानी जाती है।
उत्पत्ति के कारण – हर्ष की उत्पत्ति आवश्यकताओं, प्रवृत्तियों तथा इच्छाओं की पूर्ति के परिणामस्वरूप होती है। लम्बे परिश्रम यो संघर्ष के पश्चात् जब सफलता प्राप्त होती है तब भी हर्ष पैदा होता है। यदि कोई लाभकारी घटना मन के अनुकूल घटित होती है तो उसके कारण भी व्यक्ति हर्षित होता है। वस्तुतः हर्ष की उत्पत्ति के कारण; देशाओं और परिस्थितियों के साथ बदलते रहते हैं।
हर्ष की अभिव्यक्ति – हर्ष की अभिव्यक्ति कुछ बाह्य शारीरिक लक्षणों के साथ होती है; यथा-चेहरा खिलना, मुस्कानयुक्त चेहरा, हास्य भाव, आँखों में चमक, प्रसन्नतावश ताली बजाना, उछलना, नाचना-कूदना तथा गाने लगना आदि। यदा-कदा हर्षातिरेक के दौरान व्यक्ति को गला भर आता है और उसकी आँखों से आँसू निकल पड़ते हैं। वैसे कोई भी व्यक्ति न तो बहुत लम्बे समय तके हर्षित रह सकता है और न शोक मग्न ही।।
हर्ष से हानि-हर्ष उस समय हानिकारक हो जाता है जब आवश्यकता से अधिक हर्षित व्यक्ति कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार किये बिना, कोई न करने योग्य कार्य कर बैठे। ऐसी अवस्था में कर्तव्य के प्रति लापरवाही या उदासीनता भी दिखा सकता है।
हर्ष से लाभ – हर्ष की संवेगावस्था में उत्साह से पूर्ण व्यक्ति गति के साथ अधिक कार्य कर लेता है। उसे थकान कम होती है और उसके स्वास्थ्य में भी अभिवृद्धि होती है।
(4) शोक (Grief) – शोक का संवेग विद्रोह या हानि से जुड़ा है। किसी इच्छित वस्तु या प्रियजन की हानि से शोक का संवेग उत्पन्न होता है। जीवन की विभिन्न परिस्थितियों अथवा सोपानों में व्यक्ति साधारणतया शोक की अनुभूति करता है। दैनिक जीवन में प्राय: सभी व्यक्ति यदा-कदा शोक के संवेग को अनुभव करते हैं। छोटे बच्चे तो एक साधारण से खिलौने के टूट जाने पर भी शोकमग्न हो जाते हैं, जब कि वयस्क व्यक्ति अपने प्रियजन के वियोग या मृत्यु से शोकमग्न होते हैं।
शोक की अभिव्यक्ति – शोकाकुल व्यक्ति के अनेक बाह्य लक्षण हैं; जैसे—उसका चेहरा उतर जाता है, गला अवरुद्ध हो जाता है, वह रोता-पीटता या विलाप करता है और उसे मूच्र्छा भी आ सकती है।
(5) आश्चर्य (wonder) – आश्चर्य के संवेग को मैक्डूगल ने जिज्ञासा की मूल-प्रवृत्ति से जोड़ा है। व्यक्ति में आश्चर्य का संवेग उस समय प्रकाशित होता है जब वह किसी ऐसी चीज, घटना अथवा परिस्थितिको अपने सामने पाता है जिसकी न तो उसे पूर्व कल्पना थी या जिसके लिए वह पहले से तैयार नहीं था। बालकों को आश्चर्य का संवेग वयस्कों की अपेक्षा अधिक प्रभावित करता है।
आश्चर्य की अभिव्यक्ति – आश्चर्य की संवेगावस्था में अनेक बाह्य लक्षण प्रकट होते हैं; जैसे- चौंक पड़ना,आँखें फैल जाना, होंठ खुले रह जाना, साँस रुक जाना और काँपना आदि। जटिल संवेगावस्था के उदाहरण
(1) प्रेम (Love) – प्रेम रागात्मक जटिल संवेगावस्था है जिसकी उत्पत्ति व्यक्ति द्वारा सुखात्मक भावनाओं तथा इच्छाओं को किसी विशिष्ट व्यक्ति अथवा पदार्थ पर केन्द्रित करने से होती है। गिलफोर्ड ने इसकी गणना कृत्रिम केन्द्रित संवेगों में, पदार्थात्मक संवेगावस्था में की है। मैक्डूगल के अनुसार, यह काम (Sex) से सम्बन्धित संवेग है जबकि फ्रॉयड ने प्रेम की प्रत्येक दशा को वासनाजनित कहा है। लिंटन नामक मनोवैज्ञानिक इसे एक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता मानता है।
प्रेम की जटिल संरचना में स्नेह, वात्सल्य, दया, ममता, सहानुभूति तथा कामवासना का योग रहता है। प्रेम की अभिव्यक्ति शारीरिक स्पर्श, चुम्बन, गोद में बिठलाना, रोमांचित होना, लम्बी-लम्बी साँसें लेना तथा आलिंगन करना आदि हैं। कभी-कभी प्रेम मात्र एक संवेग ही नहीं रहता बल्कि एक ‘स्थायी भाव’ का रूप ले लेता है। उदाहरण के लिए–माँ की अपने बच्चे के प्रति प्रेमाभिव्यक्ति स्थायी संवेग की दशा है।
प्रेम की संवेगावस्था उत्साहवर्द्धन करती है जिससे आशावादी दृष्टिकोण पैदा होता है और उच्च भावना ग्रन्थि विकसित होती है। प्रेम की स्थिति में आँखों की चमक बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त कार्यक्षमता में वृद्धि के कारण कार्य द्रुतगति से होता है। प्रेम में व्यक्तित्व का विस्तार होता है।
(2) घृणा (Hate) – प्रेम के सदृश की घृणा भी एक रागात्मक जटिल संवेगावस्था है जिसकी उत्पत्ति दु:खात्मक, विरक्तिमूलक, भय अथवा क्रोधमिश्रित भावनाओं को किसी व्यक्ति या पदार्थ विशेष पर केन्द्रित करने से मानी जाती है। वस्तुतः घृणा का संवेग उस परिस्थिति, वस्तु या व्यक्ति के प्रति पाया जाता है जिसे हम स्वयं से दूर रखना चाहते हैं। उदाहरण के लिए–दुष्ट या दुर्जन व्यक्ति को सामान्यतया सभी लोग स्वयं से दूर रखना चाहते हैं, यही कारण है कि दुष्ट या दुर्जन से हर कोई घृणा करता है। घृणा में प्रेम के विपरीत निराशावादी दृष्टिकोण तथा हीनभावना का विकास होता है तथा घृणा करने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व संकुचित होता है।
प्रश्न 4.
संवेग में शारीरिक परिवर्तनों का क्या स्थान है? उदाहरणों सहित स्पष्ट कीजिए।
या
संवेग की अवस्था में कौन-कौन से परिवर्तन होते हैं?”
या
संवेगावस्था में होने वाले आन्तरिक और बाह्य शारीरिक परिवर्तनों को स्पष्ट कीजिए।
या
संवेगावस्था में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
संवेगात्मक अवस्था में परिवर्तन
(Changes in Emotional Stage)
प्रत्येक संवेगात्मक अनुभव प्राणी के शरीर में कुछ स्पष्ट शारीरिक परिवर्तनों को जन्म देता है। ये शारीरिक परिवर्तन दो प्रकार के हैं—बाह्य शारीरिक परिवर्तन तथा आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन। बाह्य शारीरिक परिवर्तन उन परिवर्तनों को माना जाता है जिन्हें बाहर से स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जबकि आन्तरिक शारीरिक परिवर्तनों को अन्दर से अनुभव किया जाता है। संवेगात्मक स्थिति में होने वाले इन दोनों प्रकार के शारीरिक परिवर्तनों का वर्णन निम्नलिखित है –
बाह्य शारीरिक परिवर्तन
(External Bodily Changes)
सभी संवेग उत्पत्ति के साथ ही अपना बाह्य प्रकाशन करते हैं जो बाह्य शारीरिक परिवर्तनों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। इन परिवर्तनों को देखकर ही संवेग का अनुमान लगा लिया जाता है। संवेगावस्था में जो बाह्य लक्षण प्रकट होते हैं वे निम्न प्रकार हैं –
(1) मुखमण्डलीय अभिव्यक्ति (Facial Expression) – मुखमण्डल अर्थात् चेहरा हमारे आन्तरिक भावों की सही-सही अभिव्यक्ति कर देता है। संवेगात्मक स्थिति से सम्बन्धित बाह्य परिवर्तन की सर्वप्रथम अभिव्यक्ति चेहरे द्वारा होती है। मुखाकृति संवेग की सबसे सशक्त एवं महत्त्वपूर्ण अभिव्यक्ति मानी जाती है। संवेग के समय चेहरे पर तेजी से परिवर्तन आते हैं जिसका प्रभाव मुख की मांसपेशियों के फैलने और सिकुड़ने, आँख, नाक, मुख की रेखाओं के विशिष्ट रूप में प्रभावित होने से है। सुखद संवेगावस्था में एक प्रसन्नचित्त व्यक्ति का चेहरा मांसपेशियों के फैलाव के कारण खिला हुआ दिखायी देता है। इसके विपरीत दु:खद संवेगावस्था में एक दुःखी व्यक्ति का चेहरा लटक जाता। है। लज्जा की अवस्था में आँखें नीची हो जाती हैं और चेहरा शर्म से लाल हो जाता है। क्रोधावस्था में भौंहें तन जाती हैं, आँखें बाहर की ओर उभर जाती हैं व लाल हो जाती हैं, नथुने फड़कने लगते हैं, होंठ काँपने लगते हैं तथा व्यक्ति अपने दाँत पीसने लगता है।
मुखमण्डलीय अभिप्रकाशने का सही-सही अनुमान कुशल एवं सूक्ष्म निरीक्षण की क्षमता पर निर्भर करता है। किसी व्यक्ति के सिर्फ चित्र को देखकर ही चेहरे की अभिव्यक्ति से सम्बन्धित परिवर्तनों का निर्णय नहीं लिया जा सकता। कुछ मुखमण्डलीय अभिव्यक्तियाँ जन्मजात होती हैं तो कुछ अर्जित। संस्कृति और प्रशिक्षण, इन दोनों के प्रभाव से चेहरे की संवेगावस्था को समझा या पहचाना जा सकता है।
(2) स्वर की अभिव्यक्ति (Vocal Expression) – स्वर बाह्य अभिव्यक्ति को एक प्रमुख लक्षण है। संवेगात्मक दशाओं में स्वर में परिवर्तन आ जाता है। हम अनुभव करते हैं कि प्रेमावस्था में स्वर मधुर हो जाता है, क्रोध आने पर स्वर तीव्र और भारी हो जाता है, भय में स्वर काँप उठता है या घिग्घी बँध जाती है तथा चिन्ता की अवस्था में स्वर तीव्र व कर्कश हो जाता है। इस प्रकार संवेग के समय हमारे स्वर की गम्भीरता, ऊँचाई तथा गति सामान्यावस्था से अधिक हो जाती है। मनोवैज्ञानिक खोजों से ज्ञात होता है कि स्वर के आधार पर संवेग की पहचान कठिन है, क्योंकि संवेगावस्था में स्वर का परिवर्तन साधारण रूप से होता है। संगीतशास्त्र के अन्तर्गत विविध रागों के माध्यम से स्वरों में संवेग उत्पन्न करने की क्षमता रहती है।
(3) शारीरिक मुद्रा या आसनिक अभिव्यक्ति (Postural Expression) – संवेगात्मक दशाओं में शारीरिक मुद्राओं या आसनों में परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं। इसके अन्तर्गत शरीर की समूची स्थिति में परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। व्यक्ति के बैठने तथा खड़े होने के आसन संवेग के माध्यम से प्रभावित होते हैं। आसनों द्वारा संवेगों की अभिव्यक्ति में सामाजिक रीति-रिवाज, परम्पराओं, शिक्षा तथा संस्कृति का पर्याप्त रूप से प्रभाव पड़ता है। हम देखते हैं कि क्रोध आने पर कुछ लोग इधर-उधर घूमने लगते हैं, कुछ गालियाँ बकते हैं, कुछ हाथों की मुट्ठियाँ तानकर हाथ फेंकते हैं, तनकर खड़े हो । जाते हैं, पैर पटकते हैं या दूसरे पर वार कर देते हैं।
आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन
(Internal Bodily Changes)
संवेग उत्पन्न होने के समय केवल बाह्य व्यवहार, मुद्राओं एवं अभिव्यक्तियों में ही परिवर्तन नहीं आते, अपितु व्यक्ति की अनेक आन्तरिक क्रियाओं में भी परिवर्तन आते हैं। निश्चय ही, ये आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन बाहर से दिखाई नहीं पड़ते हैं। इन परिवर्तनों का निरीक्षण करने के लिए मनोवैज्ञानिकों द्वारा अनेक विशिष्ट यन्त्रों को प्रयोग किया जाता है। संवेगावस्था में होने वाले विभिन्न आन्तरिक परिवर्तनों का सामान्य विवरण निम्नलिखित है –
(1) हृदय की गति में परिवर्तन (Change in the Heart-Beats) – सामान्यतः संवेगावस्था में हृदय की गति में कुछ-न-कुछ परिवर्तन अवश्य आता है। रक्त नलिकाओं के संकुचन अथवा प्रसारण के कारण व्यक्ति के अंग विशेष में रक्त का प्रवाह कम या अधिक होने के कारण हृदय गति प्रभावित होती है। रक्त प्रवाह तेज होने पर हृदय गति तेज हो जाती है। उदाहरणार्थ-क्रोध व लज्जा के कारण गालों का रंग लाल हो जाता है, किन्तु भय के कारण रक्तप्रवाह धीमा होने की वजह से हृदय गति भी मन्द रहती है और चेहरे का रंग पीला या सफेद पड़ जाता है। हृदय गति के परिवर्तन को इलेक्ट्रोकार्डियोग्राफ नामक यन्त्र द्वारा मापते हैं।
(2) रक्तचाप में परिवर्तन (Change in Blood Pressure) – संवेगावस्था में रक्तचाप में परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। हृदय जिस शक्ति या दाब से शरीर के विभिन्न अंगों को रक्त भेजता है उसे रक्तचाप कहते हैं। रक्तचाप की माप प्लेथिस्मोग्राफ (Plethysmograph) नामक यन्त्र की सहायता से की जाती है। वस्तुतः रक्तचाप को संवेग की दशाओं का ज्ञान करने के लिए एक प्रभावकारी सूचक मान लिया गया है। जो व्यक्ति किसी विशेष संवेग के प्रति अभ्यस्त हो जाते हैं उनके रक्तचाप में कोई परिवर्तन नहीं मिलता, किन्तु संवेग के अनभ्यस्त लोगों का रक्तचाप संवेगावस्था में बदल जाता है। झूठ बोलने वाले अनभ्यस्त लोगों का रक्तचाप बढ़ जाता है, किन्तु झूठ बोलने वाले अभ्यस्त व्यक्तियों के रक्तचाप में कोई परिवर्तन नहीं होता। इसी के आधार पर मनोवैज्ञानिक लोग अपराधियों की बातों से झूठ या सच का पता लगा लेते हैं।
(3) रक्त-रसायन में परिवर्तन (Change in Blood Chemicals) – रासायनिक तत्त्वों में परिवर्तन मापने वाले यन्त्रों के प्रयोग से ज्ञात हुआ है कि संवेगावस्था में रक्त-रसायन (रक्त के रासायनिक तत्त्वों) में भी परिवर्तन आते हैं। संवेग जाग्रत होने पर रक्त की श्वेत एवं लाल रक्त कणिकाओं की संरचना बदल जाती है। कैनन आदि मनोवैज्ञानिकों ने कुत्ते, बिल्ली और मानव पर विभिन्न प्रयोग किये हैं। ज्ञात होता है क़ि क्रोध की संवेगावस्था में मानव की अभिवृक्क ग्रन्थियाँ, अभिवृक्की (Adrenaline) नामक रस निकालती हैं। यह रस सीधा रक्त में मिलकर रक्त की शर्करा को बढ़ा देता है, जिससे व्यक्ति को अधिक शक्ति अनुभव होती है। अतः संवेग में रक्त-रसायन में परिवर्तन आते हैं।
(4) रसपरिपाक में परिवर्तन (Change in Metabolic) – रसपरिपाक अर्थात् पाचन-क्रिया में परिवर्तन, संवेगावस्था का एक महत्त्वपूर्ण आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन है। रसपरिपाक की प्रक्रिया के अन्तर्गत भोजन का पाचन होता है और वह रक्त में मिलता है। बसविक नामक मनोवैज्ञानिक के प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि भय, क्रोध तथा दु:ख आदि की संवेगावस्था में रसपरिपाक की प्रक्रिया बन्द हो जाती है, किन्तु आश्चर्य का संवेग उसमें वृद्धि लाता है जबकि प्रसन्नता तथा हँसी-मजाक के दौरान किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। कैनन ने इस सम्बन्ध में बिल्ली पर प्रयोग किये। प्रयोग में बिल्ली को खाना खिलाया गया जिसके उपरान्त उसमें रसपरिपाक (पाचन) की क्रिया प्रारम्भ हो गयी। तभी उसके सामने एक कुत्ते को लाया गया जिसे देखते ही भय का संवेग उत्पन्न होने के कारण रसपरिपाक की क्रिया बन्द हो गयी। इससे सिद्ध हुआ कि भय का संवेग उठने पर रसपरिपाक की क्रिया अक्रुद्ध हो जाती है।
(5) साँस की गति में परिवर्तन (Change in Rate of Respiration) – संवेगावस्था में सॉस की गति में परिवर्तन आ जाता हैं। सामान्य अवस्था में साँस की गति निश्चित रहती है और श्वासप्रश्वास का अनुपात 1:4 होता है। क्रोध, हर्ष तथा प्रत्याशा आदि के संवेग में साँस की गति बढ़ जाती है, जबकि भय, दुःख तथा आश्चर्य आदि के समय इसकी गति कम हो जाती है अथवा रुक जाती है। साँस की गति को न्यूमोग्राफ (Pneumograph) नामक यन्त्र की सहायता से मापते हैं।
(6) वैद्युत त्वक अनुक्रिया में परिवर्तन (Change in Galvanic Skin Response) – संवेग की स्थिति में वैद्युत त्वक्-अनुक्रिया निश्चित रूप से उपस्थित रहती है। यह त्वचा की विद्युत अवरोधों की क्रिया है। त्वक्-अनुक्रिया परिवर्तन के अन्तर्गत शरीर में रोमांच या सिहरन पैदा होना, रोंगटे खड़े हो जाने या पसीने की ग्रन्थियों में परिवर्तन आना दृष्टिगोचर होते हैं। इनसे संवेगावस्था का न्यूनाधिक आभास मिल ही जाता है। इसे साइकोगैल्वनोमीटर (Psychogalvanometer) की सहायता से मापा जाता है।
(7) मस्तिष्क तरंगों में परिवर्तन (Change in Brain waves) – संवेगावस्था में मस्तिष्क तरंगों की आवृत्ति में भी परिवर्तन पाया जाता है। इस प्रकार के परिवर्तनों में सहानुभूतिक नाड़ी मण्डल तथा उपसहानुभूतिक नाड़ी मण्डल जो स्वतन्त्र स्नायु मण्डल के भाग हैं, प्रभावित होते हैं।
निष्कर्ष यह है कि साधारण रूप से एक ही प्रकार के आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन विभिन्न संवेगावस्थाओं में मिलते हैं तथा हर एक संवेग के दौरान एक विशिष्ट प्रकार के आन्तरिक परिवर्तनों की एक जैसी श्रृंखला नहीं पायी जाती।
प्रश्न 5.
संवेग के जेम्स-लॉज सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत कीजिए।
या
जेम्स लॉज का संवेग सम्बन्धी सिद्धान्त क्या है?
या
संवेग के सम्बन्ध में विभिन्न मतों (सिद्धान्तों) का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
संवेग के सिद्धान्त
(Theories of Emotion)
यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि संवेगावस्था में शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन होते हैं। दूसरे शब्दों में, संवेगों का बाह्य तथा आन्तरिक शारीरिक परिवर्तनों के साथ गहरा सम्बन्ध है। प्रश्न यह उठता है कि संवेगावस्था में होने वाले इन परिवर्तनों का आधार क्या है ? संवेग की दशा में पहले शारीरिक परिवर्तन आते हैं यो मानसिक परिवर्तन ? इन आधारों को समझने के लिए मनोवैज्ञानिकों द्वारा अध्ययन किये गये हैं जिनके परिणामस्वरूप इस सम्बन्ध में समय-समय पर अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ है। विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रस्तुत सिद्धान्तों में से प्रमुख सिद्धान्त ये हैं –
- जेम्स-लाँज का सिद्धान्त;
- कैनन-बार्ड का सिद्धान्त;
- लीपर का प्रेरणात्मक सिद्धान्त;
- सक्रियकरण सिद्धान्त।
जेम्स-लॉज का सिद्धान्त
(James-Lange Theory)
संवेग सम्बन्धी ‘जेम्स-लॉज का सिद्धान्त’ दो मनोवैज्ञानिकों के पृथक् एवं स्वतन्त्र प्रयासों का परिणाम है। अमेरिका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स तथा डेनमार्क के दैहिक मनोवैज्ञानिक लाँज ने स्वतन्त्र रूप से अलग-अलग कार्य करते हुए सन् 1884-85 में अपने-अपने संवेग विषयक सिद्धान्त प्रस्तुत किए। संयोगवश दोनों विद्वानों ने लगभग एक जैसे ही विचारों का प्रतिपादन किया था। इसी कारण इनके द्वारा प्रस्तुत किए गए निष्कर्षों को संयुक्त रूप से जेम्स-लॉज सिद्धान्त का नाम दिया गया।
सिद्धान्त की व्याख्या – संवेगों के सम्बन्ध में एक सामान्य सिद्धान्त या विचारधारा प्रचलित है। जिसके अनुसार सर्वप्रथम संवेगात्मक अनुभूति होती है और इसके बाद संवेगात्मक व्यवहार होता है। इसका अभिप्राय यह है कि किसी उत्तेजना के सम्पर्क में आने वाला व्यक्ति पहले किसी परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण करता है, तब उसके अन्दर मानसिक परिवर्तन होते हैं जो शारीरिक परिवर्तनों को जन्म देते हैं और इस प्रकार वह कोई कार्य (व्यवहार) करता है। उदाहरण के लिए–बहुत दिनों के बाद एक माँ अपने बेटे को देखती है जिससे उसके अन्दर मानसिक परिवर्तन आते हैं और वात्सल्य का संवेग जन्म लेता है। यह वात्सल्य को संवेग प्यार, दुलार और आलिंगन जैसी शारीरिक क्रियाओं द्वारा व्यक्त होता है। सामान्य सिद्धान्त को निम्न प्रकार से भली प्रकार समझा जा सकता है –
व्यक्ति को उत्तेजना से सम्पर्क → परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण →
मानसिक परिवर्तन (संवेगात्मक अनुभूति) → शारीरिक परिवर्तन एवं क्रियाएँ
किन्तु जेम्स और लॉज उपर्युक्त प्रचलित विचारधारा के विपरीत अपनी अवधारणा प्रस्तुत करते हैं जिसके अनुसार व्यक्ति के विशिष्ट संवेगात्मक व्यवहार (अथवा शारीरिक परिवर्तनों) के फलस्वरूप ही अभीष्ट संवेगों की अनुभूति होती है। विलियम जेम्स ने अपने विचारों को इस प्रकार प्रकट किया है, मेरा सिद्धान्त है कि शारीरिक परिवर्तन उद्दीपक के प्रत्यक्षीकरण के तुरन्त बाद होता है और जैसे ही वे संवेग में होते हैं उनके प्रति हमारी अनुभूति बदल जाती है।’ संवेगात्मक व्यवहार के विषय में उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है, “हमें दुःख होता है क्योंकि हम रोते हैं, क्रोध उत्पन्न होता है क्योंकि हम मारते हैं, भय लगता है क्योंकि हमें काँपते हैं, हम इसलिए नहीं रोते, मारते या काँपते क्योंकि हमें दु:ख होता है, क्रोध उत्पन्न होता है या भय लगता है।” जेम्स के ही समान लाँज ने भी संवेगों की उत्पत्ति के लिए शारीरिक क्रियाओं को जिम्मेदार माना। लॉज के शब्दों में, “हमारे हर्षों और विषादों के लिए, हमारे आनन्दों और व्यथाओं के लिए, हमारे मानसिक जीवन के सम्पूर्ण संवेदनात्मक पहलू के लिए वाहिनी पेशी संस्थान उत्तरदायी है।”
जेम्स-लाँज सिंद्धान्त का सार-संक्षेप यह है कि उद्दीपने के उपस्थित होने पर व्यक्ति में क्रियाओं का प्रारम्भ होता है और उसके शरीर में कुछ परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। इन क्रियाओं और परिवर्तनों का ज्ञान व्यक्ति के अन्दर संवेग पैदा करता है जिसकी उसे अनुभूति होती है। इसे निम्न प्रकार से भली प्रकारे समझ सकते हैं।
परिस्थिति को प्रत्यक्षीकरण शारीरिक परिवर्तन एवं क्रियाएँ →
मानसिक परिवर्तन (संवेगात्मक अनुभूति)
जेम्स-लॉज सिद्धान्त के पक्ष में तर्क या प्रमाण
जेम्स-लाँज ने अपने संवेग सम्बन्धी सिद्धान्त को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित तर्क या प्रमाण प्रस्तुत किये हैं –
(1) संवेग जाग्रत होने से पूर्व शारीरिक परिवर्तनों की उत्पत्ति – यदि कोई उद्दीपक अचानक ही उपस्थित हो जाए तो संवेग जाग्रत होने से पूर्व ही कुछ शारीरिक परिवर्तन उत्पन्न हो जाते हैं। इस बारे में जेम्स का मत है कि अगर कोई व्यक्ति अन्धकार में किसी काली चीज को अचानक देख ले तो किसी संवेग के जगने से पहले ही उसके हृदय की धड़कनें बढ़ जाती हैं, मुँह सूख जाता है और वह हाँफने लगता है। इसके अलावा किसी भयंकर ध्वनि या धमाके को सुनकर भी व्यक्ति बिना किसी संवेग के चौंक उठती है। इसके बाद जब वह उस ध्वनि या धमाके का अभिप्राय समझता है तो उसमें भय अथवा आश्चर्य उत्पन्न होता है।
(2) शारीरिक अभिव्यक्ति का संवेग से घनिष्ठ सम्बन्ध – शरीर के अंगों की अभिव्यक्ति को संवेग से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध होना जेम्स-लाँज सिद्धान्त’ के पक्ष में एक महत्त्वपूर्ण तर्क है। ऐसे संवेग की कल्पना करना दुष्कर है जिसमें शारीरिक अंगों की अभिव्यक्ति न होती हो। संवेग की अनुभूति के लिए तद्नुरूप शारीरिक आसन (Bodily Posture) का होना बहुत जरूरी है।
(3) शारीरिक अभिव्यक्ति के विरोधस्वरूप संवेग का भी विरोध – यदि शारीरिक अंगों की अभिव्यक्ति का विरोध किया जाए तो इसके फलस्वरूप तत्सम्बन्धी संवेग को भी विरोध हो सकता है। यदि कोई उद्दीपक सम्मुख आ जाए और उसके प्रति की जाने वाली स्वाभाविक क्रियाओं को हम रोक लें तो संवेग जाग्रत नहीं होगा। जेम्स के अनुसार, यदि किसी की मृत्यु पर कोई रुदन-क्रन्दन न केरे अथवा ऐसी ही कोई शारीरिक क्रिया प्रदर्शित न करे तो दुःख का संवेग नहीं माना जायेगा।
(4) कृत्रिम अभिव्यक्तियों के माध्यम से संवेग की जाग्रति – कृत्रिम अर्थात् बनावटी ढंग से शारीरिक अंगों की अभिव्यक्तिंयाँ प्रदर्शित करने से संवेग जाग्रत हो जाते हैं। इसे जेम्स ने फिल्म और नाटक के अभिनेताओं और अभिनेत्रियों का उदाहरण प्रस्तुत कर समझाया है। ये कलाकार फिल्म और नाटक में अभिनय के दौरान कृत्रिम व्यवहार अथवा क्रियाओं तथा हाव-भावों का प्रदर्शन कर संवेगाभिव्यक्ति करते हैं। यह बनावटी व्यवहार या क्रियाएँ उनमें तत्सम्बन्धी संवेग को जाग्रत कर देते हैं। जिससे उनका अभिनय जीवन्त एवं सफल हो जाता है।
(5) शराब अथवा नशीले पदार्थों के सेवन से संवेग की उत्पत्ति – शराब तथा अन्य नशीले पदार्थों के सेवन से भी संवेग की उत्पत्ति होती है। इसका कारण यह है कि इन उत्तेजक पदार्थों के कारण शारीरिक अवस्था कुछ इस प्रकार की हो जाती है कि वह विभिन्न संवेगों को उत्पन्न कर देती है। जेम्स स्वीकार करता है कि किसी व्यक्ति द्वारा मादक या नशीले पदार्थों का सेवन करने से, बिना किसी बाहरी उद्दीपक के, उसमें स्वत: ही खुशी, दु:ख, साहस, करुणा आदि के संवेग उत्पन्न होने लगते हैं।
(6) रोगों से संवेग की उत्पत्ति – जेम्स का मत है कि किन्हीं रोगों में बाह्य उद्दीपन के बिना ही संवेग उत्पन्न होने लगते हैं। उसके अनुसार, “यकृत के रोग अवसाद तथा चिड़चिड़ाहट उत्पन्न करते हैं, जबकि स्नायविक रोग भय एवं निराशा को जन्म देते हैं।”
स्पष्टत: उपर्युक्त वर्णित एवं जेम्स द्वारा पुष्ट किये गये तर्को तथा प्रमाणों के आधार पर ‘जेम्स-लॉज सिद्धान्त’ की यह अवधारणा सिद्ध होती है, “जब तक शारीरिक व्यवहार नहीं होगा, तब तक उससे सम्बन्धित संवैग की अनुभूति हमें नहीं होगी।”
जेम्स-लाँज सिद्धान्त के विपक्ष में तर्क या आलोचना
जेम्स-लॉज के सिद्धान्त के प्रस्तुतीकरण के उपरान्त विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने इस सिद्धान्त की प्रयोगात्मक परीक्षा की। सिद्धान्त की जाँच के पश्चात् बहुत-से मनोवैज्ञानिक इस विचार से सहमत नहीं थे कि शारीरिक परिवर्तनों के बाद ही संवेग की अनुभूति होती है। फलतः इस सिद्धान्त की कटु आलोचना हुई और इसके विपक्ष में निम्नलिखित तर्क या प्रमाण प्रस्तुत किये गये –
(1) शेरिंगटन (Sherington) ने एक कुत्ते पर प्रयोग करके जेम्स-लॉज के सिद्धान्त के विरुद्ध यह सिद्ध कर दिया कि शारीरिक परिवर्तनों के अभाव में भी संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ सम्भव हैं। शेरिंगटन द्वारा एक कुत्ते के गले की नाड़ियों को इस भॉति पृथक् कर दिया गया कि जिससे उसके आन्तरिक परिवर्तनों का सन्देश उसके मस्तिष्क को न मिले। कुत्ते के सम्मुख संवेगात्मक परिस्थितियाँ उत्पन्न करने पर पाया गया कि कुत्ते ने प्रत्येक संवेग को पूर्ण अभिव्यक्ति दी। इस प्रकार कुत्ता शारीरिक परिवर्तनों के बिना भी संवेगों का अनुभव कर रहा था। यह प्रमाण जेम्स-लाँज के सिद्धान्त का विरोध करता है।
(2) कैनन (Canon) ने बिल्लियों पर प्रयोग किये। बिल्ली के स्वतन्त्र स्नायु मण्डल की माध्यमिक या सहानुभूति स्नायुओं को शल्य क्रिया द्वारा काटकर अलग कर दिया गया। निरीक्षण के दौरान पाया गया कि संवेगावस्था में आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन तो बन्द हो गये, किन्तु बाह्य अभिव्यक्ति पहले की तरह होती रही। बिल्ली के सामने क्रोध का उद्दीपक आने पर वह गुर्रायी तथा कान को पीछे की तरफ भी खींचा। इस प्रकार क्रोध के बाह्य लक्षण अभिव्यक्त करके भी उसमें आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं हुए।
(3) जेम्स-लाँज के संवेग सम्बन्धी सिद्धान्त की मान्यता है कि किसी संवेग की उत्पत्ति के लिए सम्बन्धित वस्तु का प्रत्यक्षीकरण ही काफी होता है। आलोचकों ने इस मान्यता को अस्वीकार किया है। तर्क यह है कि यदि यह मान्यता सत्य होती तो किसी एक वस्तु या घटना के प्रत्यक्षीकरण के परिणामस्वरूप प्रत्येक परिस्थिति में एक ही प्रकार की प्रतिक्रिया प्रकट की जाती, परन्तु व्यवहार में प्रायः ऐसा नहीं होता। बार्ड ने एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है, “मान लीजिए, जेम्स का मुकाबला पहले तो पिंजरे में बन्द भालू• से होता है और तत्पश्चात् खुले हुए भालू से। पहली वस्तु (भालु) को वह मूंगफली देता है और दूसरी वस्तु (उसी भालू) से भागता है।” प्रस्तुत उदाहरण द्वारा स्पष्ट होता है कि किसी संवेग की उत्पत्ति के लिए अभीष्ट वस्तु के साथ ही कुछ परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना आवश्यक होता है। इस तर्क द्वारा भी जेम्स-लॉज सिद्धान्त को खण्डन किया गया है।
(4) डॉ० डाना (Dr. Dana) ने एक चालीस वर्षीय महिला के सम्बन्ध में भी, जो घोड़ेसे गिर गयी थी, यही कुछ पाया। महिला की गर्दन में चोट आ जाने के कारण उसका सहानुभूतिक नाड़ीमण्डल संवेदना प्राप्त नहीं कर पाता था, किन्तु वह संवेगों की अनुभूति कर उन्हें भली-भांति प्रकट कर सकती थी। इससे पता चला कि संवेगात्मक अनुभूति के लिए अन्तरावयव संवेदनाएँ तथा शारीरिक परिवर्तन आवश्यक नहीं हैं।
(5) आर्चर (Archer) नामक मनोवैज्ञानिक ने जब फिल्म और नाटक से जुड़े अभिनेताओं के सम्बन्ध में जाँच की तो इसके परिणाम जेम्स की अवधारणा के विपरीत हासिल हुए। बहुत से कलाकारों ने व्यक्त किया कि शारीरिक अंगों की अभिव्यक्ति के समय उन्हें किसी प्रकार की संवेगात्मक अनुभूति नहीं हुई।
(6) जेम्स-लाँज सिद्धान्त की मान्यता है कि शराब या मादक पदार्थों के सेवन से संवेग की उत्पत्ति होती है। अनेक व्यक्तियों को मादक तथा उत्तेजक पदार्थों का सेवन कराया गया, फिर भी उन्हें किसी प्रकार की संवेगात्मक अनुभूति नहीं हुई। इससे जेम्स-लाँज सिद्धान्त का खण्डन होता है।
(7) आन्तरिक परिवर्तन तथा जाठरिक उपद्रवों के सन्दर्भ में संवेगावस्था की जाँच करने के लिए मैरेनन केन्ड्रिल, हन्ट तथा कैनन ने प्रयोग किये, जिनसे सिद्ध हुआ कि आन्तरिक परिवर्तन तथा जठरिक उपद्रवों के होने पर भी संवेग का उठना आवश्यक नहीं है।
(8) शारीरिक अभिव्यक्तियों के आधार पर संवेग प्रकट नहीं होते। प्रायः देखा गया है कि विशिष्ट संवेग विशिष्ट प्रकार की शारीरिक अभिव्यक्तियों से सम्बन्ध नहीं रखते, बल्कि कई संवेगों के साथ ही एक ही प्रकार की शारीरिक अभिव्यक्ति होती है। दुःख और अत्यधिक हर्ष एकदम विपरीत संवेग हैं, किन्तु इनकी शारीरिक अभिव्यक्ति एकसमान है-दोनों में आँसू निकल पड़ते हैं।
(9) अन्तिम रूप से, यौन ग्रन्थियों के न रहने पर भी लोगों में यौन सम्बन्धी संवेग जाग्रत होते हुए देखा गया है-यह भी सिद्धान्त के विपरीत तथ्य है।
जेम्स-लाँज का सिद्धान्त मनोवैज्ञानिकों की कटु आलोचनाओं की परिधि में रहा और पूर्णत: मान्य न हो सका। स्वयं जेम्स को इन आलोचनाओं में वर्णित तथ्यों पर ध्यान देना पड़ा और उसने आगे चलकर अपनी विचारधारा में कुछ संशोधन भी किये जिसके परिणामस्वरूप सिद्धान्त का संशोधित रूप सामान्य विचारधारा के सदृश ही हो गया। फिर भी शारीरिक परिवर्तन तथा आंगिक क्रियाओं को महत्त्व प्रदान करने वाले इस सिद्धान्त का संवेग के क्षेत्र में अपूर्व योगदान रहा है।
प्रश्न 6.
कैनन के संवेग सम्बन्धी सिद्धान्त की विवेचना प्रस्तुत कीजिए।
या
संवेग सम्बन्धी कैनन-बार्ड सिद्धान्त का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
कैनन को संवेग सिद्धान्त
(Canon’s Theory of Emotion)
शारीरिक परिवर्तनों के ज्ञान तथा अनुभव करने को ही संवेग की संज्ञा देने वाले जेम्स-लॉज सिद्धान्त की विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने कटु आलोचना की। इन मनोवैज्ञानिकों में कैनन भी एक प्रमुख वैज्ञानिक है। कैनन और उनके सहयोगी बार्ड ने जेम्स-लाँज सिद्धान्त के विरुद्ध अपना सिद्धान्त प्रतिपादित किया, जिसे कैनन-बार्ड का सिद्धान्त (Canon-Bard Theory) के नाम से जाना जाता है, क्योंकि इस सिद्धान्त के अनुसार संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं में हाइपोथैलेमस का स्राव प्रमुख कार्य करता है; अतः इसे हाइपोथैलेमिक सिद्धान्त (Hypothalamic Theory) या आकस्मिक सिद्धान्त (Emergency Theory) भी कहते हैं।
कैनन-बार्ड सिद्धान्त की व्याख्या-मानव मस्तिष्क में संवेगात्मक अनुभूति का केन्द्र ‘वृहद् मस्तिष्क (Cerebral Cortex) है तथा संवेगात्मक अभिव्यक्ति का केन्द्र ‘अ ्तर्मस्तिष्क (Diencephalon) है। इसके दो मुख्य भाग हैं–हाइपोथैलेमस तथा थैलेमस। हाइपोथैलेमस ग्रन्थि , समस्त संवेगों का केन्द्र है तथा इसका स्राव संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं में मुख्य रूप से कार्य करती है। संवेग की क्रिया के समय सर्वप्रथम तो संवेगात्मक परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण होता है जिसके कारण हाइपोथैलेमस उत्तेजित हो उठता है। अत: सबसे पहले आदेश या संवेग हाइपोथैलेमस में उत्पन्न होता है। इसके बाद यह एक साथ ही वृहद् मस्तिष्क के कॉक्स तथा आन्तरिक अंगों की माँसपेशियों में जाता है। परिणामस्वरूप संवेगात्मक अनुभूति तथा संवेगात्मक व्यवहार एक साथ दिखाई पड़ते हैं। वस्तुतः कैनन-बार्ड सिद्धान्त की अवधारणा के अनुसार संवेगात्मक अनुभूति तथा संवेगात्मक व्यवहार दोनों की उत्पत्ति एक साथ ही एवं परस्पर स्वतन्त्र रूप से होती है।
होता यह है कि सर्वप्रथम परिस्थिति या उद्दीपक संग्राहकों को प्रभावित करती है जिससे ज्ञानवाही नाड़ियों के माध्यम से स्नायु-प्रवाह थैलेमस में पहुँचता है। थैलेमस में इस स्नायु-प्रवाह के साथ संवेगात्मक तत्त्व सम्मिलित होते हैं और अब यह प्रवाह वृहद् मस्तिष्क में भेज दिया जाता है। फलस्वरूप व्यक्ति-विशेष में किसी संवेग का अनुभव पैदा होता है। जिस समय स्नायु प्रवाह वृहद् मस्तिष्क की ओर चलता है तो थैलेमस द्वारा उसका कुछ भाग जठर तथा स्केलेटल मांसपेशियों की तरफ मोड़ दिया जाता है। इस भॉति सांवेगिक क्रियाएँ उत्पन्न होती हैं।
सिद्धान्त की विशेषताएँ – कैनन-बार्ड या हाइपोथैलेमिक सिद्धान्त, जेम्स-लॉज सिद्धान्त के विरोध में प्राप्त परिणामों की उचित रूप से व्याख्या करने में सफल पाया गया। इस विचारधारा के माध्यम से पूर्व प्रतिपादित सिद्धान्त की भ्रान्त धारणाओं को सुधारने का प्रयास हुआ है। कैनन सिद्धान्त के अनुसार जब आन्तरिक अवयव तथा वृहद् मस्तिष्क का सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है तो उस दशा में भी वृहद् मस्तिष्क तथा हाइपोथैलेमस का आपसी सम्बन्ध बना रहता है। जेम्स-लॉज सिद्धान्त के अनुसार यदि सुषुम्ना नाड़ी गर्दन के पास से काट दी जाये या कट जाये तो आन्तरिक अवयवों से सम्बन्धित क्रियाएँ रुक जाएँगी और संवेग उत्पन्न नहीं होगा। इसके विपरीत, कैनन सिद्धान्त के अनुसार संवेग का आवेश हाइपोथैलेमस ग्रन्थि में उत्पन्न होता है तथा वृहद् मस्तिष्क की कॉर्टेक्स में चला जाता है, इसलिए संवेग की अनुभूति सुषुम्ना के कट जाने पर भी रहती है, क्योंकि हाइपोथैलेमस ग्रन्थि को क्रियाशील होने में जरा भी समय नहीं लगता, अतः संवेग की अनुभूति भी अविलम्ब ही हो जाती है। स्पष्ट है कि जेम्स-लॉज के सिद्धान्त की तुलना में कैनन का सिद्धान्त अधिक उपयुक्त है और इस तथ्य की पुष्टि करता है कि संवेगात्मक अनुभूति और संवेगात्मक व्यवहार दोनों एक साथ ही होते हैं।
सिद्धान्त के दोष – कैनन-बार्ड या हाइपोथैलेमिक सिद्धान्त भी पूर्णतः दोषमुक्त नहीं है। इस सिद्धान्त के दोष निम्न प्रकार हैं –
- हाइपोथैलेमिक सिद्धान्त संवेगावस्था के अन्तर्गत सिर्फ हाइपोथैलेमस को महत्त्व प्रदान करता है, जबकि वास्तव में, हाइपोथैलेमस द्वारा उत्पन्न संवेगात्मक व्यवहार न केवल क्षणिक होता है अपितु स्वाभाविक या प्राकृतिक संवेगात्मक व्यवहार से भिन्न भी होता है।
- संवेगों की उत्पत्ति के लिए, हाइपोथैलेमस के अतिरिक्त, स्नायु संस्थान के कुछ भाग भी उत्तरदायी हैं तथा अपना पृथक् महत्त्व रखते हैं।
- इन अन्य भागों द्वारा उत्पन्न व्यवहार परिस्थिति से समायोजन की क्षमता रखता है लेकिन हाइपोथैलेमस से उपजे संवेगात्मक व्यवहार में यह क्षमता नहीं होती।
- अन्ततः यह बात सिद्ध नहीं हो सकी है कि संवेगात्मक अनुभूति की उत्पत्ति में केवल हाइपोथैलेमिक क्रियाएँ ही महत्त्व रखती हैं।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
मानव-जीवन में संवेगों के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
कोई भी व्यक्ति अनेकानेक मनोवैज्ञानिक कारणों से व्यवहार प्रदर्शित करता है। संवेग भी एक प्रबल मनौवैज्ञानिक कारण है जो व्यक्ति के विशिष्ट व्यवहार को जन्म देता है। वस्तुतः मानव-जीवन से सम्बन्धित अनुभवों तथा व्यवहारों में संवेग महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। मनुष्य में परिस्थिति के प्रति अनुक्रिया करने की प्रेरणा संवेग से ही आती है, जबकि संवेग के अभाव में वह स्वयं को निष्क्रिय पाता है। वीरता और शौर्य के असामान्य कार्यों की प्रेरणा मानव को संवेगों से ही मिलती है। युद्धभूमि में राष्ट्र के लिए प्राण न्योछावर करने वाला देशभक्त सिपाही बुद्धि से नहीं, संवेगों से प्रेरित होता है। हँसते-हँसते फॉसी का फन्दा चूमने वाले अमर शहीद भगत सिंह का असामान्य व्यवहार संवेगों से ही परिचालित था। संवेग की अवस्था में मनुष्य कभी-कभी ऐसे अद्भुत कार्य कर डालता है। जिनकी वह सामान्य अवस्था में कल्पना भी नहीं कर सकता। तेज ज्वर से पीड़ित बीमार होते हुए भी माता अपने शिशु को सूखे स्थान पर सुलाती है और स्वयं गीले स्थान पर लेटती है। माता-पिता का अपने बच्चों के लिए त्याग वात्सल्य के संवेग के कारण है।
भावात्मक अनुभवों के आधार पर भी कुछ व्यवहार किये जाते हैं। सहानुभूति से द्रवित होकर कोई व्यक्ति अपनी क्षमता से अधिक ऐसे लोगों की मदद कर सकता है जो सहानुभूति के पात्र हैं; किन्तु यदा-कदा सहानुभूति में किया गया व्यवहार सिर्फ कर्तव्य पूर्ति के लिए ही होता है। सामाजिक कर्तव्य का | निर्वाह करने की दृष्टि से ऐसे व्यक्ति के यहाँ शोक संवेदना व्यक्त करने जाना पड़ता है, जिनसे हमारे विचार कभी नहीं मिलते। इसी प्रकार न चाहते हुए, केवल प्रदर्शन के लिए ही उत्सव में भी सम्मिलित होना पड़ता है। मैक्डूगल ने इसे मिथ्या-प्रवृत्ति (Pseudo-Instinct) का नाम दिया है।
प्रश्न 2.
संवेगों के अवदमन से क्या आशय है?
उत्तर :
मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में मानव-जीवन में संवेगों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। प्रायः संवेग शक्ति के प्रबल स्रोत के रूप में कार्य करते हैं। संवेगात्मक परिस्थिति में शरीर में असाधारण शक्ति को संचार होता है और संकटकालीन परिस्थितियों में यही शक्ति शरीर की रक्षा करने में सहायता करती है। आग से बचने के लिए बीमार और कमजोर व्यक्ति भी सिर पर पैर रखकर भाग लेता है और अपने प्राणों की रक्षा करता है, किन्तु यदि संवेगात्मक उद्दीपक अत्यधिक रूप से प्रभावशाली है तो वह मस्तिष्क को संज्ञाविहीन भी कर सकता है, जिससे शरीर की क्रियाशीलता समाप्त हो सकती है।
व्यक्ति, स्वहित में तथा समाज में अपनी भूमिका के सन्दर्भ में, संवेग की अभिव्यक्ति सुविचारित रूप से करता है और उन्हें नियन्त्रित रूप से ही प्रकट होने देता है। कोई भी व्यक्ति सभी के प्रति घृणा का भाव रखते हुए समाज में अच्छे सम्बन्ध स्थापित नहीं रख सकता, फलस्वरूप उसे घृणा से सम्बन्धित अपने संवेग पर नियन्त्रण रखना होगा। स्पष्टत: परिस्थिति विशेष में व्यक्ति अपने संवेगों का अवदमन (Repression of Emotions) करता है। मालिक ने नौकर को दुकान पर प्रताड़ित किया है, अन्दर-ही-अन्दर जला भुना नौकर घर जाते समय एक पहलवान व्यक्ति का अप्रिय व्यवहार भी सह जाता है और अपने क्रोध का प्रदर्शन नहीं कर पाता। नौकर खीझ में अपने क्रोध का अवदमन करती है।
प्रश्न 3.
संवेगों के अवदमन के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
संवेगों के अवदमन का कारण उनकी अभिव्यक्ति में बाधा उत्पन्न होना है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमण्ड फ्रॉयड के अनुसार, उन्हीं इच्छाओं तथा संवेगों का अवदमन सबसे ज्यादा होता है जिन्हें करने की आज्ञा हमारा आत्मसम्मान, परिवार या समाज हमें प्रदान नहीं करता है। हो सकता है, हमारी ये इच्छाएँ और संवेग समाज-विरोधी अथवा अश्लील हों।
फ्रॉयड ने मन के तीन विभाग बताये हैं – (i) चेतन मन, (ii) अवचेतन मन तथा (iii) अचेतन मन। अवदमने की यह क्रिया अचेतन रूप से होती है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत दु:खदायी तथा अवांछनीय विचार, स्मृतियाँ तथा प्रवृत्तियाँ चेतन से अवचेतन और फिर अचेतन मन की ओर भेज दिये जाते हैं। व्यक्ति की कोई भी इच्छा, भावना तथा संवेग सबसे पहले चेतन मन में स्थान पाते हैं। चेतन मन इनकी अभिव्यक्ति, पूर्ति एवं सन्तुष्टि के लिए प्रयासरत रहता है, किन्तु यदि इसमें कोई बाधा आती है तो उन्हें अचेतन मन की ओर धकेल दिया जाता है। अवचेतन मन, यद्यपि इन संवेगों के प्रकाशन एवं पूर्ति के लिए यथासम्भव प्रयास करता है, किन्तु मन के इस विभाग में, चेतन में बनी इच्छाओं के कारण इन्हें स्पष्टता नहीं मिलती और अपनी अभिव्यक्ति के लिए इन्हें अचेतन मन में जाना पड़ता है। इस भाँति चेतन मन के जो संवेग परिस्थितियों के कारण सन्तुष्ट नहीं हो पाते या खुले रूप से अभिव्यक्त नहीं हो पाते, उनका अचेतन मन में अवदमन हो जाता है।
क्योंकि समस्त असन्तुष्ट तथा अप्रदर्शित विचार, स्मृतियाँ, प्रवृत्तियाँ, इच्छाएँ तथा संवेग, अन्ततोगत्वा, अचेतन मन में संगृहीत होते जाते हैं; अतः स्वभावतः, अचेतन मन, चेतन मन की अपेक्षा काफी बड़ा हो जाता है। यह समुद्र में उत्प्लवन करते हिमखण्ड की भाँति है, जिसका एक-चौथाई अंश पानी के ऊपर है और तीन-चौथाई अंश पानी में डूबा हुआ। वस्तुत: चेतन मन सारे समाज-विरोधी, अश्लील अथवा यौनजनित संवेगों को अवचेतन मन में ठेलकर उन्हें पुनः अपने यहाँ वापिस नहीं आने देता। यही कारण है कि इन्हें अवदमित संवेगों के नाम से जाना जाता है।
प्रश्न 4.
संवेगों के अवदमन का मानव-व्यवहार पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर :
संवेगों के छिपाने या अवदमन से मनुष्य के व्यवहार पर गहरा प्रभाव पड़ता है। व्यक्तित्व की सन्तुलित एवं साम्यावस्था के लिए संवेगों का अभिप्रकाशन तथा उनका अवदमन दोनों ही आवश्यक समझे जाते हैं। अत्यधिक रूप से अवदमित संवेग मानव स्वभाव एवं प्रकृति के विपरीत स्वीकार किये गये हैं। विद्वानों के अनुसार संवेगों का प्रकटीकरण एक प्राकृतिक आवश्यकता है और इसके प्रकटीकरण को जबरदस्ती रोक देने से अनेक विकृतियाँ जन्म ले सकती हैं।
मनोविश्लेषणवादियों ने दमित संवेगों से कई मानसिक तथा स्नायुविक व्याधियों का उल्लेख किया है। संवेगों का अवदमन मानव व्यक्तित्व को असामान्य तथा कुण्ठा ग्रस्त बना देता है, जिससे व्यक्तित्व का समुचित तथा अभीष्ट विकास अवरुद्ध हो जाता है।
अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि जिस व्यक्ति की इच्छाएँ, भावनाएँ या संवेग पूर्णतः सन्तुष्ट नहीं हो पाते, उनके व्यबहारों में असामान्यता उत्पन्न होने लगती है, उनका व्यक्तित्व विच्छेदन की ओर उन्मुख होने लगता है तथा वे अनेक मानसिक रोगों के शिकार हो जाते हैं। उनमें आत्महीनता, शक, ईष्र्या तथा डर के भाव उत्पन्न हो जाते हैं तथा मानसिक विकृतियों की वजह से वे ज्यादातर शारीरिक-मानसिक तनाव से कष्ट पाते रहते हैं। स्पष्टतः संवेगों का अवदमन एक निश्चित सीमा से अधिक उचित नहीं कहा जा सकता।
प्रश्न 5.
संवेगों के नियन्त्रण के समुचित उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
यह सत्य हैं कि समाज में रहते हुए व्यक्ति अपने संवेगों की पूर्ण रूप से मुक्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता, परन्तु संवेगों का अत्यधिक अवदमन किसी समय विस्फोटक स्थिति को जन्म दे सकता है। सामाजिक परिस्थितियों के साथ तालमेल की दृष्टि से संवेगों पर काबू रखने के लिए और उन्हें स्वाभाविक रूप में प्रकटित होने का अवसर प्रदान करने के लिए निम्नलिखित उपाय प्रयुक्त हो सकते हैं –
(1) अवांछनीय संवेगों के विपरीत परिस्थितियों का सृजन – अवांछनीय संवेगों को रोकने का एक उपाय यह है कि उनके विपरीत परिस्थितियों अथवा विरोधी संवेगों को प्रोत्साहित किया जाए। इस भाँति वांछनीय संवेगों की उत्पत्ति के लिए उसे वातावरण तथा परिस्थिति पर काबू पाना होगी जो अवांछनीय संवेगों के लिए उत्तरदायी है। शोक को कम करने के लिए सुखकारी परिस्थितियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
(2) संवेगों का रेचन – रेचन (Chatharsis) से अभिप्राय ‘भड़ास निकालने या भावनाओं को उभारने से है। संवेगों के रेचन से अनचाहे भाव शान्त होते हैं तथा प्राकृतिक आनन्द की प्राप्ति होती है। भय के संवेग को उभारकर बाहर निकालने के लिए बहुत से लोग डरावनी कहानियाँ या घटनाएँ पढ़ते हैं। पति की मृत्यु के आघात से यदि शोकाकुल पत्नी गुमसुम बैठी है और रो नहीं पा रही तो यह भयंकर रूप से हानिकारक हो सकता है। अक्सर स्त्रियाँ जोर-जोर से विलाप कर किसी भी प्रकार उसके दुःख के संवेग को उभारकर उसे रोने के लिए प्रेरित करती हैं। रोने से जी हल्का होता है तथा चित्त को शान्ति मिलती है।
(3) संवेगों का शोधन – इसके अन्तर्गत संवेगात्मक अभिव्यक्ति के परिमार्जन एवं परिवर्द्धन द्वारा स्वस्थ मानसिकता को उत्पन्न किया जाता है। संगीत, चित्रकला, लेखन तथा काव्य आदि के माध्यम से संवेगों को उत्तम अभिव्यक्ति मिलती है।
(4) संवेग का मार्ग परिवर्तन – मार्ग परिवर्तन द्वारा भी संवेग को नियन्त्रित किया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति में घृणा का संवेगात्मक प्रकाशन अधिक होता है तो उसे अपने घृणा का भाव दुर्जन व्यक्तियों पर करना चाहिए न कि सज्जन व्यक्तियों पर।
प्रश्न 6.
बाल्यावस्था में संवेगों के होने वाले अवदमन के सम्भावित कुप्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार बालक में संवेगात्मक व्यवहार शनैः-शनैः विकसित होते हैं और आयु में वृद्धि के साथ-ही-साथ उसके संवेगात्मक व्यवहार स्पष्ट होने लगते हैं। अध्ययन बताते हैं कि संवेगात्मक व्यवहार का विकास नाड़ी-पेशीय यन्त्रों की परिपक्वता पर निर्भर करता है। जीवन के विकास-क्रम में नयी-नयी परिस्थितियों तथा वातावरण के सम्पर्क में आकर बालक नयी-नयी क्रियाओं को सीखता है और इस प्रकार वह साधारण से जटिल संवेगात्मक अवस्थाओं की ओर बढ़ता है। पारिवारिक परिस्थितियों में बालक के प्राकृतिक संवेगों को समाज की सभ्यता, संस्कृति, दर्शन एवं मान्यताओं के अनुसार ढालने की कोशिश की जाती है। इस अनुकूलन के लिए संवेगावस्था पर । नियन्त्रण एक पूर्व आवश्यकता है, किन्तु नियन्त्रण की सीमाओं का अतिक्रमण करने से उत्पन्न भय एवं दबाव की परिस्थितियाँ ‘संवेगों के अवदर्मन’ को जन्म देंगी और बालक स्वयं को तनाव में महसूस करेगा। बालक को जबरदस्त भूख लगी है लेकिन उसे भोजन नहीं मिल पा रहा। क्योंकि उसकी इच्छाओं की तृप्ति में बाधा आ रही है; अतः इससे क्रोध का जन्म होगा ही। यदि बालक को अधिक डराया-धमकाया जाएगा तो वह क्रोध प्रकट न करके अन्दर-ही-अन्दर कुंठित होगा। अवदमन के कारण कुण्ठित और हीनमानसिकता से ग्रस्त व्यक्तित्व आत्मविश्वास में कमी, दब्बूपन, खीझ, मार-पीट, तोड़-फोड़ तथा विद्रोहात्मक रवैये को जन्म देता है। कभी-कभी बालक अपनी हीनभावनाएँ छुपाने के लिए तथा कुण्ठाओं के परिणामस्वरूप अनेक प्रकार के अपराधों में फँस जाते हैं। फ्रायड की अवधारणा के अनुसार, यदि बालक के चेतन मन में उपजे संवेगों की सन्तुष्टि नहीं की जाएगी और उन्हें दबाया जायेगा तो वे अचेतन मन में पहुँचकर मानसिक विकृतियों को जन्म देंगे। वास्तव में, बाल्यावस्था की दमित भावनाएँ समाप्त नहीं होतीं, ये अन्दर-ही-अन्दर सक्रिय रहती हैं तथा बहुधा भयंकर मानसिक अस्वस्थता में बदल जाती हैं। कठोर नियन्त्रण तथा प्रेम व सहानुभूति के अभाव में बालक में संवेगात्मक असुरक्षा के कारण व्यक्तित्व असन्तुलित हो जाता है। ऐसे व्यक्तित्व को समाज में सम्मान प्राप्त नहीं होता।
निष्कर्षतः बालक के स्वाभाविक संवेगों के अवदमन की जगह उनका परिमार्जन कर सही दिशा में प्रकाशन होना चाहिए। इसके लिए परिवार एवं विद्यालय सदृश समाज की प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ सुन्दर भूमिका निभा सकती हैं।
प्रश्न 7.
सहानुभूति से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :
‘सहानुभूति’ (Sympathy) शब्द दो शब्दों ‘सह + अनुभूति’ का सम्मिलित रूप है, जिसका अर्थ है–‘अन्य प्राणियों के समान ही अनुभूति करना। वुडवर्थ ने ‘सहानुभूति’ का अर्थ बताया है-दूसरे व्यक्ति के साथ अनुभव करना। सामान्यतः लोग गरीब, बीमार तथा अपंग व्यक्तियों के प्रति उन्हीं के समान अनुभूति करने लगते हैं। यह उनके प्रति सहानुभूति कही जाएगी। धनी, स्वस्थ तथा भले-चंगे व्यक्तियों के प्रति सहानुभूति पैदा नहीं होती। शिकार-पक्षी के प्रति सहानुभूति उत्पन्न होती है शिकारी के प्रति नहीं। सहानुभूति को मनोवैज्ञानिक एक प्रकार का संवेग ही मानते हैं जिसका आधार भावात्मक है। मैक्डूगल ने इसे मिथ्या-प्रवृत्ति (Pseudo-Instinct) माना है।
सहानुभूति के प्रकार-सहानुभूति दो प्रकार की होती है –
(i) निष्क्रिय सहानुभूति – इसमें शाब्दिक सहानुभूति प्रदर्शित की जाती है; जैसे—मृत्यु पर शोक संवेदना प्रकट करना।
(ii) सक्रिय सहानुभूति – इसके अन्तर्गत हमारी सहानुभूति क्रियाशील होती है; जैसे दु:खी व्यक्ति का कष्ट कम करने के लिए प्रयत्नशील होना, भूकम्प पीड़ितों के लिए राहत कार्य में भाग लेना।
सहानुभूति की व्याख्या – सहानुभूति का जीवन में बड़ा महत्त्व है। सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार लोगों को एक-दूसरे के करीब लाता है। यह त्याग की भावना में वृद्धि करता है। वस्तुतः जीवन के किसी-न-किसी मोड़ पर हर एक व्यक्ति को सहानुभूति की आवश्यकता पड़ती है। सहानुभूति एवं जन-समर्थन पाकर लोग महानतम कष्ट सहन करते हैं। सहानुभूति प्रकट करने वाले व्यक्ति की सहानुभूति उसके पूर्व अनुभवों पर आधारित होती है अर्थात् सहानुभूति के अन्तर्गत व्यक्ति वही व्यवहार या प्रतिक्रिया प्रदर्शित करता है जो उसने समान परिस्थितियों में अन्य व्यक्तियों से प्राप्त की थी। सहानुभूति के लिए कल्पना की भी जरूरत पड़ती है, क्योंकि कल्पना के आधार पर ही दूसरे व्यक्ति के कष्टों का अनुमान किया जा सकता है। व्यवहार में सहानुभूति का प्रकटीकरण दूसरे व्यक्तियों का अनुकरण करके सीखा जाता है, किन्तु सहानुभूति मात्र अनुकरण ही नहीं है बल्कि इसके लिए। एक-दूसरे की अनुभूतियों में सहभागिता भी आवश्यक है। सहानुभूति के संवेग में पर्याप्त रूप से जन्मजात और अर्जित दोनों अंश विद्यमान होते हैं। सहानुभूति की भावना सर्वव्यापक है यानी सभी में पायी जाती है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
भाव या अनुभूति से क्या आशय है?
उत्तर :
भाव या अनुभूति (Feeling) का सम्बन्ध मानव-जीवन के भावात्मक पहलू से है। भाव प्राणी को सुख-दुःख की अनुभूति कराने वाली एक ऐसी प्रारम्भिक सरल मानसिक प्रक्रिया है जिसका विश्लेषण नहीं किया जा सकता। इच्छाओं की सन्तुष्टि से सुख का भाव तथा उसमें बाधा पड़ने पर दु:ख का भाव पैदा होता है। वस्तुतः मन के इच्छात्मक या चेष्टात्मक एवं ज्ञानात्मक, दोनों पहलुओं के माध्यम से भाव का अनुभव होता है। अधिकांश मनोवैज्ञानिकों ने दो प्रकार के भाव बताये हैं-सुखद तथा दु:खद। रॉयस ने इसके साथ एक तीसरा भाव उद्दीप्त एवं शान्त, भी जोड़ दिया है। वुण्ट ने भावों का त्रि-दिशात्मक सिद्धान्त प्रस्तुत किया है–सुखद-दु:खद, उद्दीप्त-शान्त तथा विक्षेप-विराम। तथ्य यह है कि सुखद और दुःखद, इन दोनों भावों के अलावा अन्य किसी प्रकार के भाव को प्रयोगात्मक परिणामों के आधार पर सत्य सिद्ध नहीं किया जा सका।
प्रश्न 2.
भाव या अनुभूति की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
भाव या अनुभूति की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
- भाव सरलतम तथा प्रारम्भिक प्रक्रिया है।
- इसका विश्लेषण सम्भव नहीं है।
- भाव चंचल तथा क्षणिक होता है। दु:ख के बाद सुख तथा सुख के बाद तत्काल ही दुःख की अनुभूति होने लगती है।
- मिश्रित भाव’ का अनुभव नहीं किया जा सकता है अर्थात् हम एक ही समय में एक से अधिक भावों का अनुभव नहीं कर सकते।
- भाव की प्रबलता कम या अधिक हो सकती है अर्थात् भाव की मात्रा एक समान नहीं होती।
- व्यक्ति की हर एक अनुभूति और व्यवहार के साथ किसी-न-किसी प्रकार का भाव मिला रहता है और अन्तिम रूप से,
- भाव को आत्मगत कहा जाता है, क्योंकि व्यक्ति भाव को सदैव अपने अन्दर महसूस करता है।
प्रश्न 3.
भाव तथा संवेग के अन्तर को अति संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
भाव (Feeling) तथा संवेग (Emotion) के अन्तर का अति संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है –
प्रश्न 4.
संवेग की अवस्था में होने वाले कोई चार महत्त्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तन बताइए।
उत्तर :
संवेग की अवस्था में होने वाले मुख्य शारीरिक परिवर्तन हैं –
- मुखाकृति में परिवर्तन
- स्वर में परिवर्तन
- शारीरिक मुद्राओं में परिवर्तन तथा
- हृदय एवं श्वास गति में परिवर्तन।
प्रश्न 5.
संवेग के जेम्स-लॉज तथा कैनन बार्ड सिद्धान्त में अन्तर बताइए।
उत्तर :
मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के अन्तर्गत मानवीय संवेगों की उत्पत्ति के विषय में मुख्य रूप से दो सिद्धान्तों को मान्यता प्राप्त है। ये सिद्धान्त हैं-जेम्स-लॉज का सिद्धान्त तथा कैनन-बार्ड का सिद्धान्त। ये दोनों सिद्धान्त भिन्न तथा परस्पर विरोधी हैं। जेम्स-लाँज सिद्धान्त के अनुसार संवेगों की अनुभूति शारीरिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप होती है। इस मान्यता के आधार पर कहा गया है कि यदि शारीरिक परिवर्तनों पर रोक लगा दी जाए तो संवेगों की अनुभूति भी नहीं होगी। इसके विपरीत या भिन्न रूप से कैनन-बार्ड सिद्धान्त के अनुसार संवेगों की अनुभूति बाहरी विषय-वस्तुओं के परिणामस्वरूप होती है तथा संवेग की। अनुभूति के बाद ही कुछ शारीरिक परिवर्तन तथा कुछ क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं। कैनन-बार्ड सिद्धान्त ने स्पष्ट किया है कि संवेगों की उत्पत्ति का केन्द्र मस्तिष्क में स्थित हाइपोथैलेमस नामक भाग होता है। यही कारण है कि इस सिद्धान्त को हाइपोथैलेमस सिद्धान्त के रूप में भी जाना जाता है।
प्रश्न 6.
गिलफोर्ड के अनुसार संवेगों का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
गिलफोर्ड ने संवेगों का एक व्यवस्थित वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। उसने समस्त मानवीय संवेगों को मुख्य रूप से तीन वर्गों में बाँटा है
(1) प्राथमिक संवेग – इस वर्ग में शक्तिशाली एवं प्रबल संवेगों को सम्मिलित किया गया है। ये संवेग उत्तेजना होने पर प्रकट होते हैं तथा तीव्र हलचल मचा देते हैं। इस वर्ग के मुख्य संवेग हैं-क्रोध तथा भय।।
(2) गौण संवेग – इस वर्ग में उन संवेगों को सम्मिलित किया जाता है जो प्राथमिक संवेगों के समान तीव्र नहीं होते। इन संवेगों की उत्पत्ति एकाएक न होकर धीमी गति से होती है; जैसे-भूख।
(3) कृत्रिम केन्द्रित संवेग – गिलफोर्ड ने इस वर्ग में पाँच प्रकार के संवेगों को सम्मिलित किया है, जिनका सामान्य परिचय निम्नलिखित है
- आत्मकेन्द्रित संवेग-व्यक्ति के आत्म एवं स्वार्थ से सम्बन्धित संवेग; जैसे-आत्मरक्षा का भाव।।
- बौद्धिक संवेग–बौद्धिक क्रियाओं से सम्बन्धित संवेग; जैसे—साहित्य सृजन में आनन्द लेना या स्वाध्याय द्वारा मानसिक शान्ति लाभ।
- सौन्दर्यात्मक संवेग-सौन्दर्यानुभूति से सम्बन्धित संवेग; जैसे—संगीत अथवा प्रकृति का आनन्द लेना।
- पदार्थात्मक संवेग–अन्य पदार्थों या लोगों के हित अथवा सम्पर्क से सम्बन्धित संवेग; जैसे–प्रेम, घृणा, दया तथा परोपकार।
- नैतिक संवेग-नैतिक व्यवहार तथा मान्यताओं से सम्बन्धित संवेग; जैसे—शुभ, अशुभ तथा सत्य।
प्रश्न 7.
मैक्डूगल के अनुसार संवेगों का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
मैक्डूगल ने संवेग की अवधारणा को मूल प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में स्पष्ट किया है। मैक्डूगल के अनुसार, प्रत्येक संवेग किसी-न-किसी मूल प्रवृत्ति से सम्बद्ध होता है। मैक्डूगल ने कुल 14 मूल-प्रवृत्तियों का उल्लेख किया है तथा इस आधार पर उसने 14 ही संवेगों का उल्लेख किया है। इन 14 संवेगों तथा सम्बद्ध मूल प्रवृत्तियों का विवरण इस प्रकार है
- भय संवेग-पलायन मूल प्रवृत्ति
- क्रोध संवेग-युयुत्सा मूल प्रवृत्ति
- घृणा संवेग-निवृत्ति मूल प्रवृत्ति
- वात्सल्य संवेग-पुत्र-कामनी मूल प्रवृत्ति
- करुणा संवेग-शरणागत मूल प्रवृत्ति
- कामुकता संवेग-काम मूल प्रवृत्ति
- आश्चर्य संवेग-जिज्ञासा मूल प्रवृत्ति
- आत्महीनता संवेग-दैन्य मूल प्रवृत्ति
- आत्माभिमान संवेग-आत्म-गौरव मूल प्रवृत्ति
- एकाकीपन संवेग-सामूहिकता मूल प्रवृत्ति
- भूख संवेग-भोजनान्वेषण
- स्वामित्व भाव संवेग-संग्रह प्रवृत्ति
- कृतिभाव संवेग-रचना प्रवृत्ति
- आमोद संवेग-हास मूल प्रवृत्ति।
प्रश्न 8.
भारतीय मनोवैज्ञानिक डॉ० जायसवाल के अनुसार संवेगों का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर :
भारतीय मनोवैज्ञानिक डॉ० जायसवाल ने संवेगों को निम्नलिखित पाँच वर्गों में बाँटा है –
- जिज्ञासु संवेग – इस वर्ग में उन संवेगों को सम्मिलित किया गया है जिनको सम्बन्ध जिज्ञासा से है। ज्ञान-प्राप्ति की इच्छा या ज्ञानार्जन का प्रेम इसी वर्ग का संवेग है।
- स्वार्थी संवेग – इस वर्ग में व्यक्तिगत स्वार्थ से सम्बद्ध संवेगों को सम्मिलित किया गया है। इस वर्ग के मुख्य संवेग हैं-क्रोध, भय, आत्मसम्मान की भावना तथा आत्महीनता की भावना।
- सामाजिक संवेग – व्यक्ति के समाज से सम्बन्ध स्थापित कराने वाले संवेगों को सामाजिक संवेग कहा गया है। इस वर्ग के मुख्य संवेग हैं—प्रेम, सहानुभूति तथा सम्मान।
- नैतिक संवेग – इस वर्ग में नैतिकता से सम्बद्ध संवेगों को सम्मिलित किया गया है। इस वर्ग के मुख्य संवेग हैं-दया, करुणा, परोपकार तथा कर्तव्यपालन।
- सौदर्यात्मक संवेग – इस वर्ग में सौन्दर्य बोध से जुड़े हुए संवेगों को सम्मिलित किया गया है। इस वर्ग के मुख्य संवेग हैं-संगीत, कला या आकर्षक वस्तुओं से प्रेम।
निश्चित उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न I.
निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति उचित शब्दों द्वारा कीजिए –
- संवेग मूल रूप से जटिल, भावात्मक और ……………………. प्रक्रिया है।।
- प्रबल संवेगावस्था में व्यक्ति का मनोशारीरिक सन्तुलन ……………………. जाता है।
- प्रत्येक संवेग की उत्पत्ति के पीछे कोई-न-कोई ……………………. कारण निहित होता है।
- संवेगावस्था में अनिवार्य रूप से कुछ ……………………. परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं।
- प्रबल संवेगावस्था का व्यक्ति की चिन्तन क्षमता पर ……………………. प्रभाव पड़ता है।
- युद्धभूमि में राष्ट्र के लिए प्राण न्योछावर करने वाला देशभक्त सिपाही बुद्धि ……………………. से नहीं से प्रेरित होता है।
- संवेग जटिल तथा व्यापक होते हैं तथा भाव ……………………. होते हैं।
- सरल संवेगावस्था ……………………. में प्रकट होता है।
- जटिल संवेगावस्था में ……………………. संवेग मिश्रित रहते हैं।
- क्रोध तथा भय अपने आप में ……………………. संवेग हैं।
- प्रेम तथा घृणा अपने आप में ……………………. संवेग हैं।
- संवेगावस्था में प्रकट होने वाला मुख्य बाहरी शारीरिक परिवर्तन है ……………………. में परिवर्तन।
- प्रबल संवेगावस्था में हृदय की गति तथा रक्तचाप में ……………………. |
- उद्दीपक के प्रत्यक्षीकरण के पश्चात् पहले शारीरिक परिवर्तन होते हैं और इसके बाद संवेग की अनुभूति। यह ……………………. का मत है।
- ……………………. ने संवेग के हाइपोथैलेमस सिद्धान्त का प्रतिपादित किया।
- संवेग के विषय में कैनन-बार्ड द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त को ……………………. जाता है।
- संवेगों के अति अवदमन का व्यक्ति के व्यक्तित्व पर ……………………. प्रभाव पड़ता है।
- संवेगों के रेचन तथा मार्गान्तरीकरण द्वारा उन्हें ……………………. किया जा सकता है।
उत्तर :
- मानसिक
- बिगड़
- मनोवैज्ञानिक
- शारीरिक
- प्रतिकुल
- संवेग
- सरल तथा सीमित
- केवल एक ही संवेग
- दो या दो से अधिक
- सरल
- जटिल
- मखमण्डलीय अभिव्यक्ति
- अवश्य परिवर्तन होता है
- जेम्स-लॉज
- कैनन-बाडे
- हाइपोथैलेमिक सिलान्त
- प्रतिकूल
- नियन्त्रिता
प्रश्न II.
निम्नलिखित प्रश्नों का निश्चित उत्तर एक शब्द अथवा एक वाक्य में दीजिए –
प्रश्न 1.
संवेग से आप क्या समझते हैं?
उत्तर :
संवेग एक जटिल, भावात्मक एवं मानसिक प्रक्रिया है। जब भाव का प्रकटीकरण बाहरी तथा आन्तरिक शारीरिक परिवर्तनों में हो जाता है, तब उसे संवेग कहते हैं।
प्रश्न 2.
संवेग की कोई एक सरल एवं स्पष्ट परिभाषा लिखिए।
उत्तर :
पी० टी० यंग के अनुसार, “संवेग सम्पूर्ण व्यक्ति का तीव्र उपद्रव है, जिसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है तथा जिसके अन्तर्गत व्यवहार चेतन अनुभूति तथा जाठरिक क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।”
प्रश्न 3.
संवेगों की चार मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
(अ) संवेगों की उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है, (ब) संवेगों में कुछ बाहरी तथा आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन होते हैं, (स) संवेगों में विचार-शक्ति का लोप हो जाता है। तथा (द) प्रत्येक संवेग का सम्बन्ध किसी-न-किसी मूल प्रवृत्ति से होता है।
प्रश्न 4.
भाव तथा संवेगे में क्या-क्या समानताएँ हैं?
उत्तर
(अ) भाव तथा संवेग दोनों का सम्बन्ध, मस्तिष्क से होता है, (ब) अनेक संवेग साधारण रूप में भाव होते हैं तथा भाव भी तीव्र रूप में संवेग बन जाता है और (स) भाव तथा संवेग दोनों में ही सुख या दुःख पाया जाता है।
प्रश्न 5.
भाव तथा संवेग में पाये जाने वाले चार मुख्य अन्तर लिखिए।
उत्तर :
(अ) भाव की तुलना में संवेग अधिक जटिल होते हैं, (ब) भाव की तुलना में संवेग अधिक व्यापक होते हैं, (स) भाव की तुलना में संवेग अधिक उग्र होते हैं तथा (द) भाव की तुलना में संवेग की दशा में अधिक सक्रियता पायी जाती है।
प्रश्न 6.
क्रोध नामक संवेग के बाहरी शारीरिक लक्षण बताइए।
उत्तर :
क्रोध की दशा में व्यक्ति का चेहरा लाल हो जाता है, भौंहें चढ़ जाती हैं, होंठ कापने लगते हैं, मुट्ठियाँ कस जाती हैं, दाँत पीसने लगते हैं तथा व्यक्ति आघात करता एवं गरजता है।
प्रश्न 7.
भय नामक संवेग की उत्पत्ति के मुख्य कारण का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
जब किन्हीं भयानक परिस्थितियों से घिरकर व्यक्ति का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है तब भय नामक संवेग की उत्पत्ति होती है।
प्रश्न 8.
हर्ष नामक संवेग के बाहरी शारीरिक लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
हर्ष नामक संवेग के मुख्य बाहरी शारीरिक लक्षण हैं-चेहरा खिल उठना, चेहरे पर मुस्कान तथा हास्य भाव आना, आँखों में चमक आ जाना, प्रसन्नतावश ताली बजाना, उछलना, नाचना, कूदना, गाना गाने लगना आदि।
प्रश्न 9.
आश्चर्य नामक संवेग के मुख्य बाहरी शारीरिक लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
आश्चर्य नामक संवेग के मुख्य बाहरी लक्षण हैं-चौंक पड़ना, आँखें फैल जाना, होंठ खुले रह जाना, साँस रुक जाना, काँपना आदि।
प्रश्न 10.
संवेगावस्था में प्रकट होने वाले मुख्य बाहरी शारीरिक लक्षणों का उल्लेख कीजिए!
उत्तर :
(अ) मुखमण्डलीय अभिव्यक्तियों में परिवर्तन, (ब) स्वर में परिवर्तन तथा (स) शारीरिक मुद्राओं या आसनिक अभिव्यक्ति में परिवर्तन।
प्रश्न 11.
संवेगावस्था में होने वाले मुख्य आन्तरिक शारीरिक परिवर्तनों का उल्लेख कीजिए। या संवेग की अवस्था में होने वाले चार महत्त्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तनों को बताइए।
उत्तर :
(अ) हृदय की गति में परिवर्तन, (ब) रक्तचाप में परिवर्तन, (स) रक्त रसायन में परिवर्तन, (द) रसपरिपाक में परिवर्तन, (य) साँस की गति में परिवर्तन, (र) वैद्युत त्वक्-अनुक्रिया में परिवर्तन तथा (ल) मस्तिष्क तरंगों में परिवर्तन।
प्रश्न 12.
संवेगों की व्याख्या करने वाले कैनन-बार्ड सिद्धान्त को किन नामों से भी जाना जाता है?
उत्तर :
कैनन-बार्ड सिद्धान्त को ‘हाइपोथैलेमिक सिद्धान्त’ तथा ‘आकस्मिक सिद्धान्त के नाम से भी जाना जाता है।
प्रश्न 13.
संवेगों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति को रोकने या टालने की प्रक्रिया को मनोविज्ञान की भाषा में क्या कहते हैं?
उत्तर :
संवेगों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति को रोकने या टालने की प्रक्रिया को मनोविज्ञान की भाषा में ‘संवेगों को अवदमन’ कहते हैं।
प्रश्न 14.
संवेगों को नियन्त्रित करने के मुख्य उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
(अ) अवांछनीय संवेगों के विपरीत परिस्थितियों का सृजन, (ब) संवेगों का रेचन, (स) संवेगों का शोधन तथा (द) संवेगों का मार्ग-परिवर्तन।
बहुविकल्पीय प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों में दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प का चुनाव कीजिए –
प्रश्न 1.
व्यक्ति की उस दशा को क्या कहते हैं जिसमें व्यक्ति आवेश में आ जाता है, भड़क उठता है। अथवा उत्तेजित हो जाता है?
(क) भाव
(ख) प्रेरणा
(ग) मूल प्रवृत्ति
(घ) संवेग
प्रश्न 2.
“संवेग शब्द किसी भी प्रकार के आवेग में आने, भड़क उठने या उत्तेजित होने की दशा को सूचित करता है।” यह कथन किसका है?
(क) गिलफोर्ड
(ख) वुडवर्थ
(ग) आर्थर टी० जर्सील्ड
(घ) पी० टी० यंग
प्रश्न 3.
संवेगों की स्थिति में सर्वप्रथम परिवर्तित हो जाती है –
(क) व्यक्ति की बातचीत
(ख) व्यक्ति की शारीरिक गतिविधियाँ
(ग) चेहरे की अभिव्यक्तियाँ
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 4.
संवेगों की अवस्था में क्रियाशील हो जाता है-
(क) थैलेमस
(ख) हाइपोथैलेमस
(ग) सुषुम्ना
(घ) लघु मस्तिष्क
प्रश्न 5.
संवेगावस्था में निम्नलिखित में से कौन-सा गुण विद्यमान होता है?
(क) चंचलता
(ख) स्थायित्व
(ग) मानसिक साम्य
(घ) निष्क्रियता
प्रश्न 6.
संवेगावस्था में होने वाले मुख्य आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन हैं
(क) रक्तचाप तथा रक्त-रसायन में परिवर्तन
(ख) हृदय तथा श्वास की गति में परिवर्तन
(ग) रस-परिपाक में उल्लेखनीय परिवर्तन
(घ) ये सभी परिवर्तन
प्रश्न 7.
निम्नलिखित में से कौन-सा संवेग सरल संवेग है ?
(क) प्रेम
(ख) भय
(ग) घृणा
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 8.
जेम्स-लॉज सिद्धान्त का सम्बन्ध है
(क) संवेग से
(ख) अधिगम से
(ग) चिन्तन से
(घ) स्मृति से
प्रश्न 9.
शारीरिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप ही संवेग की अनुभूति होती है। यह मान्यता किस सिद्धान्त की है?
(क) कैनन-बार्ड सिद्धान्त
(ख) जेम्स-लॉज सिद्धान्त
(ग) लीपर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 10.
संवेग सम्बन्धी हाइपोथैलेमिक सिद्धान्त के प्रतिपादक हैं –
(क) जेम्स तथा लाँज :
(ख) कैनन तथा बार्ड
(ग) लेपियर
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 11.
कैनन-बार्ड सिद्धान्त का सम्बन्ध है –
(क) विस्मृति से
(ख) संवेग से
(ग) अभिप्रेरणा से
(घ) चिन्तन से
प्रश्न 12.
किस सिद्धान्त के अनुसार संवेगावस्था में शारीरिक परिवर्तन तथा संवेग की अनुमति साथ-साथ होती है?
(क) लीपर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त
(ख) जेम्स-लाँज सिद्धान्त
(ग) कैनन-बार्ड सिद्धान्त
(घ) ये सभी सिद्धान्त
प्रश्न 13.
संवेगों के अवदमन से क्या आशय है?
(क) प्रायः शान्त बैठे रहना।
(ख) सदैव संवेगों की मुक्त अभिव्यक्ति
(ग) संवेग की स्वाभाविक अभिव्यक्ति पर रोक लग जाना
(घ) सदैव प्रसन्न रहना
प्रश्न 14.
संवेगों के अति अवदमन के परिणाम स्वरूप
(क) व्यक्ति मानसिक एवं स्नायविक रोगग्रस्त हो सकता है।
(ख) व्यक्तित्व का सुचारु विकास अवरुद्ध हो सकता है।
(ग) व्यक्ति कुण्ठाओं का शिकार हो सकता है।
(घ) उपर्युक्त सभी
प्रश्न 15.
संवेगों को नियन्त्रित किया जा सकता है –
(क) संवेगों के विरोध द्वारा
(ख) संवेगों के रेचन द्वारा
(ग) संवेगों के मार्गान्तरीकरण एवं शोध द्वारा
(घ) इन सभी उपायों द्वारा
उत्तर :
- (घ) संवेग
- (ग) आर्थर टी० बसल्ड
- (ग) चेहरे की अभिव्यक्तियाँ
- (ख) हाइपोथैलेमस
- (क) चंचलता
- (घ) ये सी परिवर्तन
- (ख) भय
- (क) संवेग से
- (ख) जेम्स-लाँज सिद्धान्त
- (ख) कैनन तथा बार्ड
- (ख) संवेग से
- (ग) कैन-बार्ड सिद्धान्त
- (ग) संवेगों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति पर रोक लग जाना
- (घ) उपर्युक्त सभी
- (घ) इन सभी उपायों द्वारा।
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