UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 6 श्रवणकुमार

By | June 4, 2022

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 6 श्रवणकुमार

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi खण्डकाव्य Chapter 6 श्रवणकुमार (डॉ० शिवबालक शुक्ल)

प्रश्न 1:
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की कथावस्तु (कथानक) पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के ‘दशरथ खण्ड (पञ्चम सर्ग) की कथा का सार लिखिए।
या
‘श्रवणकुमार’ में प्रयुक्त सर्गों का उल्लेख करते हुए किसी एक सर्ग का सारांश लिखिए।
या
‘श्रवणकुमार’ काव्य के ‘श्रवण’ शीर्षक सर्ग का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के अभिशाप’ सर्ग का सारांश लिखिए।
या
‘श्रवणकुमार’ के ‘निर्वाण’ (अष्टम) सर्ग का सारांश लिखिए।
या
‘श्रवणकुमार’ के आखेट सर्ग की कथा संक्षेप में अपने शब्दों में लिखिए।
या
‘श्रवणकुमार के कथानक के विशेष प्रसंगों को अपने शब्दों में लिखिए।
या
‘श्रवणकुमार’ की कथावस्तु के परिप्रेक्ष्य में अयोध्या के परिवेश पर प्रकाश डालिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य में वर्णित ‘आश्रम’ शीर्षक सर्ग की प्रमुख विशेषताओं पर अपने विचार लिखिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य में वर्णित बाणविद्ध श्रवणकुमार के करुण विलाप का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के ‘अयोध्या’ और ‘आश्रम’ खण्ड की कथा संक्षेप में लिखिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के षष्ठ सर्ग ‘सन्देश सर्ग’ का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की प्रमुख घटनाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
डॉ० शिवबालक शुक्ल द्वारा रचित खण्डकाव्य श्रवणकुमार’ की कथा ‘वाल्मीकि रामायण’ के ‘अयोध्याकाण्ड’ के श्रवणकुमार प्रसंग पर आधारित है। इस खण्डकाव्य का सर्गानुसार कथानक अग्रवत् है

प्रथम सर्ग : अयोध्या

प्रथम सर्ग में ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के कथानक की पृष्ठभूमि तैयार की गयी है। इसमें अयोध्या नगरी की स्थापना, उसका नामकरण, राज्यकुल के वैभव एवं उसकी गौरवमयी विशेषताओं का वर्णन किया गया है; यथा

सरि सरयू के पावन तट पर है साकेत नगर छविमान।
जिसमें श्री शोभा वैभव के कभी तने थे विपुल वितान॥
मनु-वंशज इक्ष्वाकु भूप की कीर्ति-पताका लोक-ललाम।
अनुपम शोभाधाम अयोध्या चित्ताकर्षक अति अभिराम ॥

कवि ने यह भी बताया कि अयोध्या में सर्वत्र नैतिकता और सदाचार विद्यमान है। इस नगरी में सभी वस्तुओं का विक्रय उचित मूल्य पर होता है। यहाँ के नर-नारी परस्पर यथोचित सम्मान करते हैं। इस प्रकार अयोध्या का जीवन सहज और आनन्द से परिपूर्ण है। इस सर्ग में अयोध्या की रम्य-प्रकृति का चित्रण भी किया गया है।

ऐसी अयोध्या के शब्द-वेध-निपुण राजकुमार दशरथ एक दिन शिकार करने की योजना बनाते हैं

ऐसे वातावरण भव्य में दशरथ-उर में उठी उमंग।
देखें सरयू-वन में मृगया आज दिखाती है क्या रंग ॥

द्वितीय सर्ग : आश्रम

द्वितीय सर्ग के आरम्भ में सरयू नदी के वन-प्रान्तर के रमणीक आश्रम का मनोहारी चित्रण हुआ है, जिसमें श्रवणकुमार और उसके नेत्रहीन माता-पिता सानन्द निवास कर रहे हैं। इस आश्रम में सर्वत्र सुख-शान्ति है जहाँ सदैव शरद् एवं वसन्त का वैभव व्याप्त रहता है। स्वच्छ जल से भरे तालाबों में कमल खिले हुए हैं। यहाँ मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग सब परस्पर सहज प्रेम-भाव से रहते हैं। यहाँ द्वेष और कटुता नाममात्र को भी नहीं है। आश्रम के वर्णन में कवि ने भारतीय दर्शन का चिन्तन प्रस्तुत किया है। आश्रम के शान्त-सौन्दर्यमय प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक वातावरण में ही युवक श्रवणकुमार के चरित्र का विकास होता है। वह माता-पिता की आज्ञानुसार ही नित्य-प्रति कार्य करता है तथा उनकी सेवा में लगा रहता है

जननी और जनक को श्रद्धा-सहित नवाकर शीश।
आह्निक-क्रिया निवृत्ति-हेतु जाता सरयू-तट पी आशीष ॥

तृतीय सर्ग : आखेट

तृतीय सर्ग में एक ओर दशरथ मृग-शावक के वध का स्वप्न देखते हैं। दूसरी ओर श्रवणकुमार जब जल लेने जाता है तो उसकी बायीं आँख फड़कने लगती है। शकुन-अपशकुन तथा स्वप्न विचार से दोनों ही अशुभ हैं। स्वप्न में मृग-शावक-वध से दशरथ व्याकुल हो जाते हैं। वे ब्रह्म-मुहूर्त में जागकर आखेट हेतु वन की ओर चल देते हैं।

दूसरी ओर; उसी समय श्रवणकुमार के माता-पिता को बहुत अधिक प्यास लगती है और वह माता-पिता की आज्ञानुसार नदी से जले लेने चल देता है। जल में पात्र डूबने की ध्वनि को किसी हिंसक पशु की ध्वनि समझकर दशरथ शब्दभेदी बाण चला देते हैं, जो सीधे श्रवणकुमार के हृदय में जाकर लगता है। श्रवणकुमार का चीत्कार सुनकर दशरथ विस्मय, चिन्ता और शोक में डूब जाते हैं। उन्हें हतप्रभ एवं किंकर्तव्यविमूढ़ देख उनका सारथी उन्हें सान्त्वना देता है।

प्रस्तुत सर्ग में श्रवणकुमार की मातृ-पितृ-भक्ति, शकुन-अपशकुन तथा दशरथ की आखेट-रुचि पर प्रकाश डाला गया है।

चतुर्थ सर्ग : श्रवण

चतुर्थ सर्ग का आरम्भ श्रवणकुमार के मार्मिक विलाप से होता है। उसकी समझ में यह नहीं आता कि उसका कोई शत्रु नहीं, फिर भी उस पर किसने बाण छोड़ दिया ? बाण लगने पर भी उसे अपनी चिन्ता नहीं, वरन्। अपने वृद्ध एवं प्यासे माता-पिता की चिन्ता है

मुझे बाण की पीड़ा सम्प्रति इतनी नहीं सताती है।
पितरों के भविष्य की चिन्ता जितनी व्यथा बढ़ाती है॥

दशरथ आहत श्रवणकुमार को देखकर तथा उसके मार्मिक क्रन्दन को सुनकर व्याकुल हो जाते हैं। श्रवणकुमार के आँखें खोलने पर सारथी बताता है कि ये अजपुत्र दशरथ हैं और मृगया (शिकार) के भ्रम में आज इनसे यह भयंकर भूल हो गयी है। श्रवणकुमार कहता है कि राजन्! मुझे मारकर आपने एक नहीं वरन् एक साथ तीन प्राणियों के प्राण लिये हैं। मेरे अन्धे माता-पिता आश्रम में प्यासे बैठे हुए मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप यह जल का पात्र लेकर वहाँ जाइए और उन्हें मेरे प्राण-त्यागे की सूचना दे दीजिए। यह कहकर श्रवणकुमार प्राण त्याग देता है। उसके शव को सारथी की देखभाल में छोड़ अत्यन्त दु:खी मन से दशरथ जलपात्र लेकर आश्रम की ओर चल देते हैं।

इस सर्ग में कवि ने श्रवणकुमार के सात्त्विक जीवन, उसके कारुणिक अन्त और दशरथ के मन में उत्पन्न आत्मग्लानि एवं शोकाकुलता का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है।

पंचम सर्ग : दशरथ

पंचम सर्ग का आरम्भ दशरथ के अन्तर्द्वन्द्व, विषाद, आत्मग्लानि और अपराध-भावना से होता है। दशरथ दु:खी एवं चिन्तित भाव से सिर झुकाये आश्रम की ओर जा रहे थे और सोच रहे थे कि इस घटना के कारण हृदय पर लगे घाव का प्रायश्चित्त वे किस प्रकार करें

होय चलेगी युग-युगान्त तक अब मेरी यह पाप कथा।
जो मुझको ही नहीं वंशजों को भी देगी मर्म व्यथा ॥

इसी प्रकार के मानसिक उद्वेगों से आकुल-व्याकुल दशरथ आश्रम पहुँच जाते हैं।

षष्ठ सर्ग : सन्देश

षष्ठ सर्ग में श्रवणकुमार के माता – पिता की असहाय दशा तथा दशरथ के क्षोभ का बड़ा ही मार्मिक चित्रण हुआ है। श्रवणकुमार के माता-पिता उसके आने की प्रतीक्षा में व्याकुल हैं। दशरथ की पदचाप सुनकर वे पूछते हैं

(1) मौलिकतापूर्ण प्रस्तुतीकरण – यद्यपि प्रस्तुत खण्डकाव्य का मूल कथानक वाल्मीकि-रामायण से लिया गया है, परन्तु भावात्मकता से प्रेरित होकर कवि ने उसमें कई स्थानों पर कल्पना का प्रयोग भी किया है; यथा-सारथी की कल्पना, दिव्य चमत्कार एवं देवत्व का प्रतिपादन।

(2) भारतीय संस्कृति का अंकन – कवि ने युगानुरूप वर्ण-व्यवस्था, छुआछूत, समता आदि नवीनताओं का भी समावेश किया है, किन्तु भारतीय संस्कृति के मूल आधार का ध्यान सभी स्थानों पर रखा गया है। भावों और जीवन-मूल्यों का अंकन भी उसी के अनुरूप किया गया है। श्रवण की मातृ-पितृ-भक्ति, दशरथ को अपयश के भय से वन में घटित दुर्घटना का किसी को न बताना, शाप देने के पश्चात् श्रवण के पिता का आत्मबोध कि प्रारब्धवश हुई गलती पर उन्हें अपराधी को दण्ड रूप में शाप नहीं देना चाहिए था। ये सभी बातें भारतीय संस्कृति की संवाहक बनकर आयी हैं।

(3) आदर्श-सृजन – ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य में कवि ने मानवीय आदर्शों का सृजन किया है। श्रवणकुमार, उसके अन्धे माता-पिता तथा दशरथ के चरित्र आदर्श एवं महान् हैं।

(4) व्यवस्थित – श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य का कथानक पूर्णत: व्यवस्थित है। उसमें कहीं भी भावात्मक अथवा भाषागत असन्तुलन नहीं दिखाई देता।

(5) सर्गबद्धता – प्रस्तुत खण्डकाव्य में नौ सर्ग हैं, जिनमें भावात्मकता को पर्याप्त स्थान दिया गया है। इनमें प्रथम सर्ग मंगलाचरण और अन्तिम उपसंहार है। सर्ग-संयोजना उपयुक्त एवं सुन्दर है।

(6) विषयानुरूपता – इस खण्डकाव्य में विषयानुरूप भाषा-शैली आदि का सफल निर्वाह हुआ है। इसमें रस, छन्द, अलंकार, गुण आदि जहाँ काव्य-सौन्दर्य को बढ़ाने में सहायक हुए हैं, वहीं भावात्मकता की वाहकता में भी पूर्णरूपेण सफल हुए हैं।

(7) स्वाभाविकता – ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य में पात्र, घटना, वातावरण आदि नितान्त स्वाभाविक लगते हैं। कहीं भी इनके बलपूर्वक थोपे जाने का संकेत नहीं मिलता। पात्रों के चिन्तन में तो सहृदयी भावुकता सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है, चाहे वह चिन्तन श्रवणकुमार का हो, चाहे दशरथ का अथवा श्रवण के अन्धे माता-पिता का।

(8) भारतीयता – इस खण्डकाव्य में भारतीय दर्शन के आदर्श-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच, सन्तोष, तप, संयम, प्रेम, कर्तव्यपरायणती आदि के निर्वाह पर बल दिया गया है, जो कवि की भारतीय संस्कृति के प्रति प्रेम एवं श्रद्धा के प्रतीक हैं। एक कथन द्रष्टव्य है

दम अस्तेय अक्रोध सत्य धृति, विद्या क्षमा बुद्धि सुकुमार।
शौच तथा इन्द्रिय-निग्रह हैं, दस सदस्य मेरे परिवार॥

(9) मातृ-पितृभक्ति – श्रवण के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता उसकी भावात्मक मातृ-पितृभक्ति है। मातृ-पितृभक्ति का एक ऐसा आदर्श, जिससे युग-युगान्तरे तक बालक प्रेरणा प्राप्त कर सकें, अन्यत्र दुर्लभ है। इस प्रकार ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की भावात्मक कथावस्तु सुसम्बद्ध, प्रभावशाली, मानवीय आदश तथा भारतीय संस्कृति की प्रेरणा देने वाली है।

प्रश्न 3:
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के नायक (प्रमुख पात्र) श्रवणकुमार का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
श्रवणकुमार का चरित्र-चित्रण करते हुए बताइए कि वह किन आदर्शों का प्रतीक है?
या
“चरित्र ही व्यक्ति को महान् बनाता है।” इस कथन के सन्दर्भ में श्रवणकुमार के चरित्र का मूल्यांकन कीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ में वर्णित आदर्श चरित्र से आज के परिप्रेक्ष्य में क्या शिक्षा मिलती है ?
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के आधार पर श्रवणकुमार के चरित्र की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
श्रवणकुमार प्रस्तुत खण्डकाव्य का प्रमुख पात्र है। ‘श्रवणकुमार’ की कथा आरम्भ से अन्त तक उसी से सम्बद्ध है; अतः इस खण्डकाव्य का नायक श्रवणकुमार है। उसकी प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) मातृ-पितृभक्त – श्रवण कुमार का नाम ही मातृ-पितृभक्ति का पर्याय बन चुका है। श्रवणकुमार अपने माता-पिता का एकमात्र आदर्श पुत्र है। वह प्रात:काल से सायंकाल तक अपने वृद्ध एवं नेत्रहीन माता- पिता की सेवा में लगा रहता है। दशरथ के बाण से बिद्ध होकर भी श्रवणकुमार को अपने प्यासे माता-पिता की ही चिन्ता सता रही है

मुझे बाण की पीड़ा सम्प्रति इतनी नहीं सताती है।
पितरों के भविष्य की चिन्ता जितनी व्यथा बढ़ाती है।

(2) निश्छल एवं सत्यवादी – श्रवणकुमार के पिता वैश्य वर्ण के और माता शूद्र वर्ण की थीं। जब दशरथ ब्रह्म-हत्या की सम्भावना व्यक्त करते हैं तो श्रवणकुमार उन्हें सत्य बता देता है

वैश्य पिता माता शूद्रा थी मैं यों प्रादुर्भूत हुआ।
संस्कार के सत्य भाव से मेरा जीवन पूत हुआ।

श्रवणकुमार स्पष्टवादी है। वह किसी से कुछ नहीं छिपाता। वह सत्यकाम, जाबालि आदि के समान ही अपने कुल, गोत्र आदि का परिचय देता है।

(3) क्षमाशील एवं सरल स्वभाव वाला – श्रवणकुमार का स्वभाव बहुत ही सरल है। उसके मन में किसी के प्रति ईष्र्या, द्वेष, क्रोध एवं वैर नहीं है। दशरथ के बाण से बिद्ध होने पर भी वह अपने समीप आये सन्तप्त दशरथ का सम्मान ही करता है।

(4) भारतीय संस्कृति का सच्चा प्रेमी – श्रवणकुमार भारतीय संस्कृति का सच्चा प्रेमी है। चार वेद और छ: दर्शन ही भारतीय संस्कृति के आधार हैं। धर्म के दस लक्षणों को वह अपने जीवन में धारण किये है

दम अस्तेय अक्रोध सत्य धृति, विद्या क्षमा बुद्धि सुकुमार।
शौच तथा इन्द्रिय-निग्रह हैं, दस सदस्य मेरे परिवार ॥

वेद के अनुसार माता, पिता, गुरु, अतिथि तथा पति के लिए पत्नी और पत्नी के लिए पति ये पाँच ‘देवता’ कहलाते हैं। तथा ये ही पूजा के योग्य हैं। श्रवणकुमार भी माता, पिता, गुरु और अतिथि की देवतुल्य पूजा करता है।

(5) आत्मसन्तोषी – श्रवणकुमार को किसी वस्तु के प्रति लोभ-मोह नहीं है। उसे भोग एवं ऐश्वर्य की तनिक भी चाह नहीं है। वह तो सन्तोषी स्वभाव का है

वल्कल वसन विटप देते हैं, हमको इच्छा के अनुकूल।
नहीं कभी हमको छू पाती, भोग ऐश्वर्य वासन्न-धूल ॥

(6) संस्कारों को महत्त्व देने वाला – श्रवणकुमार संमदर्शी है। वह किसी के प्रति भी भेदभाव नहीं रखता तथा कर्म, शील एवं संस्कारों को महत्त्व देता है। उसके जीवन में पवित्रता संस्कारों के प्रभाव के कारण ही है

विप्र द्विजेतर के शोणित में अन्तर नहीं रहे यह ध्यान।
नहीं जन्म के संस्कार से, मानव को मिलता सम्मान ॥

(7) अतिथि-सत्कारी – भारतीय परम्परा के अनुसार अतिथि का स्वागत-सत्कार महापुण्य का कार्य है। श्रवण कुमारे इस गुण से युक्त है। वह बाण द्वारा घायल पड़ा है, जब दशरथ उसके पास पहुँचते हैं। वह दशरथ को अपना अतिथि मानता है, क्योंकि वह उसके वन में आये हैं। वह देशरथ का स्वागत करना चाहता है। वह उनसे हर प्रकार की कुशल-मंगल पूछता है और अपने नेत्रों के जल से दशरथ के चरण धो लेना चाहता है।

इस प्रकार श्रवणकुमार उदार, परोपकारी, सर्वगुणसम्पन्न तथा खण्डकाव्य का नायक है।

प्रश्न 4:
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के चरित्रों में देवोपम गुणों के साथ-साथ मानव-सुलभ दुर्बलता भी दिखाई देती हैं। इस कथन के सम्बन्ध में अपने विचार लिखिए।
उत्तर:
श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के चरित्र-चित्रण में काव्यकार डॉ० शिवबालक शुक्ल ने अपनी अनुपम रचनाधर्मिता का परिचय दिया है। उनके द्वारा गढ़े चरित्र जहाँ एक ओर देवोपम हैं, वहीं दूसरी ओर उनमें मानव-सुलभ दुर्बलताएँ भी दृष्टिगत होती हैं। यही उनके चरित्रों की सर्वप्रमुख विशेषता है। पात्र चाहे श्रवणकुमार हो या उसके अन्धे माता-पिता अथवा अयोध्या नरेश दशरथ, सभी पात्रों का चरित्रांकन बड़े मनोयोग से किया गया है।

श्रवणकुमार में सत्यवादिता, संस्कारों को महत्ता देने की प्रवृत्ति, क्षमाशीलता और आत्मसन्तोष जैसे गुण उसे देवोपम बनाते हैं, वहीं माता-पिता से अत्यधिक मोह, मृत्यु से भय आदि दुर्बलताएँ उसे साधारण मानव सिद्ध करते हैं।

दशरथ के चरित्र में भी जहाँ न्यायप्रियता, सत्यवादिता, उदारता और कर्तव्यनिष्ठा जैसे देवोपम गुण विद्यमान हैं, वहीं स्वप्न को देखकर मन में शंकित होना; श्रवण के अन्धे माता-पिता द्वारा शापित होने पर शाप की परिणति के विषय में सोचकर दु:खी होना और इस घटना के लोक में प्रचलित हो जाने पर कुल-परम्परा पर लगने वाले कलंक की चिन्ता करना आदि उनके चरित्र की ऐसी दुर्बलताएँ हैं, जो उन्हें साधारणजन के समकक्ष ला खड़ी करती हैं।

इसी प्रकार श्रवण के पिता का चरित्र भी गुणों एवं दुर्बलताओं से युक्त है। वे जहाँ पुत्र-मृत्यु का समाचार सुनकर अपना विवेक खो बैठते हैं और दशरथ को शाप दे डालते हैं, वहीं बाद में अपने किये पर पश्चात्ताप करते हैं कि मैंने दशरथ को व्यर्थ ही शाप दे डाला। इनका पहला कार्य जहाँ मानव-सुलभ दुर्बलता को परिचायक है, वहीं उस पर पश्चात्ताप करना उनके देवोपम-चरित्र का।

प्रश्न 5:
‘श्रवणकुमार’ के आधार पर दशरथ का चरित्र-चित्रण कीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के ‘अभिशाप’ सर्ग के आधार पर राजा दशरथ का चरित्र चित्रण कीजिए।
उत्तर:
रघुवंशी राजा अज के पुत्र दशरथ ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य में आरम्भ से अन्त तक विद्यमान हैं। मूल रूप से दशरथ इस खण्डकाव्य के प्राण हैं। दशरथ की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

(1) उत्तम-कुलोत्पन्न – राजा दशरथ उत्तम-कुलोत्पन्न हैं। उनका वंश ‘इक्ष्वाकु’ नाम से प्रसिद्ध है। पृथु, त्रिशंकु, सगर, दिलीप, रघु, हरिश्चन्द्र और अज; दशरथ के इतिहासप्रसिद्ध पूर्वज रहे हैं। उन्हें अपने वंश पर गर्व है

क्षत्रिय हूँ मम शिरा जाल में रघुवंशी है रक्त प्रवाह ।
हस्ति पोत अथवा मृगेन्द्र के पाने की है उत्कट चाह॥

(2) लोकप्रिय-शासक – राजा दशरथ प्रजावत्सल एवं योग्य शासक हैं। उनके राज्य में सबको न्याय मिलता है, चोरी कहीं नहीं होती है, प्रजा सब प्रकार से सुखी व सन्तुष्ट है तथा विद्वज्जनों का यथोचित सत्कार होता है

सुख समृद्धि आमोदपूर्ण था कौशलेश का शुभ शासन।
दुःख था केवल एक दुःख को, जिसे मिला था निर्वासन ।

(3) धनुर्विद्या में निपुण –  कुमार दशरथ धनुर्विद्या में निपुण और शब्दभेदी बाण चलाने में पारंगत हैं। आखेट में उनकी विशेष रुचि है

शब्द-भेद के निपुण अहेरी, रविकुल के भावी भूपाल ।
लक्ष्य करें मृग महिष नाग वृक, शूकर सिंह व्याघ्र विकराल ॥

इसीलिए श्रावण मास में वर्षा के अनन्तर जब चारों ओर हरियाली छाई रहती है, तब वे आखेट का निश्चय करते हैं।

(4) विनम्र एवं दयालु – दशरथ में तनिक भी अहंकार नहीं है। दूसरे का दुःख देखकर वे बहुत अधिक व्याकुल हो जाते हैं। स्वप्न में मृग-शावक के वध से ही वे दु:खी हो उठते हैं

करने को गये समुद्यत, ढाढ मार करके रोदन।
नेत्र खुल गये स्वप्न समझकर किया पाश्र्व का परिवर्तन ।।

(5) संवेदनशील एवं पश्चात्ताप करने वाले – दशरथ अपने किये अनुचित कार्य पर आत्मग्लानि से भर उठते। हैं तथा उसका प्रायश्चित्त करते रहते हैं। श्रवणकुमार की हत्या पर उनके प्रायश्चित्त एवं आत्मग्लानि उनके सच्चे पश्चात्ताप पर किया गया आर्तनाद है

मलहम कौन भयंकर व्रण पर जिसका लेप करूं जाकर।
भू में धसँ गि गिरिवर से सरि में डूब मरूं जाकर ॥

(6) आत्म-तपस्वी – दशरथ न्यायप्रिय होने के साथ-साथ आत्म-तपस्वी भी हैं। वे अपने अपराध को स्वयं
अक्षम्य मानते हैं

करें मुनीश क्षमा वे होंगे, निस्पृह करुणा सिन्धु अगाध ।
पर मेरे मन न्यायालय में क्षम्य नहीं है यह अपराध ॥

(7) अपराध-बोध से ग्रसित – श्रवणकुमार के पिता द्वारा शाप दिये जाने पर दशरथ काँप उठते हैं। वे अयोध्या लौटकर यद्यपि लोकनिन्दा के भय से किसी को भी यह दुर्घटना नहीं बताते, किन्तु अपने अपराध की वेदना उनके हृदय में कसकती ही रहती है। वे जानते हैं कि समस्त प्राणियों को अपने कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है। इसलिए वे किसी से कुछ कहे बिना भी अपना अपराध स्वीकार कर लेते हैं। कवि कहता है

रही खरकती हाय शूल-सी पीड़ा उर में दशरथ के।।
ग्लानि-त्रपा, वेदना विमण्डित शाप-कथा वे कह न सके।

(8) तेजस्वी – दशरथ एक तेजस्वी राजकुमार हैं। जब वह श्रवण कुमार के पास पहुँचते हैं तो वह उनके रूप से प्रभावित हो उठता है। उनके प्रत्येक अंग से मानो तेज फूट पड़ता है। श्रवण उनसे निवेदन करता है

रूपवान् है तेज आपका, अंग-अंग से फूट रहा।
परिचय दें उर उत्सुकता है, सचमुच धीरज छूट रहा ॥

(9) शकुन-अपशकुन तथा स्वप्न विचार में आस्था – रात्रि में सोते समय दशरथ मृग-शावक के वध का स्वप्न देखते हैं, दूसरी ओर श्रवणकुमार जब जल लेने जाता है तो उसकी बायीं आँख फड़कने लगती है। शकुन-अपशकुन तथा स्वप्न विचार से दोनों ही अशुभ हैं।

(10) उदारमना – श्रवणकुमार के माता-पिता दशरथ को शाप देते हैं। उदार मन वाले दशरथ श्रवण के माता-पिता से शाप पाकर भी कुछ नहीं कहते और सोचते हैं कि इस पाप का फल तो भोगना ही है। इसलिए वे बिना कुछ कहे ही अपना अपराध स्वीकार कर लेते हैं और किसी को भी इस घटना के बारे में नहीं बताते।

(11) निरभिमानी – दशरथ का चरित्र महान् है। उच्चकुल में उत्पन्न होने पर भी उनमें लेशमात्र भी अभिमान नहीं था। उनका शासन उत्तम और उनके कार्य महान् थे। प्रायश्चित और आत्मग्लानि की अग्नि में तपकर वे शुद्ध हो जाते हैं।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि दशरथ का चरित्र महान् गुणों से विभूषित है जो कि प्रायश्चित्त और आत्म-ग्लानि की अग्नि में तपकर और भी शुद्ध हो गया है। कवि दशरथ का चरित्र-चित्रण करने में पूर्ण सफल रहा है।

प्रश्न 6:
पंचम एवं सप्तम सर्ग के आधार पर दशरथ के अन्तर्द्वन्द्व पर प्रकाश डालिए।
या
” ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के पंचम सर्ग में दशरथ के अन्तर्द्वन्द्व का व्यापक चित्रण है।” इस कथन को सोदाहरण प्रमाणित कीजिए।
उत्तर:

दशरथ का अन्तर्द्वन्द्व

‘श्रवणकुमार’ के पंचम सर्ग में दशरथ की मानसिकता, पश्चात्ताप तथा आत्मग्लानि से पूर्ण आन्तरिक दशा को व्यापक अभिव्यक्ति दी गयी है। दशरथ के हाथों श्रवणकुमार का प्राणान्त हो चुका है, जिससे वे दुःख, ग्लानि, भय एवं करुणा के भाव में भरे सोच रहे हैं कि क्या श्रवणकुमार के माता-पिता भी श्रवणकुमार की तरह उदार-हृदय होंगे और उन्हें क्षमा कर देंगे अथवा वे उन्हें कठोर शाप दे देंगे। दशरथ के मन में अपने कुल के दुर्भाग्य पर भी भावावेग उमड़ता है। वे सोचते हैं कि क्या उनके कुल के सभी सदस्यों के भाग्य में शापित होना ही लिखा है तथा क्या उनको भी अपने पूर्वजों की तरह (दशरथ के पूर्वज भी विभिन्न कारणों से शापित होते रहे थे) शापित होना पड़ेगा

रघुकुल में शापित होने की, परम्परागत परिपाटी।
पार पड़ेगी करनी ही हाँ, दुःख की यह दुर्गम घाटी ॥

इस सर्ग में लज्जा, ग्लानि, चिन्ता, शंका, भय आदि से ग्रस्त दशरथ के संकल्प-विकल्प प्रकट हुए हैं।
‘श्रवणकुमार’ के सप्तम सर्ग में भी दशरथ के अन्तर्मन में निहित भावों का मार्मिक चित्रण किया गया है। श्रवणकुमार के शव को उठाकर उसके माता-पिता के सामने लाते हुए दशरथ स्वयं भी जीवित लाश के समान ही हैं। वे ग्लानि, पश्चात्ताप, विवशता और करुणा के आधिक्य के कारण अपना विवेक खो बैठे हैं, जिससे उन्हें दिशा और दुर्गम-पथ की कठिनाइयों का ज्ञान नहीं हो रहा है। वे चेतनाशून्य से उस शव को उठाकर श्रवणकुमार के माता-पिता के पास लाते हैं

अनुभव-दिग्सूक्ति का नहीं थी बेचारे दशरथ के पास,
दिग्भ्रम हुआ, पाथ-पथ दुर्गम, हृदय क्षुब्ध, मन हुआ उदास।

किसी के पुत्र को मृत्यु की गोद में सुलाने के पश्चात् उसके शव को लेकर उसके माता-पिता के पास जाने वाले संवेदनशील-सहृदय व्यक्ति की मानसिकता क्या होती है, इसको कवि शिवबालक शुक्ल ने दशरथ के अन्तर्मन की दशा के सजीव चित्रण में भली प्रकार दर्शाया है।

[ संकेत-इस सामग्री के अतिरिक्त दशरथ की मानसिकता में विनम्रता, दयालुता, उदारता तथा आत्मतपस्विता का समन्वय दृष्टिगत होता है। दशरथ के चरित्र-चित्रण से इन गुणों की सामग्री ग्रहण कर उसका यहाँ उल्लेख करना चाहिए।]

प्रश्न 7:
खण्डकाव्य की दृष्टि से ‘श्रवणकुमार’ की विवेचना (समीक्षा) कीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ के रचना-शिल्प का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
या
‘श्रवणकुमार’ के काव्य-सौन्दर्य को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ के काव्य-सौन्दर्य की समीक्षा कीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ में अभिव्यक्त करुण रस की सोदाहरण समीक्षा कीजिए।
उत्तर:
डॉ० शिवबालक शुक्ल द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘श्रवणकुमार’ एक पौराणिक कथानक पर आधारित है। इस रचना में कवि ने अपनी काव्यात्मक प्रतिभा का कुशलता से प्रयोग किया है। इस खण्डकाव्य की विशेषताओं को विवेचन निम्नलिखित रूपों में किया जा सकता है

कथानक – इस खण्डकाव्य का कथानके अत्यन्त लघु है। इसमें श्रवणकुमार को दशरथ का बाण लगना एवं उसके माता-पिता के द्वारा दशरथ को शाप देना-यही मुख्य दो प्रसंग वर्णित हैं। इसके कथानक में दशरथ या श्रवणकुमार के पूर्ण जीवन की कथा नहीं है। किसी खण्डकाव्य के कथानक के रूप में इसका कथानक अत्यन्त उपयुक्त है।

पात्र एवं चरित्र-चित्रण – इस खण्डकोव्य में मात्र चार पात्र हैं-श्रवणकुमार, दशरथ एवं श्रवण कुमार के माता-पिता। इन चारों के चरित्र-चित्रण में ही कवि ने खण्डकाव्य के उदात्त उद्देश्यों को अभिव्यक्ति दी है। पात्रों का चरित्र-चित्रण स्वाभाविक रूप में हुआ है। उनके अन्तर्द्वन्द्वों की अभिव्यक्ति में कवि ने अपनी काव्य-प्रतिभा का परिचय दिया है।

काव्यगत विशेषताएँ – ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की काव्यगत विशेषताएँ निम्नवत् हैं

(क) भावगेत विशेषताएँ

(1) श्रेष्ठ विषयवस्तु – श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की मूल कथा वाल्मीकि-रामायण के अयोध्याकाण्ड की श्रवणकुंमार-वध-कथा पर आधारित है। खण्डकाव्य का आरम्भ, विकास, चरमसीमा, नियताप्ति तथा अन्त प्रभावशाली हैं। कथा में कहीं भी अस्वाभाविकता एवं शिथिलता नहीं है।
(2) सुन्दर प्रकृति-चित्रण – ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य में कवि ने प्रकृति के बड़े ही मोहक चित्र खींचे हैं। नगर, वन, आश्रम, पेड़-पौधे, नदी, पशु-पक्षी आदि के चित्रण बड़े ही स्वाभाविक एवं मनोहारी हैं। कवि ने प्रकृति के आलम्बन, उद्दीपन, मानवीकरण आदि रूपों को बड़े सुन्दर ढंग से चित्रित किया है; उदाहरणार्थ

पड़ी फुहार प्रथम पावस की बनी ग्रीष्म की अन्तिम श्वास।
जल प्रियतम से मिली विरहिणी धरा छोड़ती मिलनोच्छ्वास ॥

(3) अन्तर्मुखी भावों की अभिव्यक्ति – श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य में मानवीय संवेदनाओं एवं अनुभूति के आन्तरिक स्वरूप की कुशल अभिव्यक्ति की गयी है। स्वप्न में श्रवणकुमार को अपने तीर से मरते देखकर उसकी मृत्यु के बाद और अभिशाप सर्ग’ में दशरथ की आन्तरिक संवेदना एवं पश्चात्ताप को अभिव्यक्ति दी गयी है। तीर लगने के बाद श्रवणकुमार की मन:स्थिति का आन्तरिक भाव कुशलता के साथ अभिव्यक्त हुआ है।

(4) भारतीय संस्कृति के गौरव-भाव की कुशल अभिव्यक्ति – कवि ने प्रस्तुत खण्डकाव्य में भारतीय संस्कृति के प्राचीन स्वरूप का गौरव भावात्मक रूप से अभिव्यक्त किया है। सांस्कृतिक गौरव एवं मानवाद की प्राचीन स्थिति का दर्शन कराना ही इस खण्डकाव्य का मूल उद्देश्य रहा है और इसे अभिव्यक्ति में कवि ने अपनी प्रतिभा का पूर्ण परिचय दिया है

हो सकते हैं क्या अभियन्ता भूप-भगीरथ के सम आज।
जिनके श्रम-जल गंगा द्वारा सजें देश के युग-युग साज॥

(5) रस (करुण) का निरूपण – ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य का प्रधान रस करुण है। इसके सातवें सर्ग ‘अभिशाप सर्ग’ में इसका सांगोपांग वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त इस खण्डकाव्य में रौद्र, वीभत्स, भयानक, वात्सल्य और शान्त रस का भी मंजुल प्रयोग बन पड़ा है। करुण रस का एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है

कर स्पर्श से उन दोनों ने लेकर अवलोकन का काम।
सुत-शव के सन्निकट बैठकर मचा दिया भीषण कुहराम ॥

(6) वातावरण चित्रण – प्रस्तुत खण्डकाव्य में प्रकृति-चित्रण के साथ-साथ कवि ने अयोध्या नगरी एवं आश्रम आदि को भी बड़ी मनोरम वर्णन किया है।

(ख) कलागत विशेषताएँ

(1) भाषा – श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली हिन्दी है। भाषा पात्र, विषय तथा समयानुकूल है। इस खण्डकाव्य की भाषा में प्रभावात्मकता, प्रवाहमयता, संगीतात्मकता आदि विशेषताएँ विद्यमान हैं; यथा

पड़े हुए सैकत-शय्या पर, मौन तोड़ मुनि हुए मुखर।
आती करुणा को भी करुणा, उनके दीन वचन सुनकर ॥

(2) शैली –  इस खण्डकाव्य में कवि ने इतिवृत्तात्मक शैली को अपनाया है। साथ ही इसमें आलंकारिक, चित्रात्मक, छायावादी और संवादात्मक शैली के भी दर्शन होते हैं। छायावादी शैली पर आधारित मानवीकरण भी प्रयुक्त हुआ है-इठलाई संगीत कक्ष में मृदुल मूच्र्छना सुमधुर भीड़। प्रयोगवादी शैली में दिनरूपी विद्यालय के बन्द हो जाने पर उसके सूर्य रूपी विद्यार्थी को अपना बस्ता किरणरूपी रज्जु से बाँधकर ले जाता हुआ दिखाया गया है।

(3) छन्द-विधान – ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य में कवि ने 16-15 मात्राओं पर यति और अन्त में गुरु- लघु वाले ‘वीर’ छन्द का प्रयोग किया है। काव्य-प्रवाह में कहीं-कहीं 30 मात्राओं वाले मात्रिक छन्द, ताटंक,, कुकुभ, लावनी आदि का भी प्रयोग किया गया है। छन्द-रचना में कहीं भी अस्वाभाविकता नहीं दिखाई देती।

(4) अलंकार-योजना – कवि ने यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक, सन्देह, अर्थान्तरन्यास, परिकर, प्रतीप, वक्रोक्ति, यथासंख्य, परिसंख्या, उदाहरण आदि अलंकारों का प्रयोग किया है। रूपक का एक उदाहरण दर्शनीय है – मेघ-मृदंग संग संगति कर लगे नाचने प्रमुदित मोर। इस खण्डकाव्य में उपमान-विधान के लिए एक विस्तृत भावभूमि का भी चयन किया गया है।

निष्कर्ष-इस प्रकार प्रस्तुत खण्डकाव्य में मात्र श्रवणकुमार के सम्पूर्ण जीवन का चित्रण ही नहीं, वरन् उसकी चारित्रिक विशेषताओं के महत्त्वपूर्ण पक्ष का चित्रांकन भी किया गया है। इसकी कथावस्तु भी लघु है और वह सुसम्बद्ध एवं सुसंगठित है। वर्णन-विस्तार को इस खण्डकाव्य में स्थान नहीं दिया गया है; किन्तु इसकी कथावस्तु में क्रमिक विकास विद्यमान है। इसका नायक उदात्त गुणों से युक्त है।

एक निश्चित एवं आदर्शोन्मुख उद्देश्य के लिए प्रवाहपूर्ण शैली में लिखा गया यह भावनाप्रधान काव्य, खण्डकाव्य की उपर्युक्त सभी मुख्य विशेषताओं से परिपूर्ण है; अतः यह एक सफल खण्डकाव्य है।

प्रश्न 8:
‘श्रवणकुमार’ के रचना-उद्देश्य पर आलोचनात्मक प्रकाश डालिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की रचना किस उद्देश्य को दृष्टि में रखकर की गयी है ? विस्तृत विवेचन कीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के माध्यम से कवि युवकों को क्या प्रेरणा और सन्देश देना चाहता है ? स्पष्ट कीजिए।
या
” ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की रचना जीवन में नैतिक आदर्शों की प्राण-प्रतिष्ठा हेतु की गयी है।” इस मत की समीक्षा कीजिए।
या
चारित्रिक पतन के इस युग में ‘श्रवणकुमार’ की सार्थकता पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के उद्देश्य का वर्तमान युग में क्या महत्त्व है? अपने विचार प्रकट कीजिए।
या
वर्तमान युग में ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की क्या प्रासंगिकता है ? स्पष्ट कीजिए।
या
” ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य एक सोद्देश्य रचना है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
खण्डकाव्य की रचना में ‘डॉ० शिवबालक शुक्ल’ का उद्देश्य राष्ट्र की समृद्धि के लिए देश की किशोर और युवा पीढ़ी को अनैतिकता, उद्दण्डता और अनुशासनहीनता जैसे भयानक रोगों से बचाना एवं करुणा और प्रेम जैसे महत्त्वपूर्ण मनोभावों को जाग्रत करने की आवश्यकता रही है। साथ ही उनमें त्याग, तितिक्षा, सेवा, सहिष्णुता, क्षमाशीलता, भावात्मक एकता, उच्च संस्कार, जातीय अभेदता, नैतिकता और आत्मालोचन जैसे नैतिक आदर्शों एवं उच्च जीवन-मूल्यों की प्राण-प्रतिष्ठा करना भी है। कवि का उद्देश्य रहा है कि श्रवण की शील की रेखाओं के प्रकाश में आज का किशोर और युवा पीढ़ी ‘मातृ देवो भव पितृ देवो भव’ के उदात्त आदर्श पहचान सके, उसके मूल्य और महत्त्व को जान सके। श्रवण कुमार से प्रेरणा लेता हुआ वह इन आदर्शों को अपने आचरण में भी उतार सके तथा श्रवण की तरह कह सके

मुझे बाण की चिन्ता सम्प्रति, उतनी नहीं सताती है,
पितरों के भविष्य की चिन्ता, जितनी व्यथा बढ़ाती है।

शीर्षक की सार्थकता – प्रस्तुत खण्डकाव्य ‘श्रवणकुमार’ में मुख्य पात्र श्रवणकुमार ही है और इस मुख्य पात्र की चारित्रिक विशेषताओं को स्पष्ट करना ही कवि का उद्देश्य रहा है। अत: इसका शीर्षक ‘श्रवणकुमार’ रखा गया है, जो इसके कथानक के अनुसार पूर्णत: उपयुक्त है।

यद्यपि प्रस्तुत खण्डकाव्य में सबसे महत्त्वपूर्ण एवं मार्मिक प्रसंग दशरथ का श्रवणकुमार के पिता द्वारा शापित होना है, तथापि इन सभी प्रसंगों की अभिव्यक्ति का भाव श्रवणकुमार के व्यक्तित्व से ही जुड़ा हुआ है। दशरथ की भूमिका कथावस्तु में सक्रियता के दृष्टिकोण से सबसे अधिक है; किन्तु दशरथ के चरित्र का उपयोग भी श्रवणकुमार के चरित्र की विशेषताओं को प्रकाशित करने की दृष्टि से ही हुआ है। श्रवणकुमार के माता-पिता का चरित्र भी श्रवणकुमार की ही चारित्रिक विशेषताओं को प्रकट करता है। अतः इस खण्डकाव्य का मुख्य पात्र श्रवणकुमार ही है और इस दृष्टिकोण से उक्त शीर्षक सबसे उपयुक्त है।

किसी भी काव्य का शीर्षक उसके मुख्य भाव को प्रकट करने वाला होना चाहिए। इस खण्डकाव्य का मुख्य भाव श्रवणकुमार की चारित्रिक विशेषताओं को प्रकट करना है; इसलिए इसका शीर्षक ‘श्रवणकुमार’ के अतिरिक्त कुछ और रखा जाना उपयुक्त नहीं प्रतीत होता।

प्रश्न 9:
‘श्रवणकुमार’ के ‘अभिशाप’ सर्ग का काव्य-वैशिष्ट्य लिखिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के सप्तम सर्ग (अभिशाप) की कथावस्तु की उद्धरण देते हुए समीक्षा कीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के कारुणिक प्रसंगों ने जनमानस को बहुत अधिक प्रभावित किया है। इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य के मार्मिक स्थलों का सोदाहरण निदर्शन कीजिए।
या
‘श्रवणकुमार’ काव्य के अभिशाप सर्ग में करुण रस का सांगोपांग वर्णन है। इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
रस की दृष्टि से ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की समीक्षा कीजिए।
या
” ‘श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य में करुणा और प्रेम की विह्वल मन्दाकिनी प्रवाहित होती है।”
इस कथन की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
डॉ० शिवबालक शुक्ल द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘श्रवणकुमार’ की कथा वाल्मीकि-रामायण के ‘अयोध्याकाण्ड’ के श्रवणकुमार-प्रसंग पर आधारित है। कवि ने इस कथा को युगानुरूप परिवर्तित कर सर्वथा नये रूप में प्रस्तुत किया है। श्रवणकुमार’ खण्डकाव्य की कथा नौ सर्गों में विभक्त है, जिनमें अन्तिम छ: सर्गों में करुण रस की पवित्र धारा प्रवाहित हुई है। बाण लगने पर श्रवण को मार्मिक क्रन्दन, दशरथ की आत्मग्लानि, श्रवण के माता-पिता का करुण-विलाप, उनका दशरथ को शाप देना, श्रवण के माता-पिता का पुत्र-शोक में प्राण त्यागना और दशरथ का दुःखी मन से अयोध्या लौटना ऐसे कारुणिक प्रसंग हैं जिन्हें पढ़कर किसी भी सहृदय पाठक का मन करुणा से आप्लावित हो उठता है। इस कारुणिकता का ही यह प्रभाव है कि यह कथानक भारतीय जनमानस की स्मृति में अमिट हो गया है और श्रवणकुमार का नाम मातृ-पितृ-भक्ति का पर्याय बन गया है। यही इस सर्ग का वैशिष्ट्य है और इसीलिए यह पाठकों को सबसे अधिक प्रभावित भी करता है।

अभिशाप’ इस खण्डकाव्य का सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण सर्ग है, जिसमें वात्सल्य की गंगा और करुण रस की-यमुना का सुन्दर संगम हुआ है। इसमें करुण रस के सभी अंगों की सहज अभिव्यक्ति हुई है। यही इस सर्ग का वैशिष्ट्य भी है। श्रवण का शव, उसके माता-पिता के मनोभावों, पूर्व स्मृतियों एवं शव-स्पर्श, शीशपटकना, रोना आदि में आलम्बन, उद्दीपन एवं अनुभाव के दर्शन होते हैं। प्रलाप, चिन्ता, स्मरण, गुणकथन और अभिलाषा आदि वृत्तियों की सहायता से शोक की करुण रस में परिणति इस सर्ग में द्रष्टव्य है। इसके साथ ही, कथावस्तु का सबसे महत्त्वपूर्ण अंश भी इसी सर्ग में है। इसके अतिरिक्त इस सर्ग में श्रवण के पिता का चरित्र देवत्व और मनुष्यत्व के बीच संघर्ष करता हुआ दिखाई देता है। ऋषि होकर भी वे क्रोध को रोक न सके और पुत्र-वध से उत्पन्न रोष के कारण, दशरथ को शाप दे दिया

पुत्र-शोक में कलप रहा हूँ, जिस प्रकार मैं अजनन्दन ।
सुत-वियोग में प्राण तजोगे, इसी भाँति करके क्रन्दन ॥

श्रवण की माता के विलाप में भी करुण रस का स्रोत निम्नवत् फूट पड़ता है

मणि खोये भुजंग-सी जननी, फन-सा पटक रही थी, शीश।
अन्धी आज बनाकर मुझको, किया न्याय तुमने जगदीश ?

तो उधर वात्सल्य रस की गंगा भी प्रवाहित होती दिखाई देती है।

धरा स्वर्ग में रहो कहीं भी ‘माँ’ मैं रहूँ सदा अय प्यार।
रहो पुत्र तुम, ठुकराओ मत मुझ दीना का किन्तु दुलार ॥

इस सर्ग के अन्त में ऋषि दम्पति में मानवीय दुर्बलता भी दिखाई गयी है। भले ही उन्होंने क्रोधवश दशरथ को शाप दे दिया गया, किन्तु दशरथ की निरपराध पत्नी के प्रति सहानुभूति भी दिखाई गयी है कि बेचारी नारी गेहूं के साथ घुन की भाँति पिसेगी। अपने पुत्रहन्ता और उसकी पत्नी के प्रति यह संवेदनात्मक भाव, वह भी उस समय जब पुत्र का शव सामने हो, मानवादर्श की चरम सीमा को दर्शाता है।

इस सर्ग में दशरथ की आन्तरिक अनुभूति एवं उनके अन्तर्मन का द्वन्द्व भी अपनी विशिष्टता रखती है। श्चात्ताप और अपराध-बोध से दबा हुआ एक राजेश्वर; श्रवण के माता-पिता के सामने उनके पुत्र के शव के साथ जिस मन:स्थिति में खड़ा है, वह कवि की कल्पना-शक्ति की अनुभवात्मक संवेदना का परिचय देता है और उसकी उस स्थिति की अभिव्यक्ति में रसों का जो अद्भुत समन्वय हुआ है, वह सराहनीय है।

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