UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi सामाजिक-सांस्कृतिक निबन्ध
UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi सामाजिक-सांस्कृतिक निबन्ध
सामाजिक-सांस्कृतिक निबन्ध
भारतीय समाज में नारी
सम्बद्ध शीर्षक
- भारतीय नारी
- नारी सबला है।
- वर्तमान समाज में नारी की स्थिति
- आधुनिक भारत में नारी का स्थान
- विकासशील भारत एवं नारी
- आधुनिक नारी की दशा और दिशा
- भारतीय नारी : वर्तमान सन्दर्भ में
- नारी शक्ति और भारतीय समाज
- भारतीय संस्कृति और नारी गौरव
- नारी सम्मान की दशा और दिशा
प्रमुख विचार-बिन्दु
- प्रस्तावना,
- भारतीय नारी का अतीत,
- मध्यकाल में भारतीय नारी,
- आधुनिक युग में नारी,
- पाश्चात्य प्रभाव एवं जीवन शैली में परिवर्तन,
- उपसंहार।।
प्रस्तावना – गृहस्थीरूपी रथ के दो पहिये हैं-नर और नारी। इन दोनों के सहयोग से ही गृहस्थ जीवन सफल होता है। इसमें भी नारी का घर के अन्दर और पुरुष को घर के बाहर विशेष महत्त्व है। फलत: प्राचीन काल में ऋषियों ने नारी को अतीव आदर की दृष्टि से देखा। नारी पुरुष की सहधर्मिणी तो है ही, वह मित्र के संदृश परामर्शदात्री, सचिव के सदृश सहायिका, माता के सदृश उसके ऊपर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाली और सेविका के सदृश उसकी अनवरत सेवा करने वाली है। इसी कारण मनु ने कहा है- ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात् जहाँ नारियों का आदर होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। फिर भी भारत में नारी की स्थिति एक समान न रहकर बड़े उतार-चढ़ावों से गुजरी है, जिसका विश्लेषण वर्तमान भारतीय समाज को समुचित दिशा देने के लिए आवश्यक है।
भारतीय नारी का अतीत – वेदों और उपनिषदों के काल में नारी को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी। वह पुरुष के समान विद्यार्जन कर विद्वत्सभाओं में शास्त्रार्थ करती थी। महाराजा जनक की सभा में हुआ याज्ञवल्क्य-गार्गी शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है। मण्डन मिश्र की धर्मपत्नी भारती अपने काल की अत्यधिक विख्यात विदुषी थीं, जिन्होंने अपने दिग्गज विद्वान् पति की पराजय के बाद स्वयं आदि शंकराचार्य से शास्त्रार्थ किया। यही नहीं, स्त्रियाँ युद्ध-भूमि में भी जाती थीं। इसके लिए कैकेयी का उदाहरण प्रसिद्ध है। उस काल में नारी को अविवाहित रहने या स्वेच्छा से विवाह करने का पूरा अधिकार था। कन्याओं का विवाह उनके पूर्ण यौवनसम्पन्न होने पर उनकी इच्छा व पसन्द के अनुसार ही होता था, जिससे वे अपने भले-बुरे का निर्णय स्वयं कर सकें।
मध्यकाल में भारतीय नारी – मध्यकाल में नारी की स्थिति अत्यधिक शोचनीय हो गयी; क्योंकि मुसलमानों के आक्रमण से हिन्दू समाज का मूल ढाँचा चरमरा गया और वे परतन्त्र होकर मुसलमान शासकों का अनुकरण करने लगे। मुसलमानों के लिए स्त्री मात्र भोग-विलास की और वासना-तृप्ति की वस्तु थी। फलत: लड़कियों को विद्यालय में भेजकर पढ़ाना सम्भव न रहा। हिन्दुओं में बाल-विवाह का प्रचलन हुआ, जिससे लड़की छोटी आयु में ही ब्याही जाकर अपने घर चली जाये। परदा-प्रथा का प्रचलन हुआ और नारी घर में ही बन्द कर दी। गयी। युद्ध में पतियों के पराजित होने पर यवनों के हाथ न पड़ने के लिए नारियों ने अग्नि का आलिंगन करना शुरू किया, जिससे सती–प्रथा का प्रचलन हुआ। इस प्रकार नारियों की स्वतन्त्रता नष्ट हो गयी और वे मात्र दासी या भोग्या बनकर रह गयीं। नारी की इसी असहायावस्था का चित्रण गुप्त जी ने निम्नलिखित पंक्तियों में किया है।
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ॥
आधुनिक युग में नारी-आधुनिक युग में अंग्रेजों के सम्पर्क से भारतीयों में नारी-स्वातन्त्र्य की चेतना जागी। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ सामाजिक आन्दोलन का भी सूत्रपात हुआ। राजा राममोहन राय और महर्षि दयानन्द जी ने समाज सुधार की दिशा में बड़ा काम किया। सती–प्रथा कानून द्वारा बन्द करायी गयी और बाल-विवाह पर रोक लगी। आगे चलकर महात्मा गांधी ने भी स्त्री-सुधार की दिशा में बहुत काम किया। नारी की दीन-हीन दशा के विरुद्ध पन्त का कवि हृदय आक्रोश प्रकट कर उठता है
मुक्त करो नारी को मानव
चिरबन्दिनी नारी को।
आज नारियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हैं। उन्हें उनकी योग्यतानुसार आर्थिक स्वतन्त्रता भी मिली हुई है। स्वतन्त्र भारत में आज नारी किसी भी पद अथवा स्थान को प्राप्त करने से वंचित नहीं। धनोपार्जन के लिए वह आजीविका का कोई भी साधन अपनाने के लिए स्वतन्त्र है। फलतः स्त्रियाँ अध्यापिका, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, वकील, जज, प्रशासनिक अधिकारी ही नहीं, अपितु पुलिस में नीचे से ऊपर तक विभिन्न पदों पर कार्य कर रही हैं। स्त्रियों ने आज उस रूढ़ धारणा को तोड़ दिया है कि कुछ सेवाएँ पूर्णत: पुरुषोचित होने से स्त्रियों के बूते की नहीं। आज नारियाँ विदेशों में राजदूत, प्रदेशों की गवर्नर, विधायिकाएँ या संसद सदस्याएँ, प्रदेश अथवा केन्द्र में मन्त्री आदि सभी कुछ हैं। भारत जैसे विशाल देश का प्रधानमन्त्रित्व तक एक नारी कर गयी, यह देख चकित रह जाना पड़ता है। श्रीमती विजय-लक्ष्मी पंडित ने तो संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्षता कर सबको दाँतों तले अंगुली दबवा दी। इतना ही नहीं, नारी को आर्थिक स्वतन्त्रता दिलाने के लिए उसे कानून द्वारा पिता एवं पति की सम्पत्ति में भी भाग प्रदान किया गया है।
आज स्त्रियों को प्रत्येक प्रकार की उच्चतम शिक्षा की सुविधा प्राप्त है। बाल-मनोविज्ञान, पाकशास्त्र, गृह-शिल्प, घरेलू चिकित्सा, शरीर-विज्ञान, गृह-परिचर्या आदि के अतिरिक्त विभिन्न ललित कलाओं; जैसे– संगीत, नृत्य, चित्रकला, छायांकन आदि में विशेष दक्षता करने के साथ-साथ वाणिज्य और विज्ञान के क्षेत्रों में भी वे उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही हैं।
स्वयं स्त्रियों में भी अब सामाजिक चेतना जाग उठी है। प्रबुद्ध नारियाँ अपनी दुर्दशा के प्रति सचेत हैं और उसके सुधार में दत्तचित्त भी। अनेक नारियाँ समाज-सेविकाओं के रूप में कार्यरत हैं। आशा है कि वे भारत की वर्तमान समस्याओं; जैसे–भुखमरी, बेकारी, महँगाई, दहेज-प्रथा आदि के सुलझाने में भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँगी।
पाश्चात्य प्रभाव एवं जीवन-शैली में परिवर्तन–किन्तु वर्तमान में एक चिन्ताजनक प्रवृत्ति भी नारियों में बढ़ती दीख पड़ती है, जो पश्चिम की भौतिकवादी सभ्यता का प्रभाव है। अंग्रेजी शिक्षा के परिणामस्वरूप अधिक शिक्षित नारियाँ तेजी से भोगवाद की ओर अग्रसर हो रही हैं। वे फैशन और आडम्बर को ही जीवन का सार समझकर सादगी से विमुख होती जा रही हैं और पैसा कमाने की होड़ में अनैतिकता की ओर उन्मुख हो रही हैं। यह बहुत ही कुत्सित प्रवृत्ति है, जो उन्हें पुनः मध्यकालीन-हीनावस्था में धकेल देगी। इसी बात को लक्ष्य कर कवि पन्त नारी को चेतावनी देते हुए कहते हैं
तुम सब कुछ हो फूल, लहर, विहगी, तितली, मार्जारी
आधुनिके! कुछ नहीं अगर हो, तो केवल तुम नारी।
प्रसिद्ध लेखिका श्रीमती प्रेमकुमारी ‘दिवाकर’ को कथन है कि “आधुनिक नारी ने नि:सन्देह बहुत कुछ प्राप्त किया है, पर सब-कुछ पाकर भी उसके भीतर का परम्परा से चला आया हुआ कुसंस्कार नहीं बदल रहा है। वह चाहती है कि रंगीनियों से सज जाए और पुरुष उसे रंगीन खिलौना समझकर उससे खेले। वह अभी भी अपने-आपको रंग-बिरंगी तितली बनाये रखना चाहती है, कहने की आवश्यकता नहीं है कि जब तक उसकी यह आन्तरिक दुर्बलता दूर नहीं होगी, तब तक उसके मानस का नव-संस्कार न होगा। जब तक उसका भीतरी व्यक्तित्व न बदलेगा तब तक नारीत्व की पराधीनता एवं दासता के विष-वृक्ष की जड़ पर कुठाराघात न हो सकेगा।”
उपसंहार- नारी, नारी ही बनी रहकर सबकी श्रद्धा और सहयोग अर्जित कर सकती है, तितली बनकर वह स्वयं तो डूबेगी ही और समाज को भी डुबाएगी। भारतीय नारी पाश्चात्य शिक्षा के माध्यम से आने वाली यूरोपीय संस्कृति के व्यामोह में न फंसकर यदि अपनी भारतीयता बनाये रखे तो इससे उसका और समाज दोनों का हितसाधन होगा और वह उत्तरोत्तर प्रगति करती जाएगी। वर्तमान में कुरूप सामाजिक समस्याओं; जैसे-दहेज प्रथा, शारीरिक व मानसिक हिंसा की शिकार स्त्री को अत्यन्त सजग होने की आवश्यकता है। उसे भरपूर आत्मविश्वास एवं योग्यता अर्जित करनी होगी, तभी वह सशक्त वे समर्थ व्यक्तित्व की स्वामिनी हो सकेगी अन्यथा उसकी प्राकृतिक कोमल स्वरूप-संरचना तथा अज्ञानता उसे समाज के शोषण का शिकार बनने पर विवश कर देगी। नारी के इसी कल्याणमय रूप को लक्ष्य कर कविवर प्रसाद ने उसके प्रति इन शब्दों में श्रद्धा-सुमन अर्पित किये
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत-नभ-पग-तल में,
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।
पंचायती राज
सम्बद्ध शीर्षक
- पंचायती राज-व्यवस्था के लाभ
- वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पंचायती राज-व्यवस्था
- देश के विकास में ग्राम पंचायत की भूमिका
प्रमुख विचार-बिन्दु
- प्रस्तावना,
- पंचायती राज क्या है?
- पंचायती राज का पुरातन व स्वतन्त्रता पूर्व का स्वरूप,
- पंचायती राज व्यवस्था का वर्तमान स्वरूप,
- अधिनियम की कमियाँ,
- पंचायती राज व्यवस्था के लाभ,
- उपसंहार।
प्रस्तावना – पंचायत की भावना भारतीय संस्कृति को अभिन्न अंग है। पंच, पंचायत और पंच परमेश्वर भारतीय सामाजिक व्यवस्था के मूल में स्थित हैं। पंचायतें वस्तुत: गाँवों में शासन करती आयी हैं। हमारे गाँवों में पंचों को परमेश्वर का स्वरूप माना जाता रहा है। दोषी व्यक्ति का हुक्का-पानी बन्द कर देना अथवा जाति से बहिष्कृत कर देना पंचायतों के लिए एक सामान्य-सी बात है। नगरों में भी अनेक बिरादरियों की पंचायतें आज भी कार्य करती देखी जा सकती हैं। तात्पर्य यह है कि पंचायतों पर आधारित शासन-व्यवस्था, जिसे वर्तमान में लोकतन्त्र कहा जाता है, कोई नयी व्यवस्था नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास के मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी अपने प्रजाजन से कहते हैं
”जौ कछु अनुचित भाखौं भाई। तौ तुम बरजेहु भय बिसराई।”
पंचायती राज क्या है? – भारत में प्राचीन काल से ही स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था चली आ रही है। पंचायती राज व्यवस्था भी इसी स्थानीय स्वशासन नामक व्यवस्था की एक कड़ी है। पंचायती राज के अन्तर्गत ग्रामीण जनता का सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास स्वयं उनके द्वारा ही किया जाता है। दूसरे शब्दों में, पंचायती राज लोकतन्त्र का प्रथम सोपान अथवा प्रथम पाठशाला है। लोकतन्त्र वस्तुतः विकेन्द्रीकरण पर आधारित शासन-व्यवस्था होती है। इस व्यवस्था में पंचायती राज वह माध्यम है जो शासन के साथ सामान्य जनता को सीधा सम्पर्क स्थापित करता है। इस व्यवस्था में शासन-प्रशासन के प्रति जनता की रुचि सदैव बनी रहती है, क्योंकि जनता अंपनी स्थानीय समस्याओं का समाधान स्थानीय स्तर पर करने में सक्षम होती है।
पंचायती राज का पुरातन व स्वतन्त्रता पूर्व का स्वरूप – यदि हम प्राचीन काल का अध्ययन करें तो पाएँगे कि पंचायती राज-व्यवस्था किसी-न-किसी रूप में प्रत्येक युग में विराजमान रही है। वैदिक काल में भी इस तरह की संस्थाएँ थीं जो समाज के उद्योग, व्यापार, प्रशासन, शिक्षा, समाज तथा धर्म से सम्बन्धित थीं। वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत से यह प्रमाण प्राप्त होते हैं कि उस काल में भी ग्राम-सभाएँ थीं एवं सरपंचों का महत्त्व था। मनुस्मृति तथा शंकराचार्य के नीतिसार में भी ग्रामीण गणराज्यों का वर्णन मिलता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से मौर्यकालीन ग्रामीण शासन के संचालन की पर्याप्त जानकारी मिलती है। मुगलकाल में भी देश में स्थानीय शासन की व्यवस्था विद्यमान थी। चार्ल्स मेटकॉफ ने इस प्रणाली को सूक्ष्म गणराज्य का नाम दिया था। ब्रिटिश शासनकाल में ही सबसे पहले व्यवस्थित रूप में स्थानीय स्वशासन की स्थापना हुई।
पंचायती राज-व्यवस्था का वर्तमान स्वरूप – स्वतन्त्रता आन्दोलन के मध्य में महात्मा गांधी ने यह अनुभव किया कि पंचायती राज के अभाव में देश में कृषि एवं कृषकों का विकास अर्थात् ग्रामोत्थान नहीं हो सकेगा। इस चिन्तन के परिणामस्वरूप स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त इस दिशा में विभिन्न प्रयत्न किये गये तथा पंचायती राज-व्यवस्था को संविधान के अनुच्छेद 40 में राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों के अन्तर्गत रखा गया। स्वतन्त्र भारत में इस प्रणाली का शुभारम्भ 2 अक्टूबर, 1952 में किया गया तथा इसका क्रियान्वयन राजकीय देख-रेख में रखा गया।
वर्षों तक पराधीन रहे भारत की स्थिति अच्छी नहीं थी, इसलिए यह व्यवस्था सफल न हो सकी। इसे पुनः प्रभावी बनाने के लिए सन् 1977 में अशोक राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गयी, परन्तु देश में व्याप्त व्यापक राजनीतिक अस्थिरता के कारण इस समिति के सुझावों को लागू न किया जा सका। सन् 1985 में जी० वी० के० राव समिति तथा सन् 1986 में गठित लक्ष्मीमल सिंघवी समिति ने पंचायती राज संस्थाओं के रूप को विकसित करने के लिए उनका संवैधानीकरण करने की सिफारिश की। सन् 1989 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गांधी के शासन में स्थानीय ग्रामीण शासन के पुनर्निर्माण के लिए; 64वें संविधान संशोधन विधेयक; के माध्यम से प्रयास किये गये, किन्तु यह विधेयक राज्यसभा द्वारा पारित नहीं किया गया। इन समस्त प्रयासों के परिणामस्वरूप सन् 1992 में एक नये विधेयक को पुन: संसद के समक्ष 73वें संविधान संशोधन के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित होकर 24 अप्रैल, 1993 ई० को कानून के रूप में लागू हो गया। इस संशोधन ने पंचायती राज को सरकार का तीसरा स्तर बना दिया है। इसे भारतीय गणराज्य की विशेष उपलब्धि कहा जा सकता है। इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान अग्रलिखित हैं
- ग्राम सभा एक ऐसा निकाय होगा जिसमें ग्राम स्तर पर पंचायत क्षेत्र में मतदाताओं के रूप में पंजीकृत सभी व्यक्ति सम्मिलित होंगे। ग्राम सभा राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्धारित शक्तियों का प्रयोग तथा कार्यों को सम्पन्न करेगी।
- प्रत्येक राज्य में ग्राम, मध्यवर्ती एवं जिला स्तर पर पंचायतों का गठन किया जाएगा।
- प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लिए सीटें आरक्षित होंगी। ये सीटें एक पंचायत में चक्रानुक्रम से विभिन्न क्षेत्रों में आरक्षित की जाएँगी?
- प्रत्येक पंचायत की कार्यावधि 5 वर्ष होगी। यदि पंचायत को 5 वर्ष पूर्व ही भंग कर दिया जाता है, तो 6 माह की अवधि समाप्त होने के पूर्व चुनाव कराये जाएंगे।
- राज्य विधानमण्डल विधि द्वारा पंचायतों को ऐसी शक्तियाँ प्रदान करेंगे जो उन्हें स्वशासन की संस्था के रूप में कार्यरत कर सकें तथा जिनमें पंचायतें आर्थिक विकास एवं सामाजिक न्याय के लिए योजनाएँ तैयार करे सकें एवं 11वीं अनुसूची में समाहित विषयों सहित आर्थिक विकास एवं सामाजिक न्याय की योजनाओं को कार्यान्वित कर सकें।
- राज्य विधानमण्डल कानून बनाकर पंचायतों को उपयुक्त स्थानीय कर लगाने, उन्हें वसूल करने तथा उनसे प्राप्त धन को व्यय करने का अधिकार प्रदान कर सकती है।
- यह अधिनियम संविधान में एक नयी 11वीं अनुसूची जोड़ता है; जिसमें कुल 29 विषय हैं।
अधिनियम की कमियाँ – इस संविधान संशोधन (अधिनियम) में कतिपय न्यूनताएँ दिखाई देती हैं
- प्रायः समस्त प्रावधानों के कार्यान्वयन को राज्य सरकारों की सदाशयता पर छोड़ दिया गया है। वस्तुत: राज्य सरकारें ही पंचायतों को धन, शक्ति, उत्तरदायित्व प्रदान करने के लिए अधिकृत हैं। उनकी इच्छा के विरुद्ध पंचायतें मृतप्राय समझी जानी चाहिए।
- उपेक्षित महिलाओं को स्थानीय स्तर पर प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाएगा, यह सन्देहास्पद है। महिलाओं की अशिक्षा एवं उनके पिछड़ेपन के कारण सम्बन्धित प्रावधान के दुरुपयोग की पूरी आशंका है।
- राज्यों के सीमित संसाधनों के परिप्रेक्ष्य में यह कहना कठिन है कि पंचायतों को पर्याप्त धन उपलब्ध हो सकेगा।
- ग्रामीण न्यायालयों की स्थापना एवं उनके क्षेत्राधिकार के प्रावधान स्पष्ट किये जाने चाहिए।
- योजनाओं का निर्माण केन्द्र व राज्य सरकारों के स्तर पर रखा गया है। आवश्यकता इस बात की है कि योजनाओं के निर्माण का आरम्भ स्थानीय स्तर से हो, जिससे स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके।
पंचायती राज-व्यवस्था के लाभ – पंचायती राज व्यवस्था से पंचायतों को अधिकारों का हस्तान्तरण और उनकी लोकतान्त्रिक संरचना हमारे संविधान का महत्त्वपूर्ण अंग बन गयी है। इस व्यवस्था से ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करना अब अपेक्षाकृत सरल हो गया है। गाँवों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास का दायित्व अब पंचायतों पर आ गया है।
अब पंचायतें ग्रामवासियों को विभिन्न प्रकार के शोषण से सुरक्षा कवच प्रदान कर सकेंगी। इससे देश में समानता एवं सद्भावना के प्रसार में सहायता मिलेगी। यह हमारे ग्रामवासियों एवं उनके द्वारा निर्वाचित पंचों पर निर्भर है। कि वे इन अधिकारों एवं सुविधाओं का किस प्रकार उपयोग करते हैं। अब अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों तथा महिलाओं को आत्मनिर्णय करने में तथा अपना पक्ष प्रस्तुत करने में सुविधा होगी। यदि पंचायतें ग्राम स्तर पर राजनीतिक प्रक्रिया में ईमानदारी से कार्य कर सकें, तो वे राष्ट्रीय स्तर पर भी राजनीति को प्रभावित कर सकेंगी और इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका को निर्वाह कर सकेंगी।
उपसंहार – स्वतन्त्रता के पश्चात् के चार दशकों में ग्रामीण क्षेत्रों में प्राय: आर्थिक विषमता बढ़ी तथा भूमि-सुधार कार्यक्रम भी उपेक्षित रहे। पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से एक आशा की किरण दीख रही है कि अब इस ओर ध्यान दिया जाएगा तथा इनके माध्यम से देश की ग्रामीण स्थिति बेहतर होगी। विकेन्द्रीकरण की सार्थकता तभी सिद्ध हो सकेगी जब राज्य द्वारा राजनीतिक एवं आर्थिक दोनों प्रकार के उत्तरदायित्व, अधिकार एवं शक्तियाँ स्थानीय संस्थाओं को दी जाएँगी। इसके अभाव में पंचायती राज केवल संविधान में सुरक्षित रहेगा। पंचायतों द्वारा पूरी ईमानदारी एवं नैतिकता के साथ कार्य करने पर ही महात्मा गांधी के रामराज्य का स्वप्न साकार हो सकेगा।
वर्तमान समाज पर दरदर्शन का प्रभाव
सम्बद्ध शीर्षक
- शिक्षा में दूरदर्शन की उपयोगिता
- दूरदर्शन की उपयोगिता (सदुपयोग)
- दूरदर्शन : गुण एवं दोष
- दूरदर्शन और भारतीय समाज
- दूरदर्शन : लाभ-हानि
- दूरदर्शन और हिन्दी
प्रमुख विचार-बिन्द
- प्रस्तावना,
- दूरदर्शन का आविष्कार
- विभिन्न क्षेत्रों में योगदान,
- दूरदर्शन से हानियों,
- उपसंहार।
प्रस्तावना – विज्ञान द्वारा मनुष्य को दिया गया एक सर्वाधिक आश्चर्यजनक उपहार दूरदर्शन है। आज व्यक्ति जीवन की आपाधापी से त्रस्त है। वह दिनभर अपने काम में लगा रहता है, चाहे उसका कार्य शारीरिक हो या मानसिक। शाम को थककर चूर हो जाने पर वह अपनी थकावट और चिन्ताओं से मुक्ति के लिए कुछ मनोरंजन चाहता है। दूरदर्शन मनोरंजन का सर्वोत्तम साधन है। आज यह जन-सामान्य के जीवन का केन्द्रीय अंग हो चला है। दूरदर्शन पर हम केवल कलाकारों की मधुर ध्वनि को ही नहीं सुन पाते वरन् उनके हाव-भाव और कार्यकलापों को भी प्रत्यक्ष देख पाते हैं। दूरदर्शन केवल मनोरंजन का ही साधन हो, ऐसा भी नहीं है। यह जनशिक्षा का एक सशक्त माध्यम भी है। इससे जीवन के विविध क्षेत्रों में व्यक्ति का ज्ञानवर्द्धन हुआ है। दूरदर्शन के माध्यम से व्यक्ति का उन सबसे साक्षात्कार हुआ है जिन तक पहुँचना सामान्य व्यक्ति के लिए कठिन ही नहीं, वरन् असम्भव भी था। दूरदर्शन ने व्यक्ति में जनशिक्षा का प्रसार करके उसे समय के साथ चलने की चेतना दी है। यूरोपीय देशों के साथ भारत में भी दूरदर्शन इस ओर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। यह रेडियो, सिनेमा और समाचार-पत्रों से अधिक अच्छा और प्रभावी माध्यम सिद्ध हुआ है।
दूरदर्शन का आविष्कार – दूरदर्शन का आविष्कार अधिक पुराना नहीं है। 25 जनवरी, 1926 में इंग्लैण्ड के एक इंजीनियर जॉन बेयर्ड ने इसको रॉयल इंस्टीट्यूट के सदस्यों के सामने पहली बार प्रदर्शित किया। उसने रेडियो-तरंगों की सहायता से कठपुतली के चेहरे का चित्र बगल वाले कमरे में बैठे वैज्ञानिकों के सम्मुख दिखाकर उन्हें आश्चर्य में डाल दिया। विज्ञान के क्षेत्र में यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना थी। भारत में दूरदर्शन का पहला केन्द्र सन् 1959 ई० में नयी दिल्ली में चालू हुआ था। आज तो सम्पूर्ण देश में दूरदर्शन का प्रसार हो गया है और इसका प्रसारण क्षेत्र धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा है। कृत्रिम उपग्रहों ने तो दूरदर्शन के कार्यक्रमों को समस्त विश्व के लोगों के लिए और भी सुलभ बना दिया है।
विभिन्न क्षेत्रों में योगदान – दूरदर्शन अनेक दृष्टियों से हमारे लिए लाभकारी सिद्ध हो रहा है। कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में दूरदर्शन के योगदान, महत्त्व एवं उपयोगिताओं का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है
(1) शिक्षा के क्षेत्र में – दूरदर्शन से अनेक शैक्षिक सम्भावनाएँ हैं। वह कक्षा में प्रभावशाली ढंग से पाठ की पूर्ति कर सकता है। विविध विषयों में यह विद्यार्थी की रुचि विकसित कर सकता है। यह कक्षा में विविध घटनाओं, महान् व्यक्तियों तथा अन्य स्थानों के वातावरण को प्रस्तुत कर सकता है। दृश्य होने के कारण इसका प्रभाव दृढ़ होता है। इतिहास-प्रसिद्ध व्यक्तियों के जीवन की घटनाओं को दूरदर्शन पर प्रत्यक्ष देखकर चारित्रिक विकास होता है। देश-विदेश के अनेक स्थानों को देखकर भौगोलिक ज्ञान बढ़ता है। अनेक पर्वतों, समुद्रों और वनों के दृश्य देखने से प्राकृतिक छटा के साक्षात् दर्शन हो जाते हैं। राजदरबारों, सभाओं आदि के दृश्य देखकर तथा सभ्य पुरुषों के रहन-सहन एवं वार्तालाप को सुनकर हमारा व्यावहारिक ज्ञान बढ़ता है। इसके अतिरिक्त शिक्षा के क्षेत्र में दूरदर्शन अनेक रूपों में विशेष सहायक हो रहा है। हमारे देश में इस पर विभिन्न कक्षा-स्तरों के शिक्षण कार्यक्रम प्रसारित किये जाते हैं, जिससे लाखों विद्यार्थी लाभान्वित होते हैं।
(2) वैज्ञानिक अनुसन्धान तथा अन्तरिक्ष के क्षेत्र में – वैज्ञानिक अनुसन्धान की दृष्टि से भी दूरदर्शन का विशेष महत्त्व रहा है। चन्द्रमा, मंगल व शुक्र ग्रहों पर भेजे गये अन्तरिक्ष यानों में दूरदर्शन यन्त्रों का प्रयोग किया गया था, जिनसे उन्होंने वहाँ के बहुत सुन्दर और विश्वसनीय चित्र पृथ्वी पर भेजे। बड़े देशों द्वारा अरबों रुपयों की लागत से किये गये विभिन्न वैज्ञानिक अनुसन्धानों को प्रदर्शित करके दूरदर्शन ने विज्ञान का उच्चतर ज्ञान कराया है तथा सैद्धान्तिक वस्तुओं का स्पष्टीकरण किया है।
(3) तकनीक और चिकित्सा के क्षेत्र में – तकनीक और चिकित्सा के क्षेत्र में भी दूरदर्शन बहुत शिक्षाप्रद रहा है। दूरदर्शन ने एक सफल और प्रभावशाली प्रशिक्षक की भूमिका निभायी है। यह अधिक प्रभावशाली और रोचक विधि से मशीनी प्रशिक्षण के विभिन्न पक्ष शिक्षार्थियों को समझा सकता है। साथ ही यह लोगों को औद्योगिक एवं तकनीकी विकास के विभिन्न पहलू प्रत्यक्ष दिखाकर उनसे परिचित कराता है।।
(4) कृषि के क्षेत्र में – भारत एक कृषिप्रधान देश है। यहाँ की तीन-चौथाई जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। यहाँ अधिकांश कृषक अशिक्षित हैं। वे कृषि उत्पादन में पुरानी तकनीक को ही अपनाने के कारण अपेक्षित उत्पादन नहीं कर पाते। दूरदर्शन पर कृषि-दर्शन आदि विविध कार्यक्रमों से भारतीय कृषकों में जागरूकता आयी है। दूरदर्शन ने उन्हें फसल बोने की आधुनिक तकनीक, उत्तम बीज तथा रासायनिक खाद के प्रयोग और उसके परिणामों को प्रत्यक्ष दिखाकर इस क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया है। कृषक को जागरूक बनाने में दूरदर्शन की महती भूमिका है।
(5) सामाजिक चेतना की दृष्टि से – सामाजिक चेतना की दृष्टि से तो दूरदर्शन निस्सन्देह उपयोगी सिद्ध हुआ है। इसने विविध कार्यक्रमों के माध्यम से समाज में व्याप्त कुप्रथाओं और अनेक बुराइयों पर कटु प्रहार किया है। लोगों को ‘छोटो परिवार सुखी परिवार की ओर आकर्षित किया है। इसने बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, छुआछूत व सम्प्रदायिकता के विरुद्ध जनमत तैयार किया है। इसके अतिरिक्त दूरदर्शन बाल-कल्याण और नारी-जागरण में भी उपयोगी सिद्ध हुआ है। यह दर्शकों को स्वास्थ्य और स्वच्छता के नियमों, यातायात के नियमों तथा कानून और व्यवस्था के विषय में भी शिक्षित करता है। दूरदर्शन द्वारा जनसाधारण को अल्प बचत, जीवन बीमा तथा अन्य कल्याणकारी योजनाओं की ओर आकृष्ट किया जाता है। ऐसा करके वह मनुष्य को दूसरों का ध्यान रखने के सामाजिक दायित्व का बोध कराता है।
(6) राजनीतिक दृष्टि से – दूरदर्शन राजनीतिक दृष्टि से भी जनसामान्य को शिक्षित करता है। वह प्रत्येक व्यक्ति को एक नागरिक होने के नाते उसके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक करता है तथा मताधिकार के प्रति रुचि जाग्रत करके उसमें राजनीतिक चेतना लाता है। आजकल दूरदर्शन पर आयकर, दीवानी और फौजदारी मामलों से सम्बन्धित जानकारी भी दी जाती है, जिनके परिणामस्वरूप व्यक्ति का इस ओर ज्ञानवर्द्धन हुआ है।
(7) स्वस्थ रुचि के विकास की दृष्टि से – कवि सम्मेलन, मुशायरों, साहित्यिक प्रतियोगिताओं का आयोजन करके, नये प्रकाशनों का परिचय देकर तथा साहित्यकारों से साक्षात्कार प्रस्तुत करके दूरदर्शन ने साहित्य के प्रति स्वस्थ रुचि का विकास किया है। इसी प्रकार बड़े-बड़े कलाकारों की कलाओं की कला का परिचय देकर कला के प्रति लोगों में जागरूकता और समझ बढ़ायी है। यही नहीं, नये उभरते हुए साहित्यकारों, कलाकारों (चित्रकार, संगीतकार, फोटोग्राफर आदि) एवं विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे कारीगरों के कृतित्व का परिचय देकर न केवल उनको प्रोत्साहित किया है, वरन् उनकी वस्तुओं की बिक्री के लिए व्यापक क्षेत्र भी प्रस्तुत किया है। इससे विभिन्न कलाओं को जीवित रखने और विकसित होने में महत्त्वपूर्ण योगदान मिला है। इतना ही नहीं, दूरदर्शन अन्य अनेक दृष्टिकोणों से जनसाधारण को जागरूक और शिक्षित करता है, वह चाहे खेल का मैदान हो या व्यवसाय का क्षेत्र। दूरदर्शन खेलों के प्रति रुचि जाग्रत करके खेल और खिलाड़ी की सच्ची भावना पैदा करता है। दूरदर्शन के सीधे प्रसारण ने कुश्ती, तैराकी, बैडमिण्टन, फुटबॉल, हॉकी, क्रिकेट, शतरंज आदि को लोकप्रियता की बुलन्दियों पर पंहुँचा दिया है। दूरदर्शन के इस सुदृढ़ प्रभाव को देखते हुए उद्योगपति और व्यवसायी अपने उत्पादन के प्रचार और प्रसार के लिए इसे प्रमुख माध्यम के रूप में अपना रहे हैं।
दूरदर्शन से हानियाँ – दूरदर्शन से होने वाले लाभों के साथ-साथ इससे होने वाली कुछ हानियाँ भी हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। कोमल आँखें घण्टों तक टी० वी० स्क्रीन पर केन्द्रित रहने से अपनी स्वाभाविक शोभा क्षीण कर लेती हैं। इससे निकलने वाली विशेष प्रकार की किरणों का प्रतिकूल प्रभाव नेत्रों के साथ-साथ त्वचा पर भी पड़ता है, जो कि कम दूरी से देखने पर और भी बढ़ जाता है। इसके अधिक प्रचलन के परिणामस्वरूप विशेष रूप से बच्चों एवं किशोर-किशोरियों की शारीरिक गतिविधियाँ एवं खेलकूद कम होने लगे हैं। इससे उनके शारीरिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इस पर प्रसारित होते कार्यक्रमों को देखते रहकर हम अपने अधिक आवश्यक कार्यों को यों तो भूल जाते हैं या उनका करना टाल देते हैं। समय की बरबादी करने के साथ-साथ हम आलसी और कामचोर भी हो जाते हैं तथा हमें अपने आवश्यक कार्यों के लिए भी समय का प्रायः अभाव ही बना रहता है।
केबल टी० वी० पर प्रसारित होने वाले कुछ कार्यक्रमों ने तो अल्पवयस्क बुद्धि के किशोरों को वासना के तूफान में ढकेलने का कार्य किया है। इनसे न केवल हमारी युवा-पीढ़ी पर विदेशी अप-संस्कृति का प्रभाव पड़ता है। अपितु हमारे अबोध और नाबालिग बच्चे भी इसके दुष्प्रभाव से बच नहीं पा रहे हैं। इस प्रकार के कार्यक्रमों के नियमित अवलोकन से उनके व्यक्तित्व का असामान्य विकास होने की सम्भावना सदैव रहती है। दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रम वास्तविक जगत् की वास्तविकताओं से बहुत दूर होते हैं। ऐसे कार्यक्रम व्यक्तित्व को असन्तुलित बनाने में उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं।
साथ ही विज्ञापनों के सम्मोहन ने धन के महत्त्व को धर्म और चरित्र से कहीं ऊपर कर दिया है। हानिकारक वस्तुओं को भी धड़ल्ले से बेचने का कार्य व्यापारी वर्ग लुभावने विज्ञापनों के माध्यम से खूब कर रहा है।
उपसंहार – इस प्रकार हम देखते हैं कि दूरदर्शन मनोरंजन के साथ-साथ जन-शिक्षा का भी एक सशक्त माध्यम है। विभिन्न विषयों में शिक्षा के उद्देश्य के लिए इसका प्रभावशाली रूप में प्रयोग किया जा सकता है। आवश्यकता है कि इसे केवल मनोरंजन का साधन ही न समझा जाए, वरन् यह जनशिक्षा एवं प्रचार का माध्यम भी बने। इस उद्देश्य के लिए इसके विविध कार्यक्रमों में अपेक्षित सुधार होने चाहिए। इसके माध्यम से तकनीकी और व्यावहारिक शिक्षा का प्रसार किया जाना चाहिए। सरकार दूरदर्शन के महत्त्व को दृष्टिगत रखते हुए देश के विभिन्न भागों में इसके प्रसारण-केन्द्रों की स्थापना कर रही है। दूरदर्शन से होने वाली हानियों के लिए एक तन्त्र एवं दर्शन जिम्मेदार है। इसके लिए दूरदर्शन के निर्देशकों, सरकार एवं सामान्यजन को संयुक्त रूप से प्रयास करने होंगे, जिससे दूरदर्शन के कार्यक्रमों को दोषमुक्त बनाकर उन्हें वरदान के रूप में ग्रहण किया जा सके।
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