UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 15 The State Legislature (राज्य के विधानमण्डल)

By | May 29, 2022

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 15 The State Legislature (राज्य के विधानमण्डल)

UP Board Solutions for Class 12 Civics Chapter 15 The State Legislature (राज्य के विधानमण्डल)

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)

प्रश्न 1.
उत्तर प्रदेश की विधानसभा के संगठन एवं शक्तियों का उल्लेख कीजिए। [2016]
या
उत्तर प्रदेश के विधानमंडल के दोनों सदनों के संगठन एवं शक्तियों की परस्पर तुलना कीजिए। [2016]
या
उत्तर प्रदेश की विधानसभा की रचना तथा कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
विधानसभा के संगठन, कार्यकाल तथा अधिकारों (शक्तियों) का उल्लेख कीजिए। [2007]
या
राज्य-मन्त्रिमण्डल की शक्तियों और कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
राज्य विधान सभा की वित्तीय शक्तियों का वर्णन कीजिए। [2012]
या
राज्य विधानसभा के कार्यों का वर्णन कीजिए। उत्तर प्रदेश की विधानसभा के संगठन पर प्रकाश डालिए तथा उन उपायों का उल्लेख कीजिए जिनके द्वारा वह मन्त्रिपरिषद् को नियन्त्रित करती है। [2013]
या
राज्य में विधानसभा की दो शक्तियाँ लिखिए। [2008, 10, 12]
उत्तर :
राज्य विधानमण्डल
संविधान के द्वारा भारत के प्रत्येक राज्य में एक विधानमण्डल की व्यवस्था की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 168 में कहा गया है कि प्रत्येक राज्य के लिए एक विधानमण्डल होगा, जो राज्यपाल तथा कुछ राज्यों में दो सदन से मिलकर तथा कुछ में एक संदन से बनेगा। जिन राज्यों के दो सदन होंगे, उनके नाम क्रमशः विधानसभा और विधान-परिषद् होंगे। प्रत्येक राज्य में जनता द्वारा वयस्क मताधिकार द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का सदन होता है। विधानमण्डल के इस प्रथम सदन को ‘विधानसभा’ कहते हैं। जिन राज्यों में विधानमण्डल का दूसरा सदन है, उसे ‘विधानपरिषद्” कहते हैं।

विधानसभा की रचना
विधानसभा विधानमण्डल का प्रथम और लोकप्रिय सदन है। जिन राज्यों में विधानमण्डल के दो सदन हैं, वहाँ पर विधानसभा विधान-परिषद् से अधिक शक्तिशाली है।

1. सदस्य-संख्या – संविधान में राज्य की विधानसभा के सदस्यों की केवल न्यूनतम और अधिकतम संख्या निश्चित की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 170 के अनुसार राज्य की विधानसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 500 और न्यूनतम संख्या 60 होगी। सम्पूर्ण प्रदेश को अनेक निर्वाचन क्षेत्रों में इस प्रकार विभाजित किया जाता है कि विधानसभा का प्रत्येक सदस्य कम-से-कम 75 हजार जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करे। इस नियम का अपवाद केवल असम के स्वाधीन जिले शिलाँग की छावनी और नगरपालिका के क्षेत्र, सिक्किम, गोआ, मिजोरम तथा अरुणाचल प्रदेश हैं। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए जनसंख्या के आधार पर इसके स्थान सुरक्षित किये गये हैं।

2. सदस्यों की योग्यताएँ – विधानसभा के सदस्य के लिए व्यक्ति में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिए –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु कम-से-कम 25 वर्ष हो।
  3. वह भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन लाभ के पद पर न हो।
  4. वह पागल या दिवालिया घोषित न हो।
  5. वह संसद या राज्य के विधानमण्डल द्वारा निर्धारित शर्तों को पूरा करता हो।
  6. किसी न्यायालय द्वारा उसे दण्डित न किया गया हो।

3. निर्वाचन पद्धति – विधानसभा सदस्यों का निर्वाचन वयस्क मताधिकार प्रणाली द्वारा होता है। कम-से-कम 18 वर्ष की आयु प्राप्त राज्य का प्रत्येक स्त्री, पुरुष मतदान का अधिकारी होता है। इस प्रकार ऐसे व्यक्तियों की मतदाता सूची तैयार कर ली जाती है। निश्चित तिथि को मतदान होता है। मतगणना पश्चात् सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले व्यक्तियों को निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। यह समस्त चुनाव प्रक्रिया देश का निर्वाचन आयोग सम्पन्न कराता है।

4. कार्यकाल – राज्य विधानसभा का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। राज्यपाल द्वारा इसे समय से पूर्व भी भंग किया जा सकता है। यदि संकटकाल की घोषणा हो तो संसद विधि द्वारा विधानसभा का कार्यकाल बढ़ा सकती है जो एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं होगा तथा किसी भी अवस्था में संकटकाल की घोषणा समाप्त हो जाने के बाद 6 माह की अवधि से अधिक नहीं होगा।

5. पदाधिकारी – प्रत्येक राज्य की विधानसभा के दो प्रमुख पदाधिकारी होते हैं – (1) अध्यक्ष (Speaker) तथा (2) उपाध्यक्ष (Deputy Speaker)। इन दोनों का चुनाव विधानसभा के सदस्य अपने सदस्यों में से ही करते हैं तथा इनका कार्यकाल विधानसभा के कार्यकाल तक होता है। अध्यक्ष के वही सब कार्य होते हैं जो लोकसभा अध्यक्ष के होते हैं।

राज्य विधानसभा के कार्य और शक्तियाँ

विधानसभा राज्य की व्यवस्थापिका है। संविधान द्वारा राज्य विधानसभा को व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। राज्य विधानसभा की शक्तियों का अध्ययन निम्नलिखित सन्दर्भो में किया जा सकता है –

1. निर्वाचन सम्बन्धी शक्ति – राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेते हैं। इसके अतिरिक्त जिन राज्यों में द्वितीय सदन (विधान-परिषद्) की व्यवस्था है, उसके 1/3 सदस्यों का निर्वाचन विधानसभा के सदस्यों द्वारा किया जाता है।

2. विधायी शक्ति – राज्य की विधानसभा को सामान्यत: उन सभी विषयों पर कानून-निर्माण की शक्ति प्राप्त होती है जो राज्य सूची और समवर्ती सूची में दिये गये हैं। यद्यपि कोई भी विधेयक कानून का स्वरूप तभी धारण करता है जब उसे दोनों सदनों की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है, किन्तु इस विषय में विधानसभा की शक्तियाँ विधान-परिषद् की शक्तियों से बहुत अधिक हैं। विधान-परिषद् विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को 4 माह के लिए रोककर केवल देरी ही कर सकती है। समवर्ती सूची के विषय पर राज्यसभा द्वारा निर्मित कोई विधि यदि उसी विषय पर संसद द्वारा निर्मित विधि के विरुद्ध हो तो राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्मित विधि मान्य नहीं होगी। राज्य विधानमण्डल की कानून-निर्माण की शक्ति पर निम्नलिखित प्रतिबन्ध भी हैं –

(i) अनुच्छेद 356 के अनुसार यदि राज्य में संविधान तन्त्र भंग होने के कारण राष्ट्रपति शासन लागू किया गया है।
(ii) कुछ विधेयक राज्य विधानमण्डल में प्रस्तावित किये जाने के पूर्व उन पर राष्ट्रपति की अनुमति आवश्यक होती है। ऐसे विधेयक वे हैं जिनका सम्बन्ध राज्य के भीतर या विभिन्न राज्यों के बीच व्यापार, वाणिज्य व आने-जाने की स्वतन्त्रता पर रोक लगाने से होता है।
(iii) संघीय संसद अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों और समझौतों का पालन करने के लिए भी राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना सकती है।

3. वित्तीय शक्ति – विधानसभा को राज्य के वित्त पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त होता है। आय-व्यय का वार्षिक लेखा विधानसभा से स्वीकृत होने पर ही शासन के द्वारा आय-व्यय से सम्बन्धित कोई कार्य किया जा सकता है। वित्त विधेयक केवल विधानसभा में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। वित्तीय मामलों में विधान-परिषद् विधानसभा से अत्यधिक दुर्बल सदन है। विधानसभा से विनियोग विधेयक पारित होने पर ही सरकार संचित निधि से व्यय हेतु धन खर्च कर सकती है।

4. प्रशासनिक शक्ति – संविधान द्वारा राज्यों के क्षेत्र में भी संसदात्मक व्यवस्था स्थापित किये जाने के कारण राज्य का मन्त्रिमण्डल अपनी नीति और कार्यों के लिए विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होता है। विधानसभा सदस्यों द्वारा मन्त्रियों से उनके विभागों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे जा सकते हैं व काम रोको प्रस्ताव पारित किया जा सकता है। विधानसभा कभी भी राज्य मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध ‘अविश्वास प्रस्ताव पारित करके इसे उसके पद से हटा सकती है।

5. संविधान संशोधन शक्ति – हमारे संविधान की कुछ धाराएँ ऐसी हैं कि संसद द्वारा बहुमत के आधार पर पारित प्रस्ताव को कम-से-कम आधे राज्यों की विधानसभाओं द्वारा स्वीकार किया जाए। इस प्रकार राज्य विधानसभा संविधान संशोधन के कार्य में भी भाग लेती है।

[संकेत – विधान परिषद् के संगठन एवं शक्तियाँ शीर्षक का अध्ययन विस्तृत उत्तरीय प्रश्न 2. तथा विधानसभा द्वारा मन्त्रिपरिषद् पर नियन्त्रण’ शीर्षक का अध्ययन लघु उत्तरीय प्रश्न 4 (शब्द-सीमा 150 शब्द) के अन्तर्गत करें तथा विधान परिषद् के संगठन एवं शक्तियों की परस्पर तुलना के लिए, विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 2 का उत्तर देखें।]

प्रश्न 2.
उत्तर प्रदेश की विधानपरिषद की रचना किस प्रकार होती है? उसके कार्यों का वर्णन कीजिए। [2013]
या
उत्तर प्रदेश की विधान-परिषद की रचना पर प्रकाश डालिए। [2013]
उत्तर :
विधान-परिषद की रचना अथवा संगठन राज्य, विधान परिषद् की संरचना को निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है –

1. सदस्य-संख्या – विधान-परिषद् राज्य के विधानमण्डल का उच्च सदन होता है। यह एक स्थायी सदन है। संविधान में व्यवस्था की गयी है कि प्रत्येक राज्य की विधान-परिषद् की सदस्य-संख्या उसकी विधानसभा के सदस्यों की संख्या के 1/3 से अधिक न होगी, किन्तु किसी भी स्थिति में उसकी सदस्य संख्या 40 से कम नहीं होनी चाहिए।

2. सदस्यों को निर्वाचन – विधान-परिषद् के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होता है तथा कुछ सदस्यों को मनोनीत भी किया जाता है। निम्नलिखित निर्वाचक मण्डल विधान-परिषद् के सदस्यों का चुनाव करते हैं –

(अ) विधानसभा का निर्वाचक मण्डल – कुल सदस्य संख्या के 1/3 सदस्यों का निर्वाचन विधानसभा के सदस्य ऐसे व्यक्तियों में से करते हैं, जो विधानसभा के सदस्य न हों।
(ब) स्थानीय संस्थाओं का निर्वाचक मण्डल – समस्त सदस्यों का 1/3 भाग, उस राज्य की नगरपालिकाओं, जिला परिषदों और अन्य स्थानीय संस्थाओं द्वारा चुना जाता है, जैसा संसद कानून द्वारा निश्चित करे।
(स) अध्यापकों का निर्वाचक मण्डल – इसमें वे अध्यापक होते हैं जो राज्य के अन्तर्गत किसी माध्यमिक पाठशाला या इससे उच्च शिक्षण संस्था में 3 वर्ष से पढ़ा रहे हों। यह निर्वाचक मण्डल कुल सदस्यों के 1/12 भाग को चुनता है।
(द) स्नातकों का निर्वाचक मण्डल – यह ऐसे शिक्षित व्यक्तियों को मण्डल होता है जो इस राज्य में रहते हों तथा स्नातक स्तर की परीक्षा पास कर ली हो और जिन्हें यह परीक्षा पास किये 3 वर्ष से अधिक हो गये हों। यह मण्डल कुल सदस्यों के 1/12 भाग को चुनता है।
(य) राज्यपाल द्वारा मनोनीत सदस्य – कुल सदस्य संख्या के 1/6 सदस्य राज्यपाल द्वारा उन व्यक्तियों में से मनोनीत किये जाते हैं जो साहित्य, विज्ञान, कला और सामाजिक सेवा के क्षेत्रों में विशेष रुचि रखते हों।

3. सदस्यों की योग्यताएँ – विधान-परिषद् की सदस्यता के लिए भी वे ही योग्यताएँ हैं, जो विधानसभा की सदस्यता के लिए हैं। भिन्नता केवल इतनी है कि विधान परिषद् की सदस्यता के लिए न्यूनतम आयु 30 वर्ष होनी चाहिए। निर्वाचित सदस्य को उस राज्य की विधानसभा के किसी निर्वाचन क्षेत्र का सदस्य तथा निवासी भी होना चाहिए।

4. कार्यकाल – विधान परिषद् इस दृष्टि से स्थायी है कि पूर्ण विधान परिषद् कभी भी भंग नहीं होती। विधान-परिषद् के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष है। प्रति दो वर्ष के बाद 1/3 सदस्य अपने पद से मुक्त होते रहते हैं और उनके स्थान पर नये सदस्य निर्वाचित होते हैं।

5. वेतन तथा भत्ते – विधान परिषद् के सदस्यों के वेतन और भत्ते विधानसभा सदस्यों के बराबर हैं। उत्तर प्रदेश में पारित किये गये कानून के अन्तर्गत विधानमण्डल के प्रत्येक सदस्य (विधायक) को प्रति माह वेतन, निर्वाचन-क्षेत्र भत्ता, जन सेवा भत्ता, सचिवीय भत्ता, चिकित्सा भत्ता तथा मकान किराया भत्ता मिलता है। इसके अतिरिक्त उसे प्रति वर्ष रेल यात्रा के कूपन भी मिलते हैं। इन कूपनों को हवाई यात्रा कूपनों में परिवर्तित कराने की भी सुविधा प्राप्त है। इन्हें पानी, बिजली, टेलीफोन एवं फर्नीचर की सुविधाओं के साथ-साथ उ० प्र० रा० प० नि० की बसों में मुफ्त यात्रा का भी प्रावधान है। मकान बनवाने अथवा कार खरीदने के लिए ब्याज मुक्त ऋण तथा आजीवन पेन्शन की भी व्यवस्था है। इन्हें प्राप्त होने वाले वेतन तथा भत्तों की राशि में समय-समय पर परिवर्तन होते रहते हैं।

6. पदाधिकारी – विधान परिषद् में मुख्यत: दो पदाधिकारी होते हैं, जिन्हें सभापति तथा उपसभापति कहते हैं। विधान परिषद् के सदस्य अपने में से इनका चुनाव करते हैं।

विधान-परिषद् के अधिकार तथा कार्य

विधान-परिषद्, विधानसभा की तुलना में एक कमजोर सदन है, फिर भी इसे निम्नलिखित शक्तियाँ प्राप्त हैं –

1. कानून-निर्माण कार्य – साधारण विधेयक राज्य विधानमण्डल के किसी भी सदन में प्रस्तावित किये जा सकते हैं तथा वे विधेयक दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत होने चाहिए। यदि कोई विधेयक विधानसभा से पारित होने के बाद विधान–परिषद् द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाता है। या परिषद् विधेयक में ऐसे संशोधन करती है जो विधायकों को स्वीकार्य नहीं होते या परिषद् के समक्ष विधेयक रखे जाने की तिथि से तीन माह तक विधेयक पारित नहीं किया जाता है। तो विधानसभा उस विधेयक को पुनः स्वीकृत करके विधानपरिषद् को भेजती है। इस बार विधान परिषद् विधेयक को स्वीकृत करे या न करे, एक माह बाद यह विधान परिषद् द्वारा स्वीकृत मान लिया जाता है।

2. कार्यपालिका शक्ति – विधानपरिषद प्रश्नों, प्रस्तावों तथा वाद-विवाद के आधार पर मन्त्रि परिषद् के विरुद्ध जनमत तैयार करके उसको नियन्त्रित कर सकती है, किन्तु उसे मन्त्रिपरिषद् को पदच्युत करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि कार्यपालिका केवल विधानसभा के प्रति ही उत्तरदायी होती है।

3. वित्तीय कार्य – वित्त विधेयक केवल विधानसभा में ही प्रस्तावित किये जाते हैं, विधानपरिषद् में नहीं। विधानसभा किसी वित्त विधेयक को पारित कर स्वीकृति के लिए विधान-परिषद्, के पास भेजती है तो विधान-परिषद् या तो 14 दिन के अन्दर उसे ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर सकती है या फिर अपनी सिफारिशों सहित विधानसभा को वापस लौटा सकती है। यह विधानसभा पर निर्भर है कि वह विधान-परिषद् की सिफारिशें माने या न माने। यदि परिषद् 14 दिन के अन्दर विधेयक पर कोई निर्णय नहीं लेती तो वह दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत मान लिया जाता है।

प्रश्न 3.
राज्य विधानमण्डल में कानून-निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए। [2013, 15]
या
राज्य विधानमण्डल में कानून का निर्माण कैसे होता है? इसकी प्रक्रिया का उल्लेख कीजिए।
या
उत्तर प्रदेश राज्य में विधि-निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए। [2008]
उत्तर :
राज्य विधानमण्डल में कानून-निर्माण की प्रक्रिया

(1) साधारण विधेयकों के सम्बन्ध में
साधारण विधेयक मन्त्रिपरिषद् के किसी सदस्य या राज्य विधानमण्डल के किसी सदस्य द्वारा विधानमण्डल के किसी भी सदन में रखे जा सकते हैं। यदि विधेयक किसी मन्त्रिपरिषद् के सदस्य द्वारा रखा जाता है तो इसे सरकारी विधेयक’ और यदि राज्य विधानमण्डल के किसी अन्य सदस्य द्वारा रखा जाता है तो इसे ‘निजी सदस्य विधेयक’ कहा जाता है। राज्य विधानमण्डल को भी कानून-निर्माण के लिए लगभग वैसी प्रक्रिया अपनानी होती है जैसी प्रक्रिया संसद के द्वारा अपनायी जाती है। ऐसे विधेयक को कानून का रूप ग्रहण करने के लिए निम्नलिखित चरणों से गुजरना होता है –

(अ) विधेयक को प्रेषित करना तथा प्रथम वाचन – सरकारी विधेयक के लिए कोई पूर्व सूचना आवश्यक नहीं होती है, परन्तु निजी सदस्य विधेयकों के लिए एक महीने पहले ही सूचना देना आवश्यक है। सरकारी विधेयक साधारणतः सरकारी गजट में छापा जाता है। ‘निजी सदस्य विधेयक को प्रस्तुत करने के लिए दिन निश्चित किया जाता है। निश्चित दिन को विधेयक प्रस्तुत करने वाला सदस्य अपने स्थान पर खड़ा होकर उस विधेयक को पेश करने के लिए सदन से आज्ञा माँगता है और विधेयक के शीर्षक को पढ़ता है। यदि विधेयक अधिक महत्त्वपूर्ण है तो विधेयक पेश करने वाला सदस्य विंधेयक पर एक संक्षिप्त भाषण भी दे सकता है। यदि उस सदन में उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले सदस्य बहुमत से विधेयक का समर्थन करते हैं तो विधेयक सरकारी गजट में छाप दिया जाता है। यही विधेयक का प्रथम वाचन समझा जाता है।

(ब) द्वितीय वाचन – प्रथम वाचन के बाद विधेयक प्रस्तावित करने वाला सदस्य प्रस्ताव रखता है कि उसके विधेयक का दूसरा वाचन किया जाए। इस अवस्था में विधेयक के सामान्य सिद्धान्तों पर ही वाद-विवाद होता है, उसकी एक-एक धारा पर बहस नहीं होती है। जब इस प्रकार की बहस के बाद कोई विधेयक पारित हो जाता है तो उसे प्रवर समिति (Select Committee) के पास भेज दिया जाता है।

(स) प्रवर समिति अवस्था – द्वितीय वाचन के पश्चात् विवादपूर्ण विधेयक को प्रवर समिति के पास भेज दिया जाता है। इसमें विधानमण्डल के 15 से 30 तक सदस्य होते हैं। इस अवस्था में विधेयक की प्रत्येक धारा पर गहरा विचार किया जाता है।

(द) तृतीय वाचन – प्रतिवेदन अवस्था की समाप्ति के कुछ समय बाद उसका तृतीय वाचन प्रारम्भ होता है। इस अवस्था में विधेयक के साधारण सिद्धान्तों पर फिर से बहस की जाती है और विधेयक में भाषा सम्बन्धी सुधार किये जाते हैं। इस अवस्था में विधेयक की धाराओं में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। इसे या तो स्वीकार किया जाता है या अस्वीकार। इसके बाद मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के बहुमत द्वारा स्वीकार होने पर इसे सदन द्वारा स्वीकृत समझा जाता है।

(य) विधेयक दूसरे सदन में – एक सदन द्वारा विधेयक स्वीकार कर लिये जाने पर जिन राज्यों में विधानमण्डल का एक ही सदन है, वहाँ विधेयक राज्यपाल के पास भेज दिया जाता है। और जिन राज्यों में विधानमण्डल के दो सदन हैं, वहाँ विधेयक दूसरे सदन में भेज दिया जाता है। द्वितीय सदन में भी विधेयक को उन्हीं अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है जिने अवस्थाओं से होकर विधेयक प्रथम सदन में गुजरा था। यदि विधेयक विधानसभा द्वारा पारित होने के पश्चात् विधान-परिषद् द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है या तीन महीने तक विचार पूरा नहीं होता तो विधानसभा उस विधेयक को पुन: स्वीकार करके परिषद् के पास भेजती है। तब यदि विधाने-परिषद् पुनः विधेयक अस्वीकार कर देती है अथवा दोबारा विधेयक आने की तिथि से एक माह बाद तक विधेयक पारित नहीं करती या विधेयक में पुनः ऐसे संशोधन करती है जो विधानसभा को स्वीकार नहीं होते तो विधेयक विधान-परिषद् द्वारा पारित किये बिना ही दोनों सदनों द्वारा पारित हुआ माना जाता है।

(र) राज्यपाल की स्वीकृति – विधेयक दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत होने पर राज्यपाल के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राज्यपाल या तो इस विधेयक पर अपनी स्वीकृति दे देता है या अपनी ओर से कुछ संशोधनों का सुझाव देकर विधेयक विधानमण्डल के पास दोबारा भेज सकता है। यदि इस बार भी विधेयक को उसी रूप में या राज्यपाल की सिफारिशों के अनुरूप पारित कर देता है तो राज्यपाल को उस विधेयक पर अवश्य ही अपनी अनुमति प्रदान करनी पड़ेगी। राज्यपाल की स्वीकृति के बाद यह विधेयक कानून बन जाता है। अनेक बार राज्यपाल कुछ विशेष प्रकार के विधेयकों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज देता है। ऐसे विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त करने के बाद ही कानून बन पाते हैं।

(2) वित्त विधेयकों के सम्बन्ध में

जहाँ तक वित्त विधेयक की प्रक्रिया का सम्बन्ध है ये केवल विधानसभा में ही प्रस्तुत किये जाते हैं और विधान-परिषद् को वित्त विधेयकों के सम्बन्ध में लगभग वे ही अधिकार प्राप्त हैं। जो राज्यसभा को केन्द्रीय वित्त विधेयकों के सम्बन्ध में हैं। विधानसभा द्वारा पारित वित्त विधेयक विधान-परिषद् के पास विचारार्थ भेज दिया जाता है। यदि विधान-परिषद् उस विधेयक को प्राप्ति की तिथि से 14 दिन बाद तक न लौटाये तो वह विधेयक दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत समझा जाएगा। यदि विधान परिषद् 14 दिन की अवधि में विधेयक को अपने संशोधनों सहित लौटा भी दे तो इन संशोधनों को स्वीकार या अस्वीकार करना विधानसभा पर निर्भर करता है। विधानसभा इन संशोधनों के साथ या इन संशोधनों के बिना किसी रूप में भी विधेयक को राज्यपाल के पास भेज सकती है। और राज्यपाल की स्वीकृति से वह विधेयक कानून का रूप धारण कर लेता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 150 शब्द) (4 अंक)

प्रश्न 1.
राज्य विधानमण्डल के दोनों सदनों के पारस्परिक सम्बन्धों का वर्णन कीजिए। [2013]
या
विधानसभा और विधान-परिषद् की तुलना कीजिए। इनमें से कौन अधिक शक्तिशाली है और क्यों? [2013]
उत्तर :
उत्तर प्रदेश के विधानमण्डल में दो सदन हैं। इसके निम्न सदन को विधानसभा तथा उच्च सदन को विधान-परिषद् कहते हैं। विधानसभा की तुलना में विधान परिषद् की स्थिति काफी कमजोर है। यह एक निर्बल द्वितीय सदन है। इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्धों को इस प्रकार समझा जा सकता है

1. विधायिनी क्षेत्र में विधायिनी क्षेत्र में विधानसभा व विधान-परिषद् के सम्बन्ध इस प्रकार है –

(अ) साधारण विधेयक के सम्बन्ध में – साधारण विधेयकों के सम्बन्ध में राज्यसभा को लोकसभा के बराबर अधिकार दिये गये हैं, किन्तु विधानपरिषद् के सन्दर्भ में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। उसे विधानसभा की इच्छा माननी ही पड़ती है। विधानसभा द्वारा पारित प्रत्येक साधारण विधेयक को स्वीकृति के लिए विधान परिषद् के पास भेजा जाता है। यदि विधान-परिषद् ऐसे किसी भी विधेयक को अस्वीकृत करे या संशोधित करे या तीन महीने तक उस पर कोई निर्णय ही न ले तो विधानसभा उसे पुनः पारित करके विधान परिषद् में भेज सकती है। इस स्थिति में यदि विधान-परिषद् अब भी उसे पारित न करे या एक महीने तक उस पर कोई निर्णय न ले तो विधेयक विधान-परिषद् द्वारा स्वीकृत मान लिया जाएगा और उसे राज्यपाल के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया जाएगा। इस प्रकार साधारण विधेयकों के पारित होने में विधान परिषद् अधिक-से-अधिक चार महीने की देरी कर सकती है। कानून बनाने में अन्तिम शक्ति विधानसभा की ही रहती है।

(ब) वित्त विधेयक के सम्बन्ध में – लोकतन्त्रात्मक राज्यों में वित्तीय विधेयकों पर निम्न सदन की सम्मति ही सर्वमान्य होती है। विधानसभा भी इसका अपवाद नहीं है। वित्तीय विधेयक केवल विधानसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं, परन्तु विधान-परिषद् को उन पर अपनी सम्मति व्यक्त करने का पूरा अधिकार है चाहे विधानसभा उसे माने या न माने। नियम यह है कि विधानसभा में पारित हो जाने के बाद प्रत्येक वित्त विधेयक विधान परिषद् की संस्तुति के लिए भेजा जाता है। यदि विधान-परिषद् वित्त विधेयक में कोई संशोधन करे जो विधानसभा को मान्य नहीं है या 14 दिन में कोई वित्त विधेयक बिना निर्णय के लौट आये तो यह विधान-परिषद् द्वारा स्वीकृत मान लिया जाता है। और उसे सीधा राज्यपाल के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया जाता है।

2. कार्यपालिका क्षेत्र में – राज्य की मन्त्रिपरिषद् विधानसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है और यही उसे अविश्वास प्रस्ताव द्वारा पदच्युत कर सकती है। विधानपरिषद् को मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव रखने का अधिकार नहीं है। यद्यपि विधान-परिषद् के कुछ सदस्य मन्त्रिपरिषद् के सदस्य होते हैं, यहाँ तक कि कुछ राज्यों में इसी सदन के मुख्यमन्त्री भी हो चुके हैं, परन्तु विधान-सभा ही मन्त्रिपरिषद् पर नियन्त्रण रखती है। विधान-परिषद् इस सन्दर्भ में काफी कमजोर सिद्ध होती है।

3. अन्य क्षेत्रों में विधान – परिषद् राष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सदस्यों के निर्वाचन में भाग नहीं ले सकती। केवल विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों को यह अधिकार प्राप्त है। संविधान संशोधन में भी विधानसभाओं की ही राय ली जाती है। विधान-परिषद् को इस सम्बन्ध में कुछ नहीं करना पड़ता। इतना ही नहीं, विधान परिषद् के 1/3 सदस्यों का निर्वाचन तक भी विधानसभा के सदस्यों द्वारा किया जाता है। इस प्रकार से विधान परिषदों की स्थिति कमजोर है। राज्यों के द्वितीय सदन की इस निर्बल स्थिति को देखते हुए आलोचकों का कहना है कि जो संस्था किसी विधेयक के पारित होने में केवल चार महीने की देर कर सकती है, उसे बनाये रखने का कोई औचित्य नहीं। अत: इस पर जनता का धन खर्च करना व्यर्थ है। सत्तारूढ़ दल इसे सदन को अपने दलीय हितों की वृद्धि का साधन बना लेते हैं।

विधान-परिषद् की आवश्यकता

निर्बल स्थिति होने पर भी विधानपरिषद् का महत्त्व कम नहीं आँका जा सकता। इसके द्वारा विधानसभा का कार्यभार हल्का हो जाता है। यहाँ कम सदस्य होते हैं, इसलिए शान्त और गम्भीर वातावरण में अच्छी तरह वाद-विवाद हो जाता है। यह विधि-निर्माण में जल्दबाजी पर रोक लगाता है, जिससे इस बीच विधेयक के सम्बन्ध में जनमत जानने का अवसर भी मिल जाता है। इसके द्वारा विभिन्न वर्गों, अल्पसंख्यकों तथा विभिन्न व्यवसायों का प्रतिनिधित्व किया जा सकता है। साथ ही राज्यपाल द्वारा अनुभवी और विशेषज्ञों को मनोनीत करने से प्रशासन को अवश्य ही लाभ पहुंचता है।

प्रश्न 2.
विधानसभा के विधान-परिषद् से अधिक शक्तिशाली होने के कारणों का उल्लेख कीजिए।
या
इस राज्य में विधानसभा विधान-परिषद् से अधिक शक्तिशाली है” इस कथन का परीक्षण कीजिए। [2012]
उत्तर :
विधानसभा तथा विधान-परिषद् की शक्तियों के निम्नलिखित तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि विधानसभा विधान-परिषद् की तुलना में अधिक शक्तिशाली है।

1. प्रतिनिधित्व के सम्बन्ध में – विधानसभी राज्य की जनता की प्रतिनिधि है, जब कि विधान परिषद् कुछ विशेष वर्गों की।

2. कार्यपालिका के सम्बन्ध में – राज्य की मन्त्रिपरिषद् विधानसभा के ही प्रति उत्तरदायी होती है, विधान परिषद् के प्रति नहीं। विधान परिषद् केवल प्रश्न, पूरक प्रश्न तथा स्थगन प्रस्ताव उपस्थित कर मन्त्रिपरिषद् के कार्यों की जाँच तथा आलोचना ही कर सकती है। मन्त्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर उसे पदच्युत करने का कार्य विधानसभा के द्वारा ही किया जा सकता है।

3. वित्त के क्षेत्र में – वित्त विधेयक विधानसभा में ही प्रस्तावित किये जा सकते हैं। विधानसभा से स्वीकृत होने पर जब कोई वित्त विधेयक विधान-परिषद् को भेजा जाता है तथा परिषद् 14 दिन के भीतर संशोधन सहित वापस कर देती है, उन संशोधनों को स्वीकार करने का अधिकार विधानसभा को है। यदि परिषद् 14 दिन के भीतर वित्त विधेयक नहीं लौटाती है, तो विधेयक दोनों सदनों से पारितं समझा जाता है। अनुदान की माँगों पर मतदान भी केवल विधानसभा में ही होता है। इस दृष्टि से राज्यों में विधान-परिषद् को वैसी ही स्थिति प्राप्त होती है जैसी स्थिति केन्द्र में राज्यसभा की है।

4. राष्ट्रपति के निर्वाचन के सम्बन्ध में – राष्ट्रपति के निर्वाचन में भी केवल विधानसभा के सदस्य ही भाग लेते हैं, विधान परिषद् के सदस्य नहीं।

विधानसभा तथा विधान-परिषद् की शक्तियों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि विधान-सभा विधान-परिषद् की तुलना में अधिक शक्तिसम्पन्न है। डॉ० ए० पी० शर्मा के शब्दों में, जो समानता का ढोंग लोकसभा और राज्यसभा के बीच है, वह विधानसभा और विधानपरिषद् के बीच नहीं।” विधानसभा का अधिक शक्तिशाली होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि विधानसभा जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित है, विधान-परिषद् अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित है।

प्रश्न 3.
विधानसभा अध्यक्ष के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए। [2008, 10]
उत्तर :
विधानसभा अध्यक्ष के कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. वह विधानसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है और सदन की कार्यवाही का संचालन करता
  2. सदन में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखना उसका मुख्य उत्तरदायित्व है तथा इस हेतु उसे समस्त आवश्यक कार्यवाही करने का अधिकार है।
  3. सदन का कोई भी सदस्य सदन में उसकी आज्ञा से ही भाषण दे सकता है।
  4. वह सदन की कार्यवाही से ऐसे शब्दों को निकाले जाने का आदेश दे सकता है जो असंसदीय या अशिष्ट हैं।
  5. सदन के नेता के परामर्श से वह सदन की कार्यवाही का क्रम निश्चित कर सकता है।
  6. वह प्रश्नों को स्वीकार करता या नियम-विरुद्ध होने पर उन्हें अस्वीकार करता है।
  7. वह किसी प्रश्न पर मतदान कराता और परिणाम की घोषणा करता है।
  8. सामान्य स्थिति में वह सदन में मतदान में भाग नहीं लेता लेकिन यदि किसी प्रश्न पर पक्ष और विपक्ष में बराबर मत आयें, तो वह ‘निर्णायक मत’ (Casting Vote) का प्रयोग करता है।
  9. कोई विधेयक ‘धन विधेयक’ (Money Bill) है अथवा नहीं इसका निर्णय अध्यक्ष करता है।
  10. विधानसभा और विधान परिषद् के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता वही करता है।
  11. सदन तथा राज्यपाल के बीच ‘अध्यक्ष’ ही सम्पर्क स्थापित करता है।
  12. वह सदन के सदस्यों के अधिकारों की रक्षा करता है।
  13. वह विधानमण्डल की कुछ समितियों का पदेन सभापति होता है।
  14. वह सदन की दर्शक दीर्घा में दर्शकों और प्रेस प्रतिनिधियों के प्रवेश पर नियन्त्रण भी लगा सकता है।

अध्यक्ष की अनुपस्थिति में इन सभी कार्यों का सम्पादन उपाध्यक्ष करता है। यदि दोनों ही अनुपस्थित हों तो विधानसभा अपने सदस्यों में से एक कार्यवाहक अध्यक्ष चुन लेती है।

प्रश्न 4.
“विधानसभा, राज्य मन्त्रिपरिषद पर नियन्त्रण रखती है।” दो तर्क देते हुए इस कथनका औचित्य स्पष्ट कीजिए।
या
विधानसभा मन्त्रिपरिषद पर किस प्रकार नियन्त्रण रखती है ? [2010, 11]
या
विधानसभा तथा मन्त्रिपरिषद् के सम्बन्धों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
संविधान के अनुसार, विधानसभा तथा मन्त्रिपरिषद् परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। बेजहाट का कथन है कि “मन्त्रिपरिषद् अपने जन्म की दृष्टि से विधायिका से सम्बन्धित है।” मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होती है। किन्तु वास्तव में स्थिति इसके विपरीत होती है, क्योंकि मन्त्रिपरिषद् बहुमत दल की होती है, इसलिए विधानसभा इस पर अधिक नियन्त्रण नहीं रख पाती है तथा मुख्यमन्त्री भी विधानसभा को भंग कर सकता है। विधानसभा, प्रश्नों, पूरक प्रश्नों तथा काम रोको प्रस्तावों द्वारा मन्त्रिपरिषद् पर नियन्त्रण रखती है तथा निम्नलिखित आधारों पर मन्त्रिपरिषद् को पदच्युत कर सकती है –

  1. अविश्वास के प्रस्ताव द्वारा – विधानसभा के सदस्य मन्त्रिपरिषद् से असन्तुष्ट होकर सदन के सामने अविश्वास का प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकते हैं। इस प्रस्ताव के पारित हो जाने पर मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना होता है।
  2. विधेयक की अस्वीकृति – मन्त्रिपरिषद् द्वारा प्रस्तुत किसी विधेयक को यदि विधानसभा स्वीकृति न दे तो ऐसी दशा में भी मन्त्रिपरिषद् को अपना पद त्यागना पड़ता है।
  3. किसी मन्त्री के प्रति अविश्वास – यदि विधानसभा किसी मन्त्री-विशेष के प्रति अविश्वास का प्रस्ताव पारित कर दे तो भी सम्पूर्ण मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।
  4. गैर-सरकारी प्रस्तावे – विरोधी दलों के प्रस्ताव को गैर-सरकारी और मन्त्रिपरिषद् द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव को सरकारी प्रस्ताव कहते हैं। यदि विधानसभा किसी ऐसे गैर-सरकारी प्रस्ताव को स्वीकृत कर दे जिसका मन्त्रिपरिषद् विरोध कर रही हो, तो इस स्थिति में सम्बन्धित मन्त्री को अपना पद त्यागना होगा। सैद्धान्तिक दृष्टि से तो मन्त्रिपरिषद् पर विधानसभा द्वारा नियन्त्रण रखा जाता है, किन्तु व्यवहार में दलीय अनुशासन के कारण मन्त्रिपरिषद् ही विधानसभा पर नियन्त्रण रखती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न (शब्द सीमा : 50 शब्द) (2 अंक)

प्रश्न 1.
राज्य में विधानपरिषद के अस्तित्व के पक्ष में चार तर्क दीजिए। [2007]
उत्तर :
उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र जैसे विशाल राज्यों में विधानपरिषद् का अस्तित्व निश्चित रूप से अपना महत्त्व रखता है। इसके अस्तित्व के पक्ष में प्रमुख तर्क हैं –

  1. विधेयक को अधिकतम चार महीने की अवधि तक रोके रखकर यह प्रथम सदन विधानसभा की मनमानी पर रोक लगाता है।
  2. विधानसभा, प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होती है। विधानपरिषद् अप्रत्यक्ष रूप से। जिन वर्गों को प्रथम सदन में प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं होता, वे द्वितीय सदन में प्रतिनिधित्व प्राप्त कर सकते हैं।
  3. विधेयक को चार माह तक रोके रखकर विधानपरिषद् विधेयक पर जनमत जाग्रत करने का कार्य करती है।

प्रश्न 2.
राज्य के विधानमण्डल में कौन-कौन से अंग होते हैं? [2007]
उत्तर :
प्रत्येक राज्य का विधानमण्डल राज्यपाल और राज्य के विधानमण्डल से मिलकर बनता है। कुछ राज्यों के विधानमण्डल के दो सदन होते हैं, अर्थात् विधानसभा व विधान परिषद्। उत्तर प्रदेश तथा बिहार में द्वि-सदनात्मक विधानमण्डल हैं।

प्रश्न 3.
उत्तर प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल क्या है? [2015]
उत्तर
उत्तर प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल 5 वर्ष है। हालांकि राज्यपाल द्वारा इसे समय से पूर्व भी भंग किया जा सकता है। परन्तु यदि संकटकाल की घोषणा प्रवर्तन में हो तो संसद विधि द्वारा विधानसभा का कार्यकाल बढ़ा सकती है जोकि एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं होगा तथा किस्सी भी अवस्था में संकटकाल की घोषणा समाप्त हो जाने के बाद 6 माह की अवधि से अधिक नहीं होगा।

प्रश्न 4.
राज्य में विधान-परिषद् की उपयोगिता के पक्ष में चार तर्क दीजिए। [2016]
उत्तर :
विधान परिषद् की उपयोगिता के पक्ष में चार तर्क निम्नलिखित हैं –

  1. यह सदन विधेयक में विलम्ब करके जनता को अपना मत अभिव्यक्त करने का अवसर देता है।
  2. यह संशोधनकारी सदन के रूप में कार्य करता है। ब्लण्टशली ने कहा भी है कि “चार आँखे दो आँखों की तुलना में सदैव अच्छा देखती हैं।”
  3. विधानपरिषद् में विशेष हितों-अल्पसंख्यकों, विभिन्न व्यवसायों व वर्गों को प्रतिनिधित्व मिलता है।
  4. इसमें परिपक्व और अनुभवी लोग होते हैं। राज्यपाल इसमें कुछ ऐसे व्यक्तियों को मनोनीत करता है जो कला, साहित्य, विज्ञान, समाज सेवा, सहकारिता आन्दोलन में विशेष अनुभवी हों।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
उत्तर प्रदेश का विधानमण्डल द्वि-सदनीय है अथवा एक-सदनीय?
उत्तर :
उत्तर प्रदेश का विधानमण्डल द्वि-सदनीय है।

प्रश्न 2.
विधानसभा का कार्यकाल कितना होता है?
उत्तर :
विधानसभा का कार्यकाल सामान्य रूप में पाँच वर्ष का होता है।

प्रश्न 3.
आपके राज्य में विधानसभा के अध्यक्ष का चयन कौन करता है?
उत्तर :
राज्य की विधानसभा के सदस्य विधानसभा के अध्यक्ष का चयन करते हैं।

प्रश्न 4.
विधानसभा तथा विधानपरिषद के सदस्यों हेतु निर्धारित आयु-सीमा बताइए।
उत्तर :

  1. विधानसभा–25 वर्ष तथा
  2. विधान-परिषद्-30 वर्ष।

प्रश्न 5.
विधान-परिषद् के सदस्यों का कार्यकाल कितना है? [2010, 11]
या
राज्य विधान-परिषद का कार्यकाल क्या है? [2012]
उत्तर :
विधान-परिषद् एक स्थायी सदन है, परन्तु इसके सदस्यों का कार्यकाल छ: वर्ष है। प्रति . दो वर्ष बाद 1/3 सदस्य उससे पृथक् हो जाते हैं तथा उनके स्थान पर नये सदस्य चुन लिये जाते हैं।

प्रश्न 6.
किन्हीं चार राज्यों के नाम लिखिए जिनमें द्वि-सदनीय विधानमण्डल हैं। [2013]
उत्तर :
कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा महाराष्ट्र।

प्रश्न 7.
राज्य विधानमण्डल का सत्रावसान कौन करता है?
उत्तर :
राज्य विधानमण्डल का सत्रावसान राज्यपाल करता है।

प्रश्न 8.
विधेयक कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर :
विधेयक दो प्रकार के होते हैं –

  1. साधारण विधेयक तथा
  2. धन या वित्त विधेयक।

प्रश्न 9
वित्त विधेयक विधानमण्डल के किस सदन में पेश होता है?
उत्तर :
वित्त विधेयक विधानसभा में प्रस्तुत किये जाते हैं।

प्रश्न 10.
वित्त विधेयक को विधान-परिषद अधिक-से-अधिक कितने दिनों तक रोक सकती [2011]
उत्तर :
वित्त विधेयक को विधानपरिषद अधिक-से-अधिक 14 दिनों तक रोक सकती है।

प्रश्न 11.
विधानसभा के सदस्यों की अधिकतम व न्यूनतम संख्या क्या हो सकती है?
उत्तर :
विधानसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 500 तथा न्यूनतम संख्या 60 हो सकती है।

प्रश्न 12.
उत्तर प्रदेश विधानसभा एवं विधान-परिषद् की सदस्य-संख्या बताइए। [2008, 11]
या
उत्तर प्रदेश की विधानपरिषद् में कुल कितने सदस्य हैं? [2016]
उत्तर :
विधानसभा सदस्य संख्या : 404 तथा विधान-परिषद् सदस्य-संख्या : 100।

प्रश्न 13.
राज्य सूची पर कौन कानून बनाता है?
उत्तर :
राज्य की विधानसभा राज्य सूची पर कानून बनाती है।

प्रश्न 14.
उन दो राज्यों के नाम बताइए जहाँ व्यवस्थापिका का एक ही सदन है। [2010]
उत्तर :

  1. मध्य प्रदेश तथा
  2. राजस्थान।

प्रश्न 15.
स्थानीय स्व-शासन के दो मुख्य लाभ लिखिए।
उत्तर :

  1. स्थानीय समस्याओं का त्वरित समाधान तथा
  2. नागरिकों के समय तथा धन की बचत।

प्रश्न 16.
उत्तर प्रदेश की विधायिका के दोनों सदनों के नाम लिखिए। [2014, 16]
उत्तर :
विधानसभा तथा विधान-परिषद्।

प्रश्न 17.
उत्तर प्रदेश की विधानसभा के प्रथम अध्यक्ष कौन थे? [2014, 16]
उत्तर :
श्री पुरुषोत्तम दास टण्डन।

प्रश्न 18.
उत्तर प्रदेश की विधानमण्डल के विश्रान्ति में अध्यादेश कौन जारी करता है? [2014]
उत्तर :
राज्यपाल।

बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)

प्रश्न 1.
बिहार में विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या है। [2016]
(क) 224
(ख) 234
(ग) 243
(घ) 288

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कहाँ एक-सदनीय विधानमण्डल है?
(क) कर्नाटक
(ख) उत्तर प्रदेश
(ग) मध्य प्रदेश
(घ) बिहार

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कहाँ द्वि-सदनीय विधानमण्डल है?
(क) गुजरात
(ख) तमिलनाडु
(ग) ओडिशा
(घ) जम्मू-कश्मीर

प्रश्न 4.
भारत के निम्नलिखित में से किस एक राज्य में विधान-परिषद् नहीं है – [2011]
(क) बिहार
(ख) उत्तर प्रदेश
(ग) महाराष्ट्र
(घ) मध्य प्रदेश

प्रश्न 5.
विधानसभा तथा विधान-परिषद् के सदस्यों हेतु न्यूनतम निर्धारित आयु है
(क) 25 वर्ष से 30 वर्ष
(ख) 30 वर्ष से 35 वर्ष
(ग) 20 वर्ष से 25 वर्ष
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 6.
विधान-परिषद् के सदस्यों की न्यूनतम संख्या होती है
(क) 50.
(ख) 80
(ग) 40
(घ) 35

प्रश्न 7.
विधानसभा के सदस्यों की न्यूनतम संख्या होती है
(क) 50
(ख) 60
(ग) 100
(घ) 150

प्रश्न 8.
निम्नलिखित में से कौन राज्य विधान-परिषद् के सदस्यों के निर्वाचन से सम्बन्धित नहीं [2007]
(क) स्थानीय संस्थाओं का निर्वाचन मण्डल
(ख) स्नातकों का निर्वाचन मण्डल
(ग) विधानपरिषद का निर्वाचन मण्डल
(घ) अध्यापकों का निर्वाचन मण्डल

प्रश्न 9.
निम्न में से भारत के किस राज्य में द्वि-सदनात्मक विधान मण्डल नहीं है? [2008, 15]
(क) बिहार
(ख) उत्तर प्रदेश
(ग) जम्मू एवं कश्मीर
(घ) राजस्थान

प्रश्न 10.
भारत के निम्नलिखित में से किस राज्य में विधानपरिषद् है? [2012]
(क) मध्य प्रदेश
(ख) हिमाचल प्रदेश
(ग) गुजरात
(घ) जम्मू-कश्मीर

उत्तर :

  1. (ग) 243
  2. (ग) मध्य प्रदेश
  3. (घ) जम्मू-कश्मीर
  4. (घ) मध्य प्रदेश
  5. (क) 25 वर्ष से 30 वर्ष
  6. (ग) 40
  7. (ख) 60
  8. (ग) विधान परिषद् का निर्वाचन मण्डल
  9. (घ) राजस्थान
  10. (घ) जम्मू-कश्मीर।

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