UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages: Meaning and Theory (मजदूरी : अर्थ एवं सिद्धान्त)
UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 10 Wages: Meaning and Theory (मजदूरी : अर्थ एवं सिद्धान्त)
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक)
प्रश्न 1
मजदूरी किसे कहते हैं? वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करने वाले घटक बताइए।
या
नकद मजदूरी एवं असल मजदूरी से क्या तात्पर्य है ? असल मजदूरी को प्रभावित करने वाले कारकों का विश्लेषण कीजिए। [2011]
या
नकद मजदूरी और असल मजदूरी में अन्तर बताइए। असल मजदूरी के निर्धारक घटक बताइए।
उत्तर:
मजदूरी का अर्थ एवं परिभाषा
मजदूरी श्रम के प्रयोग का पुरस्कार है। इसके अन्तर्गत वे सब भुगतान सम्मिलित होते हैं जो श्रम को उसके द्वारा उत्पादन में की गयी सेवाओं के बदले में किये जाते हैं। “राष्ट्रीय लाभांश का वह भाग जो श्रमिकों को उनके (शारीरिक या मानसिक) श्रम के बदले में प्रतिफल के रूप में दिया जाता है, मजदूरी कहलाता है।”
मजदूरी की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैंवाघ के अनुसार, “मजदूरी में श्रमिक के द्वारा प्राप्त समस्त आय व भुगतान सम्मिलित होते हैं।”
प्रो० बेन्हम के अनुसार, किसी श्रमिक के द्वारा की गयी सेवाओं के उपलक्ष्य में, सेवायोजकों के द्वारा, समझौते के अनुसार किये जाने वाले मौद्रिक भुगतान को मजदूरी के रूप में परिभाषित किया जाता है।”
प्रो० सेलिगमैन के अनुसार, “श्रम का वेतन मजदूरी है।”
प्रो० एली के अनुसार, “श्रम की सेवाओं के लिए प्रदान की जाने वाली कीमतें ‘मजदूरी होती हैं।”
आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने मजदूरी शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया है। उनके अनुसार, किसी भी प्रकार के मानव श्रम के बदले में दिया जाने वाला प्रतिफल मजदूरी है, चाहे वह प्रति घण्टा, प्रतिदिन अथवा अधिक समय के अनुसार दिया जाए और उसका भुगतान मुद्रा, सामान या दोनों के रूप में हो।” अतः सभी प्रकार के मानव श्रम के बदले दिये जाने वाले प्रतिफल को मजदूरी कहते हैं।
मजदूरी के प्रकार / भेद
श्रमिकों को श्रम के बदले में जो मजदूरी प्राप्त होती है वह या तो मुद्रा के रूप में प्राप्त हो सकती है या वस्तुओं व सेवाओं के रूप में। इस आधार पर मजदूरी को दो भागों में बाँटा जा सकता है
1. नकद या मौद्रिक मजदूरी – “मुद्रा के रूप में श्रमिक को जो भुगतान किया जाता है, उसे मौद्रिक मजदूरी या नकद मजदूरी कहते हैं।”
प्रो० सेलिगमैन के अनुसार, “मौद्रिक मजदूरी उस मजदूरी को बतलाती है जो मुद्रा के रूप में दी जाती है।”
यदि एक मजदूर को कारखाने में काम करने पर ₹15 प्रतिदिन मजदूरी मिलती है, तब ये ₹15 मजदूर की नकद मजदूरी है।।
2. असल या वास्तविक मजदूरी – श्रमिक को नकद मजदूरी के रूप में प्राप्त मुद्रा के बदले में प्रचलित मूल्य पर जितनी वस्तुएँ तथा सेवाएँ प्राप्त होती हैं, वे सब मिलकर उसकी असल या वास्तविक मजदूरी को सूचित करती हैं। वास्तविक मजदूरी के अन्तर्गत उन सब वस्तुओं तथा सेवाओं को भी सम्मिलित किया जाता है जो श्रमिक को नकद मजदूरी के अतिरिक्त प्राप्त होती हैं; जैसे-कम कीमत पर मिलने वाला राशन, बिना किराये का मकान, पहनने के लिए मुफ्त वर्दी आदि अन्य सुविधाएँ।
एडम स्मिथ ने वास्तविक मजदूरी की व्याख्या इस प्रकार की है, “श्रमिक की वास्तविक मजदूरी में आवश्यक तथा जीवनोपयोगी सुविधाओं की वह मात्रा सम्मिलित होती है जो उसके श्रम के बदले में दी जाती है। उसकी नाममात्र (मौद्रिक) मजदूरी में केवल मुद्रा की मात्रा ही सम्मिलित होती है। श्रमिक वास्तविक मजदूरी के अनुपात में ही गरीब अथवा अमीर, अच्छी या कम मजदूरी पाने वाला होता है, न कि नाममात्र मजदूरी के अनुपात में।”
प्रो० मार्शल के अनुसार, “वास्तविक मजदूरी में केवल उन्हीं सुविधाओं तथा आवश्यक वस्तुओं को शामिल नहीं करना चाहिए जो सेवायोजक के द्वारा प्रत्यक्ष रूप में श्रम के बदले में दी जाती हैं, बल्कि उसके अन्तर्गत उन लाभों को सम्मिलित करना चाहिए जो व्यवसाय-विशेष से सम्बन्धित होते हैं और जिसके लिए उसे कोई विशेष व्यय नहीं करना होता।”
असल या वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले तत्त्व
असल मजदूरी निम्नलिखित तत्त्वों से निर्धारित होती है
1. द्रव्य की क्रय-शक्ति – द्रव्य की क्रय-शक्ति का श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। श्रमिक की असल मजदूरी इस बात पर निर्भर करती है कि वह मजदूरी के रूप में प्राप्त द्रव्य से कितनी वस्तुएँ एवं सेवाएँ खरीद सकता है। यदि द्रव्य की क्रय-शक्ति अधिक है तो श्रमिक अपनी मौद्रिक आय से वस्तुओं और सेवाओं की अधिक मात्रा खरीद सकेंगे और उनकी – वास्तविक मजदूरी अधिक होगी। मुद्रा की क्रय-शक्ति कम होने की स्थिति में श्रमिक की वास्तविक मजदूरी भी कम हो जाती है, क्योंकि वे अपनी मौद्रिक आय द्वारा बाजार से बहुत कम सामान खरीद पाते हैं। अतः स्पष्ट है कि श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी मुद्रा की क्रय-शक्ति पर निर्भर करती है।
2. अतिरिक्त सुविधाएँ – कुछ व्यवसायों में मजदूरों को मौद्रिक मजदूरी के अतिरिक्त अन्य सुविधाएँ एवं लाभ भी प्राप्त होते हैं; जैसे – मुफ्त सामान, सस्ता राशने, चिकित्सा सुविधा, पहनने के लिए वर्दी एवं यात्रा के लिए मुफ्त रेलवे पास आदि। इन अतिरिक्त लाभों के कारण वास्तविक मजदूरी में वृद्धि होती है। अतः किसी व्यवसाय में जितनी अधिक सुविधाएँ श्रमिक को मिलती हैं उतनी ही अधिक उनकी वास्तविक मजदूरी होती है।
3. अतिरिक्त आय की सम्भावना – यदि किसी व्यवसाय में श्रमिक अपने कार्य-विशेष के अतिरिक्त अन्य स्रोतों से भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से आय में वृद्धि कर सकता है तो उस व्यवसाय में श्रमिक की असल मजदूरी अधिक मानी जाएगी।
4. कार्य की प्रकृति – वास्तविक मजदूरी को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला तत्त्व, कार्य की प्रकृति है। कुछ व्यवसाय अधिक थका देने वाले, जोखिमपूर्ण तथा अरुचिकर होते हैं; जैसे-ईंट ढोना, लोहा पीटना, हवाई जहाज चलाना, मेहतर का कार्य आदि। ऐसे व्यवसायों में लगे हुए श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी कम मानी जाती है। इसके विपरीत कुछ व्यवसाय रुचिकर, स्वास्थ्यप्रद एवं शान्तिपूर्ण होते हैं; जैसे-शिक्षक, वकील, डॉक्टर आदि का कार्य। इस प्रकार के व्यवसायों में लगे हुए लोगों की वास्तविक आय पहले प्रकार के व्यवसाय में लगे श्रमिकों की अपेक्षा अधिक होती है।
5. रोजगार को स्थायित्व – रोजगार का स्थायी होना भी श्रमिक की वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करता है। यदि रोजगार स्थायी है तो मौद्रिक मजदूरी कम होते हुए भी अधिक मानी जाएगी। तथा श्रमिक उस रोजगार में अपनी सेवाएँ देना पसन्द करेंगे। इसके विपरीत अस्थायी नियुक्ति में श्रमिक की असल मजदूरी कम होगी। इसी प्रकार मौसमी व्यवसायों में काम करने वाले श्रमिकों की असल मजदूरी अस्थायी रूप से कार्यरत श्रमिकों की अपेक्षा समान वेतन मिलने पर भी अधिक मानी जाती है।
6. भावी प्रोन्नति की आशा – जिन व्यवसायों में श्रमिक को उज्ज्वल भविष्य की आशा होती है, उनमें मौद्रिक मजदूरी कम होते हुए भी वास्तविक मजदूरी अधिक होती है। श्रमिकों को भावी उन्नति की आशा से जो सन्तोष मिलता है, वह वास्तविक आय में वृद्धि करता है।
7. काम करने की दशाएँ – कुछ व्यवसायों में काम करने की दशाएँ ठीक नहीं होतीं। उनमें स्वच्छ वायु, उचित प्रकाश व आराम की सुविधा आदि का अभाव होता है। श्रमिकों को खड़े-खड़े दूषित वातावरण में मशीनें चलानी पड़ती हैं। ऐसे व्यवसायों की वास्तविक मजदूरी कम मानी जाती है। इसके विपरीत सरकारी कार्यालयों एवं जिन व्यवसायों में उचित एवं स्वच्छ जल, वायु, प्रकाश, उत्तम फर्नीचर आदि की व्यवस्था एवं मालिकों का श्रमिकों के प्रति सद्व्यवहार होता है, उन व्यवसायों में वास्तविक मजदूरी अधिक होती है।
8. काम के घण्टे एवं अवकाश की सुविधा – काम करने के घण्टे एवं छुट्टियाँ भी असल मजदूरी को प्रभावित करती हैं। जिन श्रमिकों को कम घण्टे काम करना पड़ता है और अवकाश अधिक मिलता है उन श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी, अधिक घण्टों तक काम करने वाले एवं उचित छुट्टियाँ न मिलने वालों की अपेक्षा अधिक होती है। यदि दोनों श्रमिकों को समान मौद्रिक मजदूरी मिलती है, तब काम की दशाओं में भिन्नता होने के कारण वास्तविक मजदूरी में भी भिन्नता हो जाती है।
9. आश्रितों को काम मिलने की सुविधा – जिस व्यवसाय में श्रमिकों के आश्रितों को काम मिलने की सम्भावना होती है अथवा श्रमिक के परिवार के अन्य सदस्यों को काम मिल जाती है, उने व्यवसायों में श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी अधिक मानी जाती है। इस प्रकार के व्यवसायों में मौद्रिक मजदूरी कम होते हुए भी श्रमिक कार्य करनी पसन्द करेगा, क्योंकि कुल मिलाकर उसकी पारिवारिक आय बढ़ जाती है।
10. प्रशिक्षण की अवधि एवं व्यय – प्रत्येक कार्य को सीखने में कुछ समय लगता है और उस पर व्यय भी करना पड़ता है। किसी काम को सीखने में कितना समय एवं धन व्यय करना पड़ता है, इसका भी वास्तविक मजदूरी पर प्रभाव पड़ता है। जिन व्यवसायों के प्रशिक्षण में अधिक लम्बा समय तथा काफी व्यय करना पड़ता है, उस व्यवसाय में काम करने वाले श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी उन व्यवसायों की अपेक्षा कम मानी जाती है जिन व्यवसायों के काम सीखने में समय एवं धन का अधिक व्यय नहीं करना पड़ता।
11. व्यापार सम्बन्धी व्यय – कुछ व्यवसायों में कार्य करने वालों को अपनी कुशलता एवं योग्यता बनाये रखने के लिए पर्याप्त मात्रा में व्यय करना पड़ता है; जैसे-वकील तथा शिक्षकों को पुस्तकों, समाचार-पत्रों तथा पत्रिकाओं वे फर्नीचर आदि पर व्यय करना पड़ता है, किन्तु एक साधारण श्रमिक को इस प्रकार का व्यय नहीं करना पड़ता है। जिन व्यवसायों में व्यावसायिक व्यये अधिक होता है उनमें नकद मजदूरी अधिक होते हुए भी वास्तविक मजदूरी कम होती है, उन व्यवसायों की अपेक्षा उनमें किसी प्रकार का व्यावसायिक व्यय नहीं करना पड़ता।
12. व्यवसाय की सामाजिक प्रतिष्ठा – जिन व्यवसायों में सामाजिक प्रतिष्ठा अधिक प्राप्त होती है उन व्यवसायों में नकद मजदूरी कम होते हुए भी वास्तविक मजदूरी अधिक होती है तथा जिन कार्यों को करने से सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचती है उस व्यवसाय में अधिक नकद मजदूरी होते हुए भी वास्तविक मजदूरी कम होती है।
प्रश्न 2
मजदूरी-निर्धारण की माँग और पूर्ति का सिद्धान्त या मजदूरी के आधुनिक सिद्धान्त की पूर्णरूपेण व्याख्या कीजिए। [2007, 08, 10, 12, 15]
या
मजदूरी के आधुनिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए। [2013, 15]
उत्तर:
मजदूरी-निर्धारण की माँग और पूर्ति का सिद्धान्त (आधुनिक सिद्धान्त)
मजदूरी-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त, माँग और पूर्ति का सिद्धान्त (Demand and Supply Theory) है। जिस प्रकार बाजार में किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण उसकी माँग और पूर्ति की. शक्तियों के सन्तुलन द्वारा निर्धारित होता है, ठीक उसी प्रकार श्रम का मूल्य (मजदूरी) भी उसकी माँग और पूर्ति की शक्तियों से निर्धारित होता है।
श्रम की माँग – श्रम उत्पादन का एक अनिवार्य तथा सक्रिय उपादान है। इस कारण एक उत्पादक उत्पादन कार्य को सम्पादित करने के लिए श्रम की माँग करता है। जिस प्रकार मांग पक्ष की ओर से किसी वस्तु की कीमत उसके सीमान्त तुष्टिगुण (Marginal Utility) द्वारा निर्धारित होती है, ठीक उसी प्रकारे उत्पादक या उद्यमकर्ता श्रम की माँग करते समय उसकी सीमान्त उत्पादकता को ध्यान में रखता है। कोई भी उत्पादक श्रम की सीमान्त उत्पादकता के अनुसार श्रमिक की मजदूरी की अधिकतम सीमा निर्धारित करता है। इस सीमा से अधिक मजदूरी देने के लिए वह तैयार नहीं होता है। किसी मजदूर की सीमान्त उत्पादकता से अभिप्राय सीमान्त श्रमिक की उत्पादकता से होता है। सीमान्त उत्पादकता उत्पादन के अन्य साधनों को पूर्ववत् रखकर एक अतिरिक्त श्रमिक को बढ़ा देने अथवा घटी देने से उत्पादन की मात्रा में जो वृद्धि अथवा कमी होती है वह उसके द्वारा ज्ञात कर ली जाती है। यदि मजदूरी सीमान्त उत्पादकता से अधिक होगी तो सेवायोजक को हानि होगी और वह कम मजदूरों की माँग करेगा और यदि मजदूरी सीमान्त उत्पादन से कम है तो सेवायोजक या उद्यमी तब तक श्रम की माँग करता जाता है, जब तक श्रमिकों की मजदूरी उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर होती है।
श्रम की पूर्ति – श्रम की पूर्ति से अभिप्राय है कि श्रमिक प्रचलित मजदूरी की दरों पर अपने श्रम कों कितनी मात्रा में देने के लिए तत्पर हैं। सामान्यत: मजदूरी की दरें जितनी ऊँची होती हैं, श्रम की पूर्ति उतनी ही अधिक होती है। जिस प्रकार उत्पादक अपनी वस्तु की कीमत सीमान्त उत्पादन लागत से कम लेने के लिए तैयार नहीं होता है, ठीक उसी प्रकार श्रमिक अपने श्रम के बदले अपनी न्यनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जितनी मजदूरी आवश्यक है, लेने के लिए तैयार होगा। इससे कम मजदूरी वह किसी भी स्थिति में नहीं लेगा, क्योंकि श्रमिक की कार्यक्षमता तथा रहन-सहन पर मजदूरी का प्रभाव पड़ता है। अतः श्रमिक अपने रहन-सहन के स्तर एवं प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए नीची मजदूरी की दर पर कार्य करने को तत्पर नहीं होगा, भले ही उसे अपने व्यवसाय में ही क्यों न परिवर्तन करना पड़े।
श्रम की मॉग एवं पूर्ति का सन्तुलन – श्रमिक की मजदूरी उसकी माँग और पूर्ति की सापेक्ष शक्तियों द्वारा उस बिन्दु पर निश्चित होती है जिस पर श्रम की माँग और पूर्ति का सन्तुलन स्थापित हो जाता है। उद्यमी द्वारा दी जाने वाली मजदूरी अर्थात् सीमान्त उत्पादिता जो कि उसकी अधिकतम सीमा होती है तथा श्रमिकों का उत्पादन व्यय अर्थात् सीमान्त त्याग या जीवन निर्वाह व्यय जो कि मजदूरी की निम्नतम सीमा होती है। इन दोनों सीमाओं के बीच मजदूरी उस बिन्द पर निर्धारित होती है जहाँ पर श्रम की माँग और पूर्ति में सन्तुलन हो जाता है। इन दोनों पक्षों में जो भी पक्ष प्रबल होता है वह मोल-भाव की शक्ति के द्वारा अपनी सीमा के निकट मजदूरी निर्धारित करने में सफल रहता है। यदि उद्यमी पक्ष प्रबल है तब मजदूरी सीमान्त त्याग के निकट निर्धारित होगी और यदि श्रमिकों का पक्ष प्रबल है तो मजदूरी का निर्धारण सीमान्त उत्पादिता के निकट होगा।
उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण – निम्न तालिका में मजदूरी की विभिन्न दरों पर श्रमिकों (मजदूरों) की माँग एवं पूर्ति की मात्राएँ दिखायी गयी है
पर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि जैसे-जैसे दैनिक मजदूरी की दर बढ़ती जाती है वैसे-वैसे श्रमिकों की माँग में बराबर कमी होती जाती है। ₹15 मजदूरी की दर पर श्रमिकों की माँग एवं पूर्ति में साम्य है। अतः मजदूरी की दर का निर्धारण ₹15 प्रतिदिन होगा।
रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण – संलग्न चित्र में Ox-अक्ष पर श्रमिकों की माँग एवं पूर्ति तथा OY-अक्ष पर दैनिक मजदूरी (₹ में) दिखायी गयी है। DD’ श्रम की माँग एवं ss श्रम की पूर्ति है
SS’ रेखाएँ हैं। ये रेखाएँ एक-दूसरे को E बिन्दु पर काटती हैं। यही । बिन्दु सन्तुलन बिन्दु है; अत: मजदूरी ₹150 प्रतिदिन निश्चित होगी। क्योंकि इस बिन्दु पर कुल माँम वक्र, कुल पूर्ति वक्र को काटता है।
लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक)
प्रश्न 1
मजदूरी के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
मजदूरी का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त
मजदूरी के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के प्रतिपादक, जे० बी० क्लार्क, प्रो० वॉन थयून तथा जेवेन्स आदि थे। मजदूरी के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के अनुसार, श्रमिकों की मजदूरी श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता के मूल्य के बराबर होने की प्रवृत्ति रखती है। सिद्धान्त हमें यह बतलाता है कि पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में मजदूरी श्रम की सीमान्त उत्पादकता से निश्चित होती है और साम्य बिन्दु पर वह उसके बराबर होती है।
श्रमिक की माँग उसके द्वारा किये जाने वाले उत्पादन के लिए की जाती है। उद्योगपति कभी भी श्रमिक को उससे अधिक मजदूरी नहीं देगा जितना कि वह उसके लिए पैदा करता है अर्थात् जो श्रमिक की सीमान्त उत्पादकता है।
सीमान्त उत्पादकता का अर्थ उत्पादन की उस मात्रा से है जो कि अन्य साधनों के पूर्ववत् रहने पर एक अतिरिक्त श्रमिक के बढ़ा देने अथवा घटा देने से बढ़ अथवा घट जाती है। उदाहरण के लिए-10 श्रमिक अन्य साधनों के साथ मिलकर 100 इकाइयों का उत्पादन करते हैं। यदि एक श्रमिक और बढ़ा दिया जाए तब यदि 110 इकाइयों का उत्पादन हो जाए तो श्रम की सीमान्त उत्पादकता 110 -100 = 10 इकाइयों के बराबर होगी। इस स्थिति में ग्यारहवाँ श्रमिक सीमान्त श्रमिक है तथा उसके द्वारा 10 इकाइयों का उत्पादन होता है।
इस प्रकार श्रमिकों की मजदूरी का निर्धारण श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता से होता है। यदि मजदूरी सीमान्त उत्पादकता से अधिक होगी, तो मालिक को हानि होगी और वे कम श्रमिकों को काम पर लगाएँगे और यदि मजदूरी सीमान्त उत्पादकता से कम है, तो उद्यमी अधिक श्रमिकों की माँग करेंगे। अत: सेवायोजक सन्तुलन की स्थिति स्थापित करके उस सीमा तक श्रमिकों को काम पर लगाएगा जहाँ पर श्रमिकों की मजदूरी उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर होती है।
मजदूरी-निर्धारण के सम्बन्ध में सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त का प्रयोग करते समय श्रम की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को ध्यान में रखना चाहिए—
- श्रमिक सामूहिक रूप से मजदूरी-निर्धारण के उद्देश्य से श्रम संघ बना सकते हैं। ऐसी स्थिति में मजदूरी ‘सीमान्त उत्पादकता’ से ऊँची हो सकती है।
- श्रम की अपनी स्वतन्त्र इच्छा होती है। श्रमिक यह निर्णय लेने में स्वतन्त्र होते हैं कि वे किस दिन काम करेंगे अथवा नहीं।
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की आलोचनाएँ
- यह सिद्धान्त केवल श्रम के माँग पक्ष पर ही ध्यान देता है, श्रम के पूर्ति पक्ष की ओर ध्यान नहीं देता।
- यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि श्रम की विभिन्न इकाइयाँ एक-सी होती हैं, परन्तु । वास्तव में ऐसा नहीं होता है। श्रम की विभिन्न इकाइयों में पर्याप्त भिन्नता हो सकती है।
- यह सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि श्रम में पूर्ण गतिशीलता होती है। श्रम की पूर्ण गतिशीलता की मान्यता गलत है।
- यह सिद्धान्त अवास्तविक तथा अव्यावहारिक है। यह सिद्धान्त पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में लागू होता है, परन्तु पूर्ण प्रतियोगिता व्यवहार में नहीं पायी जाती।
प्रश्न 2
नकद मजूदरी और असल मजदूरी में अन्तर स्पष्ट कीजिए। [2006, 10, 11, 12, 14, 15, 16]
या
वास्तविक मजदूरी एवं मौद्रिक मजदूरी में अन्तर लिखिए। वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करने वाले तत्वों को समझाइए। [2016]
या
मौद्रिक तथा वास्तविक मजदूरी में अन्तर लिखिए। [2015, 16]
उत्तर:
नकद तथा असल मजदूरी में अन्तर
वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करने वाले तत्त्व
- श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी द्रव्य की क्रय-शक्ति पर निर्भर करती है।
- श्रमिकों को मिलने वाली अतिरिक्त सुविधाएँ भी वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करती हैं।
- कार्य करने का स्थान एवं काम करने की दशाएँ श्रमिक की वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करती हैं।
- कार्य की प्रकृति से भी वास्तविक मजदूरी प्रभावित होती है।
- श्रमिक को जिन व्यवसायों में अतिरिक्त आय की सम्भावना होती है उन व्यवसायों में वास्तविक आय अधिक होती है। इस प्रकार अतिरिक्त आय से वास्तविक मजदूरी प्रभावित होती है।
- रोजगार को स्थायी होना भी अक्सर वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करता है।
- भावी प्रोन्नति के अवसर वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करते हैं।
- कार्य करने के घण्टे एवं अवकाश से भी वास्तविक मजदूरी प्रभावित होती है।
- आश्रितों को काम मिलने की सम्भावनाएँ भी वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करती है।
- व्यवसाय की सामाजिक प्रतिष्ठा भी वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करती है।
प्रश्न 3
“ऊँची मजदूरी सस्ती होती है, जबकि नीची मजदूरी महँगी।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
ऊँची मजदूरी सस्ती होती है, जबकि नीची मजदूरी महँगी
उल्लिखित कथन सत्य है। इसे निम्नवत् स्पष्ट किया जा सकता है
प्रत्येक उत्पादक श्रमिक को उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर मजदूरी देना चाहता है अर्थात् उसके कार्य के परिणाम को देखना चाहता है। यदि उत्पादक ने श्रमिक को अधिक मजदूरी दी है तथा श्रमिक ने उसके बदले में श्रेष्ठ व उत्तम कार्य किया है तब यह अधिक मजदूरी भी सस्ती कहलाएगी, क्योंकि उसके द्वारा किया गया कार्य श्रेष्ठ व स्थायी होगा। इसके विपरीत, यदि श्रमिक को बहुत कम (न्यूनतम) मजदूरी देकर उससे सेवाएँ प्राप्त की जाती हैं तो वास्तव में वह मजदूरी सस्ती होते हुए भी महँगी होगी, क्योंकि कम मजदूरी लेने वाला श्रमिक प्रायः अधिक योग्य, निपुण एवं कार्यकुशल नहीं होगा, उसका स्वास्थ्य भी उत्तम नहीं होगा।
इस प्रकार कम मजदूरी वाला श्रमिक उत्तम, स्थायी वे श्रेष्ठ कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि वह कार्य में निपुण नहीं होगा। हो सकता है उसे दी गयी मजदूरी उसकी सीमान्त उत्पादिता से भी कम हो। इस प्रकार सस्ती मजदूरी महँगी होती है। जो व्यक्ति श्रमिकों को अधिक मजदूरी देता है वह श्रमिकों से अधिक व श्रेष्ठ कार्य की अपेक्षा करता है, अधिक मजदूरी से प्रोत्साहित होकर श्रमिक भी श्रेष्ठ व अधिक कार्य करते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति श्रमिकों को कम मजदूरी देते हैं वे श्रमिकों से अधिक वे उत्तम कार्य की अपेक्षा नहीं कर सकते तथा श्रमिक भी कम मजदूरी लेकर अच्छा व अधिक कार्य नहीं कर सकता।
यदि श्रमिकों को ऊँची मजदूरी दी जाती है, तब ऊँची मजदूरी से श्रमिकों का रहन-सहन का स्तर ऊँचा होता है तथा रहन-सहन ऊँचा होने से श्रमिकों की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। कार्यक्षमता में वृद्धि होने से उत्पादन अधिक व श्रेष्ठ होता है, परिणामस्वरूप उत्पादन कार्य की उत्पादन लागत कम आती है, जिसके कारण उत्पादक को लाभ प्राप्त होता है। अधिक लाभ मिलने के कारण उत्पादक को अधिक मजदूरी भी कम दिखायी देती है। इसके अतिरिक्त ऊँची मजदूरी देने के कारण बाजार से कार्यकुशल श्रमिक प्राप्त हो जाते हैं, जो श्रेष्ठ व अधिक उत्पादन करते हैं, जिससे उत्पादन लागत कम आती है। इस कारण ऊँची मजदूरी भी कम प्रतीत होती है।
इसके विपरीत भी उत्पादक श्रमिकों को नीची मजदूरी देते हैं। उन्हें कम मजदूरी पर योग्य एवं कुशल श्रमिक प्राप्त नहीं होते हैं, जिसके अभाव में श्रेष्ठ व अधिक उत्पादन नहीं हो पाता है, जिसके कारण सस्ती मजदूरी अधिक मजदूरी प्रतीत होती है। अत: यह कथन सत्य है कि ऊँची मजदूरी सस्ती होती है, जबकि नीची मजदूरी महँगी होती है।
प्रश्न 4
मजदूरी-निर्धारण में श्रम संघ की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मजदूरी-निर्धारण में मजदूरी के नियमों के अतिरिक्त अन्य शक्तियों का भी प्रभाव पड़ता है, क्योंकि श्रम में कुछ मौलिक विशेषताएँ होती हैं। इन शक्तियों में श्रम संघ अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
उद्योगपतियों की तुलना में श्रमिकों में मोलभाव करने की क्षमता कम होती है। यद्यपि यह समझा जाता है कि मजदूरी उद्योगपतियों तथा श्रमिकों के बीच स्वतन्त्र प्रतियोगिता के आधार पर निर्धारित होती है, किन्तु व्यवहार में श्रमिक अनेक कारणों से मोलभाव करने में स्वतन्त्र नहीं होते। परिणाम यह होता है कि मजदूरों को उद्योगपतियों द्वारा दी गयी मजदूरी ही स्वीकार करनी पड़ती है जो प्रायः जीवन-निर्वाह व्यय के निम्नतम स्तर के आस-पास होती है। यही कारण है कि प्रायः मिल मालिक श्रमिकों का शोषण करते हैं तथा इस शोषण से बचने के लिए श्रमिक अपना संगठन बनाते हैं। वी० वी० गिरि के अनुसार, “श्रमिक संघ श्रमिकों द्वारा अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिए बनाये गये ऐच्छिक संगठन हैं।” मजदूरी-निर्धारण में श्रम संघों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। श्रम संघ नेताओं का विचार है कि श्रम संघ स्थायी रूप से मजदूरी में वृद्धि करा सकते हैं और भारत में पिछले वर्षों में श्रम संघ के प्रयत्नों के कारण ही मजदूरी की दरों में वृद्धि हुई है।
श्रम संघ मजदूरी-निर्धारण को अग्रलिखित प्रकार से प्रभावित कर सकते हैं
- श्रम संघ मजदूरी की माँग एवं पूर्ति दोनों को प्रभावित कर सकते हैं। उनके द्वारा ये मजदूरी-निर्धारण पर अपना प्रभाव डालते हैं। श्रम संघ श्रमिकों की पूर्ति को नियन्त्रित करके तथा श्रमिकों की माँग में वृद्धि कराकर मजदूरी की दर में वृद्धि कराने का प्रयास कर सकते हैं।
- श्रम संघ मजदूरों की सौदा करने की शक्ति में वृद्धि करके भी उनकी मजदूरी में वृद्धि कराते हैं। श्रमिक संघ श्रमिकों को संगठित कर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप श्रमिकों की सौदा करने की । शक्ति में निश्चय ही वृद्धि हो जाती है। हड़ताल आदि के माध्यम से श्रम संघ सेवायोजकों को श्रमिकों की अधिकतम सीमान्त उत्पादकता के बराबर मजदूरी देने हेतु बाध्य करते हैं।
- श्रमिक संघ श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता में वृद्धि करने का प्रयास करते हैं। श्रम संघ श्रमिकों की भलाई के बहुत-से ऐसे कार्य करते हैं जिससे उनकी कार्यकुशलता बढ़ जाती है, जिसके कारण वे अधिक उत्पादन करने में सक्षम हो जाते हैं। इस प्रकार उन्हें स्वत: ही ऊँची मजदूरी मिलने लगती है।
इस प्रकार, श्रम संघ मजदूरी-निर्धारण में अपना योगदान देकर मजदूरों की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयास करते रहते हैं। वर्तमान में जो श्रमिकों की सुरक्षा तथा आर्थिक अवस्था एवं सुविधाओं में वृद्धि हुई है, इसका श्रेय श्रमिक संगठनों को ही है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक)
प्रश्न 1
आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार मजदूरी का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
या
मजदूरी किसे कहते हैं?
उत्तर:
आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने मजदूरी शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया है। उनके अनुसार, “किसी भी प्रकार के मानव-श्रम के बदले में दिया जाने वाला प्रतिफल मजदूरी है, चाहे वह प्रति घण्टा, प्रति दिन अथवा अधिक समय के अनुसार दिया जाए और चाहे उसका भुगतान मुद्रा, सामान या दोनों के रूप में हो। अत: सभी प्रकार के मानव-श्रम के बदले में दिये जाने वाले प्रतिफल को मजदूरी कहा जाना चाहिए।”
प्रश्न 2
वास्तविक मजदूरी क्या है ? समझाइए। [2007, 08, 09, 11]
उत्तर:
वास्तविक मजदूरी के अन्तर्गत उन सब वस्तुओं तथा सेवाओं को भी सम्मिलित किया जाता है जो श्रमिक को नकद मजदूरी के अतिरिक्त प्राप्त होती है। एडम स्मिथ के अनुसार, “श्रमिक की वास्तविक मजदूरी में आवश्यक तथा जीवन उपयोगी सुविधाओं की वह मात्रा सम्मिलित होती है जो उसके श्रम के बदले में दी जाती है। उसकी नाममात्र मजदूरी में केवल मुद्रा की मात्रा ही सम्मिलित होती है। श्रमिक वास्तविक मजदूरी के अनुपात में ही निर्धन में ही निर्धन अथवा धनी; अच्छी या कम मजदूरी पाने वाला होता है; न कि नाममात्र मजदूरी के अनुपात में।”
प्रश्न 3
‘मजदूरी-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त समझाइए।
उत्तर:
मजदूरी-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त माँग और पूर्ति के सामान्य सिद्धान्त का एक विशिष्ट रूप है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने इस सिद्धान्त के द्वारा मजदूरी-निर्धारण की समस्या का विश्लेषण पूर्ण प्रतियोगिता तथा अपूर्ण प्रतियोगिता दोनों की दशाओं में करने का प्रयत्न किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार मजदूरी उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ पर श्रम की माँग श्रम की पूर्ति के ठीक बराबर होती है।
प्रश्न 4
मजदूरी भुगतान की विधियाँ लिखिए। [2015]
या
मजदूरी भुगतान के किन्हीं दो आधारों को लिखिए। [2015]
उत्तर:
मजदूरी भुगतान की निम्नलिखित दो विधियाँ हैं
- समयानुसार मजदूरी का भुगतान – जब श्रमिकों की मजदूरी काम करने के समय के अनुसार निश्चित की जाती है तो उसे समयानुसार मजदूरी कहते हैं। इस प्रकार की मजदूरी का भुगतान एक प्रकार का काम करने वाले श्रमिकों को एक ही दर से मजदूरी दी जाती है यद्यपि उनकी कार्यकुशलता में अन्तर होता है।
- कार्यानुसार मजदूरी का भुगतान – इस भुगतान विधि में मजदूरों को उनके द्वारा किये गये काम के अनुसार भुगतान दिया जाता है।
निश्चित उत्तरीय प्रल (1 अंक)
प्रश्न 1
नकद मजदूरी से क्या अभिप्राय है ? [2006, 14]
या
मौद्रिक मजदूरी का अर्थ लिखिए। [2009]
उत्तर:
मुद्रा के रूप में श्रमिकों को जो भुगतान किया जाता है उसे मौद्रिक मजदूरी या नकद मजदूरी कहा जाता है या मुद्रा के रूप में एक श्रमिक को अपनी सेवाओं के बदले में जो कुछ मिलता है। वह उसकी नकद मजदूरी होती है।
प्रश्न 2
मजदूरी का जीवन-निर्वाह सिद्धान्त से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
मजदूरी के जीवन-निर्वाह सिद्धान्त के अनुसार मजदूरी की दर स्वत: जीवन-निर्वाह स्तर के द्वारा निर्धारित की जाती है। मजदूरी की दर मुद्रा की उस मात्रा के बराबर रहने की प्रवृत्ति रखती है। जो श्रमिकों को जीवन-निर्वाह स्तर पर बनाये रखने के लिए आवश्यक होती है।
प्रश्न 3
मजदूरी कोष सिद्धान्त से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
जे० एस० मिल के अनुसार, मजदूरी श्रम की माँग और पूर्ति पर निर्भर होती है अथवा वह जनसंख्या और पूँजी के अनुपात के द्वारा निश्चित की जाती है। जनसंख्या से अभिप्राय श्रमिकों की उस संख्या से है जो बाजार में अपना श्रम बेचने के लिए आते हैं और पूँजी से अभिप्राय चल पूँजी की उस मात्रा से है जो पूँजीपति प्रत्यक्ष रूप से श्रम को खरीदने पर व्यय करते हैं।
प्रश्न 4
मजदूरी कोष सिद्धान्त के अनुसार मजदूरी की दर का निर्धारण किस प्रकार होता है?
उत्तर:
मजदूरी कोष सिद्धान्त के अनुसार मजदूरी दर का निर्धारण निम्नलिखित सूत्र से किया जा सकता है
प्रश्न 5
मजदूरी-निर्धारण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त क्या है ? [2010]
उत्तर:
मजदूरी-निर्धारण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त हमें बताता है कि पूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार में मजदूरी श्रम की सीमान्त उत्पादकता से निश्चित होती है और साम्य बिन्दु पर वह उसके बराबर होती है।
प्रश्न 6
श्रमिक की वास्तविक आर्थिक स्थिति का अनुमान मौद्रिक मजदूरी से लगाया जा सकता है या उसकी वास्तविक मजदुरी से। बताइए।
उत्तर:
श्रमिक की वास्तविक आर्थिक स्थिति का अनुमान केवल उसकी मौद्रिक आय को देखकर नहीं लगाया जा सकता। इसके लिए हमें उसकी असल मजदूरी को देखना होता है।
प्रश्न 7
वास्तविक मजदूरी को निर्धारित करने वाले दो तत्त्वों को बताइए।
उत्तर:
(1) मुद्रा की क्रय-शक्ति तथा
(2) कार्य करने की दशाएँ।
प्रश्न 8
मजदूरी कोष सिद्धान्त किन बातों पर निर्भर है ?
उत्तर:
मजदूरी कोष सिद्धान्त दो बातों पर निर्भर है
- मजदूरी कोष तथा
- रोजगार की। तलाश करने वाले श्रमिकों की संख्या।
प्रश्न 9
मजदूरी की दरों में भिन्नता के कोई दो कारण बताइए।
उत्तर:
मजदूरी की दरों में भिन्नता के निम्नलिखित दो कारण हैं
- श्रमिकों की कार्यकुशलता एवं योग्यता में अन्तर तथा
- काम का स्वभाव।
प्रश्न 10
मजदूरी के दो प्रकार लिखिए। [2011]
उत्तर:
(1) नकद मजदूरी व
(2) असल मजदूरी।
बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)
प्रश्न 1
मजदूरी का जीवन-निर्वाह सिद्धान्त का समर्थन किया है
(क) एडम स्मिथ ने
(ख) माल्थस ने
(ग) रिकाड ने
(घ) कार्ल माक्र्स ने।
उत्तर:
(क) एडम स्मिथ ने।
प्रश्न 2
मजदूरी कोष सिद्धान्त को अन्तिम रूप दिया
(क) एडम स्मिथ ने
(ख) रिकाडों ने
(ग) माल्थस ने
(घ) जे० एस० मिल ने
उत्तर:
(घ) जे० एस० मिल ने।
प्रश्न 3
मजदूरी का अवशेष अधिकारी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया
(क) वाकर ने
(ख) एडम स्मिथ ने
(ग) प्रो० मार्शल ने
(घ) जे० एस० मिल ने
उत्तर:
(क) वाकर ने।
प्रश्न 4
मजदूरी = कुल उपज – (लगान + लाभ + ब्याज) यह मजदूरी का सिद्धान्त है
(क) मजदूरी कोष सिद्धान्त
(ख) मजदूरी की माँग और पूर्ति का सिद्धान्त
(ग) मजदूरी का अवशेष अधिकारी सिद्धान्त
(घ) मजदूरी को सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त
उत्तर:
(ग) मजदूरी का अवशेष अधिकारी सिद्धान्त।।
प्रश्न 5
मजदूरी-निर्धारण का आधुनिक सिद्धान्त है
(क) माँग और पूर्ति के सामान्य सिद्धान्त का विशिष्ट रूप
(ख) सीमान्त उत्पादिता सिद्धान्त का शुद्ध रूप
(ग) मजदूरी कोष सिद्धान्त को विकसित रूप
(घ) मजदूरी का जीवन निर्वाह सिद्धान्त का परिवर्तित रूप
उत्तर:
(क) माँग और पूर्ति के सामान्य सिद्धान्त का विशिष्ट रूप।
प्रश्न 6
वास्तविक मजदूरी को प्रभावित करने वाला तत्त्व है [2016]
(क) मुद्रा की क्रय शक्ति
(ख) भत्ते
(ग) कार्य का स्वभाव
(घ) ये सभी
उत्तर:
(घ) ये सभी।
प्रश्न 7
किसने कहा, “श्रम की सेवा के लिए दिया गया मूल्य मजदूरी है? [2015]
(क) मार्शल
(ख) कीन्स
(ग) माल्थस
(घ) शुम्पीटर
उत्तर:
(क) मार्शल।