UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 1 Beginning of Mughal Empire in India: Babar and Humayun (भारत में मुगल साम्राज्य का प्रारम्भ- बाबर और हुमायूँ)

By | May 29, 2022

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 1 Beginning of Mughal Empire in India: Babar and Humayun (भारत में मुगल साम्राज्य का प्रारम्भ- बाबर और हुमायूँ)

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 1 Beginning of Mughal Empire in India: Babar and Humayun (भारत में मुगल साम्राज्य का प्रारम्भ- बाबर और हुमायूँ)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए|
1. 1526 ई०
2. 1527 ई०
3. 1530 ई०
4. 1540 ई०
5. 1556 ई०
उतर
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 24 पर ‘तिथि सार’ का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्य या असत्य बताइए
उतर.
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या – 24 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय
उतर.
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 24 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय
उतर.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 24 व 25 का अवलोकन कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बाबर के समय पंजाब व गुजरात की क्या स्थिति थी?
उतर.
बाबर के समय पंजाब की स्थिति – बाबर के आक्रमण के समय पंजाब का सूबेदार दौलत खाँ था। यद्यपि वह दिल्ली साम्राज्य के अधीन था, लेकिन अपने आपको स्वतंत्र शासक के रूप में देखना चाहता था। इसलिए दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी को समाप्त करने के लिए उसने काबुल के शासक बाबर को पत्र-व्यवहार कर भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया था।  बाबर के समय गुजरात की स्थिति- बाबर के आक्रमण के समय सुदूर पश्चिम में स्थित गुजरात का शासक मुजफ्फरशाहथा। अपने शासनकाल में वह मालवा और मेवाड़ के पड़ोसी राज्यों के साथ युद्ध लड़ता रहता था।

प्रश्न 2.
बाबर के प्रारम्भिक आक्रमणों का विवरण कीजिए।
उतर.
बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना से पहले भारत पर कई आक्रमण किए। इन आक्रमणों से मिली सफलताओं ने बाबर के दिल में यह विश्वास भर कि वह भारत में स्थायी तौर पर अपने राज्य की स्थापना कर सकता है। बाबर के इन प्रारम्भिक आक्रमणों का विवरण निम्न प्रकार है
पहला आक्रमण – बाबर ने भारत पर सर्वप्रथम 1519 ई० में आक्रमण किया। उसने बाजौर और भेरा में कत्ल-ए-आम करके उन्हें अपने कब्जे में ले लिया। भेरा को हिन्दू बेग को सौंपकर उसने काबुल प्रस्थान किया। परन्तु बाद में वहाँ के निवासियों ने हिन्दू बेग को भगा दिया।
दूसरा आक्रमण – सन् 1519 ई० में ही बाबर ने पेशावर पर आक्रमण किया। परन्तु बदख्शाँ के उपद्रवों की वजह से उसे वापस लौटना पड़ा।
तीसरा आक्रमण – सन् 1520 ई० में बाबर ने भारत पर आक्रमण कर पुनः बाजौर और भेरा को अपने कब्जे में ले लिया। फिर स्यालकोट और सैयदपुर जीतने के बाद बाबर ने कन्धार पर कब्जा करके अपने पुत्र कामरान को वहाँ का सूबेदार नियुक्त कर दिया।
चौथा आक्रमण – बाबर के चौथे आक्रमण ने भारत पर उसके साम्राज्य स्थापित करने का रास्ता साफ कर दिया। सन् 1524 ई० में उसने भारत पर आक्रमण करके पंजाब को अपने अधिकार में ले लिया। इस युद्ध में इब्राहीम लोदी की पराजय ने बाबर के लिए दिल्ली विजय का रास्ता खोल दिया।

प्रश्न 3.
पानीपत के युद्ध का क्या परिणाम हुआ?
उतर.
पानीपत के युद्ध से भारत में लोदी वंश के साम्राज्य और प्रभुत्व का अंत हुआ साथ ही भारत में एक नए वंश- मुगल वंश कीस्थापना हुई, जिसका भारत के इतिहास में गौरव पूर्ण स्थान है।

प्रश्न 4.
बाबर की विजय( सन् 1526 ई० ) में किन्हीं तीन कारणों का उल्लेख कीजिए।
उतर.
बाबर की विजय के प्रमुख तीन कारणों का उल्लेख निम्नवत् है
(i) इब्राहीम लोदी की सैनिक कमजोरियाँ – इब्राहीम लोदी अनुभवहीन और अयोग्य सेनापति था। उसे रणक्षेत्र में सेनाओं के कुशल संचालन और संगठन का विशेष ज्ञान नहीं था। इब्राहीम के अन्य सेनापति और सरदार भी विलासी, दम्भी और अनुभवहीन थे। बाबर ने स्वयं अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-बाबरी’ में लिखा है- “वह (इब्राहीम) अनुभवहीन युवक अपनी गतिविधियों में लापरवाह था, बिना किसी नियम-कायदे के वह आगे बढ़ जाता था, बिना किसी ढंग के रुक जाता अथवा पीछे मुड़ जाता और बिना सोचे-समझे शत्रु से भिड़ जाता।” इब्राहीम लोदी की सैनिक दुर्बलता बाबर जैसे सैनिक
के लिए वरदान सिद्ध हुई।।
(ii) इब्राहीम लोदी की अयोग्यता – इब्राहीम लोदी एक अयोग्य निर्दयी और जिद्दी सुल्तान था। उसमें राजनीतिज्ञता, कूटनीतिऔर दूरदर्शिता नहीं थी। इन गुणों के अभाव के कारण वह दौलत खाँ, आलम खाँ, मुहम्मदशाह और राणा साँगा को बाबर के विरुद्ध अपने पक्ष में नहीं मिला सका।
(iii) बाबर द्वारा तोपों का प्रयोग – पानीपत के युद्ध में इब्राहीम के पास तोपखाना और कुशल अश्वारोही सेना नहीं थी, जबकि बाबर के पास सुदृढ़ तोपखाना था, जिसका संचालन उस्ताद अली और मुस्तफा जैसे अनुभवी सेनानायकों ने किया। इसका परिणाम यह हुआ कि आग उगलने वाली तोपों के सम्मुख साधारण शस्त्रों से युद्ध करने वाले सैनिक नहीं टिक पाए। पानीपत में बाबर की विजय में उसके कुशल अश्वारोही और भारी तोपखाना अत्यन्त सहायक हुए।

प्रश्न 5.
हुमायूँ की शेर खाँ के विरुद्ध हार के किन्हीं तीन कारणों का वर्णन कीजिए।
उतर.
शेर खाँ के विरुद्ध हुमायूँ की हार के तीन कारण निम्नवत् हैं
(i) दोषपूर्ण युद्ध प्रणाली – हुमायूँ की युद्ध प्रणाली दोषपूर्ण थी। वह अपने शत्रुओं को परास्त करने के उपरान्त क्षमा कर दिया करता था, जिससे उन्हें अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिल जाता था। अपने महत्वाकांक्षी शत्रुओं को पूरी तरह कुचले बिना छोड़कर हुमायूं ने अपने पतन का मार्ग स्वयं प्रशस्त किया। हुमायूं का यह चारित्रिक दोष था कि वह अपनी विजय पर शीघ्र ही प्रसन्न हो जाता था।
(ii) धन का अपव्यय – बाबर ने युद्धों व खैरात के रूप में धन का अपव्यय करके शाही खजाने को खाली कर दिया था। इसी प्रकार हुमायूँ भी अपनी विजयों के उपलक्ष्य में बड़ी-बड़ी दावतें आयोजित करता था और अपने सरदारों तथा परिवार के सदस्यों को भेंट दिया करता था, अत: हुमायूँ को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा और अन्तत: उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा।
(iii) चारित्रिक अयोग्यता – हुमायूं अपनी असफलता का कारण स्वयं ही था। वह मदिरा-प्रेमी, अयोग्य एवं सैनिक गुणों से रहित एक असफल शासक था। हुमायूँ को अफीम सेवन का भी बहुत शौक था, जिससे वह आलसी हो गया था।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बाबर के आक्रमण के समय भारत की राजनीतिक दशा का वर्णन कीजिए।
उतर.
बाबर के आक्रमण के समय भारत की राजनीतिक दशा- बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-बाबरी’ अथवा ‘बाबरनामा’ में लिखा है कि उसके आक्रमण के समय भारत में पाँच मुस्लिम राज्य और दो काफिर (हिन्दू) राज्य थे। देहली, मालवा, बंगाल, गुजरात व बहमनी राज्य मुस्लिम शासकों के अधीन थे तथा मेवाड़ व विजयनगर हिन्दू शासकों के अधीन थे। बाबर का यह कथन सही है कि “सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ में भारत केवल ऐसे राज्यों का समूह था, जो किसी भी आक्रमणकारी का, जो उसे विजित करने की शक्ति और इच्छा रखता हो, सरलता से शिकार हो सकता था।”

(i) पंजाब – बाबर के आक्रमण के समय पंजाब का सूबेदार दौलत खाँ लोदी था। यद्यपि वह दिल्ली साम्राज्य के अधीन था, लेकिन अपने आपको स्वतन्त्र शासक के रूप में देखना चाहता था। इतिहासकारों के अनुसार उसने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी थी और इब्राहीम लोदी को समाप्त करने के लिए काबुल के शासक बाबर से पत्र-व्यवहार कर रहा था। उसने बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया था।

(ii) गुजरात – सुदूर पश्चिम में स्थित गुजरात का शासक मुजफ्फरशाह था। उसने गुजरात पर 1511 ई० से लेकर 1526 ई० तक राज्य किया। अपने शासनकाल में वह मालवा और मेवाड़ के पड़ोसी राज्यों के साथ युद्धों में व्यस्त रहा। पानीपत के युद्ध के कुछ ही दिन पूर्व उसका देहान्त हो गया और तब उसका पुत्र बहादुरशाह गुजरात का शासक बना। वह बड़ा योग्य और सफल शासक सिद्ध हुआ। आगे चलकर उसका मुगल सम्राट हुमायूं से काफी संघर्ष हुआ।

(iii) दिल्ली – बाबर के आक्रमण के समय उत्तरी भारत का सबसे प्रसिद्ध राज्य दिल्ली था। इसका सम्पूर्ण वैभव समाप्त हो चुका था। कहने को तो दिल्ली का सुल्तान विशाल साम्राज्य का स्वामी था, किन्तु व्यवहारिक दृष्टि से उसका प्रभाव केवल दिल्ली और उसके आसपास के कुछ प्रदेशों तक ही सीमित रह गया था। बाबर के आक्रमण के समय दिल्ली का सुल्तान इब्राहीम लोदी था। उसके कठोर और मनमाने व्यवहार से उसके सूबेदार, सैनिक, अधिकारी और राज दरबारी तंग आ चुके थे। वे सब उसके पतन के आकाँक्षी थे।

फलस्वरूप दिल्ली राज्य के विभिन्न भागों में विद्रोह हो रहे थे। लाहौर के सूबेदार दौलत खाँ लोदी ने अपने आपको स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया था। वह काबुल के शासक बाबर से भी गठजोड़ कर रहा था और उसे दिल्ली पर आक्रमण के लिए उकसा रहा था। दरिया खाँ लोदी बिहार में स्वतन्त्र शासक बन बैठा था। सारांशतः बाबर के आक्रमण के समय दिल्ली राज्य पूर्णतया अव्यवस्थित था और निरन्तर दुर्बल होता जा रहा था।

(iv) बिहार – फिरोज तुगलक के शासनकाल में बिहार स्वतन्त्र हो गया था। बाबर के आक्रमण के समय बिहार शक्तिशाली मुस्लिम राज्य था।

(v) मालवा – तैमूर के आक्रमण के तुरन्त बाद मालवा के सूबेदार दिलावर खाँ ने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया था। | मालवा के शासक महमूद खिलजी द्वितीय के शासनकाल में मेदिनीराय नामक एक राजपूत सरदार का दबदबा बढ़ गया था। उससे अप्रसन्न होकर मुस्लिम सरदारों ने उसका विरोध किया। मेदिनीराय ने महाराणा सांगा की सहायता से उन्हें परास्त | कर दिया। इस प्रकार मालवा के सरदारों में आपसी फूट बढ़ गई।

(vi) उड़ीसा (ओडिशा) – यह राज्य काफी समय से हिन्दू राजाओं के अधीन था। यह समृद्ध एवं शक्तिशाली राज्य था, किन्तु दिल्ली से अत्यधिक दूर स्थित होने के कारण उत्तर भारत की राजनीति में उसकी विशेष भूमिका न थी।
(vii) सिन्ध- महमूद तुगलक की मृत्यु होते ही सिन्ध राज्य स्वतन्त्र हो गया था। बाबर के भारत पर आक्रमण के समय यहाँ अरबों का अधिकार स्थापित हो गया था। सिन्ध पर अरब वालों का प्रभाव था। यहाँ की राजनैतिक व्यवस्था अत्यन्त ही असन्तोषजनक थी।

(viii) बंगाल – बाबर के आक्रमण के समय बंगाल एक स्वतन्त्र राज्य के रूप में स्थापित था, जहाँ का प्रशासक नुसरतशाह था। वह बड़ा योग्य और गुणवान व्यक्ति था। लोग उसके शासनकाल में आर्थिक दृष्टि से समृद्ध और सन्तुष्ट थे।

(ix) कश्मीर – कश्मीर भी एक महत्वपूर्ण राज्य था। यहाँ सत्ता के लिए आन्तरिक संघर्ष चल रहा था। यहाँ के प्रधान वजीर ने अपने स्वामी सुल्तान मुहम्मदशाह को बाबर की सहायता से अपदस्थ कर स्वयं सत्ता हथिया ली।

(x) मेवाड़ – मेवाड़ उत्तरी भारत का सबसे प्रसिद्ध हिन्दू राज्य था, जिस पर राणा साँगा अथवा राणा संग्रामसिंह का शासन था। कर्नल टॉड के अनुसार राणा साँगा का प्रभाव लगभग सम्पूर्ण राजपूताने पर था। राणा साँगा ने मालवा के अनेक भागों पर अधिकार कर लिया था। उसने गुजरात के शासक को भी हराया था। राणा साँगा का उद्देश्य भारत में फिर से हिन्दू राज्य स्थापित करना था। राणा साँगा निःसन्देह उत्तरी भारत का ही नहीं सम्पूर्ण भारत के शक्तिशाली शासकों में से था, जिससे बाबर को टक्कर लेनी थी।

(xi) पुर्तगाल शक्ति – यद्यपि बाबर के आक्रमण के समय पुर्तगालियों की शक्ति अधिक नहीं थी फिर भी उन्होंने गोआ पर अधिकार जमा लिया था। अपनी गतिविधियों के कारण उन्होंने भारत के पश्चिमी समुद्र तट के राजनीतिक एवं व्यापारिक जीवन में अस्थिरता ला दी थी।

(xii) खानदेश – ताप्ती नदी की घाटी में बसा हुआ खानदेश छोटा-सा किन्तु एक समृद्धशाली राज्य था। मलिक राजा फारुकी, मलिक नसीर खाँ तथा आदिल खाँ फारुकी खानदेश के प्रसिद्ध शासक थे। आदिल खाँ फारुकी की मृत्यु के पश्चात् महमूद प्रथम यहाँ का शासक बना। यह बाबर का समकालीन था।

(xiii) बहमनी राज्य – बहमनी राज्य अपने वैभव को खोकर जीर्ण-शीर्ण हो चुका था। उसके स्थान पर अब बीजापुर, बरार, बीदर, अहमदनगर और गोलकुण्डा के पाँच स्वतन्त्र राज्य स्थापित हो चुके थे। इन राज्यों के शासकों में भी परस्पर संघर्ष होता रहता था। इनकी आपसी फूट से उत्साहित होकर विजयनगर का शक्तिशाली हिन्दू राजा कृष्णदेवराय उन्हें अपने आक्रमण का शिकार बनाता रहता था। इस प्रकार बाबर के आक्रमण के समय दक्षिण में मुस्लिम शक्ति अपने अन्तिम दिन गिन रही थी।

(xiv) विजयनगर – यह हिन्दू राज्य सुदूर दक्षिण में स्थित था। बाबर के आक्रमण के समय यहाँ का राजा कृष्णदेवराय था। के०एम० पणिक्कर के शब्दों में वह अशोक, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, हर्ष और भोज की परम्परा में एक महान् सम्राट था, जिसका राज्य अपने वैभव के शिखर पर था।” बाबर ने भी विजयनगर के बारे में लिखा है कि राज्य एवं सैनिक दृष्टि से काफिर राजकुमारों में विजयनगर का राजा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।”

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बाबर के आक्रमण के समय केन्द्रीय शक्ति का पतन हो चुका था तथा समस्त देश में स्वतन्त्र शासक अपनी सत्ता बढ़ाने के लिए पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता में लीन थे। उनमें एकता का अभाव था। लेनपूल ने उस समय की दशा का वर्णन करते हुए लिखा है कि विजेता जाति (मुसलमान) अशांतकारियों की एक भीड़ में बदल गई थी। दिल्ली सल्तनत के बड़े-बड़े प्रान्तों के अपने शासक थे। छोटे-छोटे नगरों, जिलों, यहाँ तक कि दुर्गों आदि पर वहाँ के सरदारों ने अधिकार कर लिया था। इस प्रकार बाबर के लिए भारत पर आक्रमण हेतु उपयुक्त परिस्थितियाँ थीं।

प्रश्न 2.
‘हुमायूँ ने सम्पूर्ण जीवन लुढ़कते हुए ही व्यतीत किया व अन्त में लुढ़ककर ही उसकी जीवन लीला समाप्त हो गई। इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उतर.
हुमायूँ का जन्म 6 मार्च, 1508 ई० को काबुल में हुआ था। उसकी माता का नाम माहम सुल्ताना बेगम और पिता का नाम बाबर था। सन् 1520 ई० में हुमायूँ को 12 वर्ष की अवस्था में बदख्शाँ का शासक बनाया गया। बदख्शाँ में हुमायूँ ने लगभग दस वर्ष तक शासन किया। हुमायू ने 18 वर्ष की अवस्था में युद्धों में भाग लेना शुरू कर दिया था। हुमायूँ जिस समय गद्दी पर बैठा उस समय वह चारों ओर से कठिनाइयों और समस्याओं से घिरा हुआ था। पानीपत और खानवाँ के युद्ध में बाबर की क्रूरता के कारण हिन्दू और मुसलमान उसके विरोधी बन गए थे।

अत: जब हुमायूं सिंहासन पर बैठा तब उसे हिन्दुओं और मुसलमानों का सहयोग न मिल सका। बाबर का अधिक समय युद्धों में व्यतीत हुआ था। इन युद्धों में उसे विशाल धनराशि प्राप्त हुई थी, किन्तु उसने यह धन राशि अपने सरदारों और सम्बन्धियों में बाँट दी थी। अत: हुमायूँ को खाली राजकोश विरासत में मिला था। सिंहासन पर बैठते ही हुमायूँ को अपने सम्बन्धियों के षड्यंत्रों तथा अफगान सरदारों के विद्रोहों का सामना करना पड़ा था। सन् 1530 ई० से 1540 ई० तक वह इन समस्याओं में उलझा रहा तथा 1540 ई० में परिस्थितिवश उसे पराजित होकर 15 वर्षों के लिए भारत छोड़कर जाना पड़ा।

हुमायूं में नेतृत्व का अभाव था। जहाँ तक सम्भव होता, वह कठिनाइयों को टालता रहता था। अपने दस वर्षों के शासनकाल उसने नेतृत्व शक्ति तथा अपने सैनिकों एवं अधिकारियों को नियन्त्रण में रखने की योग्यता का अभाव प्रदर्शित किया। उसे न तो सैन्य संगठन का ज्ञान था और न ही सैन्य संचालन का। उसे इस बात का भी ज्ञान नहीं था कि शत्रु पर कब और किस प्रकार आक्रमण करना चाहिए। शेर खाँ की बढ़ती शक्ति का ठीक अनुमान न लगा पाना और उसके विरुद्ध कुशल नेतृत्व के साथ संघर्ष न करना उसकी असफलता के कारण थे।

हुमायूँ का अर्थ होता है – भाग्यशाली, परन्तु वास्तव में हुमायूँ बहुत ही दुर्भाग्यशाली था। कदम-कदम पर उसके भाग्य ने उसे धोखा दिया। यदि भाग्य साथ देता तो उसे कभी पराजय का मुंह न देखना पड़ता। जिस समय हुमायू आगरा पहुँचा वहाँ उसे शेर खाँ के आने का समाचार मिला। कन्नौज नामक स्थान पर दोनों की सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में हुमायूँ ने एक हाथी पर चढ़कर अपनी जान बचाई। यह युद्ध अफगानों और मुगलों का अन्तिम युद्ध था, जिसमें हुमायूं के विकास का सितारा डूब गया। कन्नौज युद्ध में पराजय के बाद हुमायूँ ने भारत में शरण मिलने की आशा छोड़कर काबुल की ओर प्रस्थान किया; किन्तु वहाँ उसके भाई कामरान ने उसकी सहायता नहीं की। इस प्रकार हुमायूँ को विदेशों में भाग्य आजमाने के लिए भटकना पड़ा इसके बाद के 15 वर्ष हुमायूँ को एक निर्वासित और भगोड़े के रूप में दर-ब-दर की ठोकर खानी पड़ी।

हुमायँ ने फारस के शाह की सहायता से अपने खोए हुए प्रदेशों को प्राप्त करने की कोशिश की। कंधार, काबुल और बदख्शाँ पर विजय प्राप्त करता हुआ दिल्ली की ओर बढ़ा। उस समय दिल्ली पर अयोग्य शासक सिकन्दर सूर का शासन था। सर हिन्द नामक स्थान पर सिकन्दर सूर को हराकर हुमायूं को पुनः सन् 1555 ई० में दिल्ली का शासन प्राप्त हो गया। हुमायूँ अपनी इस विजय का आनन्द अधिक दिनों तक न ले सका। 24 जनवरी, 1556 ई० को अजान की आवाज सुनकर वह जल्दी से अपने पुस्तकालय के जीने की सिढ़ियों से उतरने लगा और पैर फिसल जाने से लुढ़कता हुआ नीचे गिरा, जिससे उसकी खोपड़ी की हड्डी टूट गई। तीन दिन बाद 27 जनवरी, 1556 को उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार हुमायूँ ने सम्पूर्ण जीवन लुढ़कते हुए ही व्यतीत किया और अन्त में लुढ़ककर ही उसकी जीवन लीला समाप्त हो गई।

प्रश्न 3.
हुमायूँ की प्रारम्भिक कठिनाइयों का वर्णन कीजिए।
उतर.
हुमायूँ की प्रारम्भिक कठिनाईयाँ – हुमायूं जिस समय गद्दी पर बैठा, वह चारों ओर से कठिनाइयों और समस्याओं से घिरा हुआ था। ऐसी परिस्थितियों में एक सैनिक प्रतिभा से युक्त, कूटनीतिक चातुर्य और राजनीतिक सूझबूझ से सम्पन्न शासक की आवश्यकता थी, परन्तु हुमायूं में इन सबका अभाव था। अत: वह स्वयं अपना सबसे बड़ा शत्रु सिद्ध हुआ। हुमायूँ के चरित्र में अनेक दुर्बलताओं का सम्मिश्रण था। अत: कुछ विद्वानों का मत है कि हुमायूँ के चरित्र में अनेक दोष थे, जिनके कारण वह असफल रहा। किन्तु यह भी सत्य है कि हुमायूं को अनेक कठिनाइयाँ विरासत में भी मिली थी। अत: हुमायूँ की प्रमुख कठिनाइयों और समस्याओं का वर्णन करना आवश्यक है ।

(i) हिन्दुओं व मुसलमानों का विरोध – बाबर ने पानीपत के युद्ध में मुसलमानों को अपना शत्रु बना लिया था, साथ ही खानवा के युद्ध में हिन्दुओं का क्रूरता से हत्याकाण्ड करके उसने हिन्दुओं को भी अपना विरोधी बना लिया था। अत: उसका पुत्र हुमायूँ जब सिंहासन पर बैठा तब उसे हिन्दुओं व मुसलमानों दोनों का सहयोग न मिल सका।।

(ii) आर्थिक संकट – बाबर का अधिकतम जीवन युद्धों में व्यतीत हुआ था। हालाँकि पानीपत के युद्ध में उसे एक विशाल धनराशि प्राप्त हुई थी, किन्तु उसने वह धनराशि विजय की खुशी में अपने सरदारों, सम्बन्धियों आदि के बीच वितरित कर दी थी। इस प्रकार धन के वितरण तथा युद्धों में धन के अपव्यय के कारण उसका राजकोष खाली हो गया था। अत: जिस समय हुमायूं सिंहासन पर बैठा, उस समय खाली राजकोष उसे विरासत में मिला था।

(iii) उत्तराधिकार के नियमों का अभाव – मुगल वंश में भी उत्तराधिकार के नियमों का अभाव था, अत: बाबर की मृत्यु के बाद उसके अन्य तीन लड़के- कामरान, अस्करी व हिन्दाल तथा बाबर के अन्य सम्बन्धी भी अपने को सम्राट घोषित करने का प्रयास कर रहे थे। इसके साथ-साथ स्वयं बाबर का यह उपदेश था कि मेरी अन्तिम इच्छा का सार यही है कि अपने भाइयों के विरुद्ध कभी कोई कार्य न करना, चाहे वे उसके योग्य ही क्यों न हों। इस उपदेश के कारण हुमायूँ ने अपने भाइयों के साथ उदारता का व्यवहार करके अपनी कठिनाइयों को और अधिक बढ़ा लिया।

(iv) सम्बन्धियों की समस्या – सम्बन्धियों की समस्या भी हुमायूं के सम्मुख एक प्रमुख कठिनाई थी। इन सम्बन्धियों में उसकी सौतेली बहन मासूमा बेगम का पति मुहम्मद जमान मिर्जा, बाबर का बहनोई मीर मुहम्मद मेहँदी ख्वाजा तथा हुमायूं के भाई कामरान, अस्करी और हिन्दाल मुख्य थे। अस्करी और हिन्दाल दुर्बल व अस्थिर-बुद्धि के थे और वे इसलिए खतरनाक थे कि महत्वाकांक्षी लोग इन्हें अपने हाथों की कठपुतली बना सकते थे।

(v) असंगठित साम्राज्य – बाबर ने हालाँकि अपने सैनिक-बल पर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी, किन्तु न तो उसने उसे संगठित किया तथा न ही शासन-व्यवस्था में कोई सुधार ही किया। अत: विरासत में हुमायूँ को एक असंगठित साम्राज्य मिला था, जो अराजकता से पूर्ण था और ऐसी स्थिति में हुमायूं के लिए कार्य करना कठिन था।

(vi) दोषपूर्ण सैनिक संगठन – बाबर की सेना मुगल, पठान, चगताई आदि अनेक भिन्न-भिन्न जातियों के सैनिकों का सम्मिश्रण थी, जिनमें एकता का अभाव था। अतएव सेना को संगठित रखना भी हुमायूं के लिए बड़ी समस्या थी।

(vii) अफगानों की समस्या – यद्यपि बाबर ने अफगानों को पानीपत के युद्ध में परास्त कर दिया था तथा मुगल साम्राज्य की स्थापना कर दी थी, परन्तु अफगान अभी भी शान्त नहीं बैठे थे। वे बदला लेने के लिए आतुर थे। जिस दौरान हुमायूँ ने सिंहासनारोहण किया, उस समय महमूद लोदी, शेर खाँ जैसे शक्तिशाली किन्तु अत्यन्त महत्वाकांक्षी अफगानों ने उसके | विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उसे उनके विरुद्ध लड़ना पड़ा। अतः अफगानों की समस्या हुमायूं को विरासत में प्राप्त हुई थी।

प्रश्न 4. बाबर की विजय के कारणों की व्याख्या कीजिए।
उतर.
भारत में बाबर की विजय के प्रमुख कारणों का विश्लेषण निम्नवत् है
(i) इब्राहीम लोदी की सैनिक कमजोरियाँ – इब्राहीम लोदी अनुभवहीन और अयोग्य सेनापति था। उसे रणक्षेत्र में सेनाओं के कुशल संचालन और संगठन का विशेष ज्ञान नहीं था। इब्राहीम के अन्य सेनापति और सरदार भी विलासी, दम्भी और अनुभवहीन थे। बाबर ने स्वयं अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-बाबरी’ में लिखा है- “वह (इब्राहीम) अनुभवहीन युवक अपनी गतिविधियों में लापरवाह था, बिना किसी नियम-कायदे के वह आगे बढ़ जाता था, बिना किसी ढंग के रुक जाता अथवा पीछे मुड़ जाता और बिना सोचे-समझे शत्रु से भिड़ जाता।” इब्राहीम लोदी की सैनिक दुर्बलता बाबर जैसे सैनिक
के लिए वरदान सिद्ध हुई।

(ii) इब्राहीम लोदी की अयोग्यता – इब्राहीम लोदी एक अयोग्य निर्दयी और जिद्दी सुल्तान था। उसमें राजनीतिज्ञता, कूटनीति और दूरदर्शिता नहीं थी। इन गुणों के अभाव के कारण वह दौलत खाँ, आलम खाँ, मुहम्मदशाह और राणा साँगा को बाबर के विरुद्ध अपने पक्ष में नहीं मिला सका।

(iii) बाबर द्वारा तोपों का प्रयोग – पानीपत के युद्ध में इब्राहीम के पास तोपखाना और कुशल अश्वारोही सेना नहीं थी, जबकि बाबर के पास सुदृढ़ तोपखाना था, जिसका संचालन उस्ताद अली और मुस्तफा जैसे अनुभवी सेनानायकों ने किया। इसका परिणाम यह हुआ कि आग उगलने वाली तोपों के सम्मुख साधारण शस्त्रों से युद्ध करने वाले सैनिक नहीं टिक पाए। पानीपत में बाबर की विजय में उसके कुशल अश्वारोही और भारी तोपखाना अत्यन्त सहायक हुए।

(iv) बाबर की रणकुशलता और सैन्य संचालन – बाल्यकाल से ही निरंतर संकटों, संघर्षों और युद्ध में भाग लेते रहने से बाबर एक वीर, साहसी, कुशल योद्धा और अनुभवी सैनिक बन गया था। इस प्रकार बाबर एक जन्मजात वीर एवं महान् सेनापति था, इसीलिए उसे पानीपत और खानवा के युद्धों में निर्णायक विजय प्राप्त करने में अधिक कठिनाई नहीं हुई।

(v) राणा साँगा की गलतियाँ – खानवा के युद्ध में राणा साँगा की सबसे बड़ी भूल यह थी कि उन्होंने बाबर पर एकदम आक्रमण नहीं किया, अपितु उसे संगठित और तैयार होने के लिए अवसर दिया। खानवा के समीप की पहली मुठभेड़ में बाबर का सेनापति परास्त हो चुका था और बयाना से उसकी सेना पहले ही हारकर भाग चुकी थी और वह राजपूतों की वीरता व रणकौशल से आतंकित हो गई थी। यदि उसी समय राणा साँगा बाबर पर अपनी पूरी शक्ति से आक्रमण कर देते तो विजय उन्हें ही प्राप्त होती और बाबर भारत से भाग गया होता। राणा साँगा के युद्ध में हारने का एक कारण युद्ध में
हाथियों का प्रयोग भी था।

(vi) बाबर की सैनिक तैयारी तथा तुलगमा रणनीति का प्रयोग – बाबर ने पानीपत और खानवा दोनों ही युद्धों में पूर्ण सैनिक तैयारी की थी। उसने अपनी सेना के सबसे आगे बिना बैल की बैलगाड़ियों की पंक्ति लगाई और इन गाड़ियों को परस्पर जोड़कर एक-दूसरे से लगभग 18 फुट लम्बी लोहे की जंजीरों से बाँध दिया। सेना के जिस भाग में बैलगाड़ियाँ नहीं थीं, उस ओर सुरक्षा के लिए खाइयाँ खुदवा दीं। इनके पीछे बन्दूकची और तोपखाने के गोलन्दाज खड़े किए गए। खानवा के युद्ध में निजामुद्दीन अली खलीफा ने तोपों का नेतृत्व किया। बन्दूकों की व्यवस्था मुस्तफा के अधीन थी और तोपों से गोलाबारी उस्ताद अली ने करवाई। इसके अतिरिक्त बाबर ने पानीपत और खानवा के युद्धों में तुलगमा रणनीति अपनाकर विजय प्राप्त की।

प्रश्न 5.
बाबर के चरित्र का वर्णन कीजिए।
उतर
बाबर के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ थीं
(i) व्यक्ति के रूप में – बाबर का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था। वह अदम्य शारीरिक और आत्मिक शक्ति का स्वामी था। विभिन्न समकालीन एवं आधुनिक विद्वानों ने उसके विभिन्न गुणों की प्रशंसा की है। बाबर के चरित्र की व्याख्या करते हुए एक विद्वान ने लिखा है- “बाबर का चरित्र नारी-दोष से निष्कलंक था, इस सन्दर्भ में तो उसे एक सूफी कहा जा सकता है। वह एक सच्चा मुसलमान था क्योंकि अल्लाह में उसे बड़ा विश्वास था। वह उच्चकोटि का साहित्यकार भी था। उसकी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-बाबरी’ विश्व के महान ग्रन्थों में गिनी जाती है। बाबर प्रकृति-प्रेमी भी था। मुगल साम्राज्य का संस्थापक सम्राट बाबर अपने मनोरम और सुन्दर व्यक्तित्व, कलात्मक स्वभाव तथा अद्भुत चरित्र के कारण इस्लाम के इतिहास में सदा अमर रहेगा।

(ii) विद्वान शासक के रूप में – बाबर एक जन्मजात सैनिक था और उसे विजेता के रूप में याद किया जाता है, किन्तु यदि बाबर ने भारत ने जीता होता तो भी विद्वान् के रूप में उसे सर्वदा याद किया जाता। उसे पर्शियन और अरबी भाषा का ज्ञान था और वह तुर्की भाषा का विद्वान था। तुर्की भाषा में लिखी हुई उसकी आत्मकथा’ साहित्य और इतिहास दोनों ही दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ मानी गई है, इसमें सभी कुछ इतना सत्य, स्पष्ट, बुद्धिमत्तापूर्ण और रोचक है कि ‘तुजुक-ए-बाबरी’ (बाबरनामा) संसार की श्रेष्ठतम आत्मकथाओं में स्थान रखती है। पद्य की रचनाओं में उसके द्वारा किया गया संकलन ‘दीवारन’ था, जो तुर्की पद्य में श्रेष्ठ स्थान रखता है। न्याय पर भी उसने एक पुस्तक लिखी थी, जिसे सभी ने श्रेष्ठ स्वीकार किया था।

(iii) सेनापति के रूप में – बाबर एक साहसी और कुशल सैनिक था। वह एक प्रशंसनीय घुड़सवार, अच्छा निशानची, कुशल तलवारबाज और जबर्दस्त शिकारी था। सेनापति की योग्यता को बाबर ने अपने संघर्षमय जीवन के अनुभव से प्राप्त किया। वास्तव में बाबर में तुर्को की शक्ति, मंगोलों की कट्टरता और ईरानियों का उद्वेग एवं साहस सम्मिलित था। उसमें नेतृत्व करने का स्वाभाविक गुण था। वह अपनी सेना से बड़ी सेनाओं का मुकाबला करने में डरता न था। अनुशासनहीनता उसे पसन्द न थी और उसकी अवहेलना होने पर वह अपने सैनिकों को कठोर दण्ड देता था। इस प्रकार बाबर एक योग्य
सैनिक और सफल सेनापति था।

(iv) राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ के रूप में – एक राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ के रूप में बाबर पर्याप्त सफल था। अपनी दुर्बल स्थिति को देखकर उसने अपने मामाओं से समझौते के प्रस्ताव किए थे, परन्तु एक राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ की दृष्टि से उसका प्रमुख कार्य भारत में शुरू हुआ। जिस प्रकार उसने भारतीय और अफगान अमीरों में सन्तुलन बनाकर रखा और जिस प्रकार उसने बिहार और बंगाल के शासकों से व्यवहार किया उससे कूटनीतिज्ञ प्रतिभा झलकती है। कम-से-कम छ: हिन्दू राजाओं ने भी स्वेच्छा से उसके आधिपत्य को स्वीकार किया था।

(v) शासन-प्रबन्धक के रूप में – बाबर एक अच्छा शासन-प्रबन्धक नहीं था। यह केवल इसी से स्पष्ट नहीं होता कि उसने भारत के शासन-प्रबन्ध में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किए बल्कि काबुल के शासक के रूप में भी वह सफल नहीं हुआ था। बाबर ने अपने प्रदेशों में समान शासन-व्यवस्था, लगान-व्यवस्था, कर-व्यवस्था और समुचित न्याय व्यवस्था लागू करने का प्रयत्न नहीं किया। धन सम्बन्धी मामलों में भी बाबर लापरवाह था।

प्रश्न 6.
हुमायूँ की असफलताओं के कारणों की विवेचना कीजिए।
उतर
हुमायूँ को शेरशाह के विरुद्ध कई पराजय झेलनी पड़ी। जब तक शेरशाह जीवित रहा, हुमायूँ को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी। विभिन्न भूलें जो हुमायूँ ने अपने शासन के आरम्भ में कीं, वे अन्त में हुमायूँ की पराजय और असफलता के लिए उत्तरदायी हुईं। जिन परिस्थितियों में हुमायूँ को सिंहासन त्यागना पड़ा, उनमें से अधिकांश उसकी मूर्खता और कमजोरियों का परिणाम था, जिसका वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता है

(i) असंगठित शासन-व्यवस्था – यह सही है कि हुमायूं को विरासत में अस्त-व्यस्त प्रशासन-व्यवस्था प्राप्त हुई थी, जिसका कारण बाबर को पर्याप्त समय नहीं मिल पाना था, लेकिन हुमायूँ को तो पर्याप्त समय मिला था। सिंहासन पर आसीन होने के बाद हुमायूँ ने शासन-व्यवस्था पर जरा भी ध्यान नहीं दिया। बाबर ने अपने पुत्र हुमायूँ के लिए ऐसी शासन-व्यवस्था छोड़ी थी, जो केवल युद्धकालीन स्थिति में ही स्थिर रह सकती थी, शांति के समय वह शिथिल और निराधार थी। हुमायूँ इतना योग्य नहीं था कि असंगठित शासन-व्यवस्था को सुसंगठित कर पाता।

(ii) बहादुरशाह के प्रति हुमायूँ की नीति – बहादुरशाह के प्रति अपनाई गई हुमायूं की नीति उसकी असफलता का प्रमुख कारण बनी। हुमायूं को बहादुरशाह पर उसी समय आक्रमण कर देना चाहिए था, जब वह चित्तौड़ में राजपूतों से युद्ध कर रहा था। ऐसा करने पर उसे विजय और राजपूतों की सहानुभूति मिलने की अधिक सम्भावना थी। माण्डु में कई सप्ताह तक विलासिता में डूबे रहने के कारण वह गुजरात और मालवा विजय को स्थिर न रख सका। अवसर मिलते ही बहादुरशाह ने मालवा और गुजरात पर पुन: अधिकार कर लिया।

(iii) हुमायूँ के चारित्रिक दोष – हुमायूं में संकल्प-शक्ति और चारित्रिक बल का अभाव था। डटकर प्रयत्न करना उसकी शक्ति के बाहर था। विजय प्राप्ति के थोड़े समय बाद ही वह अपने हरम में जाकर आनन्द से पड़ा रहता था और अपने समय को अफीमची के सपनों की दुनिया में नष्ट करता था। उसने गुजरात और मालवा विजयों के पश्चात् कई सप्ताह तक रंगरेलियाँ मनाईं। इसी प्रकार गौड़ पर अधिकार करने के पश्चात् वहाँ भोग-विलास में आठ माह से अधिक का समय नष्ट किया। शत्रु की शक्ति का अनुमान न लगा पाना और कठिन परिस्थितियों में तत्काल निर्णय न कर पाना उसकी अन्य कमजोरियाँ थीं। जैसा कि एलफिंस्टन ने लिखा है कि वह वीर अवश्य था, किन्तु स्थिति की गम्भीरता को समझने की योग्यता उसमें नहीं थी। डॉ० ए०एल० श्रीवास्तव ने लिखा है कि “ऐसे अवसर पर जबकि उसे सजग-सचेष्ट होकर सैन्य संचालन में संलग्न रहना चाहिए था तब अपने हरम में रंगरेलियाँ मनाना और आराम करने का हुमायूँ का यह स्वभाव उसकी असफलता का एक प्रमुख कारण बना।”

(iv) हुमायूँ की भूलें – जिन विषम परिस्थितियों में हुमायूँ ने राज्य सम्भाला, अपनी गलतियों से उसने उसे और कठिन बना दिया। हुमायूँ ने अपने भाइयों में साम्राज्य का बँटवारा कर पहली भूल की। काबुल, कंधार और पंजाब कामरान को दे देने से उसकी शक्ति का आधार ही खत्म हो गया तथा अस्करी और हिन्दाल को छोटी जागीरें देने से उनमें असन्तोष बना रहा। द्वितीय, हुमायूं ने कालिंजर का अभियान कर दूसरी भूल की, क्योंकि न तो राजा को पराजित किया जा सका और न उसे मित्र बनाकर अपनी तरफ मिलाया जा सका।

चुनार का दुर्ग शेर खाँ के ही आधिपत्य में रख देना उसकी तीसरी भूल थी, इससे शेरखाँ को अपनी शक्ति बढ़ाने का मौका मिल गया। गुजरात में बहादुरशाह के विरुद्ध चित्तौड़ की मदद न करना उसकी चौथी भूल थी, जिससे उसने राजपूतों की सहानुभूति और सहयोग प्राप्त करने का अवसर खो दिया। जिस प्रकार राजपूतों ने बाद में अकबर का साथ देकर मुगल साम्राज्य को दृढ़ता प्रदान की, उसी प्रकार हुमायूँ भी उनका साथ लेकर अपने साम्राज्य की रक्षा कर सकता था।

पाँचवाँ, गुजरात के शासक बहादुरशाह के विरुद्ध आक्रमण की योजना में अनेक भूलें रह गई थीं, जिनके कारण मालवा और गुजरात से ही उसे हाथ नहीं धोने पड़े, बल्कि इससे उसकी भावी असफलता, अवनति और प्रतिष्ठा के अन्त का संकेत भी प्राप्त हो गया। छठा, कन्नौज की लड़ाई में तो उसने भारी भूल की, जैसे कि सैनिक-शिविर के लिए नीचा स्थान चुना, डेढ़ महीने तक अकर्मण्य बने रहना, शिविर को दूसरे स्थान पर हटाते समय अच्छा प्रबन्ध न करना, तोपखाने का युद्ध में उपयोग न कर पाना आदि बातें उसकी असफलता, पराजय और अन्त में युद्ध क्षेत्र से उसके भागने के लिए भी उत्तरदायी बनी।।

(v) भाइयों के प्रति उदारता – यह सत्य है कि बाबर ने हुमायूँ को अपने भाइयों के प्रति उदार रहने का निर्देश दिया था। लेकिन जब उसे मालूम हो गया था कि उसके भाई उसके प्रति वफादार नहीं है, तब उसे अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना चाहिए था। लेकिन इसके बावजूद वह अपने भाइयों के प्रति उदार बना रहा। इसका परिणाम यह हुआ कि हिसार-फिरोजा और पंजाब जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र उसके हाथ से निकल गए और इन क्षेत्रों पर कामरान का अधिकार स्वीकार कर लिया। फिर भी कामरान के विरोधी रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया। अस्करी और हिन्दाल भी उसके प्रति वफादार नहीं रहे। उन्हें जब भी अवसर मिला उन्होंने हुमायूं के विरुद्ध विद्रोह कर स्वयं को सम्राट घोषित कर दिया। लेकिन हुमायूं बार-बार अपने भाइयों को माफ करता रहा। अपने भाइयों के प्रति अत्यधिक उदारता हुमायूँ की असफलता में सहायक सिद्ध हुई।।

(vi) शेर खाँ के प्रति नीति – हुमायूँ कभी भी शेर खाँ की शक्ति और योजना का सही आकलन नहीं कर पाया। वह उसको सदैव अक्षम एवं दुर्बल समझता रहा और शेर खाँ अपनी शक्ति को बढ़ाने में जुटा रहा। शेर खाँ की शक्ति का सही आकलन न कर पाने की हुमायूँ को भारी कीमत चुकानी पड़ी।

(vii) हुमायूँ की अपव्ययता – हुमायूँ को विरासत में रिक्त राजकोष मिला था, उस समय एक ऐसे अर्थ-विशेषज्ञ शासक की जरूरत थी, जो साम्राज्य की अर्थव्यवस्था को ठीक करता। लेकिन हुमायूं ने इस पक्ष की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। बाद में हुमायूँ को कालिंजर से युद्ध-क्षति के रूप में बहुत बड़ी धनराशि और चम्पानेर में गुजरात के शासकों का विशाल कोष मिला था, लेकिन उसने इस धन को बड़ी-बड़ी दावतें देने, आनन्द उत्सव मनाने, अपने अनुयायियों को पुरस्कार बाँटने और इमारतें बनाने में खर्च कर दिया। चम्पानेर से प्राप्त कोष को तो उसने खुले हाथों से खर्च किया। इससे साम्राज्य की
आर्थिक स्थिति और खराब हो गई।

(viii) भारतीय जनता का असहयोग – हुमायूँ को भारतीय जनता एक आक्रमणकारी मानती थी। हुमायूँ ने न तो कभी जनकल्याण की ओर ध्यान दिया और न ही जनता को अपनी ओर आकर्षित किया। रचनात्मक कार्यों के स्थान पर उसने साम्राज्यवादी नीति अपनाई जो जनता के असहयोग के कारण सफल न हो सकी।

(ix) हुमायूँ का दुर्भाग्य – हुमायूँ का अर्थ होता है- भाग्यशाली, लेकिन वास्तव में हुमायूँ अत्यन्त ही दुर्भाग्यशाली था। कदम कदम पर उसके भाग्य ने उसे धोखा दिया। यदि भाग्य ने उसका साथ दिया होता तो वह कभी पराजित न होता। कन्नौज के युद्ध में उसकी पराजय के विषय में डॉ० कानूनगो लिखते हैं कि ‘‘बादशाह का दुर्भाग्य था, जो असामयिक वर्षा के रूप में प्रकट हुआ और जिससे गर्मी के दिनों में उस शिविर में पानी घुस आया, यदि यह दुर्घटना न होती तो हुमायूँ अपने दुर्गम्य शिविर से नहीं हटता।”

(x) उचित नेतृत्व की योग्यता का अभाव – हुमायूँ में कुशल नेतृत्व का अभाव था। जहाँ तक सम्भव होता, वह कठिनाइयों को टालता जाता था। अपने दस वर्षों के राज्यकाल में उसने नेतृत्व शक्ति और अपने सैनिकों एवं अधिकारियों को नियन्त्रण में रखने की योग्यता का नितान्त अभाव प्रदर्शित किया। उसे न तो सैन्य संगठन का ज्ञान था और न ही सैन्य संचालन का। चौसा और कन्नौज के युद्ध में वह अपनी सेना पर कुशल नियन्त्रण न रख सका। उसे इस बात का भी ज्ञान नहीं था कि शत्रु पर कब और किस प्रकार आक्रमण करना चाहिए। शेर खाँ की दिन-प्रतिदिन बढ़ती शक्ति का ठीक अनुमान न लगा पाना और उसके खिलाफ कुशल नेतृत्व के साथ संघर्ष न करना उसकी असफलता के कारण थे। इस प्रकार हुमायूँ की असफलता के विभिन्न कारण बताए जाते हैं। इनसे स्पष्ट होता है कि हुमायूँ की विभिन्न दुर्बलताएँ और भूलें तथा इनके विपरीत शेर खाँ की योग्यता और उसका व्यक्तित्व हुमायूँ की असफलता के मुख्य कारण थे।

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