UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 4 Mughal Period: Jahangeer to Aurangzeb (मुगलकाल- जहाँगीर से औरंगजेब तक)

By | May 29, 2022

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 4 Mughal Period: Jahangeer to Aurangzeb (मुगलकाल- जहाँगीर से औरंगजेब तक)

UP Board Solutions for Class 12 History Chapter 4 Mughal Period: Jahangeer to Aurangzeb (मुगलकाल- जहाँगीर से औरंगजेब तक)

अभ्यास

प्रश्न 1.
निम्नलिखित तिथियों के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख कीजिए
1. 1605 ई०
2. 1627 ई०
3. 1628 ई०
4. 1657 ई०
5. 1707 ई०
उतर:
दी गई तिथियों के ऐतिहासिक महत्व के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या-87 पर तिथि सार का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 2.
सत्य या असत्य बताइए
उतर:
सत्य-असत्य प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 87 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 3.
बहुविकल्पीय प्रश्न
उतर:
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 88 का अवलोकन कीजिए।

प्रश्न 4.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
उतर:
अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर के लिए पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ संख्या- 88 व 89 का अवलोकन कीजिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“जहाँगीर में विरोधी गुणों का सम्मिश्रण था” विवेचना कीजिए।
उतर:
जहाँगीर का चरित्र एवं व्यक्तित्व अत्यन्त विवादास्पद था। कुछ इतिहासकार उसे लोकप्रिय तथा उदार शासक मानते हैं तो कुछ आलसी, निकम्मा, विलासी, धर्म-असहिष्णु तथा क्रूर व्यक्तित्व वाला। अनेक इतिहासकार उसे विरोधी गुणों का सम्मिश्रण मानते हैं। स्मिथ के अनुसार “जहाँगीर कोमलता और क्रुरता, न्याय तथा चंचलता, शिष्टता एवं बर्बरता, बुद्धिमत्ता एवं लड़कपन का अद्वितीय सम्मिश्रण था।” वस्तुत: व्यक्तित्व और शासक के रूप में जहाँगीर में अनेक गुण और दुर्बलताएँ थीं।

प्रश्न 2.
“जहाँगीर की दक्षिणी नीति का मूल्याकंन कीजिए।
उतर:
दक्षिण अभियानों में जहाँगीर पूर्णतया असफल रहा। नए दुर्गों के जीतने की बात तो दूर रही, पिता द्वारा विजित भू-भाग भी वह अपने अधीन न रख सका। जहाँगीर के समय में दक्षिण भारत की राजनीति पर मलिक अम्बर छाया हुआ था। उसकी मृत्यु के बाद ही अहमदनगर पर मुगलों का अधिकार हो सका।

प्रश्न 3.
नूरजहाँ के विषय में आप क्या जानते हैं?
उतर:
नूरजहाँ तेहरान के निवासी मिर्जा ग्यासबेग की पुत्री थी। उसका वास्तविक नाम महरुन्निसा था। महरुन्निसा का विवाह फारस के साहसी युवक अलीकुल बेग इस्तजलू के साथ हुआ। अलीकुल की हत्या के बाद महरुन्निसा ने जहाँगीर से विवाह कर लिया और उसे नूरमहल और नूरजहाँ की उपाधि मिली। नूरजहाँ ने मुगल राजनीति को प्रभावित ही नहीं किया था, अपितु स्वयं शासिका के रूप में प्रभावित हुई थी।

प्रश्न 4.
शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति का परीक्षण कीजिए।
उतर:
शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति पूर्णत: विफल रहीं। शाहजहाँ का बल्ख व बदख्शाँ को विजित करने का सपना पूरा न हो सका अपितु मुगल साम्राज्य पर इसके प्रतिकूल प्रभाव पड़े। शाहजहाँ की मध्य एशियाई विजय-योजना में अपार धन की हानि हुई। इन युद्धों में मुगल सेना का विनाश तथा असफलता के कारण मुगलों की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का पहुँचा साथ ही मुगलों तथा मध्य एशिया में मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का अन्त हो गया।

प्रश्न 5.
शाहजहाँ के काल में साहित्य और कला की क्या प्रगति हुई?
उतर:
शाहजहाँ के काल में साहित्य और कला उन्नति के उच्च शिखर पर थे। साहित्य और ललितकलाओं के दृष्टिकोण से शाहजहाँ का काल स्वर्णयुग कहलाने का अधिकारी है। ‘गंगाधर’ और ‘गंगालहरी’ के प्रसिद्ध लेखक जगन्नाथ पण्डित, शाहजहाँ के राजकवि थे। संस्कृत ग्रन्थों, भगवद्गीता, उपनिषद्, रामायण आदि का अनुवाद भी इसी काल में हुआ। शाहजहाँ द्वारा निर्मित दिल्ली का लालकिला, जामा मस्जिद, आगरा की मोती मस्जिद तथा आगरा की ही सर्वोत्कृष्ट कृति ताजमहल, शाहजहाँ के युग को स्वर्ण-युग प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं। शाहजहाँ का ‘मयूर सिंहासन’ जो बहुमूल्य पत्थरों से जड़ित था तथा जिसके बीचों-बीच विश्वप्रसिद्ध हीरा कोहिनूर जगमगाता था, उसके गौरव में चार चाँद लगाने के लिए पर्याप्त था।

प्रश्न 6.
शाहजहाँ द्वारा निर्मित चार प्रमुख इमारतों के बारे में लिखिए।
उतर:
शाहजहाँ द्वारा निर्मित चार प्रमुख इमारतें निम्नवत् हैं

  1. दिल्ली का लाल किला-शाहजहाँ ने आगरा और फतेहपुर सीकरी को छोड़कर दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया और यहाँ लाल पत्थरों से एक दुर्ग का निर्माण करवाया, जिसे लाल किला के नाम से जाना जाता है। इसके अन्दर की इमारतों में दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास प्रमुख हैं।
  2. जामा मस्जिद-लाल किले के सामने शाहजहाँ ने भारत की सबसे बड़ी मस्जिद का निर्माण कराया। इसमें दस हजार व्यक्ति सामुहिक रूप से नमाज अदा कर सकते हैं।
  3. मोती मस्जिद-आगरा के दुर्ग में शाहजहाँ ने शुद्ध संगमरमर से मस्जिद का निर्माण करवाया जो मोती मस्जिद के नाम से विख्यात है। यह संसार का सर्वोत्तम पूजा स्थल मानी जाती है।
  4. ताजमहल-शाहजहाँ की अमूल्य और सुन्दरतम कृति ताजमहल है। जो आगरा से यमुना नदी के तट पर संगमरमर से निर्मित है। ताजमहल का निर्माण उसने अपनी पत्नी मुमताज महल की स्मृति में बनवाया।

प्रश्न 7.
औरंगजेब ने हिन्दुओं के विरुद्ध कौन से कार्य किए?
उतर:
औरंगजेब ने हिन्दुओं को सरकारी नौकरियों से वंचित किया। हिन्दुओं के मंदिर और शिवालियों को तुड़वाकर मस्जिदें बनवा दी गई। सम्राट ने अनेक बार हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बना दिया। सिक्ख गुरु तेगबहादुर सिंह का इस्लाम स्वीकार न करने पर सिर कटवा दिया गया। दीपावली पर बाजारों में रोशनी करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। होली खेलने, मेलों तथा धार्मिक उत्सवों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। हिन्दुओं को धर्म-यात्रा पर भी कर देना पड़ता था।

प्रश्न 8.
औरंगजेब की असफलता के चार कारणों का उल्लेख कीजिए।
उतर:
औरंगजेब की असफलता के चार कारण निम्नवत हैं

  • धर्मान्धता एवं असहिष्णुतापूर्ण नीति
  • पुत्रों को शिक्षित न बनाने का संकल्प
  • शासन का केन्द्रीकरण ।
  • राजपूत विरोधी नीति

प्रश्न 9.
मुगलों के पतन के कारणों की व्याख्या कीजिए।
उतर:
मुगलों के पतन के प्रमुख कारण निम्नवत हैं

  1. औरंगजेब का उत्तरदायित्व
  2. औरंगजेब के अयोग्य उत्तराधिकारी
  3. मुगलों में उत्तराधिकार के नियम का अभाव
  4. मुगल सामन्तों का नैतिक पतन
  5. जागीरदारी संकट
  6. मुगलों की सैन्य दुर्बलताएँ
  7. बौद्धिक पतन
  8. मुगल साम्राज्य का आर्थिक दिवालियापन
  9. नौसेना का अभाव
  10. मुगल साम्राज्य की विशालता और मराठों का उत्कर्ष
  11. दरबार में गुटबाजी
  12. नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण
  13. यूरोपवासियों का आगमन

प्रश्न 10.
औरंगजेब राष्ट्रीय एकता में कहाँ तक बाधक था?
उतर:
औरंगजेब के कट्टरपन, शंकालु प्रवृत्ति, गैर-मुस्लिम नीति ने देश में राजनीतिक, गैर-वफादारी और वैमनस्य को हवा दी, इससे राष्ट्रीय एकता को गहरा आघात पहुँचा। औरंगजेब ने हिन्दू मन्दिरों, मठों को तुड़वाकर हिन्दू जाति से शत्रुता मोल ली। यह नीति उसके साम्राज्य निर्माण में बाधक थी। गैर-मुस्लिम नीति से वह भारत जैसे देश में कभी भी सफल संचालनकर्ता नहीं बन सकता था और ऐसा हुआ भी। उसकी इन नीतियों ने राष्ट्रीय एकता को खण्डित कर दिया और सम्पूर्ण राष्ट्र में अराजकता, अव्यवस्था फैल गई।

विस्तृत उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जहाँगीर के शासनकाल की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख करते हुए उसकी प्रमुख उपलब्धियों का विवेचन कीजिए।
उतर:
जहाँगीर के शासनकाल की प्रमुख घटनाएँ निम्नलिखित थीं
1. खुसरो का विद्रोह-जहाँगीर के बादशाह बनने के उपरान्त सबसे पहली महत्वपूर्ण घटना उसके पुत्र खुसरो का विद्रोह थी। उदारतापर्वक आरम्भ किए हए साम्राज्य पर यह प्रथम आघात था। खुसरो दरबार में बड़ा लोकप्रिय था शक्तिशाली, मधुर-भाषी तथा चरित्रवान राजकुमार था। अकबर का खुसरो पर विशेष प्रेम था तथा विलासी और मद्यप जहाँगीर से असन्तुष्ट उसके अनेक दरबारी भी खुसरो को ही उसका उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। खुसरो की महत्वाकांक्षा अभी समाप्त नहीं हुई थी और वह सिंहासन प्राप्त करने के लिए उत्सुक था। जहाँगीर भी खुसरो से असन्तुष्ट था तथा उसे विश्वासपात्र नहीं समझता था। जहाँगीर ने खुसरो को आगरा के दुर्ग में रहने दिया किन्तु उस पर कड़ा पहरा लगा दिया। खुसरो इस अपमान को सहन नहीं कर सका और 6 अप्रैल, 1606 ई० को अकबर के मकबरे के दर्शन करने के बहाने वह दुर्ग से बाहर निकल पड़ा तथा मथुरा के आस-पास के प्रदेशों को लूटता हुआ, पानीपत जा पहुँचा। उधर शाही सेनाएँ शेख फरीद के नेतृत्व में खुसरो को पराजित करने के लिए चल पड़ी।

पानीपत में लाहौर का दीवान अब्दुर्रहीम; खुसरो से आकर मिल गया। खुसरो ने उसे अपना वजीर नियुक्त किया और लाहौर की ओर बढ़ा। मार्ग में वह अमृतसर से कुछ किलोमीटर दूर तरनतारन में सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव की सेवा में उपस्थित हुआ। गुरु अर्जुनदेव ने उसे दो लाख रुपये की आर्थिक सहायता दी और अपना आशीर्वाद भी दिया। खुसरो लाहौर जा पहुँचा किन्तु वहाँ के सूबेदार दिलावर खाँ ने किले के फाटक बन्द कर लिए। इस पर खुसरो ने लाहौर दुर्ग का घेरा डाल दिया, किन्तु इसी समय उसे सूचना मिली कि बादशाह स्वयं लाहौर के निकट आ पहुँचा है। इस पर भयभीत होकर खुसरो उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों की ओर भागा। भैरोवल नामक स्थान पर पिता-पुत्र की सेनाओं में संघर्ष हुआ, जिसमें खुसरो की बुरी तरह पराजय हुई। सेना ने उसे पकड़ लिया तथा बन्दी बनाकर जहाँगीर के सम्मुख उपस्थित किया। जहाँगीर ने उसे कारावास में डलवा दिया तथा उसके सभी पक्षपातियों की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी।

सिक्खों के गुरु अर्जुनदेव को भी सम्राट ने दरबार में बुलवाया तथा उनसे खुसरो की सहायता करने का कारण पूछा। गुरु अर्जुनदेव ने उत्तर दिया- “सम्राट अकबर के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए ही मैंने राजकुमार की सहायता की थी, इसलिए नहीं कि वह तेरा सामना कर रहा था। किन्तु जहाँगीर ने उनकी सारी जागीर छीनकर उन्हें जेल में डाल दिया, जहाँ अनेक यातनाएँ देने के उपरान्त उसने उन्हें मरवा डाला। गुरु के इस कार्य से जहाँगीर अत्यन्त कुपित हुआ। उसने गुरु को दो लाख रुपया जुर्माना देने तथा गुरुग्रन्थसाहिब में से कुछ गीतों को निकालने की आज्ञा दी, जिसे गुरु ने ठुकरा दिया, जिसके फलस्वरूप उन्हें मृत्युदण्ड दिया गया। सम्राट का यह कार्य विवेकशून्य था। सिक्ख विचार परम्परा के अनुसार जहाँगीर ने अपने हठधर्म के आवेश में आकर ही यह दुष्कृत्य किया। सम्भवत: यह आरोप निराधार है परन्तु यह बात सत्य है कि गुरु के वध से सिक्खों और मुगलों के बीच भेदभाव उत्पन्न हो गए, जिसके परिणामस्वरूप औरंगजेब के समय में विद्रोह की आग भड़क उठी।

2. प्लेग का प्रकोप-1616 ई० में जहाँगीर के काल में भयंकर प्लेग का प्रकोप हुआ और उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक फैल गया। आगरा, लाहौर तथा कश्मीर में इसका विशेष प्रकोप था। जहाँगीर ने लिखा है कि यह बीमारी चूहों के द्वारा फैली थी। रोग का इलाज न हो सकने के कारण गाँव-के-गाँव तबाह हो गए। आठ वर्ष तक यह रोग चलता रहा तथा इससे भीषण जन-क्षति हुई। जहाँगीर के शासनकाल की प्रमुख उपलब्धियाँ- यद्यपि जहाँगीर में अकबर जैसी सैनिक प्रतिभा नहीं थी तथापि उसने कुछ सैनिक अभियान भी किए। उसके समय की सबसे प्रमुख घटना थी- मेवाड़ पर विजय एवं दक्षिण में सैनिक अभियान। जहाँगीर के समय में मुगलों को सैनिक क्षति भी उठानी पड़ी। कंधार उनके हाथों से निकल गया। जहाँगीर के प्रमुख विजय अभियान निम्नलिखित थे
(i) मेवाड़ विजय-अकबर ने अपने समय में मेवाड़ को जीतने का निरन्तर प्रयत्न किया था, परन्तु वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका। महाराणा प्रताप के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी महाराणा अमर सिंह ने भी अपने पिता की नीति को ही जारी रखा। अकबर के पश्चात् सलीम जब जहाँगीर के नाम से सम्राट बना तो वह मेवाड़ को जीतने के लिए लालायित हो उठा। 1605 ई० में ही जहाँगीर ने अपने द्वितीय पुत्र परवेज और आसफ खॉ जफरबेग के नेतृत्व में 20,000 अश्वारोहियों की एक सेना मेवाड़ विजय हेतु भेजी। देबारी की घाटी में युद्ध हुआ जो अनिर्णायक रहा। इसी बची खुसरो के विद्रोह के कारण परवेज को सेना सहित वापस बुला लिया। दो वर्ष पश्चात् 1608 ई० में महावत खाँ के नेतृत्व में एक सेना फिर मेवाड़ के लिए भेजी गई। लेकिन वह भी विशेष सफलता हासिल न कर सकी। जहाँगीर ने 1609 ई० में मेवाड़ का नेतृत्व अब्दुल्ला खाँ के सुपुर्द किया।

अब्दुल्ला खाँ अभियान भी मुगलों को सफलता नहीं दिला सका। 1611 ई० में मऊ का राजा बसु भी मेवाड़ में विफल रहा। अत: 7 सितम्बर, 1613 में जहाँगीर स्वयं शत्रु पर दबाव डालने के उद्देश्य से अजमेर पहुँचा। मेवाड़ के युद्ध के संचालन का भार अजीज कोका और शाहजादा खुर्रम को सौंपा गया। इन दोनों के आपसी सम्बन्ध कटु थे। अतः अजीज कोका को वापस बुला लिया गया। अब केवल खुर्रम पर आक्रमण का पूर्ण उत्तरदायित्व था। खुर्रम ने मेवाड़ में बर्बादी मचा दी। राणा का रसद पहुँचाना भी कठिन हो गया। बाध्य होकर अमर सिंह ने संधि करने का निर्णय लिया। राणा ने अपने मामा शुभकर्ण एवं विश्वासपात्र हरदास झाला को सन्धि के लिए भेजा। जहाँगीर ने भी राजपूतों से संधि करना स्वीकार किया और 1615 ई० में निम्नलिखित शर्तों पर मुगल व मेवाड़ में संधि हो गई

  • राणा ने सम्राट जहाँगीर की अधीनता स्वीकार की।
  • बदले में जहाँगीर ने चित्तौड़ के किले सहित मेवाड़ का समस्त भू-प्रदेश राणा को लौटा दिया। शर्त यह रखी कि चित्तौड़ के किले की मरम्मत व किलेबन्दी न की जाएगी।
  • राणा को सम्राट के दरबार में उपस्थित होने के लिए बाध्य नहीं किया गया। यह निश्चय हुआ कि राणा का युवराज कर्ण अपनी एक हजार सेना के साथ मुगल सम्राट की सेवा में रहेगा।
  • अन्य राजपूत नरेशों की भाँति राणा को मुगलों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए भी बाध्य नहीं किया गया।

इस प्रकार मेवाड़ और मुगलों का दीर्घकालीन संघर्ष समाप्त हुआ। कुछ लेखकों ने राणा अमरसिंह को अपने वंशानुगत शत्रु के समक्ष अपनी स्वाधीनता खो देने का दोषी ठहराया है। परन्तु यह आरोप सर्वथा निराधार है। मेवाड़ जैसी एक छोटी-सी रियासत के लिए साधन-सम्पन्न मुगल साम्राज्य से टक्कर लेना कहाँ तक सम्भव होता, उसे एक-न-एक दिन तो झुकना ही था। जैसा कि डॉ० ए०एल० श्रीवास्तव ने लिखा है कि “मेवाड़ परिस्थिति में शांति अपेक्षित थी और 1615 ई० की संधि में उसे वह शांति, सम्मान और गौरव के साथ मिली….. इस प्रकार संकटग्रस्त देश के लिए इतनी अपेक्षित शांति संग्रह के इस सुवर्ण अवसर को राणा अमरसिंह यदि उपयोग में न लाते तो यह अविवेकपूर्ण कार्य होता।’

(ii) बंगाल के विद्रोह का दमन-अकबर ने यद्यपि बंगाल विजय कर लिया था किन्तु अफगान शक्ति का वह पूर्णतया दमन नहीं कर सका था। अकबर की मृत्यु के उपरान्त 1612 ई० में अपने नेता उस्मान खाँ के नेतृत्व में उन्होंने पुन: विद्रोह किया। बंगाल के सूबेदार इस्लाम खाँ ने बड़ी वीरतापूर्वक शत्रुओं का सामना किया, फलस्वरूप युद्ध-भूमि में लड़ते-लड़ते उस्मान खाँ मारा गया। जहाँगीर ने पराजित अफगानों के साथ उदारता का व्यवहार किया तथा उन्हें अपनी सेना के उच्च पदों पर आसीन किया।

(iii) काँगड़ा विजय-उत्तर-पूर्व पंजाब में काँगड़ा की सुन्दर घाटी है जिस पर एक सुदृढ़ किला बना हुआ था। अकबर के समय में पंजाब के सूबेदार हसन कुली खाँ ने इसे जीतने का प्रयास किया था परन्तु वह असफल हुआ था। 1620 ई० में शाहजादा खुर्रम के नेतृत्व में राजा विक्रमाजीत ने इस किले का घेरा डाला और लगभग चार माह के घेरे के पश्चात् इस पर अधिकार कर लिया।

(iv) किश्तवार विजय (1622 ई०)- कश्मीर में किश्तवार एक छोटी-सी रियासत थी। यद्यपि कश्मीर मुगल साम्राज्य का अंग था, किन्तु किश्तवार में स्वतन्त्र हिन्दू राजा राज्य कर रहा था। जहाँगीर ने कश्मीर के सूबेदार दिलावर खाँ को किश्तवार विजय करने का आदेश दिया। यद्यपि हिन्दू वीरतापूर्वक लड़े किन्तु अन्त में उन्हें पराजित होना पड़ा और 1622 ई० में किश्तवार मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

(v) कंधार विजय-भारत के इतिहास में उत्तर-पश्चिमी सीमा का विशेष महत्त्व रहा है, क्योंकि प्राचीन काल से ही विदेशियों के आक्रमण सदैव इसी ओर से होते रहे। साथ ही कंधार प्राचीनकाल से व्यवसाय तथा व्यापार के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। मुगल सम्राट कंधार के प्रति विशेष रूप से सजग थे। बाबर ने सर्वप्रथम 1522 ई० में कंधार पर विजय प्राप्त की थी। उसकी मृत्यु तक कंधार मुगल साम्राज्य में था। हुमायूं के समय में कंधार पर उसके भाई कामरान का अधिकार रहा, जिसके दुष्परिणाम हुमायूँ को जीवनभर भुगतने पड़े।

ईरान के शाह ने हुमायूं की सहायता करने का वचन इस शर्त पर दिया था कि वह कंधार ईरान के हवाले कर देगा, किन्तु कंधार विजय करके हुमायूँ ने उसे ईरान के शाह को लौटाने में टालमटोल की और उसे अपने अधीन ही रखा। उसकी मृत्यु के पश्चात् 1558 ई० में कंधार पर ईरान ने अधिकार कर लिया। अकबर से भयभीत होकर 1564 ई० में कंधार अकबर को सौंप दिया गया था। अकबर की मृत्यु के उपरान्त ईरान के सम्राट शाह अब्बास ने 1606 ई० में कुछ ईरानियों को कंधार पर आक्रमण करने के लिए भेजा किन्तु मुगल सेनापति शाहबेग खाँ ने उन्हें भगा दिया। टर्की से युद्ध में फंसे रहने के कारण इस समय शाह अब्बास पूरी शक्ति के साथ मुगलों से युद्ध करने में असमर्थ था।

1622 ई० में सुअवसर देखकर शाह ने कंधार का घेरा डाल दिया। कंधार का मुगल सेनापति 45 दिन घेरे में रहने के बाद परास्त हुआ। जहाँगीर ने शहजादा परवेज को कंधार पर आक्रमण करने का आदेश दिया, किन्तु आसफ खाँ के हस्तक्षेप से यह स्थगित कर दिया गया। नूरजहाँ खुर्रम को राजधानी से दूर रखना चाहती थी इसलिए उसने जहाँगीर द्वारा खुर्रम को कंधार जाने की आज्ञा दिलवा दी। परन्तु खुर्रम इस समय राजधानी से दूर नहीं रहना चाहता था अतः उसने सम्राट की आज्ञा का पालन करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। दरबार के पड्यन्त्रों का लाभ ईरान के शाह अब्बास ने उठाया तथा कंधार पर अधिकार कर लिया। इससे मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा पर गहरा आघात पहुँचा। जहाँगीर कंधार को पुन: प्राप्त नहीं कर सका।

(vi) अहमदनगर विजय-जहाँगीर के समय में दक्षिण भारत की राजनीति पर मलिक अम्बर छाया हुआ था। मलिक अम्बर बुहत फुर्तीला, संगठनशील और सैनिक योग्यता प्राप्त सरदार था। वह अहमदनगर के उन समस्त प्रदेशों पर पुनः अधिकार करने का प्रयास कर रहा था, जिन्हें अकबर के समय में मुगलों ने अधिगृहित कर लिया था। अत: 1608 ई० में जहाँगीर ने अब्दुर्रहीम खानखाना के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी, परन्तु अब्दुर्रहीम खानखाना मलिक अम्बर के विरुद्ध कोई सफलता प्राप्त न कर सका। इसके पश्चात् खान-ए-जहाँ लोदी तथा अब्दुल्ला खाँ को मलिक अम्बर के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा, लेकिन इन दोनों को भी मलिक अम्बर ने पराजित कर दिया।

अत: निराश होकर जहाँगीर ने एक बार पुनः अब्दुर्रहीम खानखाना को भेजा। इस दूसरे अभियान में बहुत सीमा तक खानखाना ने अपने सम्मान की सफलतापूर्वक रक्षा की, लेकिन उस पर विरोधी पक्ष से घूस लेने का आरोप लगाया गया, जिसके कारण नूरजहाँ के परामर्श के अनुसार 1616 ई० के प्रारम्भ में अहमदनगर अभियान हेतु खानखाना की जगह खुर्रम को नियुक्त किया गया। खुर्रम की शक्ति से भयभीत होकर मलिक अम्बर ने सन्धि कर ली। जहाँगीर ने खुर्रम की सफलता से खुश होकर उसे शाहजहाँ’ की उपाधि प्रदान की। खुर्रम (शाहजहाँ) और मलिक अम्बर की सन्धि अधिक दिन तक नहीं चली। 1620 ई० में मलिक अम्बर ने सन्धि का उल्लंघन कर खोए हुए प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया। जहाँगीर को जब यह समाचार मिला तो उसने पुनः शाहजहाँ को अहमदनगर भेजा। शाहजहाँ ने मलिक अम्बर को सन्धि के लिए बाध्य किया। अन्त में 1626 ई० में मलिक अम्बर की मृत्यु के पश्चात् अहमदनगर पर मुगलों का अधिकार हो गया।

2. नूरजहाँ के मुगल राजनीति पर प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उतर:
नूरजहाँका मुगल राजनीति पर प्रभाव
1. राजनीति में नूरजहाँ का प्रवेश – मई 1611 ई० में जहाँगीर से नूरजहाँ ने विवाह कर लिया। विवाह के बाद जहाँगीर, जो
आरम्भ से ही विलासी प्रवृत्ति का था, और भी विलासिता में डूब गया तथा राज्य की सम्पूर्ण बागडोर उसने इस महत्वाकांक्षी महिला के हाथ में छोड़ दी। राज्य जहाँगीर के नाम पर चलता था किन्तु वास्तविक शासक नूरजहाँ थी। नूरजहाँ के शासनकाल को, डॉ० बेनी प्रसाद के अनुसार दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- प्रथम काल-1611 से 1622 ई० तक तथा द्वितीय काल-1622 से 1627 ई० तक।

(क) प्रथम काल (1611 से 1622 ई० तक) – नूरजहाँ के प्रभुत्व का प्रथम काल मुगल साम्राज्य के लिए लाभकारी सिद्ध हुआ। इस समय नूरजहाँ के गुट में दरबार के प्रभावशाली व्यक्ति सम्मिलित थे। स्त्री स्वभाव के अनुसार नूरजहाँ पक्षपात एवं गुटबन्दी की नीति की अनुयायी थी। इस काल में उसके गुट में उसका पिता ऐतमादुद्दौला, उसका भाई आसफ खाँ तथा शहजादा खुर्रम (आसफ खाँ का दामाद) सम्मिलित थे। यह गुट दरबार में सबसे प्रभावशाली था तथा 1611 से 1622 ई० तक राज्य की सम्पूर्ण बागडोर इस गुट के हाथ में रही थी।

(ख) द्वितीय काल (1622 से 1627 ई० तक) – नूरजहाँ के प्रभुत्व के प्रथम काल के समान, उसका द्वितीय काल गौरवपूर्ण व लाभकारी सिद्ध न हो सका। इसके विपरीत, यह काल षड्यन्त्रों, विद्रोहों तथा उपद्रवों का काल बन गया। इसका प्रमुख कारण नूरजहाँ की महत्वाकांक्षा थी। खुर्रम के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर नूरजहाँ उससे ईर्ष्या करने लगी थी तथा खुर्रम के विरुद्ध जहाँगीर के कान भरने लगी, परिणामस्वरूप खुर्रम ने बादशाह के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। नूरजहाँ को स्वामिभक्त सेवकों के प्रति भी संदेह रहता था तथा वह उनके उत्थान को भी सहन नहीं कर सकती थी। उसकी इस प्रवृत्ति के कारण ही महावत खाँ जैसे योग्य एवं स्वामिभक्त सेनापति को भी विद्रोह करने के लिए विवश होना पड़ा। इन दोनों विद्रोहों का परिणाम मुगल साम्राज्य के लिए बड़ा भयंकर तथा हानिकारक सिद्ध हुआ। अतः मुगल साम्राज्य षड्यन्त्रों, कुचक्रों तथा विद्रोहों का अड्डा बन गया। कंधार का मुगल हाथों से निकल जाना नूरजहाँ का सबसे हानिकारक परिणाम था।

2. राजनीतिक प्रभाव – राजनीतिक तथा शासन सम्बन्धी दृष्टिकोण से नूरजहाँ का मुगल साम्राज्य पर घातक प्रभाव पड़ा। 1611 से 1622 ई० तक वह अपने गुट का नेतृत्व करती रही। उसने अपने पक्षपातियों को उच्च-से-उच्च पद प्रदान किए तथा विरोधियों का विनाश किया। उसने योग्यता से अधिक रक्त-सम्बन्ध का ध्यान रखा तथा अपने पिता के परिवार को एक संगठित दल बना दिया। जब तक उसका पिता जीवित रहा, नूरजहाँ को सदैव उचित परामर्श देता रहता था। वह उसकी महत्वाकांक्षाओं को बढ़ने नहीं देता था, परन्तु 1622 ई० में अपने पिता एतमादुद्दौला की मृत्यु के उपरान्त नूरजहाँ पूर्णत: निरंकुश हो गई तथा उसने अपने अधिकारों का दुरुपयोग करना आरम्भ कर दिया।

नूरजहाँ अभी तक खुर्रम का पक्षपात करती आई थी, परन्तु जब नुरजहाँ ने शेर अफगन से उत्पन्न अपनी पुत्री लाडली बेगम का विवाह जहाँगीर के सबसे छोटे पुत्र शहरयार के साथ कर दिया तब खुर्रम के अनेक बार हिसार-फिरोजा की जागीर के लिए प्रार्थना-पत्र भेजने पर भी उसने यह जागीर शहरयार को दे दी। वास्तव में, नूरजहाँ शहरयार को जहाँगीर का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी, जिसका परिणाम खुर्रम के विद्रोह के रूप में प्रस्फुटित हुआ।

(क) खुर्रम का विद्रोह- जहाँगीर के चार पुत्र थे – खुसरो, परवेज, खुर्रम तथा शहरयार। खुसरो की मृत्यु के उपरान्त खुर्रम ही सबसे योग्य शहजादा था। शहरयार बिल्कुल अयोग्य तथा निकम्मा था तथा परवेज मद्यप एवं विलासी था। अतः सिंहासन के दो दावेदार थे- खुर्रम तथा शहरयार। खुर्रम ने अभी तक मुगल साम्राज्य की बड़ी सेवाएँ की थी। वह जहाँगीर का सबसे वीर तथा कुशल पुत्र था, किन्तु नूरजहाँ खुर्रम को अपने मार्ग का काँटा मानकर उसे मार्ग से हटाने के लिए उत्सुक थी। इसी समय ईरान के शाह ने कंधार पर अधिकार कर लिया। नुरजहाँ ने जहाँगीर से कहा कि कंधार विजय के अभियान का दायित्व खुर्रम को सौंप देना चाहिए परन्तु खुर्रम जानता था कि नूरजहाँ कंधार विजय के बहाने

उसे राजधानी से दूर हटा देना चाहती है, अत: उसने कंधार जाने से इनकार कर दिया। नूरजहाँ ने इसे सुअवसर मानकर जहाँगीर के कान भरने आरम्भ कर दिए कि खुर्रम विद्रोही है तथा उसने सम्राट की आज्ञा की अवहेलना की है। खुर्रम ने नूरजहाँ की इस नीति से कुपित होकर विद्रोह कर दिया। खुर्रम का यह सन्देह ठीक ही था कि उसकी अनुपस्थिति में शहरयार को उच्च पद दे दिए जाएंगे और उसे युद्ध-क्षेत्र में मरवा डाला जाएगा। डॉ० बेनी प्रसाद ने स्वीकार किया है कि शहजादा खुर्रम की अनुपस्थिति में, नूरजहाँ अवश्य अपने पशुतुल्य दामाद शहरयार को उन्नति देकर राजकुमार (शाहजहाँ) की स्थिति को नीचा कर देती। इसी डर के कारण खुर्रम को फारस वालों के विरुद्ध युद्ध न करके अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह करना पड़ा। इस प्रकार कंधार मुगल सम्राज्य से हमेशा के लिए निकल गया। इस हानि के लिए नूरजहाँ ही सबसे अधिक उत्तरदायी थी।

(ख) महावत खाँ का विद्रोह – खुर्रम के विद्रोह का दमन करके नूरजहाँ ने महावत खाँ की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने का प्रयास किया। खुर्रम के विद्रोह करने के पश्चात् स्वामिभक्त महावत खाँ, परवेज का पक्षपाती बन गया था। नूरजहाँ ने महावत खाँ को काबुल का सूबेदार नियुक्त करके काबुल भिजवा दिया और उसके स्थान पर खाने जहाँ लोदी को परवेज का वकील नियुक्त कर दिया। यद्यपि परवेज इस आज्ञा का उल्लंघन करने को तेयार था लेकिन महावत खाँ तुरन्त काबुल की ओर रवाना हो गया। यह पूर्णत: सत्य है कि महावत खाँ को विद्रोही बनाने के लिए नूरजहाँ उत्तरदायी थी। इस प्रकार जिस व्यक्ति को साम्राज्य के शत्रुओं के विरुद्ध प्रयुक्त किया जा सकता था, वह स्वयं शत्रु बन गया। इस विद्रोह ने मुगल साम्राज्य की जड़े हिला दीं।

3. जहाँगीर की मृत्यु – 1620 ई० से जहाँगीर का स्वास्थ्य निरन्तर खराब होता जा रहा था। निरन्तर कश्मीर की यात्राएँ और वहाँ की जलवायु भी उसके स्वास्थ्य को ठीक नहीं कर सकी थी। मार्च, 1627 में वह स्वास्थ्य लाभ के लिए फिर कश्मीर गया, लेकिन उसके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। अत: वह पुनः लाहौर की तरफ गया, किन्तु रास्ते में ही उसकी तबीयत खराब हो गई और 7 नवम्बर, 1627 को 58 वर्ष की आयु में भीमवार नामक स्थान पर जहाँगीर की मृत्यु हो गई। लाहौर के निकट शाहदरे के सुन्दर बाग में उसे दफना दिया गया, जहाँ नूरजहाँ ने एक सुन्दर मकबरा बनवाया।

प्रश्न 3.
शाहजहाँ के शासनकाल में मुगल स्थापत्य कला पर क्या प्रभाव पड़ा?
उतर:
शाहजहाँ के शासनकाल में मुगल स्थापत्य कला पर प्रभाव- शाहजहाँ एक ‘शानदार’ सम्राट था तथा उसे भवन निर्माण कला से विशेष अनुराग था। यद्यपि उसके काल में सभी ललित कलाओं तथा साहित्य का पोषण हुआ किन्तु भारत में भवननिर्माण-कला का जितना विकास उसके काल में हुआ उतना और कभी नहीं हुआ। यद्यपि अकबर के समय में भी अनेक कलाकतियों का निर्माण हुआ किन्त सौन्दर्य के दष्टिकोण से शाहजहाँ के समय की कला ने उसके महान पितामह के समय की कला को भी पीछे छोड़ दिया।

अकबर द्वारा परिश्रमपूर्वक स्थापित साम्राज्य का वास्तविक उपभोग शाहजहाँ ने ही किया। यद्यपि स्वर्ण-युग का आरम्भ जहाँगीर के काल में ही हो गया था किन्तु कला-क्षेत्र में जहाँगीर नहीं वरन् शाहजहाँ का काल स्वर्ण युग माना गया है। परन्तु अनेक विद्वानों में इसमें मतभेद भी हैं। उसके काल की कलाकृतियाँ आज भी उसके समय के गौरव का गान कर रही हैं। विद्वानों के मत में शाहजहाँ यदि और कुछ निर्मित न करवाकर केवल ताजमहल ही निर्मित करवा देता तब भी उसका काल कला का स्वर्ण-युग ही माना जाता। शाहजहाँ के शासन काल में मुगल स्थापत्य कला में योगदान निम्नलिखित है

1. ताजमहल – ताजमहल शाहजहाँ की अमूल्य तथा सुन्दरतम कृति है, जिसे आगरा में यमुना के तट पर सफेद संगमरमर से निर्मित किया गया। ताजमहल का निर्माण उसने अपनी प्रिय पत्नी मुमताजमहल की स्मृति में करवाया था तथा इसी सुन्दर मकबरे में मुमताजमहल को दफनाया गया था। अन्त में शाहजहाँ की कब्र भी यहीं (मुमताजमहल की कब्र के समीप) बनाई गई। तत्कालीन इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी के अनुसार- “ताजमहल 50 लाख रुपये से 12 वर्ष में बनकर तैयार हुआ था। 1631 ई० में मुमताज की मृत्यु हुई तथा उसके एक वर्ष पश्चात् ही उसका निर्माण कार्य प्रारम्भ हो गया था। ट्रेवेनियर के अनुसार- “इस इमारत (ताजमहल) पर तीन करोड़ रुपया व्यय हुआ तथा 1653 ई० में 22 वर्ष पश्चात यह बनकर तैयार हुई। 20,000 श्रमिकों ने प्रतिदिन इस भवन के निर्माण में योगदान दिया। आज भी ताजमहल संसार की आश्चर्यजनक कलाकृतियों में अपना उच्च स्थान रखता है।

2. मुसम्मन बुर्ज – आगरा के दुर्ग में बादशाह ने कई संगमरमर के भवन बनवाए, जो उसके हरम की स्त्रियों के लिए थे। जहाँआरा तथा रोशनआरा के निवास के लिए भी उसने भवन बनवाए। इन्हीं भवनों के पास उसने मुसम्मन बुर्ज का निर्माण कराया, जो शुद्ध संगमरमर द्वारा निर्मित है तथा बहुमूल्य पत्थरों से अलंकृत है। यहीं पर ताजमहल को देखते-देखते सम्राट ने अपने प्राण त्यागे थे। इसके अतिरिक्त झरोखा-दर्शन, दौलतखाना-ए-खास उसकी अन्य इमारतें हैं, जो उसने आगरा के दुर्ग में निर्मित करवाई। जहाँआरा के कहने पर उसने एक बड़ा चौक तथा उसमें लाल पत्थरों की जामा मस्जिद निर्मित करवाई, जो 1648 ई० में, पाँच वर्ष में निर्मित हुई।

3. मोती मस्जिद – आगरा के दुर्ग में बादशाह ने एक छोटी-सी मस्जिद का निर्माण करवाया, जो शुद्ध संगमरमर की बनी है। तथा मोती मस्जिद के नाम से विख्यात है, क्योंकि मोती के समान सफेद पत्थरों द्वारा इसका निर्माण हुआ था। यह मस्जिद अपनी सादगी एवं सौन्दर्य के लिए विख्यात है तथा विद्वानों के मत में यह संसार का सर्वोत्तम पूजा-स्थल मानी जाती है।

4. जामा मस्जिद – लाल किले के सामने शाहजहाँ ने जामा मस्जिद का निर्माण करवाया, जो भारत की सबसे बड़ी मस्जिद मानी जाती है। यह लाल पत्थर की बनी है तथा 6 वर्ष में इसका निर्माण किया गया था। मस्जिद के चारों ओर सीढ़ियाँ बनी हैं तथा इसमें दस हजार व्यक्ति सामूहिक रूप से नमाज पढ़ सकते हैं।

5. शाहजहाँनाबाद – शाहजहाँ ने आगरा तथा फतेहपुर सीकरी को छोड़कर दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया तथा यमुना के किनारे उसने एक नवीन दिल्ली नगर का निर्माण कराया, जिसे उसने शाहजहाँनाबाद नाम दिया। यहाँ का किला लाल पत्थर द्वारा निर्मित है। इसके अन्दर की इमारतों में दीवान-ए-आम (जो लाल पत्थर द्वारा निर्मित है) तथा दीवान-ए-खास प्रमुख हैं। दीवान-ए-खास शुद्ध संगमरमर का बना है, जिसकी छतों पर सोने का बहुमूल्य तथा सुन्दर काम किया गया है। दीवान-ए-खास को वास्तव में पृथ्वी का स्वर्ग कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें संगमरमर की बनी एक ऊँची चौकी पर ‘मयूर सिंहासन’ रखा रहता था, जिसे ‘तख्त-ए-ताउस’ कहा जाता था। यह बादशाह की एक अनुपम कृति थी। दिल्ली के लाल किले की अन्य इमारतों में रंगमहल, मुमताजमहल तथा सावन-भादों प्रमुख हैं। सावन-भादों में सम्राट सावन व भादों के महीनों में विहार करता था।

6. जहाँगीर का मकबरा – लाहौर से चार मील दूर शाहदरा में शाहजहाँ ने अपने पिता का छोटा किन्तु भव्य मकबरा निर्मित करवाया।

7. मयूर सिंहासन – सुन्दरतम कलाकृतियों में, जिनका निर्माण शाहजहाँ के काल में हुआ, मयूर सिंहासन का उच्च स्थान है। इस सिंहासन के निर्माण में 14 लाख रुपये का सोना खर्च हुआ। इसकी लम्बाई सवा-तीन गज, चौड़ाई दो गज तथा ऊँचाई 5 गज थी। इस सिंहासन में 12 स्तम्भ तथा जवाहरातों से निर्मित दो मोर थे। सात वर्ष में यह बनकर तैयार हुआ।

1739 ई० में नादिरशाह ने जब भारत पर आक्रमण किया तो वह इस बहुमूल्य सिंहासन को अपने साथ ले गया। उपर्युक्त महत्वपूर्ण भवनों के अतिरिक्त शाहजहाँ ने कुछ अन्य कलाकृतियों का भी निर्माण करवाया। दिल्ली मे उसने निजामुद्दीन औलिया का मकबरा बनवाया, जिसमें संगमरमर का भी प्रयोग किया गया है। अजमेर में उसने एक मस्जिद तथा एक सुन्दर मकबरे का निर्माण कराया, जो शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के पश्चिम की ओर स्थित है। शाहजहाँ को सुन्दर उद्यानों से भी विशेष प्रेम था। उसने अपनी सभी इमारतों में सुन्दर उद्यान बनवाए। कश्मीर के शालीमार बाग तथा चश्मेशाही और लाहौर के शालीमार बाग उसी की देन हैं।

प्रश्न 4.
शाहजहाँ का शासनकाल मुगल शासन का स्वर्ण-युग था, पर उसमें पतन के चिह्नन भी थे।” इस कथन की विस्तार पूर्वक व्याख्या कीजिए।
या
शाहजहाँ के शासनकाल के पक्ष व विपक्ष में तर्क प्रस्तुत कीजिए।
उतर:
शाहजहाँ का राज्यकाल स्वर्ण-युग था अथवा नहीं, इस पर सब विद्वान एकमत नहीं हैं। बादशाह के समकालीन इतिहासकारों तथा विदेशी यात्रियों ने इस युग को स्वर्ण-युग कहकर सम्बोधित किया है। अब्दुल हमीद लाहौरी, खाफी खाँ, ट्रेवेनियर, वूल्जले हेग, हण्टर, लेनपूल तथा एलपिन्सटन आदि इतिहासकार इस युग को शान्ति, समृद्धि तथा साहित्य एवं कला का स्वर्ण-युग मानते हैं। दूसरी ओर पीटरमण्डी, बर्नियर और स्मिथ ने शाहजहाँ के युग का दूसरा पक्ष लिया है, जो अन्धकारपूर्ण है तथा उस पक्ष को ध्यान में रखकर शाहजहाँ के काल को स्वर्ण-युग नहीं कहा जा सकता। इन इतिहासकारों का कथन है कि यद्यपि शाहजहाँ का दरबार, उसकी कलाकृतियों तथा साहित्य की उन्नति की चकाचौंध में कोई भी व्यक्ति उस काल को स्वर्ण-युग मान सकता है। किन्तु यदि उस चकाचौंध से हटकर साधारण जनता की स्थिति का अध्ययन किया जाए तो यह युग स्वर्ण-युग के स्थान पर अन्धकार का युग कहलाने योग्य है।

इस प्रकार शाहजहाँ के काल के विषय में विद्वानों के दो विरोधी मत हैं
शाहजहाँ का युग स्वर्ण-युग था – अधिकांश विद्वानों ने शाहजहाँ के युग को स्वर्ण-युग की संज्ञा दी है। इनका मत है कि अकबर द्वारा स्थापित सुदृढ़, शक्तिशाली तथा सुव्यवस्थित विशाल साम्राज्य में शान्तिकालीन समृद्धि तथा गौरव के फूल शाहजहाँ के काल में ही विकसित हुए। इस मत के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए गए हैं
1. शान्ति और सुव्यवस्था का युग – शाहजहाँ के काल में अन्य सभी मुगल सम्राटों की अपेक्षा शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित रही। उसके आरम्भिक काल के दो-तीन विद्रोहों के अतिरिक्त उसका सम्पूर्ण राज्यकाल शान्तिपूर्ण था। राजपूत अभी तक मुगलों की अधीनता स्वीकार करते थे तथा मुगल सम्राटों के स्वामिभक्त थे। दक्षिण के शिया राज्यों ने मुगल सम्राट का संरक्षण स्वीकार कर लिया था। शाहजहाँ का साम्राज्य काफी विशाल था। सिन्ध से असम तक तथा अफगानिस्तान से गोआ तक उसका राज्य विस्तृत था। शाहजहां के काल में 30 वर्ष तक भीषण युद्धों से देश सुरक्षित रहा। शाहजहाँ अपनी प्रजा का पुत्रवत् पालन करता था। चोर तथा डाकुओं से सड़कें सुरक्षित थीं। यात्रियों की सुख-सुविधा का पूर्ण ध्यान रखा जाता था। व्यापार उन्नत अवस्था में था तथा देश में चारों ओर सुख तथा शान्ति स्थापित थी। लेनपूल का मत है- “शाहजहाँ अपनी उदारता और कृपा के लिए प्रसिद्ध था और इसी कारण वह अपनी प्रजा का बड़ा प्रिय था।”

2. सड़कों की व्यवस्था- मुगल राजधानी को सड़कों द्वारा प्रान्तों से जोड़ दिया गया था। एक सड़क पूर्व दिशा की ओर बंगाल को तथा पश्चिम की ओर पेशावर तक जाती थी, एक अन्य सड़क राजपूताना होकर अहमदाबाद तक और वहाँ से दक्षिण को पहुँचती थी। एक अन्य सड़क मालवा से बुरहानपुर तक और वहाँ से दक्षिण को पहुँचती थी। इन सड़कों के दोनों ओर छायादार वृक्षों के अतिरिक्त सरायें बनवाई गई थी, जिससे यात्रियों को आवागमन की सुविधा प्राप्त हो गई थी। सड़कों की सुरक्षा की ओर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया गया था, जिससे व्यापारी और यात्री निडर होकर अपना-अपना कार्य करते रहें। चोर-डाकुओं से इन सड़कों की सुरक्षा-व्यवस्था के लिए ‘फौजदार’ नियुक्त होते थे।

शाहजहाँ ने मार्गों को सुरक्षित करने का यथासम्भव प्रयत्न किया। इसके लिए उसने जगह-जगह सरायें बनवा दीं और यात्रियों की सुविधा के लिए उन सरायों में उचित व्यवस्था कराई गई। मनूची लिखता है- “सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य में प्रत्येक मार्ग पर यात्रियों के लिए बहुत-सी-सरायें बनी हुई हैं। प्रत्येक सराय एक दुर्ग मालूम होती है क्योंकि प्रत्येक सराय के चारों ओर ऊंची-ऊँची दीवारें और बुर्ज हैं तथा बड़े-बड़े दरवाजे हैं। प्रत्येक सराय में हाकिम नियुक्त हैं, जो यात्रियों के सामान की सुरक्षा करवाते हैं और सामान सँभालने की चेतावनी देते हैं।”

3. समान न्याय का युग – शाहजहाँ न्यायप्रिय सम्राट था तथा न्याय के क्षेत्र में उसने अपने पूर्वजों की नीति का ही अनुसरण किया। वह अन्यायियों तथा अपराधियों को कठोर दण्ड देने में तथा निष्पक्ष न्याय करने में बिल्कुल नहीं हिचकता था। मनूची ने भी सम्राट की न्यायप्रियता की मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा की है। सर्वप्रधान न्यायाधीश स्वयं सम्राट होता था। सम्राट प्रारम्भिक मुकदमों तथा अपीलों दोनों को सुनता था। प्रान्तीय अदालतों के निर्णय की अपीलें भी सम्राट सुनता था। केन्द्र में न्याय हेतु सम्राट को सलाह देने के लिए ‘काजी-उल-कुजात’ और प्रान्तों में ‘काजी’ तथा ‘मीरअदल’ होते थे। शाहजहाँ राजद्रोहियों को बन्दी बनाकर ग्वालियर, रणथम्भौर और रोहतास इत्यादि दुर्गों में भेज देता था।

4. समृद्धि का युग – समृद्धि तथा गौरव के दृष्टिकोण से शाहजहाँ का काल, मुगलकाल के चरमोत्कर्ष का काल था। देश में शान्ति एवं सुव्यवस्था के कारण समृद्धि स्थापित हो चुकी थी। सूबों से केन्द्र सरकार को अत्यधिक आय होती थी। भूमि उपजाऊ होने के कारण भूमि-कर 45 करोड़ रुपये वार्षिक राजकोष में एकत्रित होता था। भूमि-कर के अतिरिक्त अन्य कर भी थे तथा आय, व्यय से कहीं अधिक होने के कारण राजकोष धन से भरा रहता था। नकद रुपयों के अतिरिक्त, बहुमूल्य पत्थर, हीरे, जवाहरात, मोती असंख्य संख्या में कोष में एकत्रित थे। मुर्शिद कुली खाँ के भूमि-सुधारों ने शाहजहाँ की भूमि-कर की आय, अकबर की आय से डेढ़ गुनी कर दी थी।

शाहजहाँ ने किसानों और कृषि की ओर ध्यान दिया था। उसने कश्मीर में बहुत-से अनुचित करों को समाप्त कर दिया। सिंचाई की समुचित व्यवस्था के लिए उसने नहरों के निर्माण कार्य को प्रोत्साहन प्रदान किया। जागीर-प्रथा को, जो अकबर के समय में हटा दी गई थी, शाहजहाँ ने पुनः आरम्भ किया। साम्राज्य का 7/10 भाग जागीरदारों के सुपुर्द कर दिया गया था और सरकारी लगान एक-तिहाई से बढ़ाकर उपज का आधा कर दिया गया था। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकारी आय तो बढ़ गई परन्तु किसानों को बहुत कष्ट हुआ।

खाफी खाँ लिखता है- “यद्यपि अकबर एक महान विजेता तथा नियम-निर्धारक था किन्तु राज्य की सीमाओं के सुप्रबन्ध तथा आर्थिक स्थिति और राज्य के विविध विभागों के सुशासन की दृष्टि से भारतवर्ष में शाहजहाँ के समकक्ष रखा जाने वाला अन्य कोई शासक नहीं हुआ।

5. व्यापार की उन्नति का युग – शाहजहाँ के काल में व्यापार की भारी उन्नति हुई। भारत तथा एशिया के विभिन्न भागों में व्यापारिक सम्पर्क स्थापित थे, जिससे भारत को अत्यधिक लाभ होता था। इस समय सुसंस्कृत अभिरुचि की वस्तुओं का निर्माण भारत में बहुतायत से होता था। कलमदान, शमादान, रेशमी वस्त्र, सती-ऊनी वस्त्र, कालीन, अफीम, लाख आदि अनेक वस्तुएँ बाहर जाती थीं, जिनके बदले में सोना भारत में आता था। बंगाल और बिहार में सूती कपड़े बनाने का इतना अधिक कार्य होता था कि ये प्रदेश ‘कपड़ों का देश के समान दृष्टिगोचर होते थे। कपड़े की रँगाई तथा छपाई का कार्य बहुतायत से होता था तथा भारत के बने कपड़े यूरोप में विलास की सामग्री समझे जाते थे।

6. प्रजा के साथ पितृ तुल्य व्यवहार – तत्कालीन विदेशी यात्रियों एवं इतिहासकारों का मत है कि शाहजहाँ अपनी प्रजा का पालन इस प्रकार करता था जैसे कोई पिता अपनी सन्तान का। शाहजहाँ यद्यपि ‘शानदार’ सम्राट था परन्तु वह कठोर परिश्रमी भी था तथा राज्य के कार्यो की वह स्वयं देखभाल करता था, जिसके कारण उसकी प्रजा सुख, शान्ति तथा समृद्धि का अनुभव करती थी। दुर्भिक्ष पीड़ितों की रक्षा के लिए किए गए बादशाह के प्रयत्न उसकी प्रजावत्सलता के ज्वलन्त प्रमाण हैं।

अब्दुल हमीद लाहौरी के कथनानुसार- “उसने सत्तर लाख रुपये का लगान माफ कर दिया तथा भोजनालयों में भूखों को मुफ्त भोजन की व्यवस्था की। बादशाह ने 50,000 रुपये अहमदाबाद में दुर्भिक्ष पीड़ित जनता में बाँटने की आज्ञा प्रदान की। उसने प्रजा के हित के लिए एक नहर का निर्माण करवाया तथा सिंचाई के लिए अन्य नहरें बनवाई।” लेनपूल ने लिखा है- “शाहजहाँ अपनी उदारता और दया के लिए विख्यात था और इसीलिए वह अपनी प्रजा का इतना अधिक प्रिय बन गया था।”

7. साहित्य तथा भवन-निर्माण कला – कला तथा अन्य ललितकलाओं की उन्नति का युग- शाहजहाँ का काल साहित्य तथा ललितकलाओं के दृष्टिकोण से पूर्णतया स्वर्ण-युग कहलाने का अधिकारी है। उसके विपक्षी भी उसके काल की कलाकृतियों को देखकर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते। शाहजहाँ द्वारा निर्मित दिल्ली (शाहजहानाबाद) का लाल किला तथा उसमें दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास, दिल्ली की जामा मस्जिद, आगरा की मोती मस्जिद तथा आगरा की ही सर्वोत्कृष्ट कृति ताजमहल, शाहजहाँ के युग को स्वर्ण-युग प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं। दिल्ली, लाहौर और कश्मीर के बगीचे, उसके पौधों, फूलों और नहरों के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करते हैं। इसके साथ ही अलीमर्दन खाँ 98 मील लम्बी रावी नहर काटकर लाहौर लाया और नहर-ए-शाहाब या पुरानी फिरोज नहर, जो मिट्टी से भर गई थी, को न केवल साफ किया गया, बल्कि नहर-ए-बहिश्त के नाम से इसे 60 मील से भी अधिक लम्बा कर दिया गया।

शाहजहाँ की सर्वश्रेष्ठ कृति आगरा में यमुना के तट पर बनी हुई ताजमहल नाम की इमारत है, जिसे उसने अपनी प्रिय पत्नी मुमताजमहल की स्मृति में बनवाया था, जिसकी मृत्यु 7 जून, 1631 ई० को बुरहानपुर में हुई थी। यह उसके दाम्पत्य-प्रेम कथा का अमर प्रतीक है। ताजमहल के अतिरिक्त उसके द्वारा निर्मित आगरा की अनेक इमारतें उसके अलंकृत स्वभाव एवं श्रेष्ठ अभिरुचि का परिचय देती हैं, जिनमें मोती मस्जिद, मुसम्मन बुर्ज आदि इमारतें अपना अद्वितीय स्थान रखती हैं। शाहजहाँ ने अपने कला-प्रेम के लिए अत्यधिक धन व्यय किया, जो उसकी समृद्धि, गौरव तथा शासन का सजीव प्रमाण है। जनता पर कर वृद्धि किए बिना ही सम्राट ने इतनी गौरवपूर्ण इमारतों का निर्माण करवाया।

(क) लेखन-कला – इस काल में चित्रकला की प्रगति के साथ-साथ लेखन-कला का भी काफी विकास हुआ। तत्कालीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के अवलोकन से यह प्रमाणित होता है कि शाहजहाँ के शासनकाल में लोग लेखन कला में कितने सिद्धहस्त थे। मुहम्मद मुराद शिरीन इस समय का कुशल हस्त-लेखक था।

(ख) चित्रकला – शाहजहाँ को स्थापत्य-कला के साथ-साथ चित्रकला का भी शौक था। सम्राट के अतिरिक्त आसफ खाँ व शहजादे दाराशिकोह को भी चित्रकला से बहुत प्रेम था। इस काल के प्रमुख चित्रकारों में मीर हाशिम, अनूपमित्र तथा चित्रमणि विशेष उल्लेखनीय हैं। इस काल के चित्रों में हस्तकौशल अधिक तथा शैली एवं भावों की विविधता कम पाई जाती है। इसके साथ ही इन चित्रों में स्वाभाविकता तथा मौलिकता का अभाव पाया जाता है।

(ग) कला की उन्नति – शाहजहाँ का ‘मयूर सिंहासन’ अथवा ‘तख्त-ए-ताऊस’ जो बहूमूल्य पत्थरों से जड़ित था तथा जिसके बीचों-बीच विश्वप्रसिद्ध हीरा कोहिनूर जगमगाता था उसके गौरव को चार चाँद लगा देने के लिए पर्याप्त था। मयूर सिंहासन इस काल की सुन्दर कृति थी।

(घ) संगीत कला – शाहजहाँ की संगीत में अत्यधिक अभिरुचि थी। वह स्वयं एक अच्छा संगीतज्ञ था और उसने अपने
दरबार में अनेक संगीतज्ञों को संरक्षण प्रदान किया था। उसके समय में वाद्य-कला के क्षेत्र में उन्नति हुई थी। सुखसेन, एयाज और सूरसेन बीन बजाने में पारंगत थे। शाहजहाँ का ध्रुपद राग के प्रति विशेष अनुराग था। लाल खाँ नामक संगीतकार ध्रुपद राग का विशेष गायक था। हिन्दू गायकों में जगन्नाथ को श्रेष्ठ स्थान प्राप्त था। वह एक उच्चकोटि का गायक था, जिसे सम्राट का कृपापात्र होने का सौभाग्य प्राप्त था।

(ङ) साहित्य – शाहजहाँ के शासन में साहित्य की भी बहुत उन्नति हुई थी। फारसी इस युग में राष्ट्रभाषा का स्थान रखती थी। इस समय फारसी दो शाखाओं में बंटी हुई थी। पहली शाखा विशुद्ध फारसी की थी और दूसरी शाखा भारतीय फारसी से सम्बन्धित थी। भारतीय फारसी भाषा के जन्मदाता अबुल फजल थे। इतिहास के अलावा काव्य-रचना भी इस काल में प्रमुख रूप से हुई। दरबारी इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी लिखता है कि गंगाधर तथा ‘गंगालहरी’ के प्रसिद्ध लेखक जगन्नाथ पण्डित, शाहजहाँ के राजकवि थे। कसीदों के लिखने का भी बहुत प्रचलन था। इस काल का एक महान शायर मिर्जा मुहम्मद अली था, जिसको ‘साहब’ का तखल्लुस प्राप्त था। गद्य साहित्य की भी उन्नति इस काल में बहुत हुई थी।

अनेक सुन्दर पत्र भी इस काल में लिखे गए थे। संस्कृत ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद शहजादा दारा के प्रोत्साहन से हुआ था। भगवद्गीता, उपनिषद् तथा रामायण आदि का अनुवाद भी इसी काल में हुआ। औषधिशास्त्र, खगोल विद्या तथा गणित की भी बहुत प्रगति हुई थी। अताउल्ला इस काल का बहुत बड़ा गणितज्ञ था और मुल्ला फरीद विख्यात खगोल विद्या विज्ञानी था। हिन्दी काव्य एवं साहित्य के विकास के प्रति शाहजहाँ उदासीन न रहा। सुन्दर श्रृंगार, सिंहासन बत्तीसी, और बारहमासा के रचयिता प्रसिद्ध कवि सुन्दरदास उपनाम के महाकवि ‘राय’ थे। हिन्दी के सामयिक सर्वश्रेष्ठ कवि चिन्तामणि भी सम्राट के विशेष कृपापात्र थे। संस्कृत और हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान कवीन्द्र आचार्य सरस्वती तथा उन्हीं की कोटि के अन्य संस्कृत
विद्वानों से शाहजहाँ का दरबार अलंकृत था।

स्वर्ण युग के विपक्ष में तर्क – जब हम शाहजहाँ के काल के दूसरे पक्ष का अध्ययन करते हैं तो स्वर्ण की यह जगमगाहट फीकी पड़ जाती है तथा यह सन्देह होने लगता है कि क्या वास्तव में शाहजहाँ का काल स्वर्णकाल कहलाने का अधिकारी है। शाहजहाँ के काल के अन्धकारपूर्ण पक्ष का समर्थन अनेक इतिहासकारों ने किया है, जिनमें स्मिथ प्रमुख हैं। इन इतिहासकारों के मत में यह युग कदापि स्वर्ण युग कहलाने का अधिकारी नहीं है। अपने मत की पुष्टि में इन विद्वानों ने निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किए हैं

1. भारी करों का भार – शाहजहाँ को भवन निर्माण में अत्यधिक रुचि थी। उसने बहुमूल्य भवनों का निर्माण करवाया। उसका शानदार दरबार भी बहुमूल्य वस्तुओं से सुसज्जित रहता था। उसकी इन अभिरुचियों पर अपार धन व्यय हुआ। इसके अतिरिक्त उसकी विजय योजनाएँ; विशेषकर मध्य एशियाई नीति भी भारी अपव्यय का कारण बनी। इतना धन व्यय करने के लिए उसे जनता पर कर अधिक बढ़ाने पड़े तथा उसके अपव्यय का अधिकांश भार दरिद्र जनता को वहन करना पड़ा। एलफिन्स्टन तथा लेनपूल के मत में जनता को शाहजहाँ की मूल्यवान अभिरुचि की पूर्ति के लिए अपने परिश्रम से अर्जित धन का त्याग करना पड़ा होगा।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि शाहजहाँ का युग दरिद्र जनता के लिए स्वर्ण युग के विपरित अन्धकार युग था उसका दमन किया जाता था, सरकारी कर्मचारी उसे लूटते थे तथा जबरन कठोर परिश्रम करने पर विवश करते थे। गाढ़े खून की कमाई उन्हें राजकर के रूप में दे देनी पड़ती थी तथा गरीब व्यक्ति अधिकांशतः भूखों मरते थे। ऐसे युग को स्वर्ण युग कहना कदापि उचित प्रतीत नहीं होता है।

2. शाहजहाँ की धार्मिक नीति- यद्यपि शाहजहाँ ने औरंगजेब के समान धार्मिक अत्याचार तो नहीं किए तथापि उसके काल में धार्मिक पक्षपात का युग आरम्भ हो गया था। अनेक हिन्दुओं को लालच देकर बलात् मुसलमान बनाया गया था। हिन्दुओं के अतिरिक्त ईसाई भी उसकी असहिष्णुता के शिकार बन गए थे। कट्टर सुन्नी होने के कारण शियाओं के साथ उसका व्यवहार सहानुभूतिपूर्ण न था। विधर्मियों के प्रति उसकी असहिष्णुता इस बात से प्रकट होती है कि शियाओं को उसके दरबार में उच्च स्थान प्राप्त न था।

3. शिया राज्यों का विरोध- बीजापुर तथा गोलकुण्डा के राज्यों को वह इसलिए नष्ट कर देना चाहता था कि वे शिया राज्य थे। यदि शाहजहाँ तथा औरंगजेब ने इन राज्यों को जीतने का प्रयास न किया होता तो ये राज्य मराठों के विरुद्ध मुगल सम्राटों के सहायक होते तथा मराठों का उत्कर्ष असम्भव हो गया होता। इस प्रकार शिया राज्यों के पतन तथा मराठों के उत्कर्ष में भी शाहजहाँ का योगदान रहा और कालान्तर में यह कारक मुगल साम्राज्य के पतन का कारण बना।

4. शासन-व्यवस्था में शिथिलता- यद्यपि शाहजहाँ के काल में अधिकांशतः शान्ति विद्यमान थी किन्तु कुछ सूबों में सूबेदारों के अत्याचारों के कारण जनता की स्थिति शोचनीय थी। कर्मचारी रिश्वत लेते थे तथा प्रजा पर अत्याचार करके अधिक धन वसूल करते थे क्योंकि उन्हें अपने अधिकारियों को उपहार और भेंट देने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती थी और वह धन जनता से ही प्राप्त किया जा सकता था। सम्राट शाहजहाँ स्वयं प्रजावत्सल तथा न्यायी सम्राट था।

परन्तु उसके काल में केन्द्र का अनुशासन ढीला पड़ने लगा था और प्रजा पर उसके कर्मचारियों द्वारा अत्याचार होते थे। शाहजहाँ के समय में बड़े-बड़े अमीरों का नैतिक एवं चारित्रिक पतन आरम्भ हो गया था जिससे उसकी सैन्य व्यवस्था का पतन हो गया था। उसके पास एक विशाल किन्तु अनुशासनहीन सेना थी जिसके कारण सेना पर अत्यधिक धन व्यय करके भी बादशाह अपनी विजय नीति में सर्वथा असफल रहा। उसके विलासी सैनिक तथा सेनापति मध्य एशिया एवं कंधार के दुर्गम प्रदेशों में रहने को प्रस्तुत नहीं थे। इसलिए सम्राट की मध्य एशियायी नीति असफल रही।

5. सामाजिक भेद-भाव – शाहजहाँ के काल में समाज के दो वर्गों- धनी वर्ग तथा निर्धन वर्ग- के मध्य एक भयंकर खाई उत्पन्न हो चुकी थी। कुछ लोग इतने धनी थे कि अपनी विलासिता पर वे मनमना धन व्यय कर सकते थे। दूसरी ओर, अधिकांश जनता भूख से व्याकुल थी। उनके पास न शरीर ढ़कने के लिए वस्त्र थे और न खाने के लिए अनाज। मिट्टी अथवा घास-फूस के झोंपड़े में निवास करने वाले ये दु:खी जन अथक परिश्रम करके भी अपने परिवार का भरण-पोषण करने में असमर्थ रहते थे। अमीरों की विलासिता को पूरा करने के लिए उन्हें अपनी आय का अधिकांश भाग कर के रूप में देना पड़ता था। सम्राट तथा उसके कर्मचारियों के अत्याचारों के कारण उनमें असन्तोष जाग्रत होने लगा था जिसका परिणाम औरंगजेब के काल में अनेक विद्रोहों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। शाहजहाँ के काल में समाज का पतन आरम्भ हो चुका था तथा सामाजिक दशा को ध्यान में रखते हुए इस युग को स्वर्ण युग कदापि नहीं कहा जा सकता।

6. आर्थिक पतन – शाहजहाँ के युग में बाह्य जगमगाहट तथा वैभव ही देखने को मिलता है। इस काल मे यद्यपि बाह्य देशों से (विशेषकर मध्य एशिया, पश्चिम तथा यूरोप) व्यापारिक सम्पर्क स्थापित थे जिनसे भारत को आर्थिक लाभ होता था तथा राजकोष धन से भरा हुआ था तथापित मुगलकाल की आर्थिक दशा का पतन शाहजहाँ के काल में आरम्भ हो जाता है।

7. शाहजहाँ का दुर्बल चरित्र – शाहजहाँ के चरित्र पर अनेक शंकाएँ प्रकट की गई हैं। बर्नियर तथा मनूची इत्यादि विद्वानों ने उसे अत्यन्त कामातुर, विलासी और पाशविक वृत्ति का मनुष्य सिद्ध किया है। शाहजहाँ के चरित्र में निम्नलिखित दोष थे

(क) अपव्ययी – शाहजहाँ ने अपने दाम्पत्य प्रेम की स्मृति में ताजमहल बनवाया था। विद्वानों का मत है कि इतना धन दूसरों की भलाई के कार्यों में भी खर्च किया जा सकता था। इसी प्रकार मयूर सिंहासन के निर्माण में भी बहुत-सा धन व्यय हुआ था। लेनपूल का विचार है कि उसके शौक पूरे करने के लिए बहुत अधिक धन असहाय जनता से वसूल किया गया था।

(ख) अत्याचारी-  शाहजहाँ के चरित्र पर अत्याचारी होने का आरोप भी लगाया जाता है। उसने अपने सिंहासनारोहण हेतु अपने भाइयों का निर्ममतापूर्ण वध भी कराया था। शाहजहाँ ने ईसाइयों तथा सिक्खों पर भी अत्याचार किए थे।

(ग) व्यभिचारी – शाहजहाँ के चरित्र का यह भी एक गम्भीर दोष था, जिसके कारण उस युग को स्वर्णयुग मानने में संशय होता है। उस पर परनारी गमन का दोष लगाया गया है। यद्यपि यह दोष तत्कालीन समाज के राजवंशों के अधिकांश पुरुषों में दृष्टिगोचर होता है।

शाहजहाँ के अपव्ययी स्वभाव, उसकी महत्त्वाकांक्षी विजय-योजनाएँ, ऐश्वर्याशाली भवन तथा गौरवपूर्ण दरबार ने उसके पूर्वजों द्वारा संचित धन का सफाया कर दिया तथा निम्न एवं मध्यम वर्ग को करों के भार से लाद दिया। बर्नियर लिखता है- “गरीबों को इतने अधिक कर देने पड़ते थे कि उनके पास बहुधा जीवन की अनिवार्य आवश्यताएँ पूरी करने योग्य भी धन नहीं बच पाता था।” इस आर्थिक पतन का आरम्भ शाहजहाँ के काल में हुआ तथा औरंगजेब के काल में पूर्ण आर्थिक पतन के कारण मुगल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया।

उपर्युक्त दो विरोधी विचारधाराएँ शाहजहाँ के युग के दो विरोधी पक्षों का प्रदर्शन करती हैं। कुछ विद्वानों के मत में शाहजहाँ का युग स्वर्णयुग था तथा कुछ विद्वान उसकी शासन-व्यवस्था के दोषों की ओर संकेत करते हैं। वास्तव में शाहजहाँ का काल मुगलकाल का स्वर्ण युग था। परन्तु चरमोत्कर्ष के उपरान्त पतन प्रकृति का शाश्वत नियम है; अतः उत्थान की अन्तिम सीढ़ी पर पहुँचकर शाहजहाँ के काल में ही मुगलकाल के पतन का बीजारोपण हो गया।

प्रश्न 5.
शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति के परिणामों की विवेचना कीजिए।
उतर:
शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति की सभी विद्वानों ने कटु आलोचना की है। कुछ के विचार में यह शाहजहाँ की महान भूल थी तथा कुछ इसे उसकी महत्त्वाकांक्षा का स्वप्नमात्र समझते हैं। यह नीति निरर्थक तथा असफल रही तथा मुगल साम्राज्य पर इसके घातक प्रभाव पड़े। शाहजहाँ की मध्य-एशियाई नीति के परिणाम निम्नलिखित हैं

1. अपार धन और जन की क्षति – शाहजहाँ की मध्य एशियाई विजय-योजना में अपार धन की क्षति हुई। केवल 2 वर्ष में 12 करोड़ रुपया व्यय हुआ, जिसका कारण राजकोष पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। इसके अतिरिक्त 500 सैनिक युद्धभूमि में खेत रहे तथा इसके दस गुने सैनिक बर्फ से ढके हुए कठिन मार्गों में खप गए। बल्ख के दुर्ग में एकत्रित पाँच लाख रुपये का अनाज तथा रसद का अन्य सामान शत्रुओं के हाथ चला गया। 50,000 रुपये नकद नजर मुहम्मद को तथा साढ़े बाईस हजार रुपये उसके राजदूत को भेंट में प्रदान किए गए। इसके बदले में एक इंच भूमि भी मुगलों को प्राप्त न हो सकी और न बल्ख की गद्दी पर शत्रु के स्थान पर कोई मित्र ही बिठाया जा सका।

2. मुगल प्रतिष्ठा को आघात- मध्य – एशियाई नीति की असफलता से मुगलों की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का पहुँचा। मुगलों का विजेता के रूप में डींग मारना बन्द हो गया और ईरानी वीरता, साहस तथा सैनिक शक्ति की प्रतिष्ठा बढ़ गई। परिणामस्वरूप उत्तर-पश्चिमी भागों में वर्षों तक ईरानियों का भय बना रहा तथा 18वीं शताब्दी में नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों ने मुगल साम्राज्य के पतन को और भी अधिक निकट ला दिया।

3. मुगल सेना का विनाश तथा पतन – इन युद्धों में मुगलों की सर्वोत्तम सेनाओं का विनाश हो गया। सैनिक दृष्टिकोण से इस नीति द्वारा मुगलों को अपार क्षति पहुँची। उनकी सैनिक दुर्बलता का लाभ उठाकर भारत में नई-नई शक्तियों का उत्थान तथा उपद्रव आरम्भ हुए, जिनके दमन में औरंगजेब को आजीवन संलग्न रहना पड़ा। शाहजहाँ को उत्तर-पश्चिम में व्यस्त देखकर दक्षिण में मराठों ने अपनी शक्ति का विकास आरम्भ कर दिया। धीरे-धीरे उनकी शक्ति बढ़ गई कि वह मुगल साम्राज्य का पतन का एक महत्त्वपूर्ण कारण बनी।

4. मुगलों तथा मध्य – एशिया के सम्राटों में मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का अन्त- शाहजहाँ की मध्य एशिया सम्बन्धी नीति से उजबेग मुगलों से नाराज हो गए तथा सदैव के लिए उनके शत्रु बन गए। मुगलों ने आक्सस नदी के तटीय प्रदेशों को अपने अधीन बनाना चाहा किन्तु उजबेगों में उत्पन्न राष्ट्रीय भावना के कारण मुगल अपने प्रयत्नों में सर्वथा असफल रहे। फलस्वरूप शाहजहाँ के जीवनकाल के बचे हुए दिनों में भारत और फारस के सम्बन्ध सदैव कटु बने रहे और मुगलों के आत्मबल को अपार क्षति पहुंची।

प्रश्न 6.
शाहजहाँ के काल में हुए उत्तराधिकार के युद्ध पर प्रकाश डालिए। इस युद्ध में औरंगजेब की सफलता के कारणों की भी विवेचना कीजिए।
उतर:
उत्तराधिकार के लिए युद्ध- शाहजहाँ के जीवनकाल में ही उत्तराधिकार के लिए उसके पुत्रों में युद्ध आरम्भ हो गए थे। शाहजहाँ भयंकर बीमारी से ग्रस्त हो गया। अत: दारा ने शाहजहाँ के बीमार पड़ने के उपरान्त राज्य कार्य का भार संभाला तथा वह चाहता था कि बादशाह की बीमारी का समाचार भाइयों को ज्ञात न हो। परन्तु बादशाह की बीमारी का समाचार छुप न सका तथा सर्वप्रथम बंगाल में स्थित शाहशजा ने अपने को सम्राट घोषित किया, क्योंकि सभी को बादशाह की मृत्यु का विश्वास हो चुका था। इसी प्रकार गुजरात में मुराद ने अपने नाम से खुतबा पढ़वाया तथा अपने नाम के सिक्के ढलवाए। दारा को इन दोनों भाइयों का इतना भय नहीं था जितना कि औरंगजेब का।

औरंगजेब को दरबार में घटित होने वाली घटनाओं की सम्पूर्ण सूचना रोशनआरा से मिलती रहती थी। उसने आगरा जाने वाले मार्ग को बन्द कर दिया, जिससे उसकी तैयारियों की सूचना किसी को प्राप्त न हो सके तथा मीर जुमला के साथ मिलकर उसने सैनिक शक्ति बढ़ानी आरम्भ कर दी। उसने सम्पूर्ण तैयारियों के उपरान्त बीजापुर और गोलकुण्डा के सुल्तानों से मैत्री स्थापित कर ली। शुजा अथवा मुराद के समान उसने स्वयं को बादशाह घोषित नहीं किया वरन् उसने घोषणा की कि वह तो पाक मुसलमान है तथा मक्का में एक दरवेश का जीवन व्यतीत करना चाहता है और मक्का जाने से पूर्व अपने पिता के दर्शन करने दिल्ली जा रहा है।

1. मुराद के साथ गठबन्धन – औरंगजेब अपने भाइयों में सबसे बुद्धिमान था। वह जानता था कि मुराद व्यसनी तथा मूर्ख है। और उसकी सहायता सरलता से प्राप्त की जा सकती है। सर्वप्रथम उसने मुराद के इस कार्य की निन्दा की कि उसने स्वयं को बादशाह घोषित करके सूरत पर अधिकार कर लिया है। औरंगजेब ने मुराद को पत्र लिखा कि जब तक शाहजहाँ की मृत्यु की सूचना नहीं मिलती, उसका यह कार्य सर्वथा निन्दनीय है। तदुपरान्त गुप्त रूप से दोनों भाइयों ने समझौता किया कि दारा को मार्ग से हटाने के उपरान्त ये दोनों परस्पर राज्य का विभाजन कर लेंगे, जिसके अनुसार कश्मीर, अफगानिस्तान, सिन्ध तथा पंजाब मुराद को मिलेगा तथा शेष साम्राज्य पर औरंगजेब का अधिकार होगा।

औरंगजेब ने तो यहाँ तक कहा कि उसे राज्य की कोई इच्छा नहीं, वह तो फकीर बनना चाहता है, किन्तु दारा के समान काफिर के हाथ में राज्य की बागड़ोर छोड़ने से इस्लाम के प्रति गद्दारी होगी इसलिए वह दारा से युद्ध करना अपना कर्तव्य समझता है। इन चापलूसी-भरी बातों में मुराद फँस गया तथा उज्जैन के निकट दीपालपुर में दोनों भाइयों ने मिलकर शपथ ली कि साम्राज्य को विभाजित कर लिया जाएगा और धरमत नामक स्थान पर दारा की सेनाओं का सामना करने का निश्चय करके उन्होंने सैन्यबल के साथ धरमत के लिए प्रस्थान किया।

2. बहादुरपुर का युद्ध (24फरवरी, 1658 ई०) – जिस समय मुराद तथा औरंगजेब दारा के विरुद्ध युद्ध की योजनाएँ बना रहे थे, शाहशुजा ने स्वयं को बादशाह घोषित किया तथा एक विशाल सेना के साथ दिल्ली की ओर बढ़ा। मार्ग में बिहार के अनेक प्रदेशों को रौंदता हुआ 24 जनवरी, 1658 ई० को वह बनारस पहुँच गया। दारा चाहता था कि औरंगजेब का सामना करने से पूर्व ही वह शाहशुजा का अन्त कर दे; अतः उसने सर्वप्रथम अपने पुत्र सुलेमान शिकोह तथा राजा जयसिंह के नेतृत्व में एक सेना भेजी। दोनों सेनाओं में 24 फरवरी को बनारस से लगभग पाँच मील दूर बहादुरपुर नामक स्थान पर भीषण संग्राम हुआ, जिसमें शुजा बुरी तरह पराजित हुआ तथा अपनी जान बचाने के लिए बंगाल की ओर भाग गया।

3. धरमत का युद्ध (15 अप्रैल, 1658 ई०) – शाहशुजा की ओर सेनाएँ भेजकर ही दारा चुप नहीं बैठा, उसने कासिम खाँ तथा राजा जसवन्त सिंह के नेतृत्व में दूसरी विशाल सेना मुराद तथा औरंगजेब से युद्ध करने के लिए भेज दी। दारा ने राजा जसवंत सिंह को आज्ञा देकर भेजा था कि वह प्रयत्न करके युद्ध के बिना ही दोनों शहजादों को उनके प्रान्तों में वापस भेज दे, किन्तु यह प्रयास विफल रहा। अन्त में धरमत नामक स्थान पर दोनों पक्षों में भयंकर संग्राम हुआ, किन्तु अन्त में राजा जसवन्त सिंह पराजित हो रणक्षेत्र छोड़कर भाग खड़ा हुआ।

दारा ने सुलेमान शिकोह को बिहार से बुला भेजा, किन्तु वह देर से पहुँचा। तब तक मुगलों की सेनाएँ पराजित हो चुकी थीं। औरंगजेब को इस विजय से बहुत प्रोत्साहन मिला तथा उसे बड़ी मात्रा में अस्त्र-शस्त्र एवं अपार धन प्राप्त हुआ। इस विजय से औरंगजेब के सम्मान और शक्ति में काफी वृद्धि हो गई। यहाँ पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में उसने एक छोटे-से-नगर फहेताबाद का निर्माण करवाया तथा चम्बल पार करके ग्वालियर की ओर बढ़ा। ग्वालियर के निकट सामूगढ़ के मैदान में उसने पुनः शाही फौजों से टक्कर लेने का निश्चय करके पड़ाव डाल दिया।

4. सामूगढ़ का युद्ध (29 मई, 1658 ई०) – इसी समय शाहजहाँ, जिसने आगरा से दिल्ली के लिए प्रस्थान कर दिया था, यह समाचार सुनकर वापस लौट आया। दारा औरंगजेब का पूर्ण विनाश करने की तैयारियों में संलग्न था। शाहजहाँ यह युद्ध नहीं चाहता था परन्तु वह दारा को रोकने में सर्वथा असमर्थ रहा। दारा 50,000 सैनिकों के साथ सामूगढ़ पहुँचा। दारा ने एक बड़ी भूल यह की कि अपने पुत्र सुलेमान शिकोह की प्रतीक्षा किए बिना ही वह आगरा से चल पड़ा। सुलेमान योग्य सेनापति था तथा शुजा को पराजित करके आगरा लौट रहा था।

दोनों भाइयों की सेनाओं में भीषण संघर्ष हुआ तथा औरंगजेब और मुराद बड़ी वीरतापूर्वक लड़े और शाही सेना का विनाश करने लगे। निराश होकर दारा अपना हाथी छोड़कर घोड़े पर सवार होकर लड़ने लगा। परन्तु उसके हाथी का हौदा खाली देखकर सैनिकों ने समझा कि दारा की मृत्यु हो गई और उसकी सेना में भगदड़ मच गई। औरंगजेब की पूर्ण विजय हुई तथा दारा की सेनाएँ भाग गई। अपनी इस पराजय से निराश होकर दारा तथा उसका पुत्र सुलेमान शिकोह आगरा की ओर बढ़े और रात्रि तक आगरा जा पहुँचे। औरंगजेब ने दारा के शिविर को लूटा तथा वहाँ से उसे काफी सम्पत्ति और बारूद प्राप्त हुई। मुराद इस युद्ध में घायल हो गया था। उसकी परिचर्या के लिए औरंगजेब ने कुशल जर्राह नियुक्त किए तथा उसे गद्दी प्राप्त करने की बधाई दी।

सामूगढ़ के युद्ध का अत्यधिक महत्त्व है। स्मिथ के अनुसार- “सामूगढ़ के युद्ध ने उत्तराधिकार के युद्ध का निर्णय कर दिया। इस युद्ध से लेकर शुजा की मृत्यु तक की घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि औरंगजेब शाहजहाँ का सबसे योग्य पुत्र तथा सिंहासन का वास्तविक अधिकारी है।”

5. औरंगजेब तथा मुराद का आगरा आगमन- सामूगढ़ के युद्ध में विजय प्राप्त करके साहस तथा उत्साह से भरे हुए। औरंगजेब और मुराद आगरा की ओर चल पड़े तथा नूर-ए-बाग नामक उद्यान में, जो आगरा के निकट ही था, उन्होंने पड़ाव डाल दिया। इस समय तक पराजित दारा के अधिकांश पक्षपातियों ने उसका साथ छोड़कर विजेता औरंगजेब का साथ देना आरम्भ कर दिया था तथा उससे क्षमा माँग ली थी। औरंगजेब ने उन्हें अपनी ओर मिलाकर शाहजहाँ से इस भीषण युद्ध के लिए क्षमा माँगी तथा साथ-ही-साथ दारा पर इस युद्ध का उत्तरदायित्व डाल दिया। शाहजहाँ ने आलमगीर नामक एक तलवार औरंगजेब के पास भेजी तथा उससे मिलने की इच्छा प्रकट की परन्तु औरंगजेब के मित्रों ने उसे परामर्श दिया कि वह शाहजहाँ को बन्दी बना ले। औरंगजेब को यह सलाह पसन्द आई।

6. शाहजहाँ का बन्दी बनाया जाना – औरंगजेब ने मुराद को आगरा के दुर्ग पर अधिकार करने के लिए भेजा। मुराद ने यमुना का पानी दुर्ग में जाने का मार्ग बन्द कर दिया। दुर्ग में स्थित सैनिकों ने थोड़ा-बहुत युद्ध किया परन्तु पानी के अभाव के कारण उन्होंने पराजय स्वीकार कर ली। औरंगजेब के हाथों शाहजहाँ द्वारा दारा को लिखा एक पत्र पड़ गया, जिसमें लिखा था कि वह दिल्ली के दुर्ग की सुरक्षा का पूर्ण प्रबन्ध रखे।

यह पत्र पढ़कर औरंगजेब का सन्देह पक्का हो गया कि बादशाह उसे धोखा देना चाहता है; अतः उसने बादशाह को बन्दी बनाकर आगरा के दुर्ग में स्थित मोती मस्जिद की एक छोटी-सी कोठरी में भेज दिया, जहाँ हिन्दुस्तान के शानदार बादशाह ने अपने जीवन के अन्तिम आठ वर्ष बड़े दु:ख एवं कष्ट में व्यतीत किए। अन्त में 22 जनवरी, 1666 ई० को उसकी मृत्यु के साथ ही उसके कष्टों का अन्त हो गया। मृत्यु के उपरान्त ताजमहल में मुमताजमहल की कब्र के निकट ही शाहजहाँ को भी दफना दिया गया।

7. मुराद का अन्त – शाहजहाँ को बन्दी बनाने के उपरान्त औरंगजेब राज्य का वास्तविक शासक बन बैठा था। वह दरबार में सिंहासन पर बैठता था तथा समस्त अमीर उसे अपना बादशाह मानते थे। जब मुराद को औरंगजेब की वास्तविक इच्छा का पता लगा तो उसने गड़बड़ करने का प्रयास किया, परन्तु औरंगजेब के सम्मुख मुराद जैसे मूर्ख को सफलता मिलनी असम्भव थी। औरंगजेब ने उसे मथुरा में भोजन के लिए आमन्त्रित किया तथा बढ़िया खाने और शराब के अत्यधिक सेवन से मुराद संज्ञाहीन होकर अपने भाई के हाथों बन्दी बना लिया गया। मुराद ने विरोध किया तथा औरंगजेब को उसकी शपथ याद दिलवाई, परन्तु औरंगजेब पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा। यहाँ से मुराद को ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया गया तथा अपने दीवान अली नकी की हत्या के आरोप में उसे प्राणदण्ड दे दिया गया। 4 दिसम्बर, 1661 ई० को इस अभागे शहजादे ने बन्दीगृह में दम तोड़ दिया। वहीं दुर्ग में उसके शव को दफना दिया गया। इस प्रकार अपने विरोधियों का औरंगजेब ने एक-एक करके सफाया करना आरम्भ कर दिया।

8. दारा का अन्तिम प्रयास – देवराई का युद्ध तथा दारा का अन्त- सामूगढ़ के युद्ध के पश्चात दारा आगरा से दिल्ली की ओर चला गया था, जहाँ का राजकोष तथा दुर्ग उसके हाथ में था। परन्तु आगरा विजय से औरंगजेब की शक्ति अत्यधिक बढ़ गई तथा उसके पास धन और सेना का भी अभाव नही था; अत: उससे भयभीत दारा दिल्ली छोड़कर अपनी प्राणरक्षा के लिए पंजाब की ओर भाग गया। परन्तु औरंगजेब की सेना निरन्तर दारा का पीछा करती रही। इस समय दारा के मित्र भी उसके शत्रु हो गए थे तथा उन्होंने औरंगजेब का साथ देना आरम्भ कर दिया था। औरंगजेब ने राजा जसवन्त सिंह को भी प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया तथा अपनी प्रतिज्ञा भूलकर जसवन्त सिंह ने दारा को अकेला छोड़ दिया। अहमदाबाद के सूबेदार ने 20,000 सैनिकों से दारा की सहायता की तथा एक बार पुन: अपना भाग्य आजमाने के लिए दारा ने प्रयास किया। देवराई के दरें के ऊपर दारा तथा औरंगजेब की सेनाओं में अन्तिम मुठभेड़ हुई जिसमें दारा पुनः पराजित हुआ।

औरंगजेब दारा को पूर्णत: समाप्त करना चाहता था; अतः उसने दारा का पीछा किया। वहाँ से भागकर दारा मुल्तान होता हुआ मक्कर की ओर भाग गया और अन्त में वह दादर पहुँचा तथा वहाँ के बलूची सरदार मलिक जीवन खाँ से शरण माँगी, जिसे एक बार उसने प्राणदण्ड से बचाया था। परन्तु दारा के दुर्भाग्य ने उसका पीछा न छोड़ा। यहीं पर उसकी प्रिय पत्नी नादिरा बेगम की मृत्यु हो गई। उसकी अन्तिम इच्छा के अनुसार लाहौर में उसका शव दफना दिया गया। बलूची सरदार ने दारा की सहायता करने के बजाए उससे विश्वासघात किया तथा उसे औरंगजेब के सेनापति के हाथों सौंप दिया।

इस प्रकार 23 अगस्त, 1659 ई० को दारा और उसका पुत्र बन्दी के रूप में औरंगजेब के सम्मुख उपस्थित किए गए। दारा की यह दशा देखकर निर्दयी-से-निर्दयी व्यक्ति की आँखों में भी पानी भर आया। शाहजहाँ का सबसे प्रिय तथा विद्वान पुत्र धूल-धूसरित दशा में दरबार में उपस्थित था। दारा पर औरंगजेब ने काफिर होने का आरोप लगाया तथा उसके इशारे पर यह आरोप दरबार में सिद्ध कर दिया गया। औरंगजेब ने उसे तथा उसके पुत्र को एक हाथी पर बैठाकर सारे नगर में घुमाया और फिर उनकी हत्या करवा दी।

9. सुलेमान शिकोह का अन्त – दारा का पुत्र सुलेमान शिकोह शुजा से युद्ध करने गया हुआ था। इसी बीच दारा को औरंगजेब के साथ युद्ध करने के लिए जाना पड़ा। धरमत के युद्ध का समाचार सुनकर ही वह दिल्ली के लिए रवाना हो गया था, परन्तु मार्ग में कड़ा में उसे सामूगढ़ की पराजय का समाचार मिला। सुलेमान शिकोह ने अपने सेनापतियों को अपने पिता की सहायता करने के लिए कहा, किन्तु राजा जयसिंह ने स्पष्ट इन्कार कर दिया कि वह पराजित शहजादे की सहायता नहीं कर सकता; अत: सुलेमान इलाहाबाद से लखनऊ होता हुआ हरिद्वार तथा फिर पंजाब में अपने पिता की सहायता के लिए गया, किन्तु शाइस्ता खाँ उसका पीछा कर रहा था,

जिसने सुलेमान को गढ़वाल की ओर जाने के लिए बाध्य किया, जहाँ उसने एक हिन्दू सरदार के यहाँ शरण प्राप्त की। औरंगजेब ने, जो इस समय तक अन्य शत्रुओं का सफाया कर चुका था, सुलेमान शिकोह को समाप्त करने का प्रयास किया। सुलेमान ने लद्दाख की ओर भागने का प्रयास किया परन्तु शाही सेनाओं ने उसे पकड़कर बन्दी बना लिया और दिल्ली के सम्राट के सम्मुख उपस्थित किया। उसे ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया गया तथा उसको भोजन में पोस्ता मिलाकर दिया जाने लगा, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।

10. शुजा का अन्त – अब औरंगजेब का एकमात्र शत्रु शुजा ही रह गया था। औरंगजेब ने अपने अभिषेक के उपरान्त शुजा को एक पत्र लिखा कि वह दारा से निपट ले, उसके बाद शुजा जो माँगेगा उसे वही मिलेगा। परन्तु शुजा अपने भाई को अच्छी तरह जानता था; अतः उसने युद्ध की तैयारी प्रारम्भ कर दी और जनवरी 1659 ई० में खजवा नामक स्थान पर दोनों पक्षों की सेनाओं में भीषण संघर्ष हुआ, जिसमें शुजा बुरी तरह पराजित हुआ तथा उसकी सेना का विनाश हो गया। शुजा निराश होकर पहले बंगाल और फिर अराकान की पहाड़ियों की ओर भागा। वहाँ पर उसने यहाँ के शासक को गद्दी से उतारने का पड्यन्त्र रचा, जिससे क्रुद्ध होकर अराकानवासियों ने उसकी हत्या कर डाली। इस प्रकार औरंगजेब के इस अन्तिम शत्रु का भी अन्त हो गया तथा उसने निष्कण्टक राज्य आरम्भ किया। जीवन के अन्तिम समय 1707 ई० तक औरंगजेब भारत का सम्राट बना रहा।

औरंगजेब की सफलता के कारण – लगभग दो वर्षों तक चले इस उत्तराधिकार के युद्ध में औरंगजेब को विजयश्री मिली। सामूगढ़ के युद्ध ने ही यह सिद्ध कर दिया था कि औरंगजेब ही मुगल साम्राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी है। कुछ विशेष कारण जो औरंगजेब की सफलता के आधार बने, निम्नलिखित हैं

1. शाहजहाँ का कमजोर प्रवृत्ति का होना – हालाँकि शाहजहाँ एक वीर व साहसी बादशाह था परन्तु उत्तराधिकारी चुनने के मामले में वह दुर्बल शासक सिद्ध हुआ। उसकी यह कमजोर प्रवृत्ति उसके वीर, विद्वान व साहसी पुत्रों की मृत्यु का कारण बनी। औरंगजेब ने अपनी राह के काँटे अपने सभी भाइयों का एक-एक करके सफाया कर दिया। रोगग्रस्त बादशाह ने दारा को समस्त राज्य-कार्यों का कार्यभार सौंपकर एक बड़ी भूल की थी। इससे उसके अन्य पुत्र नाराज हो गए। बादशाह ने अपनी समस्त शक्ति का उपयोग नहीं किया और उसके पुत्र आपस में लड़ते रहे।

2. औरंगजेब की सैन्य क्षमता – औरंगजेब महत्वाकांक्षी युवक था। वह सैन्य कुशलता में अपने सभी भाइयों की अपेक्षा श्रेष्ठ था। उसने अपने पिता के शासनकाल में अनेक बार अपनी सैनिक प्रतिभा का परिचय दिया था। उसने कूटनीति से अपने वीर परन्तु मूर्ख भाई मुराद को अपनी ओर मिला लिया और अपने अन्य भाईयों के विरुद्ध उसकी वीरता का फायदा उठाया। औरंगजेब योग्य सेनापति व कुशल राजनीतिज्ञ था। उसने दारा के विरुद्ध अपनी मुस्लिम सेना को भड़का दिया कि दारा एक काफिर है, वह इस्लाम को नहीं मानता। उसकी इस नीति से मुगल सेना के साथ-साथ अन्य मुस्लिम दरबारी भी दारा के विरुद्ध हो गए। औरंगजेब का सैन्य संचालन भी दारा के विपरीत अत्यन्त कुशल था। उसके तोपखाने की गोलीबारी ने दारा को भयभीत कर दिया। अन्तत: दारा पराजित हो गया।

3. दारा की भयंकर भूलें – दारा ने कुछ भयंकर भूलें भी कीं, जिसका परिणाम उसकी पराजय के रूप में परिणत हुआ। धरमत के युद्ध के पश्चात उसने अपने पुत्र सुलेमान शिकोह, जो एक कुशल सेना नायक था, की प्रतीक्षा नहीं की और अकेला युद्ध के लिए निकल पड़ा। उसकी दूसरी भूल सामूगढ़ के युद्ध में औरंगजेब की सेना को विश्राम करने का अवसर देना थी। यद्धभूमि में घायल हाथी के हौदे को छोड़कर घोड़े पर सवार होना भी उसकी एक अन्य भल थी, जिससे उसकी सेना उसे मृत मानकर भाग खड़ी हुई। ये सभी भूलें दारा की सैनिक क्षमता की कमजोरियों को सिद्ध करती हैं, जिसका भरपूर लाभ औरंगजेब ने उठाया।

4. औरंगजेब का कट्टरपन व दारा की उदारता – औरंगजेब कट्टर सुन्नी मुसलमान था और उस समय अधिकांश देशों में धर्मान्धता की अधिकता थी। भारत के अधिकतर मुसलमान भी धर्मान्ध थे। अत: औरंगजेब ने इस धर्मान्धता का लाभ उठाया और धर्म-सहिष्णु दारा के विरुद्ध सभी मुसलमानों को भड़का दिया। अत: औरंगजेब समस्त मुस्लिम वर्ग का पक्षपाती बन गया। वे उसे ही अपना बादशाह मानने लगे और दारा, जो कि सभी धर्मों का आदर करता था, को काफिर मानने लगे तथा उससे घृणा करने लगे, जिसका औरंगजेब ने भरपूर फायदा उठाया।

प्रश्न 7.
औरंगजेब के चरित्र का मूल्यांकन कीजिए। मुगल साम्राज्य के पतन के लिए वह किस प्रकार उत्तरदायी था?
उतर:
औरंगजेब के चरित्र का मूल्यांकन
लेनपूल के अनुसार – “औरंगजेब को अपने जीवन में भयंकर असफलता देखनी पड़ी, परन्तु उसकी असफलता बड़ी शानदार थी। उसने अपनी आत्मा को समस्त संसार के विरुद्ध खड़ा कर दिया और अन्त में संसार को विजय प्राप्त हुई। उसने अपने लिए कर्तव्य का एक मार्ग निश्चित किया और यह मार्ग व्यावहारिक था अथवा नहीं इसकी चिन्ता किए बिना वह उस पर दृढ़तापूर्वक अग्रसर होता गया।”

खाफी खाँ ने औरंगजेब का मूल्यांकन करते हुए लिखा है – “तैमूर के वंशजों में ही नहीं वरन् सिकन्दर लोदी के पश्चात् दिल्ली के सभी शासकों में ऐसा कोई नहीं हुआ, जिसमें इतनी भक्ति, तपस्या तथा न्याय की भावना हो। साहस, सहनशीलता तथा ठोस निर्णयात्मक बुद्धि में कोई औरंगजेब की समता नहीं कर सकता था। किन्तु उसे शरा (नियम, कानून) में अत्यधिक श्रद्धा थी इसलिए वह दण्ड का प्रयोग नहीं करता था और बिना दण्ड के किसी देश की प्रशासन-व्यवस्था कायम नहीं रखी जा सकती। प्रत्येक योजना जो वह बनाता, निरर्थक सिद्ध होती और जो भी साहसिक कार्य वह अपने हाथों में लेता, उसके कार्यान्वित होने में बड़ी देर लगती और अन्त में उसका उद्देश्य पूरा न होता।”

प्रो० जे०एन० सरकार तथा के०के० दत्त के अनुसार – “औरंगजेब में बहुत-से उत्तम गुण थे, परन्तु वह एक सफल शासक न था। वह एक चतुर कूटनीतिज्ञ था, परन्तु कुशल राजनीतिज्ञ न था। सारांश यह है कि उसमें वह राजनीतिक प्रतिभा न थी, जो मुगल सम्राटों में केवल अकबर में पाई जाती है, जिसमें नई नीति को चलाने तथा ऐसे कानून बनाने की क्षमता थी, जो उस काम के तथा भावी पीढ़ी के जीवन तथा विचारों को बदल सकते थे।

राय चौधरी और आर०सी० मजूमदार के अनुसार – “अपनी शक्ति तथा चरित्र-बल के बावजूद औरंगजेब भारत के शासक के रूप में असफल सिद्ध हुआ। उसने यह नहीं समझा कि किसी साम्राज्य की महत्ता उसके अधिकाधिक जनसाधारण की प्रगति पर निर्भर है। अपनी धार्मिक उमंग की प्रबलता के कारण उसने जनता के महत्वपूर्ण वर्गों की उपेक्षा की और इस प्रकार अपने साम्राज्य की विरोधी शक्तियों को उभारा।।

बर्नियर के अनुसार – “औरंगजेब एक राजनीतिज्ञ, एक महान् सम्राट तथा अद्भुत प्रतिभा का धनी व्यक्ति था।” औरंगजेब को निश्चय ही मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है। यद्यपि पूर्ण रूप से नहीं तथापि मुगल वंश का पतन अधिकतर उसकी नीतियों का ही परिणाम था, क्योंकि वह किसी का भी हृदय जीतने में असफल रहा। औरंगजेब की निम्नलिखित नीतियाँ मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी हैं

1. राजपूत विरोधी नीति- केवल राजपूतों को ही नहीं वरन् अन्य सहायकों को भी अपनी अनुदार तथा संकीर्ण नीति के कारण औरंगजेब ने अपना विरोधी बना लिया। सिक्ख, जाट, बुन्देले, मराठे सभी उसकी नीति से असन्तुष्ट होकर मुगल साम्राज्य के विनाश के लिए प्रयासरत रहने लगे। मराठों ने दक्षिण में लूटमार मचा दी, जाटों ने मथुरा के आस-पास के प्रदेशों को उजाड़ा तथा गुरु गोविन्द सिंह के नेतृत्व में सिक्ख उसे जीवनभर परेशान करते रहे। इन विद्रोहों ने मुगल वंश का पतन निकट ला दिया।

2. दक्षिण – नीति की विफलता- औरंगजेब की दक्षिण-नीति ने राजकोष पर बुरा प्रभाव डाला। विशाल सेना होने के कारण आय का अधिकांश भाग केवल सेना पर व्यय होने लगा, जिससे अन्य दिशाओं में प्रगति अवरुद्ध हो गई। इसी कारण सम्राट शान्ति तथा व्यवस्था बनाए रखने में असफल रहा। दक्षिण में शिया राज्यों को जीत लेने के साथ ही विकासोन्मुख मराठा शक्ति का सामना करने के लिए मुगलों को संघर्षरत होना पड़ा। मराठों की छापामार रण-पद्धति के सम्मुख मुगलों की विशाल सेना कुछ भी नहीं कर सकती थी। मराठों की सेना मुगल सेना एवं उनके प्रदेशों को अवसर पाते ही लूट लेती थी। इस प्रकार मराठों ने मुगलों का पतन और भी सन्निकट ला दिया।

3. पुत्रों को शिक्षित न बनाने का संकल्प – यद्यपि औरंगजेब धर्मान्ध तथा अनुदार था तथापि उसमें योग्यता का अभाव नहीं था। उसके पिता ने उसे उच्चकोटि की शिक्षा प्रदान की थी तथा सम्राट बनने से पूर्व उसने शासन-प्रबन्ध का पर्याप्त अनुभव भी प्राप्त कर लिया था। इसलिए विद्रोहों तथा संकटों के उपरान्त भी उसने राज्य को अपने हाथ से नहीं जाने दिया। वह शंकालु प्रकृति का था तथा उसे भय था कि उसके पुत्र योग्य बनकर कहीं उसके विरुद्ध विद्रोह न कर दें, जैसा कि उसने स्वयं अपने पिता के विरुद्ध किया था। उसने केवल शहजादे अकबर को व्यवहारिक शिक्षा देने का प्रयास किया था। शहजादे अकबर के विद्रोह के पश्चात् अपने अन्य शहजादों के प्रति सम्राट और भी सतर्क हो गया तथा उसने उन्हें कभी भी कोई महत्वपूर्ण प्रशासनिक भार सँभालने का अवसर नहीं दिया। उसने अपने पुत्रों पर भी कभी विश्वास नहीं किया तथा 90 वर्ष की वृद्धावस्था में भी लकड़ी के सहारे चलकर वह स्वयं सैन्य संचालन करता था। उसकी इसी नीति के कारण अनुभव से वंचित उसके उत्तराधिकारी विशाल साम्राज्य को सँभाल पाने में असमर्थ रहे।

4. शासन का केन्द्रीकरण – शंकालु प्रकृति के कारण औरंगजेब ने शासन की बागडोर पूर्णतया अपने हाथ में रखी। दक्षिण की विजयों के कारण मुगल साम्राज्य काफी विशाल हो गया था तथा एक व्यक्ति और एक केन्द्र से उसका समुचित संचालन असम्भव हो गया था। सम्राट के स्वभाव के कारण सूबेदार अनुत्तरदायी हो गए तथा प्रजा पर अत्याचार करने लगे। उनके अधिकारों को छीनकर सम्राट ने शासन-व्यवस्था को दोषपूर्ण बना दिया। जब तक सम्राट शक्तिशाली रहा तब तक तो शासन सुचारु रूप से चलता रहा, परन्तु जैसे-जैसे वह वृद्ध होता गया उसकी कार्य करने की शक्ति क्षीण होने लगी तथा प्रान्तों पर से उसका अंकुश ढीला पड़ने लगा। दूरस्थ प्रान्तों के सूबेदार उसके नियन्त्रण से बाहर होने लगे तथा विद्रोह करने को तत्पर हो गए।

5. शासन-व्यवस्था की शिथिलता – यद्यपि औरंगजेब साम्राज्य के छोटे-छोटे कार्यों का निरीक्षण भी स्वयं करता था परन्तु वह देश में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करने में असफल रहा। यद्यपि वह कुशल शासक था परन्तु उसकी यह धारणा बन गई थी कि वह स्वयं सबसे अधिक योग्य है। वह अपने बड़े-से-बड़े पदाधिकारी पर भी सन्देह करता था। ईर्ष्या और सन्देह की मात्रा उसमें इतनी प्रबल थी कि उसने सभी पर सन्देहपूर्ण दृष्टि रखनी आरम्भ कर दी थी। शासन-व्यवस्था में योग्य-से-योग्य व्यक्तियों के परामर्श की भी वह अवहेलना करने लगा था। इस सन्देहपूर्ण नीति का दुष्प्रभाव जनता पर पड़ा, जिससे शान्ति एवं समृद्धि का युग समाप्त हो गया।

6. धर्मान्धता एवं असहिष्णुता की नीति – सम्राट के रूप में औरंगजेब का आदर्श संकीर्ण एवं अनुदार था। वह मुसलमानों की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझता था जबकि हिन्दुओं के प्रति उसकी नीति अत्याचारपूर्ण थी। वह बलपूर्वक इस्लाम धर्म का प्रचार करना अपना कर्तव्य समझता था। इस्लाम स्वीकार न करने पर वह हिन्दुओं को प्राणदण्ड तक दे देता था। भारत जैसे देश के लिए, जहाँ 80 प्रतिशत जनता हिन्दू थी, इस प्रकार की नीति अहितकर तथा घातक सिद्ध हुई। हिन्दुओं ने सम्राट के कठोर अत्याचार सहन किए,

परन्तु धर्म परिवर्तन के लिए वे तैयार नहीं हुए। सम्राट ने जितने अधिक अत्याचार किए, उतनी ही अधिक विद्रोह की प्रवृत्ति हिन्दुओं में उत्पन्न हुई। इस प्रकार औरंगजेब की नीति मुगल साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई। औरंगजेब ने हिन्दुओं के प्रति ही नहीं, शियाओं के प्रति भी अनुदारतापूर्ण नीति अपनाई तथा योग्य एवं प्रतिभाशाली शियाओं की सेवाओं से साम्राज्य को वंचित कर दिया। उसकी इस धार्मिक नीति का परिणाम यह हुआ कि उसकी मृत्यु के 10-15 वर्ष पश्चात् ही मुगल साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया। औरंगजेब की इस धर्मान्धता का मुगल साम्राज्य पर अत्यन्त घातक प्रभाव पड़ा।

7. आर्थिक तथा सांस्कृतिक विकास का अन्त – औरंगजेब धर्म का अन्धा अनुयायी था तथा कुरान के अनुसार चलने के कारण ललित कलाओं का पोषण नहीं कर सकता था। उसे न संगीत में अभिरुचि थी, न चित्रकला में और न भवननिर्माण-कला में। फलतः इन सभी ललित कलाओं का पतन उसके काल में हो गया। विद्वान होने पर भी साहित्यकारों को आश्रय देने में उसकी रुचि नहीं थी। फलतः सांस्कृतिक विकास के क्षेत्र में अरुचि के कारण औरंगजेब का युग संस्कृति के पूर्ण पतन का युग था।

प्रश्न 8.
औरंगजेब की धार्मिक नीति की समीक्षा कीजिए।
उतर:
औरंगजेब की धार्मिक नीति के विषय में इतिहासकारों में गहरा मतभेद है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उसने अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति को उलटकर साम्राज्य को हिन्दुओं की वफादारी से वंचित कर दिया। उनके अनुसार इसके फलस्वरूप जन-विद्रोह भड़क उठे, जिससे साम्राज्य की शक्ति क्षीण हो गई। लेकिन कुछ दूसरे इतिहासकारों का विचार है कि औरंगजेब पर नाहक दोषारोपण किया गया है। उनके अनुसार हिन्दू औरंगजेब के पूर्ववर्ती शहंशाहों की शिथिलता के कारण गैर-वफादार हो गए थे,

जिससे मजबूर होकर आखिरकार उसे कड़े कदम उठाने पड़े और मुसलमानों का समर्थन प्राप्त करने की खास कोशिश करनी पड़ी, क्योंकि साम्राज्य अंततः टिका हुआ तो उन्हीं के समर्थन पर था। परन्तु औरंगजेब के सम्बन्ध में लिखी गई हाल की कृतियों में एक नई दृष्टि उभरी है जिसमें कोशिश यह की गई है कि औरंगजेब की राजनीतिक एवं धार्मिक नीतियों का मूल्यांकन उस काल की सामाजिक, आर्थिक एवं संस्थागत घटनाक्रम के सन्दर्भ में किया जाए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि औरंगजेब के धार्मिक विचार रूढ़िवादी थे।

औरंगजेब कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसका राजत्व सिद्धान्त इस्लाम का राजत्व सिद्धान्त था। औरंगजेब का प्रमुख लक्ष्य भारत को काफिरों के देश से इस्लाम देश बनाना था। औरंगजेब जीवनपर्यन्त इस उद्देश्य को न भूल सका और न कभी शासन नीति को इससे पृथक् रख सका। औरंगजेब का विश्वास था कि उससे पहले के सभी मुगलों ने सबसे गम्भीर भूल यह की थी कि उन्होंने भारत में इस्लाम की श्रेष्ठता को स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया था। उसके अनुसार यह इस्लाम को मानने वाले बादशाह का एक प्रमुख कर्तव्य था। इस व्यक्तिगत धारणा के अतिरिक्त परिस्थितियों ने भी औरंगजेब को धार्मिक कट्टरता की नीति अपनाने के लिए बाध्य किया था। परन्तु तब भी इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता की नीति का मुख्य आधार उसकी धार्मिक कट्टरता की स्वयं की धारणा थी।

औरंगजेब की धार्मिक नीति का विश्लेषण करते हुए हम सबसे पहले नैतिक और धार्मिक नियमों का जायजा ले सकते हैं-

  1. गायन पर प्रतिबन्ध- औरंगजेब ने दरबार में गायन बन्द करवा दिया और गायकों को पेंशन दे दी। लेकिन वाद्य-संगीत तथा नौबत (शाही बैण्ड) को जारी रखा गया। हरम में महिलाओं ने गायन जारी रखा और सरदार लोग भी गायन को प्रश्रय देते थे।
  2. सिक्कों पर कलमाखुदाई का निषेध- अपने शासनकाल के आरम्भ में औरंगजेब ने सिक्कों पर कलमा की खुदाई करने का निषेध कर दिया। उसका कहना था कि सिक्कों पर कोई पैर रख दे या एक हाथ से दूसरे हाथ में पहुँचने के क्रम में वह नापाक हो जाए, तो वह कलमा का अपमान है।
  3. झरोखा दर्शन पर प्रतिबन्ध- औरंगजेब ने झरोखा दर्शन की प्रथा भी बन्द कर दी क्योंकि इसे वह एक अन्धविश्वासपूर्ण रिवाज और इस्लाम के विरुद्ध मानता था।
  4. नौरोज पर प्रतिबन्ध- औरंगजेब ने नौरोज के त्योहार की मनाही कर दी क्योंकि वह जरथुस्त्री रिवाज था, जिसका पालन ईरान के सफावी शासक करते थे।
  5. मादक वस्तुओं पर प्रतिबन्ध- औरंगजेब ने भाँग का उत्पादन बन्द कर दिया। शराब पीने और जुआ खेलने को भी प्रतिबन्धित कर दिया।
  6. मुहतसिबों की नियुक्ति- औरंगजेब ने बड़े-बड़े नगरो में मुहतसिबों (धर्म निरीक्षकों) की नियुक्ति की। मुहतसिबों का कर्तव्य था कि वह देखें कि मुसलमान ठीक प्रकार से अपने धर्म का पालन करते हैं या नहीं। मुहतसिबों की नियुक्ति के पीछे औरंगजेब का यह आग्रह काम कर रहा था कि राज्य नागरिकों के नैतिक कल्याण के लिए भी जिम्मेदार है।
  7. तुलादान की समाप्ति- उसने शहंशाह के जन्मदिन पर उसे सोने या चॉदी अथवा अन्य कीमती वस्तुओं से तोलने का रिवाज भी बन्द करवा दिया। यह प्रथा छोटे सरदारों के लिए सिर का बोझ बन गई थी।

इसी प्रकार औरंगजेब ने सती प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा दिया, वेश्याओं को शादी करने अथवा देश छोड़ देने के आदेश दिए। सादगी और मितव्ययिता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सिंहासन कक्ष को सस्ते और सादे ढंग से सजाने का हुक्म दिया। रेशमी कपड़ों को अस्वीकृत की दृष्टि से देखा जाता था। इसी प्रकार उसने पेशकारों और करोरियों के पद मुसलमानों के लिए आरक्षित करने की कोशिश की, लेकिन सरदारों के विरोध और योग्य मुसलमानों की कमी के कारण शीघ्र ही उसने इस नियम में संशोधन कर दिया। अब हम औरंगजेब की उन नीतियों का अवलोकन करेंगे, जिनसे दूसरे धर्मों के अनुयायियों के प्रति औरंगजेब के धर्माध व्यवहार का पता चलता है

1. सरकारी नौकरियों से हिन्दुओं को वंचित करना- औरंगजेब ने सरकारी नौकरियों में भी भेदभावपूर्ण नीति अपनाई। उसने एक आदेश जारी कर कहा कि खालसा में लगान वसूल करने वाले सभी मुसलमान हों तथा वायसराय और तालुकेदार अपने हिन्दू पेशकार और दीवानों को निकाल दें। प्रो० जदुनाथ सरकार का मत है कि औरंगजेब के शासनकाल में कानूनगो बनने के लिए मुसलमान बनना एक लोक-प्रसिद्ध कहावत हो गई थी।

2. मन्दिरों का विध्वंस- प्रो० जदुनाथ सरकार ने लिखा है कि औरंगजेब ने हिन्दू धर्म पर बड़े विषैले ढंग से आक्रमण किया। पहले तो उसने एक फरमान (1659 ई०) में यह जारी किया कि “पुराने मन्दिरों को नहीं तोड़ना चाहिए लेकिन कोई नया मन्दिर नहीं बनने देना चाहिए। किन्तु अप्रैल, 1669 में औरंगजेब का अन्तिम आदेश हुआ, जिसमें हुक्म दिया गया कि काफिरों के सब शिवालय और मन्दिर गिरा दिए जाएँ और उनकी धार्मिक प्रथाओं को दबाया जाए। इस कट्टरता के तूफान में काठियावाड़ का सोमनाथ मन्दिर, बनारस का विश्वनाथ मन्दिर, मथुरा का केशवराय मन्दिर तोड़ दिए गए और उनके स्थान पर मस्जिदें बनवा दी गईं। आमेर राज्य जो उसका व उसके पूर्वजों का मित्र रहा था, वहाँ के भी सब मन्दिर तोड़ दिए गए, उनकी मूर्तियों को मस्जिद की सीढ़ियों पर डलवा दिया ताकि पैरों तले रौंदी जा सकें।

3. जजिया कर का पुनः प्रचलन- बादशाह औरंगजेब ने 2 अप्रैल, 1679 को आदेश दिया कि कुरान के नियमों के अनुसार जिम्मी (गैर-मुसलमान) लोगों पर जजिया कर लगाया जाए। हिन्दुओं ने दिल्ली में इस कर का विरोध किया, परन्तु सुल्तान ने कोई ध्यान नहीं दिया। गौरतलब है कि 1564 ई० में अकबर ने इस घृणित कर को हटा दिया था और तब से एक शताब्दी से अधिक समय तक इसे किसी ने लागू नहीं किया था।

4. चुंगीसम्बन्धीभेदभावपूर्ण नीति – जजिया कर के अतिरिक्त हिन्दुओं से अन्य करों में भी भेदभाव किया जाता था। व्यापारिक माल पर मुस्लिमों के लिए 2.5% और हिन्दुओं के लिए 5% कर था। हिन्दुओं को धर्म-यात्रा पर भी कर देना पड़ता था।

5. बलात् धर्म परिवर्तन- सम्राट ने अनेक बार हिन्दुओं को बलपूर्वक धर्म-परिवर्तन करने के लिए भी बाध्य किया, अन्यथा उनको प्राणदण्ड देने की धमकी दी। जाट नेता गोकुल के परिवार को बलपूर्वक मुसलमान बना दिया। सिक्ख गुरु तेगबहादुर सिंह को इस्लाम स्वीकार करने के लिए अनेक यातनाएँ दी गई और अन्त में बादशाह के हुक्म से उनका सिर काट दिया गया।

6. हिन्दुओं के विरुद्ध नियम- औरंगजेब ने दीपावली पर बाजारों में रोशनी करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। होली खेलने, हिन्दू मेलों तथा धार्मिक उत्सवों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। राजपूतों के अतिरिक्त अन्य जाति के हिन्दुओं के लिए हथियार लेकर अच्छी नस्ल के घोड़ों एवं पालकी पर चलने की प्रथा को बन्द कर दिया।

7. इस्लाम ग्रहण करने के लिए प्रलोभन- औरंगजेब ने मुसलमान बन जाने की शर्त पर हिन्दुओं को ऊँचे पद दिए जाने और कैद से छुटकारा पाने का प्रलोभन दिया। डॉ० एस० आर० शर्मा ने लिखा है कि “चाहे जो भी अपराध होता था, इस्लाम स्वीकार कर उसका प्रायश्चित हो सकता था।”

प्रश्न 9.
औरंगजेब मुगल साम्राज्य का अन्तिम शासक था, जिसकी मृत्यु से पहले ही विशाल साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो गया था।”मुगल साम्राज्य के विघटन के लिए प्राप्त औरंगजेब को कहाँ तक उत्तरदायी मानते हैं।
उतर:
मुगल साम्राज्य के पतन मे औरंगजेब का उत्तरदायित्व- औरंगजेब को निश्चय ही मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है। यद्यपि पूर्ण रूप से नहीं तथापि मुगल वंश का पतन अधिकतर उसकी नीतियों का ही परिणाम था, क्योंकि वह किसी का भी हृदय जीतने में असफल रहा।

औरंगजेब की निम्नलिखित नीतियाँ मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी हैं–

1. राजपूत विरोधी नीति- केवल राजपूतों को ही नहीं वरन् अन्य सहायकों को भी अपनी अनुदार तथा संकीर्ण नीति के कारण औरंगजेब ने अपना विरोधी बना लिया। सिक्ख, जाट, बुन्देले, मराठे सभी उसकी नीति से असन्तुष्ट होकर मुगल साम्राज्य के विनाश के लिए प्रयासरत रहने लगे। मराठों ने दक्षिण में लूटमार मचा दी, जाटों ने मथुरा के आस-पास के प्रदेशों को उजाड़ा तथा गुरु गोविन्द सिंह के नेतृत्व में सिक्ख उसे जीवनभर परेशान करते रहे। इन विद्रोहों ने मुगल वंश का पतन निकट ला दिया।

2. दक्षिण-नीति की विफलता- औरंगजेब की दक्षिण-नीति ने राजकोष पर बुरा प्रभाव डाला। विशाल सेना होने के कारण आय का अधिकांश भाग केवल सेना पर व्यय होने लगा, जिससे अन्य दिशाओं में प्रगति अवरुद्ध हो गई। इसी कारण सम्राट शान्ति तथा व्यवस्था बनाए रखने में असफल रहा। दक्षिण में शिया राज्यों को जीत लेने के साथ ही विकासोन्मुख मराठा शक्ति का सामना करने के लिए मुगलों को संघर्षरत होना पड़ा। मराठों की छापामार रण-पद्धति के सम्मुख मुगलों की विशाल सेना कुछ भी नहीं कर सकती थी। मराठों की सेना मुगल सेना एवं उनके प्रदेशों को अवसर पाते ही लूट लेती थी। इस प्रकार मराठों ने मुगलों का पतन और भी सन्निकट ला दिया।

3. पुत्रों को शिक्षित न बनाने का संकल्प- यद्यपि औरंगजेब धर्मान्ध तथा अनुदार था तथापि उसमें योग्यता का अभाव नहीं था। उसके पिता ने उसे उच्चकोटि की शिक्षा प्रदान की थी तथा सम्राट बनने से पूर्व उसने शासन-प्रबन्ध का पर्याप्त अनुभव भी प्राप्त कर लिया था। इसलिए विद्रोहों तथा संकटों के उपरान्त भी उसने राज्य को अपने हाथ से नहीं जाने दिया। वह शंकालु प्रकृति का था तथा उसे भय था कि उसके पुत्र योग्य बनकर कहीं उसके विरुद्ध विद्रोह न कर दें, जैसा कि उसने स्वयं अपने पिता के विरुद्ध किया था। उसने केवल शहजादे अकबर को व्यवहारिक शिक्षा देने का प्रयास किया था। शहजादे अकबर के विद्रोह के पश्चात् अपने अन्य शहजादों के प्रति सम्राट और भी सतर्क हो गया तथा उसने उन्हें कभी भी कोई महत्वपूर्ण प्रशासनिक भार सँभालने का अवसर नहीं दिया। उसने अपने पुत्रों पर भी कभी विश्वास नहीं किया तथा 90 वर्ष की वृद्धावस्था में भी लकड़ी के सहारे चलकर वह स्वयं सैन्य संचालन करता था। उसकी इसी नीति के कारण अनुभव से वंचित उसके उत्तराधिकारी विशाल साम्राज्य को सँभाल पाने में असमर्थ रहे।

4. शासन का केन्द्रीकरण- शंकालु प्रकृति के कारण औरंगजेब ने शासन की बागडोर पूर्णतया अपने हाथ में रखी। दक्षिण की विजयों के कारण मुगल साम्राज्य काफी विशाल हो गया था तथा एक व्यक्ति और एक केन्द्र से उसका समुचित संचालन असम्भव हो गया था। सम्राट के स्वभाव के कारण सूबेदार अनुत्तरदायी हो गए तथा प्रजा पर अत्याचार करने लगे। उनके अधिकारों को छीनकर सम्राट ने शासन-व्यवस्था को दोषपूर्ण बना दिया। जब तक सम्राट शक्तिशाली रहा तब तक तो शासन सुचारु रूप से चलता रहा, परन्तु जैसे-जैसे वह वृद्ध होता गया उसकी कार्य करने की शक्ति क्षीण होने लगी तथा प्रान्तों पर से उसका अंकुश ढीला पड़ने लगा। दूरस्थ प्रान्तों के सूबेदार उसके नियन्त्रण से बाहर होने लगे तथा विद्रोह करने को तत्पर हो गए।

5. शासन-व्यवस्था की शिथिलता- यद्यपि औरंगजेब साम्राज्य के छोटे-छोटे कार्यों का निरीक्षण भी स्वयं करता था परन्तु वह देश में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करने में असफल रहा। यद्यपि वह कुशल शासक था परन्तु उसकी यह धारणा बन गई थी कि वह स्वयं सबसे अधिक योग्य है। वह अपने बड़े-से-बड़े पदाधिकारी पर भी सन्देह करता था। ईष्र्या और सन्देह की मात्रा उसमें इतनी प्रबल थी कि उसने सभी पर सन्देहपूर्ण दृष्टि रखनी आरम्भ कर दी थी। शासन-व्यवस्था में योग्य-से-योग्य व्यक्तियों के परामर्श की भी वह अवहेलना करने लगा था। इस सन्देहपूर्ण नीति का दुष्प्रभाव जनता पर पड़ा, जिससे शान्ति एवं समृद्धि का युग समाप्त हो गया।

6. धर्मान्धता एवं असहिष्णुता की नीति- सम्राट के रूप में औरंगजेब का आदर्श संकीर्ण एवं अनुदार था। वह मुसलमानों की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझता था जबकि हिन्दुओं के प्रति उसकी नीति अत्याचारपूर्ण थी। वह बलपूर्वक इस्लाम धर्म का प्रचार करना अपना कर्त्तव्य समझता था। इस्लाम स्वीकार न करने पर वह हिन्दुओं को प्राणदण्ड तक दे देता था। भारत जैसे देश के लिए, जहाँ 80 प्रतिशत जनता हिन्दू थी, इस प्रकार की नीति अहितकर तथा घातक सिद्ध हुई। हिन्दुओं ने सम्राट के कठोर अत्याचार सहन किए, परन्तु धर्म परिवर्तन के लिए वे तैयार नहीं हुए। सम्राट ने जितने अधिक अत्याचार किए, उतनी ही अधिक विद्रोह की प्रवृत्ति हिन्दुओं में उत्पन्न हुई। इस प्रकार औरंगजेब की नीति मुगल साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई। औरंगजेब ने हिन्दुओं के प्रति ही नहीं, शियाओं के प्रति भी अनुदारतापूर्ण नीति अपनाई तथा योग्य एवं प्रतिभाशाली शियाओं की सेवाओं से साम्राज्य को वंचित कर दिया। उसकी इस धार्मिक नीति का परिणाम यह हुआ कि उसकी मृत्यु के 10-15 वर्ष पश्चात् ही मुगल साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया। औरंगजेब की इस धर्मान्धता का मुगल साम्राज्य पर अत्यन्त घातक प्रभाव पड़ा।

7. आर्थिक तथा सांस्कृतिक विकास का अन्त- औरंगजेब धर्म का अन्धा अनुयायी था तथा कुरान के अनुसार चलने के कारण ललित कलाओं का पोषण नहीं कर सकता था। उसे न संगीत में अभिरुचि थी, न चित्रकला में और न भवननिर्माण-कला में। फलतः इन सभी ललित कलाओं का पतन उसके काल में हो गया। विद्वान होने पर भी साहित्यकारों को आश्रय देने में उसकी रुचि नहीं थी। फलतः सांस्कृतिक विकास के क्षेत्र में अरुचि के कारण औरंगजेब का युग संस्कृति के पूर्ण पतन का युग था।

प्रश्न 10.
मुगल साम्राज्य के पतन के कारणों की समीक्षा कीजिए।
उतर:
मुगल साम्राज्य के पतन के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे

1. औरंगजेब का उत्तरदायित्व- औरंगजेब को एक राजा और राजनीतिज्ञ के रूप में असफल व्यक्ति कहा जा सकता है। चाहे-अनचाहे उसकी नीतियों ने मुगल साम्राज्य के विघटन और पतन की प्रक्रिया आरम्भ कर दी। उसकी धार्मिक नीति ने, जिसे उसने राजनीतिक और आर्थिक कारणों से प्रभावित होकर लागू किया था, बहुसंख्यक हिन्दुओं के मन में प्रतिक्रिया उत्पन्न कर दी। उसने अपनी धर्मान्धता का परिचय देते हुए हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया, जिससे वे उसे केवल मुसलमानों का ही सम्राट मानने लगे और उसका विरोध करने की प्रवृत्ति उनमें तीव्र हो गई।

धर्म को ही आधार बनाकर जाटों, सतनामियों, सिक्खों, राजपूतों, मराठों, यहाँ तक कि दक्कन की शिया रियासतों ने भी क्षेत्रीय स्वतन्त्रता के लिए प्रयत्न आरम्भ कर दिए और मुगलों को परेशान करने लगे। इन शक्तियों को दबाने में औरंगजेब की शक्ति एवं प्रतिष्ठा नष्ट हो गई, फिर भी इन पर पूर्ण नियन्त्रण स्थापित नहीं किया जा सका। इस प्रकार हिन्दुओं का समर्थन और सहयोग खोना औरंगजेब की एक बहुत बड़ी राजनीतिक भूल थी। औरंगजेब की दूसरी बड़ी भूल राजपूतों का सहयोग खोना था। भारत में मुगल सत्ता के स्थाई स्तम्भ राजपूत ही थे।

किन्तु इस स्तम्भ को औरंगजेब ने अपनी राजनीतिक अदूरदर्शिता एवं धार्मिक कट्टरपन से खो दिया। इसी प्रकार औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर का वध करवाकर सिक्खों को मुगल साम्राज्य के विरुद्ध खड़ा कर दिया। औरंगजेब की दक्षिण-नीति ने भी मुगल साम्राज्य के पतन में योगदान दिया। उसने बीजापुर और गोलकुण्डा को मुगल साम्राज्य में मिलाने की बड़ी राजनीतिक भूल की। इन दोनों राज्यों की समाप्ति के बाद दक्षिण में मराठों पर से सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थानीय नियन्त्रण समाप्त हो गया। इस प्रकार मराठों को संगठित एवं शक्तिशाली होने का एक और अवसर मिल गया। औरंगजेब की दक्षिण की यह मूर्खतापूर्ण नीति करीब 25 वर्ष तक चलती रही। इस लम्बी अवधि के दौरान अपार धन, जन एवं सेना का ह्रास हुआ, साथ ही उत्तर भारत की शासन-व्यवस्था भी कमजोर पड़ गई। इस अवसर का लाभ उठाकर अनेक प्रान्तीय सुल्तानों ने अपने आप को स्वतन्त्र घोषित कर दिया।

2. औरंगजेब के अयोग्य उत्तराधिकारी- मध्ययुगीन साम्राज्य मात्र सम्राटों की योग्यता पर टिका रहता था, किन्तु दुर्भाग्य से औरंगजेब के बाद के मुगल सम्राट न तो योग्य थे और न चरित्रवान। वे अब तलवार से अधिक स्त्री और शराब को प्यार करने लगे थे। औरंगजेब का उत्तराधिकारी बहादुरशाह शाह-ए-बेखबर’ कहलाता था। डॉ० श्रीराम शर्मा के मतानुसार, “कामबख्श ने बन्दीगृह में मृत्यु-शैय्या पर इस बात का तो पश्चाताप किया कि तैमूर का वंशज जीवित ही पकड़ा गया। किन्तु जहाँदारशाह और अहमदशाह को अपनी रखैलों के बाहु-बन्धनों में फंसे हुए कर्तव्य-विमुख अवस्था में बन्दी बनाए जाने पर तनिक भी लज्जा नहीं आई।” इस प्रकार बहादुरशाह प्रथम से लेकर बहादुरशाह जफर तक के सभी शासकों में चारित्रिक, राजनीतिक, सैनिक अथवा प्रशासनिक क्षमता नहीं थी। ऐसी स्थिति में मुगल साम्राज्य का पतन होना स्वाभाविक था।।

3. मुगलों में उत्तराधिकार के नियम का अभाव- मुगलों में राजगद्दी के लिए उत्तराधिकार का कोई नियम न था। प्रसिद्ध लेखक अस्कीन के अनुसार, “तलवार ही उत्तराधिकार की एक मात्र निर्णायक थी। प्रत्येक राजकुमार अपने भाइयों के विरुद्ध अपना भाग्य आजमाने को उद्यत रहता था। औरंगजेब द्वारा किया गया उत्तराधिकार का युद्ध इसका उदाहरण है। वस्तुतः मुगलों में बादशाह के जीवनकाल में ही अथवा उसकी मृत्यु के पश्चात् गद्दी के महत्वाकांक्षी दावेदारों में संघर्ष हो जाता था। इस संघर्ष में मुगल अमीर, दरबारी, सूबेदार, जागीरदार, मनसूबदार यहाँ तक की महल की स्त्रियाँ तक भाग लेती थीं। इन संघर्षों से धीरे-धीरे मुगलों की प्रतिष्ठा, शक्ति, धन एवं जन की अपार क्षति हुई। इन संघर्षों ने मुगल साम्राज्य के पतन की पृष्ठभूमि तैयार कर दी।

4. मुगल सामन्तों का नैतिक पतन- मुगल सम्राट ही नहीं अपितु उनके सामन्तों का भी नैतिक पतन हो गया था। मुगल सामन्तों के जीवन में शराब, स्त्री, षड्यन्त्र, स्वार्थ, पद-लोलुपता का ही स्थान रह गया था। जदुनाथ सरकार के मतानुसार, कोई भी मुगल सामन्त एक या दो पीढ़ियों से अधिक समय तक अपना महत्व बनाए नहीं रख सका। यदि किसी सामन्त की वीरता के विषय में इतिहासकार ने तीन पृष्ठ लिखे तो उसके पुत्र के कार्यों का वर्णन केवल एक ही पृष्ठ में हुआ और उसके पौत्र का वर्णन केवल इस प्रकार के शब्दों में कि ‘उसने कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया’ समाप्त हो जाता।” अत: सामन्तों के उत्तरोत्तर नैतिक पतन ने मुगल साम्राज्य को काफी क्षति पहुँचाई।

5. जागीरदारी संकट- डॉ० सतीशचन्द ने मुगल साम्राज्य के पतन के लिए मनसबदारी और जागीरदारी प्रथाओं की असफलता को जिम्मेदार बताया है। उनके अनुसार औरंगजेब के समय से ही युद्धों, प्रशासन-व्ययों और बादशाह तथा अमीर वर्ग की बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति किया जाना कठिन हो गया था। आय का प्रमुख साधन भूमि थी, जो व्यय में वृद्धि के अनुपात में कम थी। अतः राज्य और प्रशासक वर्ग की आय और उनके व्यय के बीच अन्तर बढ़ता गया और जागीरदारी या मनसबदारी व्यवस्था के दोष सामने आने लगे। औरंगजेब की दक्षिण विजय ने इस संकट में और वृद्धि की। अब स्थिति यह हो गई कि जागीरे कम हो गईं और उनके माँगने वाले अधिक, जिससे जागीरदारी पाने वाले वर्ग में अच्छी जागीर प्राप्त करने की प्रतिद्वन्द्विता बढ़ गई। इस प्रतिद्वन्द्विता और संकट को एक अन्य प्रकार से भी बढ़ावा मिला।

कागजों में जागीरों से प्राप्त होने वाली आय को बहुत पहले से वास्तविक आय से अधिक दिखाया जाता रहा था। ऐसी स्थिति में जागीर प्राप्त वर्ग ने अच्छी आय वाली जागीरों को प्राप्त करने का प्रयत्न किया। इससे दरबार में दलबन्दी बढ़ने लगी। जागीरदारों ने भूमि को ठेकेदारों को देना शुरू कर दिया। ठेकेदार किसानों से अधिकतम लगान वसूलते थे। इससे किसानों ने लगान देना बन्द कर दिया और स्थानीय जमींदारों के माध्यम से विद्रोह कर दिया। अब मुगलों की आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक-शक्ति टूटती चली गई क्योंकि यह सब भूमि से प्राप्त आय पर ही निर्भर था। प्रो० इरफान हबीब ने भी आर्थिक संकट को ही मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरादायी माना है।

6. मुगलों की सैन्य दुर्बलताएँ- सैन्य दुर्बलताओं ने भी मुगलों के पतन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। मुगल सेना मनसबदारी व्यवस्था पर आधारित थी, परन्तु कालान्तर में यही व्यवस्था मुगल सेना की दुर्बलता का आधार बनी। उनकी सेना की स्वामिभक्ति सम्राट के प्रति नहीं रही। मुगल सेना में राष्ट्रीयता का भी सर्वथा अभाव था। मुगल सेना में अनुशासनहीनता एवं विलासिता भी प्रवेश कर गई थी। इसके अतिरिक्त गलत रणनीतियाँ, नौ सेना का अभाव, केवल मैदानी युद्धों में पारंगत होना, छापामार युद्ध से अनभिज्ञ होना इत्यादि कारणों ने मुगल सेना की क्षमता को नष्ट कर दिया। सर वूल्जले हेग ने लिखा है, “सेना की चरित्रहीनता ही साम्राज्य के पतन के मुख्य कारणों में से एक थी।’

7. बौद्धिक पतन- बौद्धिक पतन को भी मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी माना गया है। निश्चय ही मुगलों के अधिकांश शासनकाल में शिक्षा की व्यवस्था समुचित नहीं थी और जो थी भी वह समय के अनुकूल न रही। उसमें तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा का पूर्णतः अभाव था और उदार मानवीय भावना के विकास में सहयोग देने में बहुत कमी थी। इस कारण प्रशासन में योग्य व्यक्तियों का अकाल सा पड़ गया। परिणामस्वरूप मुगल साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर हो गया।

8. मुगल साम्राज्य का आर्थिक दिवालियापन- कोई भी साम्राज्य सम्राट की योग्यता, सेना की सुदृढ़ता और राजकोष में पर्याप्त धन पर निर्भर करता है। मुगल साम्राज्य के पास इन तीनों का ही अभाव हो गया था। शाहजहाँ ने भवन निर्माण आदि कार्यों में प्रचुर मात्रा में धन व्यय किया। औरंगजेब ने दक्षिण के दीर्घकालीन युद्धों में न केवल राजकोष को ही खाली किया बल्कि देश के व्यापार एवं उद्योगों को भी नष्ट किया। सर जदुनाथ सरकार के अनुसार, “एक बार तो मुगल जनानखाने में तीन दिन तक चूल्हे में आग नहीं जली। शहजादियाँ अधिक समय तक भूख सहन नहीं कर सकीं और पर्दे की परवाह न करते हुए महल से निकलकर शहर की ओर दौड़ पड़ीं।” जिस शासन की हालत इतनी गिर जाए, फिर वह अधिक समय तक किस प्रकार चल सकता था।

9. नौसेना का अभाव- नौसेना का अभाव अप्रत्यक्ष रूप से मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी कारण माना जाता है। नौसेना के अभाव से उत्पन्न दुर्बलता उस समय प्रकट हुई जब 16 वीं सदी में यूरोप के निवासी भारत आए और समुद्र पर अधिकार स्थापित करके उन्होंने भारत के विदेशी व्यापार पर नियन्त्रण स्थापित किया। व्यापारिक दृष्टि से यूरोपियनों पर निर्भरता ने भारतीय शासकों को उन्हें व्यापारिक सुविधाएँ देने के लिए बाध्य किया, जिससे अन्त में उनमें से एक को। (अंग्रेजों को ) भारत में राज्य स्थापित करने का अवसर मिला।

10. मुगल साम्राज्य की विशालता और मराठों का उत्कर्ष- औरंगजेब के काल में मुगल साम्राज्य का विस्तार बहुत विस्तृत हो गया था। एक व्यक्ति के लिए एक केन्द्र से इस विशाल साम्राज्य को सम्भालना मुश्किल था। औरंगजेब दक्षिण में मराठों से उलझकर असफल हो गया। मराठों के उत्कर्ष ने मुगल साम्राज्य को बौना और असहाय कर दिया और इसकी प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया। इस विशाल साम्राज्य में कुछ समय पश्चात् ही विभिन्न शक्तियाँ मुगल साम्राज्य से अलग हो गई और मुगल साम्राज्य का विघटन शुरू हो गया।

11. दरबार में गुटबाजी- औरंगजेब के पश्चात् मुगल दरबार आपसी गुटबन्दी का अड्डा बन गया। आसफजहाँ निजामुलमुल्क, कमरूद्दीन, जकरिया खाँ, अमीर खाँ और सआदत खाँ प्रमुख गुटों के नेता थे। इन गुटों में अक्सर युद्ध होते रहते थे। इस प्रकार जहाँ औरंगजेब के पूर्व दरबारियों और सरदारों जैसे महावत खाँ, अब्दुर्रहीम खानखाना, बीरबल, सादुल्ला खाँ, मीर जुमला आदि ने साम्राज्य के हितों की सुरक्षा की थी, वहीं बाद के सरदारों ने अपने स्वार्थ में अन्धा होकर बादशाह और साम्राज्य दोनों को क्षति पहुँचाई।

12. नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण- मुगल साम्राज्य की रही-सही प्रतिष्ठा को इन दोनों विदेशी आक्रमणकारियों ने समाप्त कर दिया। नादिरशाह ने 1739 ई० में मुगल सम्राट को दिल्ली में कैद कर लिया और दिल्ली को जमकर लूटा तथा राजकोष में जितना भी धन, हीरे-जवाहरात व वस्तुएँ थीं सब अपने साथ ले गया। बची-खुची इज्जत को अहमदशाह अब्दाली ने 1761 ई० में समाप्त कर दिया और पानीपत के तीसरे युद्ध में उसने मुगल साम्राज्य के साथ मराठों की प्रतिष्ठा को भी धूल में मिला दिया।

13. यूरोपवासियोंका आगमन- 1600 ई० में स्थापित ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में व्यापार के नाम पर धीरे-धीरे अपने राजनीतिक पैर पसारने शुरू कर दिए। 18 वीं शताब्दी के मध्य तक कम्पनी ने यूरोप से आने वाली दूसरी शक्तियों को भारत से निकाल दिया। 1757 और 1761 ई० के क्रमश: प्लासी और बक्सर के युद्धों के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी बंगाल, बिहार और उड़ीसा (ओडिशा) की स्वामी बन गई। इस प्रकार अंग्रेजों के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव ने मुगल शक्ति और प्रतिष्ठा को नष्ट करना प्रारम्भ कर दिया और अन्तत: 1857 ई० में अंग्रेजों ने ही मुगलों के शासन का हमेशा के लिए अन्त कर दिया।

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