UP Board Solutions for Class 12 Home Science Chapter 4 तन्त्रिका तन्त्र एवं ज्ञानेन्द्रियाँ
UP Board Solutions for Class 12 Home Science Chapter 4 तन्त्रिका तन्त्र एवं ज्ञानेन्द्रियाँ
बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक)
प्रश्न 1.
न्यूरॉन किस तन्त्र की कोशिका है? (2011, 15)
(a) पाचन तन्त्र
(b) अस्थि तन्त्र
(c) तन्त्रिका तन्त्र
(d) परिसंचरण तन्त्र
उत्तर:
(c) तन्त्रिका तन्त्र
प्रश्न 2.
न्यूरॉन कहते हैं (2017)
(a) अस्थि कोशिका को
(b) पेशी कोशिका को
(c) तन्त्रिका कोशिका को
(d) रक्त कोशिका को
उत्तर:
(c) तन्त्रिका कोशिका को
प्रश्न 3.
अनुमस्तिष्क का कार्य है (2016)
(a) गन्ध ग्रहण करना
(b) स्मृति
(c) दृश्य संवेदनाएँ ग्रहण करना
(d) शरीर का सन्तुलन
उत्तर:
(d) शरीर का सन्तुलन
प्रश्न 4.
प्रतिवर्ती क्रिया का उदाहरण है
(a) हृदय गति
(b) आमाशय में क्रमांकुचन
(c) तीव्र प्रकाश में पुतली का सिकुड़ना
(d) ग्रन्थियों की क्रियाएँ
उत्तर:
(c) तीव्र प्रकाश में पुतली का सिकुड़ना
प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से कौन परिधीय तन्त्रिका तन्त्र की तन्त्रिकाएँ हैं?
(a) कपालीय तन्त्रिकाएँ
(b) रीढ़ तन्त्रिकाएँ
(c) ‘a’ और ‘b’ दोनों
(d) स्वायत्त तन्त्रिकाएँ
उत्तर:
(c) ‘a’ और ‘b’ दोनों
प्रश्न 6.
नलिकाविहीन ग्रन्थि कौन-सी है? (2006, 09, 11, 13)
(a) पीयूष ग्रन्थि
(b) लार ग्रन्थि
(c) अमाशय
(d) हृदय
उत्तर:
(a) पीयूष ग्रन्थि
प्रश्न 7.
डायबिटीज किसकी कमी के कारण होता है? (2015)
(a) ग्लूकैगन
(b) थायरॉक्सिन
(c) इन्सुलिन
(d) ये सभी
उत्तर:
(c) इन्सुलिन
प्रश्न 8.
निम्नलिखित में से किसका सम्बन्ध इन्सुलिन निर्माण से है? (2016)
(a) पीयूष ग्रन्थि
(b) अधिवृक्क ग्रन्थि
(c) अग्न्याशय
(d) लार ग्रन्थि
उत्तर:
(c) अग्न्याशय
प्रश्न 9.
आँख के किस भाग पर वस्तु का स्पष्ट प्रतिबिम्ब बनता है? (2012, 14)
(a) लेन्स पर
(b) पीत बिन्दु पर
(c) अन्ध बिन्दु पर
(d) ये सभी
उत्तर:
(b) पीत बिन्दु पर
प्रश्न 10.
दूर की वस्तु को न देख पाना रोग है (2017)
(a) निकट दृष्टि दोष
(b) दूर दृष्टि दोष
(c) मोतियाबिन्द
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) निकट दृष्टि दोष
प्रश्न 11.
एक छात्रा मेज पर रखी पुस्तक पढ़ने में कठिनाई अनुभव करती है, परन्तु श्यामपट्ट पर लिखे शब्दों को ठीक पढ़ लेती है। इस दोष को क्या कहते हैं? (2010)
(a) दूर दृष्टि दोष
(b) निकट दृष्टि दोष
(C) रंग दृष्टि दोष (वर्णान्धता)
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) दूर दृष्टि दोष
प्रश्न 12.
कान के अन्दर अस्थि होती है (2017)
(a) मुगदर (Malleus)
(b) पैरिलिम्फ
(c) एम्पुला
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(d) मुगदर
प्रश्न 13.
किस लेंस को दूर दृष्टि दोष में प्रयोग करते हैं? (2017)
(a) उत्तर लेंस
(b) अवतल लेंस
(c) ‘d’ और ‘b’ दोनों
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) उत्तल लेंस
प्रश्न 14.
कान की अर्द्धचन्द्राकार नलिकाओं का क्या कार्य है? (2012)
(a) ज्ञान प्राप्त करना
(b) शरीर का सन्तुलन बनाना
(c) सँघना
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) शरीर का सन्तुलन बनाना।
प्रश्न 15.
जिह्वा विभिन्न स्वाद ग्रहण करती है (2012)
(a) जिह्वा के अग्र भाग से
(b) जिह्वा के भिन्न-भिन्न भागों से
(c) जिह्वा के पिछले भाग से
(d) जिह्वा के मध्य भाग से
उत्तर:
(b) जिह्वा के भिन्न-भिन्न भागों से
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (1 अंक, 25 शब्द)
प्रश्न 1.
तन्त्रिकाएँ कितने प्रकार की होती हैं?
अथवा
तन्त्रिका तन्त्र के मुख्य भाग कौन-कौन से हैं? (2018)
उत्तर:
तन्त्रिकाएँ मुख्यतः तीन प्रकार की होती हैं
1. संवेदी तन्त्रिका ये उद्दीपनों को केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र तक पहुँचाती हैं।
2. प्रेरक या चालक तन्त्रिका ये मस्तिष्क या मेरुरज्जु से आदेश को सम्बन्धित कंकाल पेशी या ग्रन्थि तक पहुँचाती है।
3. मिश्रित तन्त्रिका ये उद्दीपन व प्रेरणा दोनों का संवहन करती हैं।
प्रश्न 2.
प्रतिवर्ती क्रिया क्या है? (2006, 10, 12)
उत्तर:
ऐसी अनैच्छिक क्रिया, जो बाहरी उद्दीपनों के कारण अनुक्रिया के रूप में होती है, प्रतिवर्ती क्रिया कहलाती है। इसे मेरुरज्जु नियन्त्रित करती है।
प्रश्न 3.
प्रतिवर्ती क्रियाओं से आप क्या समझते हैं? (2017)
अथवा
स्वायत्त तन्त्रिका तन्त्र का क्या कार्य है?
उत्तर:
स्वायत्त तन्त्रका तन्त्र शरीर को स्वायत्त अनैच्छिक क्रियाओं का संचालन करता है; जैसे-हृदय, यकृत, आमाशय, अन्त:स्रावी ग्रन्थियों की क्रियाएँ आदि। यह तन्त्र स्वतन्त्र रूप से कार्य करते हुए भी अन्तिम रूप से केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र द्वारा नियन्त्रित होता है।
प्रश्न 4.
किस ग्रन्थि से स्रावित हॉर्मोन शरीर की उपापचय क्रियाओं का नियमन करता है?
उत्तर:
थायरॉइड ग्रन्थि से स्रावित हॉर्मोन शरीर की उपापचय क्रियाओं का नियमन करता है। शरीर में इसकी कमी से हृदय की गति धीमी, शरीर में सुस्ती, मस्तिष्क की कमजोरी आदि रोग हो जाते हैं।
प्रश्न 5.
लैंगरहैन्स की द्वीपिकाएँ कौन-से हॉर्मोन्स स्रावित करती हैं?
उत्तर:
लैंगरहैन्स की द्वीपिकाएँ ग्लूकैगन एवं इन्सुलिन नामक हॉर्मोन्स स्रावित करती हैं। इन्सुलिन रक्त में शर्करा की मात्रा को नियन्त्रित करने का कार्य करता है। इन्सुलिन के अल्पस्रावण से मधुमेह (Diabetes) नामक रोग हो जाता है।
प्रश्न 6.
शरीर में रुधिर शर्करा के स्तर को नियन्त्रित करने वाले सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हॉर्मोन का नाम बताइए। (2005)
उत्तर:
शरीर में रुधिर शर्करा के स्तर को नियन्त्रित करने वाला सबसे महत्त्वपूर्ण हॉर्मोन इन्सुलिन है।
प्रश्न 7.
शरीर की दो आन्तरिक ज्ञानेन्द्रियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
शरीर की दो आन्तरिक ज्ञानेन्द्रियाँ हैं-
1. गति संवेदन तन्त्र
2. प्रघाण तन्त्र।
प्रश्न 8.
नेत्र की समंजन शक्ति से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
नेत्र लेन्स की फोकस दूरी की घटाने-बढ़ाने की क्षमता को समंजन शक्ति कहते हैं।
प्रश्न 9.
नेत्र की किस परत पर प्रतिबिम्ब का निर्माण होता है?
उत्तर:
नेत्र की सबसे भीतरी परत रेटिना पर प्रतिबिम्ब का निर्माण होता है।
प्रश्न 10.
निकट दृष्टि दोष से क्या आशय है? (2018)
उत्तर:
इस दोष में पास की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई देती हैं, किन्तु दूर की वस्तुएँ धुंधली दिखाई देती हैं। प्रतिबिम्ब रेटिना के आगे बनता है।
प्रश्न 11.
वर्णान्धता से क्या आशय है? (2016)
उत्तर:
यह एक वंशानुगत रोग हैं। इस रोग से ग्रसित व्यक्तियों में विभिन्न रंगों (विशेषत: लाल एवं हरा रंग) को पहचाने की क्षमता नहीं होती है। इससे मुख्यतः पुरुष प्रभावित होता है। सामान्य रूप से इस दोष का निवारण नहीं हो | पाता है।
प्रश्न 12.
नाक में बाल क्यों होते हैं? (2018)
उत्तर:
धूल के कणों एवं जीवाणुओं को रोकने के लिए नासागुहा की सतह पर छोटे-छोटे रोएँ (बाल) होते हैं।
प्रश्न 13.
स्वादेन्द्रिय के कार्य बताइए। (2011)
उत्तर:
स्वादेन्द्री अर्थात् जीभ का प्रमुख कार्य अनेक प्रकार के स्वाद की संवेदनाओं को ग्रहण करना है, इसके लिए जीभ पर विशिष्ट भाग पाए जाते हैं।
लघु उतरीय प्रश्न (2 अक, 50 शब्द)
प्रश्न 1.
‘तन्त्रिका तन्त्र के भाग’ टिप्पणी लिखिए। (2017)
अथवा
स्नायु की रचना का सचित्र वर्णन कीजिए। (2005)
अथवा
तन्त्रिका कोशिका का सचित्र वर्णन कीजिए। (2010)
उत्तर:
मस्तिष्क, मेरुरज्जु तथा तन्त्रिकाएँ सभी तन्त्रिका ऊतक से बनी होती हैं। तन्त्रिका ऊतक की कोशिका को न्यूरॉन कहते हैं। इन कोशिकाओं का निर्माण पूणावस्था में ही हो जाता है। ये एक बार नष्ट होने पर दोबारा नहीं बनती अर्थात् इनका पुनरुद्भव (Regeneration) सम्भव नहीं है।
ये कोशिकाएँ विशिष्ट प्रकार की होती हैं, जो सन्देशवाहक का कार्य करती हैं। एक न्यूरॉन से सन्देश दूसरे न्यूरॉन तक पहुँचता है, वहाँ से लक्ष्य तक पहुँचने के लिए एक, दो या बहुत से न्यूरॉन्स की सहायता लेता है।
न्यूरॉन के प्रमुख भाग निम्नलिखित हैं
1. कोशिका काय (Cyton) जिसमें एक केन्द्रक तथा कोशिकाद्रव्य होता हैं।
2. डेण्ड्राइट न्यूरॉन (Neuron) के कोशिका काय से निकले हुए पतले तन्तु, जो एक या अधिक होते हैं, डेण्ड्राइट (Dendrite) कहलाते हैं।
3. एक्सॉन कोशिका काय से प्रारम्भ होकर एक बहुत पतला एवं लम्बा तन्त्रिका तन्तु निकलता है। यह एक न्यूरॉन से दूसरे न्यूरॉन तक सन्देशवाहक का कार्य करता है, जिसे एक्सॉन (Axon) कहते हैं।
प्रश्न 2.
मेरुरज्जु की अनुप्रस्थ काट का नामांकित चित्र बनाकर संक्षिप्त वर्णन कीजिए। (2005, 16)
अथवा
मेरुरज्जु के कार्य बताइए। (2017)
उत्तर:
मस्तिष्क पुच्छ अर्थात् मेड्यूला ऑब्लोंगटा का पिछला भाग ही मेरुरज्जु (Spinal cord) बनाता है। केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र का यह भाग कशेरुक दण्ड (Vertebral column) के अन्दर स्थित रहता है। कशेरुक दण्ड या रीढ़ की हड्डी कशेरुकाओं से बनी होती हैं तथा इनके मध्य में एक तन्त्रिको नाल (Neural canal) होती है। मेरुरज्जु इसी तन्त्रिका नाल में सुरक्षित रहती हैं। मेरुरज्जु का अन्तिम सिरा एक पतले सूत्र के रूप में होता है, यह भाग अन्त्य सूत्र कहलाता है।
मस्तिष्क के समान मेरुरज्जु के चारों ओर तीन झिल्लियों-इथूरामैटर, एरेक्नॉइड तथा पायामैटर का बना आवरण पाया जाता है। इन झिल्लियों के बीच में एक लेसदार तरल द्रव्य भरा रहता है, जो बाह्य आघातों से मेरुरज्जु की रक्षा करता है।
मेरुरज्जु के मध्य में एक संकरी नाल पाई जाती है, जिसे केन्द्रीय नाल (Central canal) कहते हैं। केन्द्रीय नाल के चारों ओर मेरुरज्जु का भाग दो स्तरों में बंटा होता हैं-भीतरी स्तर को धूसर द्रव्य (Grey matter) तथा बाहरी स्तर को श्वेत द्रव्य (White matter) कहते हैं। धूसर द्रव्य से पंख के समान पृष्ठ श्रृंग (horm) तथा प्रतिपृष्ठ भुग निकले रहते हैं। इन्हीं श्रृंगों में तन्त्रिका तन्तु एकत्रित होकर स्पाइनल तन्त्रिकाओं (Spinal nerve) का निर्माण करते हैं। मेरुरज्जु के धूसर द्रव्य का ऊपरी आधा भाग संवेदी (Sensory) क्रियाओं से तथा निचला आधा भाग चालक या प्रेरक (Motor) क्रियाओं से सम्बन्ध रखती हैं।
मेरुरज्जु के कार्य
मेरुरज्जु के दो कार्य इस प्रकार है
1. यह मस्तिष्क द्वारा प्रेषित आदेशों तथा मस्तिष्क को जाने वाली संवेदनाओं को मार्ग प्रदान करता है।
2. यह प्रतिवर्ती क्रियाओं का नियन्त्रण एवं समन्वय करता है।
प्रश्न 3.
प्रतिवर्ती क्रिया किसे कहते हैं? इसे उदाहरण सहित समझाइए। (2002, 03, 06, 09)
अथवा
प्रतिवर्ती क्रिया पर टिप्पणी लिखिए। (2018, 16)
उत्तर:
प्रतिवर्ती क्रिया का अर्थ
मनुष्य के दैनिक जीवन में कुछ क्रियाएँ, किसी बाह्य उद्दीपन के अनुक्रिया स्वरूप, बिना मस्तिष्क की जानकारी के अकस्मात् हो जाती हैं।उदाहरणतः किसी सर्प (साँप) को अकस्मात् देखते ही एकाएक कूदकर पीछे हट जाना। यहाँ सर्प ने या उद्दीपन का कार्य किया और चौंककर कूदना एक ऐसी अनैच्छिक क्रिया हुई, जिसके लिए मस्तिष्क ने प्रेरणा नहीं दी। ऐसी अनैच्छिक क्रियाओं को ही प्रतिवर्ती क्रियाओं (Reflex actions) की संज्ञा दी जाती हैं।
इनके लिए किसी विचार अथवा प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती। ये क्रियाएँ मेरुरज्जु (Spinal cord) से नियन्त्रित होती हैं। बाह्य उद्दीपनों या संवेदनाओं को ग्राही अंगों (नेत्र, कान, नाक, जीभ एवं त्वचा) द्वारा ग्रहण कर संवेदी तन्त्रिका कोशिका से मेरुरज्जु तक पहुंचा दिया जाता हैं। मेरुरज्जु इन संकेतों को प्राप्त कर उचित आदेश निर्गत करता है। ये आदेश प्रेरक तन्त्रिका कोशिका द्वारा सम्बन्धित अंगों की ऐच्छिक पेशियों तक पहुँचा दिए जाते हैं। इस सम्पूर्ण मार्ग को प्रतिवर्ती चाप (Reflex arc) की संज्ञा दी जाती हैं।
प्रतिवर्ती क्रिया के प्रकार
प्रतिक्त क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं
1. अनुबन्धित प्रतिवर्ती क्रिया (Conditioned Reflex Action) कुछ | क्रियाएँ नियमित अभ्यास के बाद स्वचालित हो जाती हैं। इनका नियन्त्रण मस्तिष्क के स्थान पर मेरुरज्जु द्वारा होने लगता है; जैसे- भोजन देखकर मुंह में पानी आना, साइकिल चलाना, नृत्य करना एवं अन्य कौशल आदि।
2. अबन्धित प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Unconditioned Reflex Action) ये प्रतिवर्ती क्रियाएँ अर्जित न होकर जन्मजात होती है; जैसे-तेज प्रकाश पड़ने पर पुतली का सिकुड़ना, ठण्ड में रोंगटे खड़े होना, छींकना, खाँसना, पलक का झपकना एवं उबासी लेना आदि।
प्रश्न 4.
प्रतिवर्ती क्रियाओं के महत्त्व को उदाहरण सहित समझाइए। (2010, 12)
उत्तर:
प्रतिवर्ती क्रियाओं का महत्त्व
प्रतिवर्ती क्रियाओं के महत्त्वे का संक्षिप्त विवरण निम्न है
1. प्रतिवर्ती क्रियाओं द्वारा विभिन्न बाह्य आक्रमणों एवं खतरों से हमारी रक्षा सुनिश्चित हो पाती है। उदाहरणतः किसी गर्म वस्तु पर हाथ पड़ जाने से एकदम से हाथ को वापस खींच लेना अथवा आँख के सामने अचानक किसी वस्तु के आ जाने से पलक का झपकना, जिससे आँखें सुरक्षित रहें।
2. कुछ आन्तरिक प्रतिवर्ती क्रियाएँ भी विशेष महत्त्व रखती हैं। ये क्रियाएँ शरीर | के लिए आवश्यक एवं उपयोगी क्रियाओं को पूरा करने में सहायक होती हैं। उदाहरणत: भोजन ग्रहण से पूर्व मुंह में लार का स्राव, भोजन के पाचन के लिए विशेष महत्त्व रखता है।
3. कुछ प्रतिवर्ती क्रियाएँ, परिवर्तनशील पर्यावरण के साथ अनुकूलन स्थापित करने में भी विशेष भूमिका निभाती हैं। उदाहरणत: अचानक वातावरण का | ताप बढ़ जाने पर, शरीर प्रतिवर्ती क्रिया द्वारा त्वचा से पसीने को निकालना , प्रारम्भ कर देता है तथा शरीर का ताप सामान्य बना रहता है।
प्रश्न 5.
मादक पदार्थों का स्नायु तन्त्र पर क्या प्रभाव पड़ता है? (2006, 08)
उत्तर:
मादक पदार्थ ऐसे नशीले पदार्थ हैं, जो शरीर के तन्त्रिका-तन्त्र को उत्तेजित करते हैं, इनसे अल्प समय के लिए तन्त्रिका तन्त्र से शेष शरीर का सन्तुलन बिगड़ जाता है। शरीर में उत्पन्न उत्तेजना के कारण व्यक्ति को आंशिक स्फूर्ति का आभास होता है। उल्लेखनीय है कि इन मादक पदार्थों का कोई पोषक मूल्य नहीं होता है। मादक पदार्थ तरल एवं ठोस दोनों रूपों में पाए जाते हैं। इनके उदाहरण हैं- एल्कोहॉल (शराब), तम्बाकू, अफीम, कोकीन, भाँग आदि।
स्नायु-तन्त्र पर प्रभाव मादक वस्तुएँ परिसंचरण के माध्यम से मस्तिष्क तथा शरीर के समस्त भागों में पहुँचती हैं। धूम्रपान के प्रभाव को फेफड़े से दिमाग तक पहुँचने में केवल सात सेकण्ड लगते हैं। मादक वस्तुओं के प्रभाव से स्नायु तन्त्र का पेशियों पर नियन्त्रण क्रमशः कमजोर होने लगता है। ऐसे व्यक्ति का प्रतिक्रिया काल बढ़ जाता है अर्थात् वह उत्तेजनाओं के प्रति देर से प्रतिक्रिया करता है।
इसी प्रकार व्यक्ति का शारीरिक सन्तुलन भी बिगड़ने लगता है। मादक पदार्थों के अत्यधिक व्यसन से व्यक्ति की सोचने-समझने एवं विश्लेषण करने की शक्ति क्षीण होती रहती है। एकाग्रता हीनता, स्मरण शक्ति की क्षीणता, पहचान शक्ति की
कमी एवं आत्मसंयम का अभाव इसके अन्य दुष्प्रभाव हैं।
प्रश्न 6.
ज्ञानेन्द्रिय क्या हैं? शरीर की ज्ञानेन्द्रियों के नाम लिखकर उनके कार्य लिखिए। (2010)
अथवा
टिप्पणी लिखिए-ज्ञानेन्द्रियाँ। (2014)
उत्तर:
ज्ञानेन्द्रियों का अर्थ
हमारे बाह्य वातावरण में विविध प्रकार के उद्दीपक उपस्थित होते हैं; जैसे—संगीत, मिठाई, फूल की सुगन्ध, कपड़े का चिकनापन आदि। ये उद्दीपन विभिन्न प्रकार की सूचनाओं के स्रोत हैं। शरीर के वे अंग जो इन सूचनाओं को प्राप्त एवं संग्रहीत करते हैं तथा उन्हें आवेग के रूप में तन्त्रिका तन्त्र को पहुँचाते हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ या संवेदनाग्राही अंग कहलाते हैं।
मानव शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ
हमारे शरीर में पाँच बाह्य ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, जिल्ला एवं त्वचा) च दो आन्तरिक ज्ञानेन्द्रियाँ हैं गति संवेदी तन्त्र, प्रद्याण तन्त्र हैं।
बाह्य ज्ञानेन्द्रियाँ
1. कर्ण (Ear) इनका कार्य ध्वनि संवेदनाओं को ग्रहण करना है। कानों के माध्यम से हम ध्वनि की विशेषताओं तीव्रता (Loudness), तारत्व (Pitch) ” अथवा स्वर का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
2. नेत्र (Eyes) इनका मुख्य कार्य बाहरी वस्तुओं के आकार एवं रंग की संवेदनाओं को ग्रहण करना हैं। दृष्टिपटल (Retina) की प्रकाश संवेदी
कोशिकाएँ दण्ड (Rodes) एवं शंकु (Cones) दृष्टि के ग्राही होते हैं।
3. नासिका (Nose) नाक के माध्यम से हमें गन्ध विशेष का ज्ञान होता है।
4. जिल्ला (Tongue) इसका प्रमुख कार्य स्वाद सम्बन्धी संवेदनाओं को ग्रहण करना है।
5. त्वचा (Skin) त्वचा एक संवेदी अंग है, जिससे स्पर्श (दबाव), गर्मी, सर्दी तथा पीड़ा आदि की संवेदनाएँ उत्पन्न होती हैं। हमारी त्वचा में इनमें से प्रत्येक संवेदना के लिए विशिष्ट ग्राहियाँ होती हैं।
आन्तरिक ज्ञानेन्द्रियाँ
1. गति संवेदन तन्त्र (Kinesthetic System) इसके ग्राही अंग स्नायु तथा मांसपेशियों में पाए जाते हैं। यह तन्त्र हमारे शरीर के अंगों की परस्पर स्थिति के विषय में सूचना देता है।
2. प्रघाण तन्त्र (Vestibular System) यह तन्त्र हमारे सन्तुलन बोध को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। इस तन्त्र के संवेदी अंग, आन्तरिक कान में स्थित होते हैं।
प्रश्न 7.
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए। (2004)
1. स्वादेन्द्रियाँ
2. घ्राणेन्द्रियाँ
अथवा
टिप्पणी लिखिए-स्वादेन्द्रिय के कार्य। (2011)
उत्तर:
1. स्वादेन्द्रिय जिह्वा स्वादेन्द्रिय है। स्वाद के संवेदी ग्राहक, हमारी जीभ के छोटे उभरे हुए भाग में पाए जाते हैं, जिन्हें पैपिला या अंकुर कहते हैं। प्रत्येक पैपिला में स्वाद कलिका के गुच्छे होते हैं। इन्हीं स्वाद कलिकाओं में संवेदी कोशिकाएँ पाई जाती हैं, जो स्वाद के अनुभवों को मस्तिष्क को भेजती हैं। मूल स्वाद केवल चार प्रकार के होते हैं- मीठा, खट्टा, कड़वा तथा नमकीन। जीभ के स्वतन्त्र छोर पर मीठे तथा नमकीन का, जीभ के पाश्र्व में खट्टे का और पश्च में कड़वे का ज्ञान कराने वाले स्वाद ग्राही होते हैं, किन्तु हम अन्य कई स्वादों का अनुभव भी करते हैं, कारण कि हम केवल भोजन के स्वाद से ही परिचित नहीं होते, बल्कि उसकी गन्ध, कण, तापमान, जीभ पर उसके दबाव तथा अन्य बहुत-सी संवेदनाओं से परिचित होते हैं। ये सभी कारक मिलकर हमें विशिष्ट स्वाद का अनुभव देते हैं।
2. घ्राणेन्द्रियाँ नाक गन्धग्राही इन्द्री है, इसके माध्यम से हमें गन्ध का ज्ञान होता है। गन्ध संवेदना के उद्दीपक हवा में विद्यमान विभिन्न पदार्थों के अणु होते हैं। ये अणु नासा वेश्म (Nasal chamber) में प्रवेश करते हैं, जहाँ वे नाक की श्लेष्मा (नमी) में घले जाते हैं। यहाँ से गन्ध के रासायनिक उद्दीपनों को नासा वेश्म की भित्ति (घ्राण उपकला) में स्थित संवेदी कोशिकाएँ ग्रहण करती है एवं मस्तिष्क को भेजती हैं।
मस्तिष्क के विश्लेषण के पश्चात् मनुष्य को सुगन्ध या दुर्गन्ध का बोध होता हैं। जुकाम आदि होने पर गन्ध की अनुभूति नहीं होती, क्योंकि श्लेष्मा झिल्ली पर सूजन आ जाने के कारण वायु के कण ऊपर तक नहीं पहुँच पाते हैं।
प्रश्न 8.
बहरेपन के क्या कारण हैं? (2014)
उत्तर:
कान एक श्रवणेन्द्रिय है, जिसका मुख्य कार्य ध्वनि की संवेदनाओं को ग्रहण करना है। इस क्रिया के अवरुद्ध होने को कान का बहरापन कहा जाता है। इसमें या तो कान की बनावट में ही कोई विशेष कमी या विकृति होती हैं अथवा किसी अन्य कारणों से; जैसे—संक्रमण होने या चोट लगने, आदि से कान कोई भी ध्वनि उद्दीपन ग्रहण नहीं कर पाते हैं।
बहरेपन के कारण
बहरेपन के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं।
- किसी दुर्घटना अथवा असावधानों के कारण कान का पर्दा फट जाने से।
- किसी आन्तरिक संरचना की अतिवृद्धि के कारण कर्ण नली का बन्द हो जाना।
- कान में संक्रमण के कारण मवाद आदि के भर जाने से।
- संवेदनाओं का संवहन करने वाली श्रवण तन्त्रिका अथवा मस्तिष्क के श्रवण केन्द्रों में दोष भी बहरेपन के कारण हो सकते हैं।
- कान के पर्दे पर अधिक गन्दगी अथवा स्राव इत्यादि के मैल के रूप में जमा होने पर।
- लम्बी अवधि तक ध्वनि प्रदूषण के कारण भी बहरेपन की समस्या उत्पन्न हो सकती है।
- जुकाम, एवं फ्लू आदि की स्थिति में कण्ठ-कर्ण नली प्रभावित हो सकती है। नली के बन्द होने तथा सूजन आदि आने से कान में वायुदाब सन्तुलन के बिगड़ने की सम्भावना बढ़ जाती है। इससे ध्वनि उद्दीपनों को ग्रहण करने में व्यवधान उत्पन्न होता है।
प्रश्न 9.
कार्य के आधार पर त्वक् ज्ञानेन्द्रिय (Cutinuous Sense 0rgan) को कितने भागों में बाँटा जाता है?
उत्तर:
कार्य के आधार पर इन्हें दो वर्गों में बाँटा जा सकता है। |
1. पीड़ा संवेदांग (Pain Receptore) त्वचा की अधिचर्म तथा चर्म में । शाखामय संवेदी तन्त्रिका तन्तुओं का जाल फैला रहता है। इसके स्वतन्त्र पुटिकाविहीन छोर पीड़ा, खुजली, जलन आदि का ज्ञान कराते हैं।
2. स्पर्श संवेदांग (Tactile Receptors) इन संवेदी तन्त्रिका तन्तुओं के अन्तिम छोर घुण्डीदार, चपटे या तश्तरीनुमा होते हैं। चर्म में स्थित संवेदी । तन्त्रिका तन्तुओं के छोर पर बेलनाकार संवेदी संरचनाएँ मीसनर के देहाणु (Moiteners corpuscles) होते हैं। इसी प्रकार अधिचर्म में प्यालीनुमा देहाणु के समूह ‘मरकेल की तश्तरियाँ’ (Merkel’s dises) पाए जाते हैं। ये स्पर्श की संवेदनाओं को ग्रहण करते हैं। चर्म की गहराई में स्थित पैसिनाइ के देहाणु (Pacinian corpuscles) दबाव के उद्दीपनों को ग्रहण करते हैं।
प्रश्न 10.
नाक से साँस लेना क्यों लाभदायक है? (2018)
उत्तर:
नाक द्वारा साँस लेने से अनेक लाभ हैं। यह हमारे मस्तिष्क के साथ-साथ फेफड़ों के लिए भी बहुत लाभकारी होती है। नाक से गहरी साँस लेना दिमागी ताकत को बढ़ाता है तथा इससे यादाशश्त भी मजबूत होती है। नाक से श्वास लेने पर दिमाग पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, किन्तु मुंह से साँस लेने पर यह प्रक्रिया लागू नहीं होती। नाक के छिद्रों में रोएँ होते हैं। ये रोएँ सांस लेने की प्रक्रिया के दौरान नमी, धूल के कण, जीवाणु तथा गर्मी इत्यादि को छानकर फेफड़ों तक पहुँचाते हैं। इससे बाहरी गन्दगी फेफड़ों तक नहीं पहुंच पाती।
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (5 अंक, 100 शब्द)
प्रश्न 1.
मस्तिष्क की रचना चित्र बनाकर समझाइए तथा इसके विभिन्न भागों के कार्यों का वर्णन कीजिए। (2018, 07)
अथवा
मस्तिष्क की रचना एवं कार्य समझाइए। (2009)
उत्तर:
मस्तिष्क : संरचना तथा विभिन्न भागों के कार्य
मस्तिष्क पूरे शरीर तथा स्वयं तन्त्रिका तन्त्र का नियन्त्रण कक्ष है। यह तन्त्रिका ऊतकों का बना एक कोमल अंग है। इसका कुल औसतन भार 1300 ग्राम होता है। मस्तिष्क अस्थियों के खोल क्रेनियम में बन्द रहता है, जो इसे बाहरी आघातों से बचाता है। इसके चारों ओर तीन झिल्लियों का आवरण होता है, इसे मेनिनजेस कहते हैं। आवरण की सबसे चाहा झिल्ली को दृढ़तानिका (Duramater), मध्य परत को जालतानिका (Arachnoid) तथा सबसे भीतरी परत को मृदुतानिका (Pin tmater) कहते हैं। भीतरी झिल्ली में अनेक रुधिर केशिकाओं का जाल फैला रहता है। इन्हीं के माध्यम से मस्तिष्क को ऑक्सीजन एवं भोज्य पदार्थों की आपूर्ति होती हैं।
मस्तिष्क आवरण गुहा में एक पोषक द्रव्य भरा रहता है। सेरीम्रोस्पाइनल द्रव नामक यह तरल मस्तिष्क को नम बनाए रखता है।
मस्तिष्क के तीन प्रमुख भाग होते हैं– अग्न, मध्य एवं पश्च मस्तिष्क। इन भागों का विवरण निम्नलिखित है।
मस्तिष्क के तीन
- अग्र मस्तिष्क
- मध्य मस्तिष्क
- पश्न मस्तिष्क
1. अग्र मस्तिष्क (Fore Brain)
यह मस्तिष्क का सबसे अगला भाग है। यह कुल मस्तिष्क का 2/3 भाग होता है, इसके प्रमुख भाग निम्नलिखित हैं।
(i) घ्राण पिण्ड (Olfactory lobes) मस्तिष्क में सबसे आगे धूसर द्रव्य (Gray matter) के बने दो पृथक् घ्राण पिण्ड होते हैं।
कार्य यह भाग गन्ध को पहचानने (Sense of smell) का कार्य करता है।
(ii) प्रमस्तिष्क (Cerebrum) घ्राण पिण्डों के ठीक पीछे स्थित प्रमस्तिष्क, बाहर से धूसर पदार्थ (Gray matter) तथा अन्दर से श्वेत पदार्थ (White matter) द्वारा निर्मित होता है। यह दो गोलाद्ध का बना होता है, जिन्हें प्रमस्तिष्क अर्द्ध-गोलाई (Cerebral hemispheres) कहते हैं।प्रमस्तिष्क की बाहरी सतह पर अनेक टेढ़े मेढे उभार होते हैं, जिनके बीच-बीच में खाँचे होते हैं। इन उभारों के आधार पर सेरीब्रम् को चार भागों में बाँटा जा सकता है-फ्रण्टल पालि, पैराइटल पालि, टैम्पोरल पालि तथा ऑक्सीपीटल पालि।
- फ्रण्टल पालि द्वारा ऐच्छिक पेशियों पर नियन्त्रण होता है।
- पैराइटल पालि द्वारा हमारी त्वचा से प्राप्त संवेदन प्राप्त किए जाते हैं; जैसे-स्पर्श, दबाव आदि।
- ऑक्सीपीटल पालि द्वारा दृश्य संवेदनाएँ ग्रहण की जाती हैं।
- टेम्पोरल पालि श्रवण (सुनने) में सहायक है।
कार्य मस्तिष्क का यह भाग बुद्धिमता, चेतना शक्ति तथा स्मरण शक्ति का केन्द्र है। ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त संवेदनाओं का यहाँ विश्लेषण चे समन्वय करता है तथा ऐच्छिक पेशियों को समुचित प्रतिक्रिया हेतु सूचनाएं प्रसारित करता है।
(iii) डाइएनसिफैलान (Diencephalon) इस भाग से पीनियल काय (Pineal body) तथा पिट्यूटरी ग्रन्थि (Pituitary gland) निकलती हैं। थैलेमस व हाइपोथैलेमस इसी के भाग हैं।
थैलेमस के कार्य यह अत्यधिक ताप, शीत या पीड़ा आदि के ज्ञान का केन्द्र होता है।
हाइपोथैलेमस के कार्य यह भूख, प्यास, निद्रा, थकान, आदि का अनुभव करता है, इसके अतिरिक्त यह प्यार, घृणा, क्रोध आदि मनोभावनाओं का केन्द्र होता है। यह उपापचय तथा जनन क्रिया आदि का नियमन भी करता है।
2. मध्य मस्तिष्क (Mid Brain) प्रमस्तिष्क के पीछे गोल उभारों के रूप में मध्य मस्तिष्क होता है। मध्य मस्तिष्क का तन्तुओं के बण्डल सदृश भाग अग्न मस्तिष्क को पश्च मस्तिष्क से जोड़ने का कार्य करता है।
कार्य
यह दृष्टि-ज्ञान तथा सुनने की संवेदनाओं के समन्वय को नियन्त्रित
करता है।.
3. पश्च मस्तिष्क (Hind Brain)
इसके अन्तर्गत अनुमस्तिष्क तथा मस्तिष्क पुच्छ आता है।
(i) अनुमस्तिष्क (Cerebellum) यह प्रमस्तिष्क के पिछले भाग में नीचे की
ओर स्थित होता है। यह पिचके गोले के समान संरचना है, जिसके तल पर धारियाँ होती हैं।
कार्य
- यह प्रमस्तिष्क द्वारा भेजी गई सूचनाओं के अनुसार ऐच्छिक पेशियों के संकुचन पर नियन्त्रण करता है
- चलना, कूदना, दौड़ना आदि सभी गतियाँ इसी के नियन्त्रण द्वारा होती हैं।
- शरीर का सन्तुलन भी इसी से बना रहता है।
(ii) मस्तिष्क पुच्छ (Medulla 0blongata) यह मस्तिष्क का सबसे पिछला भाग हैं। यह अनुमस्तिष्क के सामने स्थित होता है, इसकी आकृति बेलनाकार होती हैं।
कार्य
यह भाग हृदय स्पन्दन, श्वास-दर, रक्त दाब, उपापचय, आहारनाल के क्रमांकुचन, ताप नियन्त्रण, ग्रन्थियों के स्राव आदि को नियन्त्रित करता हैं।
- उल्टी, छींक, जुकाम, हिचकी आदि पर भी नियन्त्रण करता है।
- यह मेरुरज्जु तथा शेष मस्तिष्क के बीच संवेदनाओं के संवहन मार्ग का कार्य भी करता है।
प्रश्न 2.
नेत्र का नामांकित चित्र बनाकर उसके कार्य लिखिए। (2018, 04)
अथवा
आँख के गोलक में कौन-कौन सी तीन परतें पाई जाती हैं? उनके नाम व कार्य लिखिए। (2013, 16)
उत्तर:
आँखें दृश्येन्द्रियाँ हैं, ये प्रकाश के लिए संवेदी होती हैं और वस्तुओं को देखने में सहायता करती हैं। चेहरे पर प्रत्येक आँख एक गोलक (Eyeball) के रूप में अस्थियों के बने एक साँचे (नेत्र कोटर) में स्थित होती हैं। ये नेत्र गोलक मांसपेशियों से जुड़े होते हैं, फलतः नेत्र कोटर के भीतर सभी दिशाओं में घुमाए जा सकते हैं। आँखों की सुरक्षा के लिए ऊपर-नीचे दो पलकें होती हैं। पलकों के किनारों पर बरौनियाँ (Eyelashes) तथा माइबोमियन ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं। इन ग्रन्थियों से तेल सदृश पदार्थ स्रावित होता है, जो पलकों के किनारों पर फैला रहता है। यह आँखों को धूल-मिट्टी के कणों से सुरक्षा प्रदान करता है। आँखों के कोनों में अश्रु या लैक्राइमल ग्रन्थियाँ होती हैं।
इनसे स्रावित जलीय तरल पलकों व आँखों को सदैव नम बनाए रखता है एवं इनकी सफाई करता है। शिशु जन्म के चार महीने बाद अश्रु ग्रन्थियां सक्रिय होती हैं।
नेत्र की आन्तरिक संरचना
प्रत्येक नेत्र गोलक की रचना तीन परतों से होती है। ये तीन परतें निम्नलिखित प्रकार हैं।
1. बाह्य पटल या दृव पटल (Sclerotic) नेत्र गोलक की सबसे बाहरी परत श्वेत तथा दृढ़ होती है, इसे दृढ़ पटल कहते हैं। इसका 4/5 अपारदर्शक भाग नेत्र कोटर में स्थित होता है, केवल 1/5 पारदर्शक भाग बाहर की ओर उभरा रहता है. इस उभरे भाग को कॉर्निया (Cornea) कहते हैं। कॉर्निया पर एक पतली झिल्ली फैली होती है, जिसे कंजक्टाइवा (Conjunctiva) कहते हैं। यह ऊपरी और निचली पलकों के मध्य की त्वचा होती हैं। दृढ़ पटल के पिछले भाग से दृष्टि तृन्त्रिका (0ptic nerve) निकलती है, जो मस्तिष्क से सम्बन्ध स्थापित करती है। दृढ़ पटल के द्वारा नेत्र के भीतरी भागों की सुरक्षा होती है। साथ ही यह नेत्रों को स्पष्ट आकृति प्रदान करता हैं।
2. मध्य पटल या रक्तकपटल (Choroid) यह नेत्रगोलक का कोमल, अपेक्षाकृत पतला तथा मध्य स्तर होता है। इसमें रक्त-नलिकाओं तथा अनेक रंगयुक्त कोशिकाओं का जाल फैला रहता है। इसी कारण यह परत काले रंग की दिखाई पड़ती है। काले रंग के कारण यह प्रकाश को अवशोषित करती है तथा नेत्र के भीतरी परावर्तन को रोकती हैं। इससे सुनिश्चित होता है कि केवल बाहर से आने वाली प्रकाश किरणे ही रेटिना पर पड़ती हैं। इस स्तर के प्रमुख भाग निम्नलिखित प्रकार हैं।
(i) उषतारा या आइरिस जितने वृत्ताकार भाग में कॉर्निया रहता है, वहां से यह मध्य परत दर पटल से पृथक् हो जाती है एवं भीतर की ओर एक रंगीन गोल पर्दा बनाती है, जिसे उपतारा या आइरिस कहते हैं।
(ii) नेत्र तारा या पुतली आइरिस के बीच में एक छिद्र होता है, जिसको नेत्र तारा या पतली कहते हैं। यह गोल एवं कालो दिखाई देती है। आइरिस की पेशियों आवश्यकतानुसार पुतली के व्यास को पटा-बढ़ा सकती हैं। इससे नेत्र में जाने वाले प्रकाश की मात्रा को नियन्त्रित करना सम्भव होता है।
(iii) सिनियरी काय उपता के आधार पर मध्य पटन अत्यधिक पेशोयुक्त होकर एक मोटी धारी के रूप में भीतर की ओर उभरा रहता है, जिसे स्पिलियरी काय कहते हैं। यह अत्यधिक संकुचनशील संरचना है।
(iv) नेत्र लेन्स नेत्र गोलक में एक उभयोत्तल लेन्स (Biconvex lens) स्थित होता है। यह पारदर्शी, रंगहीन और लचीला होता है। लेन्स सिलियरी तन्तुओं द्वारा सिलियरी काय से जुड़ा होता है। सिलियरी तन्तुओं द्वारा लेन्स की फोकस दूरी को घटाया या बढ़ाया जा सकता है। इस शक्ति को समंजन शक्ति (Accommodation power) कहते हैं।
(v) जल वेश्म तथा जेली वेश्म कॉर्निया एवं नेत्र-लेन्स के बीच के स्थान को जल वेश्म (Aqueous chamber) कहते हैं। इसमें जल के समान पारदर्शी द्रव भरा रहता है। इसी प्रकार लेन्स एवं अन्तः पटल के बीच के स्थान को जेली वेश्म (Vitreous chamber) कहते हैं। इसमें एक पारदर्शक जेली सदृश काचाभ द्रव भरा रहता है। ये द्रव, नेत्र में प्रवेश करने वाली प्रकाश किरणों को अपवर्तित (तिरछा) करते हैं, जिससे अन्तः पटल पर प्रतिबिम्ब बनता हैं।
3. अन्तः पटल या दृष्टिपटले (Retina) यह सबसे अन्दर की तन्त्रिका संवेदी परत है। इसकी रचना काफी जटिल होती है, इसका निर्माण स्नायु कोशिकाओं से होता है। यह आँख की सबसे महत्त्वपूर्ण परत हैं, क्योंकि इसी पर वस्तु का प्रतिबिम्ब बनता है।
नेत्र गोलक के पिछले स्तर पर बाह्य पटल एवं मध्य पटल को भेदती हुई दृष्टि तन्त्रिका, दृष्टि पटल पर तन्त्रिका जाल के रूप में फैली रहती है, जिस स्थान पर यह प्रवेश करती है, वहाँ रेटिना की अनुपस्थिति के कारण कोई प्रतिबिम्ब नहीं बन सकता, इसलिए इसे अन्ध विन्द (Blind spot) कहते हैं। अन्ध बिन्दु के पास पीत बिन्दु (Yellow spot) होता है, जहाँ सबसे स्पष्ट चित्र बनता है।
नेत्र की कार्यविधि
जब हम किसी वस्तु को प्रकाश में देखते हैं, तो प्रकाश की किरणे वस्तु से टकराकर नेत्र की कॉर्निया पर पड़ती हैं। कॉर्निया तथा अलीय द्रव, प्रकाश किरणों को लगभग दो-तिहाई तिरछा कर देते हैं अर्थात् इनको अपवर्तित कर देते हैं। तत्पश्चात् ये किरणे पुतली में प्रवेश करती हैं। आइरिस, पुतली को छोटा या बड़ा करके प्रकाश की मात्रा का नियन्त्रण करता है। तीव्र प्रकाश में पुतली सिकुड़ जाती है तथा कम प्रकाश नेत्र के अन्दर प्रवेश करता है। कम प्रकाश में पुतली फैल जाती हैं तथा अधिक प्रकाश नेत्र के भीतर प्रवेश करता है। तत्पश्चात् किरणे पुतली से होकर लेन्स पर पड़ती हैं।
लेन्स इनको पूर्ण अपवर्तित कर देता हैं और रेटिना पर वस्तु का वास्तविक एवं उल्टा प्रतिबिम्ब बनता है। रेटिना की संवेदी कोशिकाएँ दृष्टि के उद्दीपनों को ग्रहण करती हैं। इन संवेदनाओं को दृष्टि तन्त्रिका मस्तिष्क में पहुँचाती हैं, जहाँ
प्रतिबिम्ब का विश्लेषण होता है और व्यक्ति को वस्तु की वास्तविक स्थिति का | ज्ञान हो जाता है।
प्रश्न 3.
दृष्टि के मुख्य दोष कौन-कौन से हैं? इनके प्रारम्भिक लक्षण एवं उपचार क्या हैं? समझाइए। (2003, 09, 12)
अथवा
निकट दृष्टि दोष का संक्षिप्त विवरण दीजिए। (2016)
उत्तर:
दृष्टि के मुख्य दोष/लक्षण एवं उपचार
दृष्टि के दोष, कारण, लक्षण एवं उपचार के उपाय निम्नलिखित हैं।
1. निकट दृष्टि दोष (Short Sightedness or Myopia) इस दोष में नेत्र के गोलक के कुछ बड़े हो जाने या कॉर्निया अथवा लेन्स के अधिक उत्तल (Convex) हो जाने के कारण फोकस बिन्दु एवं रेटिना के बीच की दूरी बढ़ जाती है अर्थात् प्रतिविम्ब रेटिना के आगे बनता है। अतः इस दोष में पास की वस्तुएँ तो साफ दिखाई देती हैं, परन्तु दूर की वस्तुएं धुंधली दिखाई देती हैं।
कारण पौष्टिक भोजन का अभाव, गलत तरीके से बैठकर या लेटकर पढ़ना, बहुत कम या अधिक प्रकाश में पढ़ना, आँखों पर अधिक जोर देना आदि कारणों से यह दोष हो सकता है।
लक्षण दूर की वस्तुएँ अस्पष्ट दिखाई देना, आँखों के ऊपरी भागों तथा सिर में दर्द रहना, आँखों में पानी आना तथा टीवी देखने में परेशानी आदि।
उपचार अवतल लेन्स (Concave) वाले चश्मे का प्रयोग करना चाहिए। इसके अतिरिक्त उपरोक्त कारणों का निदान आवश्यक है।
2. दूर दृष्टि दोष (Long Sightedness or Hypermetropia) इस दोष में नेत्र गोलक का व्यास छोटा होने अथवा लेन्स के चपटा होने से प्रकाश की किरणे अपवर्तन के बाद केन्द्रीभूत होने से पहले ही रेटिना पर पड़ती हैं। अतः प्रतिबिम्ब रेटिना के पीछे बनता है। फलतः पास की वस्तुएँ धुंधली दिखाई देती हैं। दूरदर्शिता में दूर की वस्तु स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
कारण पोषण के अभाव में इस दोष की उत्पत्ति होती है। इसके अतिरिक्त बढ़ती उम्र में शारीरिक क्षमता घटने के साथ इस दोष की सम्भावना बढ़ जाती है।
लक्षण वस्तु को अपने से दूर करके देखना, आँखों का अन्दर की ओर धंस जाना, बारीक काम करने में अत्यधिक परेशानी होना एवं सिर में दर्द रहना आदि इस दोष के लक्षण हैं।
उपचार इस दोष की स्थिति में उत्तल (Convex) लेन्स वाले चश्मे का प्रयोग करना चाहिए। साथ ही, आहार में पोषक तत्वों का अधिक प्रयोग करना चाहिए।
3. जरादूरदृष्टिता (Preubyopia) वृद्धावस्था में लेन्स अथवा सिलियरी पेशियों की लचक कम हो जाती हैं, जिसके कारण समीपवर्ती वस्तुओं का प्रतिबिम्ब अच्छी तरह फोकस नहीं हो पाता। इस प्रकार मूलत: समस्या सामंजस्य में होती हैं।
लक्षण इस दोष में व्यक्ति दूर की वस्तुएँ देखने में सक्षम होता है। अतः व्यक्ति पढ़ते समय पुस्तक को आँखों से बहुत दूर रखती हैं।
उपचार इस दोष में व्यक्ति को उत्तल लेन्स के चश्मे का प्रयोग करना चाहिए।
4. भैंगापन (Strabismus) यह दोष नेत्र गोलक को घुमाने वाली पेशियों में कमजोरी आ जाने के कारण या पेशियों के छोटे अथवा बड़े हो जाने के कारण होता है।
लक्षण इस दोष में व्यक्ति का नेत्र गोलक एक ओर को झुका सा दिखाई देता है।
उपचार ऑपरेशन द्वारा सम्बन्धित पेशी को ठीक किया जा सकता है।
5. मोतियाबिन्दै (Cataract) इस दोष में लेन्स आंशिक रूप से अथवा पूर्णत: अपारदर्शी हो जाता हैं। फलत: प्रकाश किरणें दृष्टिपटल तक नहीं पहुंच पाती।
लक्षण इस दोष में व्यक्ति को धीरे-धीरे दिखाई देना बन्द हो जाता है।
उपचार ऑपरेशन द्वारा अपारदर्शी लेन्स को निकालकर उसके स्थान पर कृत्रिम लेन्स प्रतिस्थापित कर दिया जाता हैं। इसके अतिरिक्त सीसीएम फेको विधि में मोतियाबिन्द (आच्छादित परत) को काटकर उसे बाहर खींच लिया जाता हैं। इस ऑपरेशन में अल्ट्रासाउण्ड तरंगों का प्रयोग किया जाता है।
6. रतौंधी (Night Blindness) यह रोग भोजन में विटामिन ‘A’ की कमी के कारण होता है। इसमें रेडॉप्सिन नामक दृष्टि वर्णक का संश्लेषण कम होता है।
लक्षण इसमें व्यक्ति को कम या धुंधले प्रकाश में कम दिखाई देता है।
उपचार आहार में विटामिन ‘A’ युक्त भोज्य पदार्थों; जैसे-पपीता, गाजर,
मछली का तेल आदि को शामिल करके इस रोग का उपचार सम्भव है।
7. वर्णान्यता (Colour Blindness) यह एक वंशानुगत रोग है। इस रोग से ग्रसित व्यक्तियों में विभिन्न रंगों (विशेषतः लाल एवं हरा रंग) को पहचानने की क्षमता नहीं होती है। इससे मुख्यतः पुरुष प्रभावित होता है। सामान्य रूप से इस दोष का निवारण नहीं हो पाता है।
8. नेत्रों के कुछ अन्य सामान्य रोग निम्नलिखित हैं
(i) कंजक्टाइवा शोथ (Conjunctivitis) यह विभिन्न सूक्ष्मजीवों के संक्रमण से होता है। इससे प्रभावित नेत्र में जलन तथा किरकिरापन – अनुभव होता है, पलके सूज जाती हैं तथा कंजक्टाइवा (नेत्र श्लेष्म) लाल हो जाता है। रोगी प्रकाश सहन नहीं कर पाता है। इसके उपचार हेतु चिकित्सीय परामर्श लेना चाहिए एवं संक्रमण से बचाव के उपाय करने चाहिए।
(ii) आँखों का तिरछा होना (Squint) इसमें बच्चों की दोनों आँखों की दृष्टि में अन्तर होता है, जिसके कारण प्रत्येक वस्तु को देखने के लिए आँखों को परिश्रमपूर्वक इधर-उधर घुमाना पड़ता है। इससे पेशियों की कार्यक्षमता क्षीण होती जाती है। यह रोग ऑपरेशन द्वारा ठीक किया जा सकता है।
(iii) गुहेरी (Sty) पलकों की वसा ग्रन्थियों में सूजन आने से आँख में एक छोटी फुन्सी हो जाती है। आँखों में गन्दे हाथ लगाने या पेट की खराबी से भी यह रोग उत्पन्न हो जाता है। इसके उपचार हेतु आँखों को साफ रखना आवश्यक है।
प्रश्न 4.
कान का नामांकित चित्र बनाकर उसके कार्यों को समझाइए। (2004, 06)
उत्तर:
मानव खोपड़ी में, नेत्रों के पीछे की ओर दोनों ओर एक-एक कान स्थित होते हैं। कान दो प्रमुख कार्य करते हैं-एक सुनने (Hearing) का तथा दूसरा शरीर का सन्तुलन बनाए रखने का, इसी कारण इन्हें श्रवणोसन्तुलन ज्ञानेन्द्रियाँ कहते हैं।
कान की संरचना
कान को तीन प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है-बाह्य कर्ण, मध्य कर्ण तथा अन्तः कर्ण।.
1. बाह्य कर्ण (External ear) यह कान का सबसे बाहरी भाग है, इसके दो भाग होते हैं।
(i) कर्णपल्लव अथवा पिन्ना (Pinna) यह उपास्थि से बना कीपनुमा बाहर से दिखाई देने वाला भाग है। यह खोपड़ी की हड्डियों से जुड़ा
रहता है। यह ध्वनि तरंगों को एकत्र करने में सहायक है।
(ii) कर्ण नली (Auditory Canal) कर्णपल्लव अन्दर की ओर एक पतली नली से जुड़ा रहता है, इसे कर्ण नली कहते हैं। नली का कुछ भाग अस्थि एवं कुछ भाग उपास्थि का बना होता है। नली की भीतरी सतह पर छोटे-छोटे रोम पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त सतह से सीबम नामक मोम जैसा पदार्थ स्रावित होता है। इन्हीं कारणों से धूल आदि के कण अन्दर प्रवेश नहीं कर पाते एवं मैल के रूप में कर्ण नली से चिपक जाते हैं।कर्ण नली के अन्तिम सिरे पर, झिल्ली के समान कान का पर्दा होता है, जहाँ ध्वनि तरंगें टकराती हैं।
2. मध्य कर्ण (Middle ear) यह कान के पर्दे के भीतर की ओर एक गुहा के रूप में होता है, इसे कर्ण-गुहा (Tyrmpanic cavity) कहते हैं। इसमें हवा भरी रहती है।
यह गुहा एक चौड़ी नलिका द्वारा कण्ठ से मिलती है। इस नलिका को कण्ठ-कर्ण नली (Eustachian tube) कहते हैं। यह नली, कान के पर्दे के दोनों ओर वायुदाब समान रखती हैं, जिससे पर्दा सुरक्षित रहता है। कर्ण गुहा में तीन क्रमानुसार (बाहर से भीतर की ओर) छोटी-छोटी हड्डियाँ होती हैं, जिनका नाम उनकी आकृति के अनुसार होता है। पहली हथौड़े के आकार की मेलियस, दूसरी नेहाई के आकार की इन्कस तथा तीसरी रकाब के आकार की स्टेपीज कहलाती है। जब ध्वनि तरंगे कान के पर्दे से टकराती हैं, तो कम्पन उत्पन्न होता है। उपरोक्त तीन अस्थियों की श्रृंखला इस कम्पन्न को अन्त:कर्ण तक पहुँचाती हैं।
3. अन्त:कर्ण (Internal ear) अन्त:कर्ण एक अर्द्धपारदर्शक झिल्ली से बनी जटिल रचना होती है, जिसे कलागन (Membranous labyrinth) कहते हैं। कलागहन, खोपड़ी की टैम्पोरल अस्थि के खोल (कोष) में रहता है, इस खोल को अस्थीय लेबिरिन्थ (Bony labyrinth) कहते हैं। अस्थीय लेबिरिन्थ में परिलसीका (Perilymph) भरा रहता है, जिसमें कलागहन तैरता रहता है। कलागहन के भीतर अन्तः लसीका (Endolymph) भरा रहता है। कलागहन के मुख्य भाग निम्नलिखित हैं।
- अर्द्धवृत्ताकार नलिकाएँ कलागहन से तीन अर्द्धवृत्ताकार नलिकाएँ निकलती हैं, जो घूमकर वापस इसी में खुल जाती हैं। ये नलिकाएँ जहाँ खुलती हैं, वह भाग कुछ फूला हुआ होता है। इस फूले भाग को ऐपुला (Ampulla) कहते हैं। इस भाग में संवेदी अंग उपस्थित होते हैं, जो शारीरिक सन्तुलन को बनाए रखने में सहायक होते हैं।
- वैस्टीब्यूल यह भाग अन्त:कर्ण के मध्य में स्थित होता है, इसमें एक बड़ा अण्डाकार छिद्र होता है, जो एक झिल्ली से ढका रहता है। यह भाग अन्त:कर्ण के प्रथम भाग को अन्तिम भाग से जोड़ता है।
- कॉक्लियर नलिका (Cochlear tube) यह एक कुण्डलित नलिका है, जो घोंघे के कवच के समान स्वयं पर मुड़ी होती है। काँक्लियर नलिका की गुहा में संवेदी संरचना कॉरटाई के अंग (Organ of corti) पाए जाते हैं। ये अंग ध्वनि के उद्दीपनों को ग्रहण करते हैं। ये सुनने की क्रिया के महत्त्वपूर्ण अंग हैं।
कानों की क्रियाविधि
1. सुनने की क्रिया (Process of Hearing) कर्णपल्लव ध्वनि तरंगों को एकत्र करने में सहायक होते हैं। ध्वनि तरंगें, कर्णपल्लव से टकराकर कर्ण नली में आगे की ओर बढ़ती हैं तथा कान के पर्दे से टकराकर इसमें कम्पन उत्पन्न करती हैं। मध्य कर्ण में उपस्थित कर्ण अस्थियाँ इन कम्पनों की तीव्रता को लगभग 10 गुना बढ़ाकर अन्त:कर्ण तक पहुँचाती हैं। इसके फलस्वरूप सर्वप्रथम अन्त:कर्ण के परिलसीका तथा इसके बाद कलागहन के भीतर स्थित अन्तः लसीका में कम्पन होने लगता है। कम्पनों के कारण कॉरट के अंग में संवेदनाएँ उत्पन्न होती हैं, जो श्रवण तन्त्रिकाओं द्वारा ग्रहण करके मस्तिष्क में भेज दी जाती हैं। मस्तिष्क में इन कम्पनों का विश्लेषण होता है और अन्ततः सुनने की क्रिया सम्पन्न होती हैं।
2. सन्तुलन क्रिया (Control on Body Balance) शरीर का सन्तुलन बनाए रखने में ऐम्पुला की विशेष भूमिका होती है। शरीर की गति एवं गमन के अनुसार कलागहन के भीतर स्थित अन्त: लसीका में भी गति होती है। अन्तः । लसीका के हिलने-डुलने से ऐम्पुला की संवेदी कोशिकाएँ उत्तेजित हो जाती हैं। यही उत्तेजना अर्थात् संवेदनाएँ तन्त्रिकाओं के माध्यम से सेरीबेलम (अनुमस्तिष्क) में पहुँचती हैं। मस्तिष्क का यह भाग सम्बन्धित पेशियों को सूचना भेजकर शरीर के सन्तुलन को बनाए रखता है।
उल्लेखनीय है कि शरीर की स्थिर अवस्था में होने के बाद भी सिर की स्थिति में परिवर्तन से ऐम्पुला की संवेदी कोशिकाएँ उत्तेजित हो जाती हैं तथा ये संवेदनाएँ मस्तिष्क में पहुँचती हैं। इसी कारण लिफ्ट में चढ़ते-उतरते समय अथवा रेल या गाड़ियों के धक्कों आदि से हमें मितली या उल्टी का आभास होने लगता है। सिर को झुका लेने से यह संवेदना कम हो जाती है।
प्रश्न 5.
त्वचा की रचना तथा कार्यों का चित्र सहित वर्णन कीजिए। (2018)
उत्तर:
त्वचा या त्वक् (Skin) शरीर का बाह्य आवरण होती है, जिसे आह्यत्वचा (एपिडर्मिस) भी कहते हैं। यह वेष्टन प्रणाली का सबसे बड़ा अंग हैं, जो उपकला ऊतकों की कई परतों द्वारा निर्मित होती है और अन्तर्निहित मांसपेशियों, अस्थियों, अस्थिबध (लिगामेण्ट) और अन्य आन्तरिक अंगों की रक्षा करती है। त्वचा सीधे वातावरण के सम्पर्क में आती है, इसलिए यह रोगजनकों के विरुद्ध शरीर की सुरक्षा में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके अन्य कायों में; जैसे-तापवरोधन (इन्सुलेशन), तापमान विनियमन, संवेदना, विटामिन डी का संश्लेषण और विटामिन बी फोलेट का संरक्षण करती हैं। क्षतिग्रस्त त्वचा निशान ऊतक बना कर ठीक होने की कोशिश करती हैं। यह अक्सर रंगहीन और वर्णनहीन होती हैं।
त्वचा की बनावट त्वचा शरीर की खाल को कहते हैं। इसे चर्म तथा त्वचा आदि नामों के अतिरिक्त अग्रेजी में स्किन के नाम से भी जाना जाता है। चर्म समस्त शरीर की रक्षा के लिए कई परतों वाला एक स्तर है। इससे स्पर्श ज्ञान भी होता है। हथेली और तलुओं को छोड़कर लगभग सभी स्थानों पर इसके ऊपर न्यूनाधिक बाल लगे रहते हैं। त्वचा के दो भाग होते हैं —
1. उपचर्म (बाहर की त्वचा) इसे अंग्रेजी में एपिडर्मिस कहा जाता है। यह भीतरी चर्म के ऊपर आवरण के रूप में चढ़ी रहती हैं। यह कठोर और नुकीले ऊतकों (Tishu) से बनी है और शरीर के रात-दिन काम करने से घिसती और पुनः बनती रहती है। यह साँप की केंचुली के समान होती है, जिसकी मोटाई भिन्न भिन्न स्थानों पर अलग-अलग होती है। हथेली और पैर के तलवों पर इसकी मोटाई 1.25 मिमी तक होती है। पीठ पर इसकी मोटाई मिमी होती है दूसरे स्थानों पर इसकी मोटाई 0.12 मिमी होती हैं। बाहरी चर्म के पित्त में रक्त वाहिनियों (Blood vessels) नहीं होती हैं, बाह्य त्वचा (उपचर्म) के नीचे मनुष्य का रंग बनाने वाली त्वचा रहती हैं। यह जिस रंग की होती है, मनुष्य उसी रंग का गोरा, काला अथवा गेहूआ दिखाई पड़ता है। वर्ण सूचक रंजित त्वचा की सेले सूरज की सख्त गर्मी और सर्दी से शरीर की रक्षा करती हैं।
2. चर्म या अन्तस्तवक चर्म (भीतर की त्वचा) यह बाहरी चर्म के नीचे की त्वचा है, जो संयोजन एवं स्थितिस्थापक ऊतकों (Connective and Elastic tissues ) से बनी होती है। यह मांसपेशीय ऊतको (Muscular tissues) और चर्बी के ऊपर होती है। भीतर चर्म में अनेकों रक्त कोशिकाओं, सूक्ष्म रक्त वाहिनियों एवं स्नायु के सिरों के जाल फैले हुए रहते हैं। इसके ऊपरी भाग में रक्त कोशिकाओं (Blood capilaries) के गुच्छे होते हैं। नीचे का भाग लचीला होता है, जिसके अधोभाग में क्रमशः चर्बी वाले ऊतक (Fatty tissues), कोशीय ऊतक (Cellular tissue8) होते हैं। ये परते प्रायः चिकनी होती हैं। चूंकि चब बाहरी ताप का ग्राहक है, इसलिए चर्म को यह चिकनाई या वसा (Fat) शरीर को बाहरी सर्दी के प्रभाव से बचाती है और शरीर के ताप को नियन्त्रित रखती हैं।
त्वचा के कार्य
त्वचा के कार्य निम्नलिखित हैं
1. शरीर की सुरक्षा (Protection of Body) त्वचा शरीर के भीतर स्थित सभी ऊतकों, अंगों, आदि को पूर्णतया ढककर उनकी सुरक्षा करती है। यह रोगाणुओं तथा रसायनों को शरीर के अन्दर प्रवेश करने से रोकती है। साथ ही शरीर के कोमल आन्तरिक अंगों को रगड़ व चोट से बचाती है। त्वचा में उपस्थित मिलेनिन नामक वर्णक सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों से शरीर की रक्षा करती है।
2. ताप नियन्त्रण एवं उत्सर्जन (Temperature Control and Excretion) मानव समतापी प्राणी (Homeothermous) है। शरीर के ताप नियमन में त्वचा का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। मानव त्वचा मौसम अनुसार ताप नियमन में सहायक होती है। ग्रीष्म ऋतु में त्वचा में उपस्थित स्वेद ग्रन्थियों के कारण हमारे शरीर से पसीना ज्यादा निकलता है, जिसके वाष्पीकरण से शरीर का तापमान नियन्त्रित रहता है। पसीने में यूरिया, यूरिक अम्ल, अमोनिया, फॉस्फेट्स तथा क्लोराइड्स, आदि उत्सर्जी पदार्थों के रूप में होते हैं।
शीत प्रातु में त्वचा की अधिकतर रुधिर केशिकाएँ सिकुड़कर बन्द हो जाती हैं। ताकि त्वचा द्वारा ऊष्मा की हानि को कम किया जा सके।
3. त्वक् संवेदांग (Cutaneous Sense Receptors) त्वचा के चर्म स्तर में | पाई जाने वाली संवेदी कोशिकाएँ हमें स्पर्श, दाब, पीड़ा, ताप, आदि उद्दीपनों का अनुभव कराती है।
4. अवशोषण (Absorption) त्वचा जल एवं हानिकारक पदार्थों को शरीर के अन्दर नहीं जाने देती है, परन्तु कुछ उपयोगी पदार्थों जैसे दवाइयों का अवशोषण भी करती है।
5. तेल ग्रन्थियाँ (Sebaceous Glands) त्वचा में उपस्थित तेल ग्रन्थियों त्वचा को चिकना एवं जलरोधी बनाने हेतु तेलीय द्रव्य का लावण करती है।.
6. स्तन ग्रन्थियाँ (Mammary Glands) मादाओं को स्तन प्रन्थियाँ शिशु जन्म के बाद दुग्ध स्रावण करती हैं, जो नवजात का मुख्य पोषण होता हैं।
7. बाल या रोम (Hair) त्वचा पर उपस्थित बाल शरीर पर तापरोधी के समान कार्य करते हैं। साथ ही पलकों तथा बरोनियों के रूप में ये नेत्र की सुरक्षा करते हैं। ठण्ड लगने या उत्तेजना के कारण ये खड़े हो जाते हैं तथा शरीर की रक्षा करते हैं। साथ ही इनकी पेशियों के संकुचन से उत्पन्न ऊर्जा मानव शरीर को तत्काल ऊष्मा देती है, इसीलिए ठण्ड लगने पर कपकपी आती हैं।
8. विटामिन -D का संश्लेषण (Synthesis of Vitamin-D) सूर्य के प्रकाश की पराबैंगनी किरणों का अवशोषण करके त्वचा में विटामिन-D का संश्लेषण होता रहता है। यह विटामिन हमारी अस्थियों से सम्बन्धित मुख्य विटामिन हैं।
9. समस्थापन (HormeOstasia) त्वचा ताप नियमन, जल नियमन, आदि द्वारा शरीर के अन्त:वातावरण को सन्तुलित रखती है।
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