UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 4 शकुन्तलाया पतिगृहगमनम् (कथा – नाटक कौमुदी)

By | May 23, 2022

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 4 शकुन्तलाया पतिगृहगमनम् (कथा – नाटक कौमुदी)

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 4 शकुन्तलाया पतिगृहगमनम् (कथा – नाटक कौमुदी)

परिचय- संस्कृत वाङ्मय में कालिदास को महाकवि की पदवी प्राप्त है। निम्नलिखित श्लोक इस बात को सूचित करता है कि कालिदास के समान दूसरा कवि संस्कृत साहित्य में नहीं हुआ।

पुरा कवीनां गणना प्रसङ्गे कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदासः।।
अद्यापि तत्तुल्यकवेरभावादनामिको सार्थवती बभूव ॥ 

कालिदास ने ‘रघुवंशम्’ एवं ‘कुमारसम्भवम्’ नाम के महाकाव्यों को ‘ऋतु-संह्मरः’ और ‘मेघदूतम्’ नामक खण्डकाव्यों की तथा ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’, ‘मालविकाग्निमित्रम्’ औरविक्रमोवशीयम्’ नामक नाटकों की रचना की। यदि कालिदास ने केवल ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ र्की ही रचना की होती, तब भी उनका संस्कृत-साहित्य में इतना ही यश होता। इस सन्दर्भ में निम्नलिखित श्लोक प्रसिद्ध है ।

काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला।
तत्रापि चतुर्थोऽङ्कः तत्र श्लोकचतुष्टयम् ॥

प्रस्तुत पाठ ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ के चतुर्थ अंक का संक्षिप्त रूप है। शकुन्तला की कथा ‘महाभारत’ के ‘आदिपर्व’ (अध्याय 67 से 74) में वर्णित ‘शकुन्तलोपाख्यानम्’ से संकलित है, जिसे कालिदास ने अपनी प्रखर प्रतिभा से निखार दिया है।

पाठ-सारांश

कण्व का गला भर आना- शकुन्तला के पतिगृह-गमन की बात सोचकर कण्व का गला भर आता है। वे सोचते हैं कि जब पुत्री की विदाई के समय मुझ जैसा तपस्वी अपने आँसू नहीं रोक पा रहा है, तब इस अवसर पर सद्गृहस्थों की क्या दशा होती होगी। शकुन्तला कण्व के चरण-स्पर्श करती है।  कण्व उसें चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति का वरदान देकर अपने शिष्य शाङ्गरव और शारवत् से शकुन्तला को लेकर चलने को कहते हैं। दोनों शकुन्तला को लेकर चलते हैं।

कण्व का वन- वृक्षों से शकुन्तला को विदाई देने के लिए कहना-महर्षि कण्व वन के वृक्षों से कहते हैं कि हे वन-वृक्षों! पहले तुम्हें जल देकर स्वयं जल पीने वाली, अलंकरण-प्रिया होने पर भी तुम्हारे फूल-पत्ते न तोड़ने वाली शकुन्तला आज अपने पति के घर जा रही है। अतः तुम उसे उसके अपने घर जाने की आज्ञा दो। तभी कोयल के रूप में वन-वृक्ष उसे अपने पति के घर जाने की आज्ञा देते हैं।

शकुन्तला के विरह में सभी जीव-जन्तुओं का दुःखी होना- शकुन्तला बड़े भारी मन से कदम आगे बढ़ा रही है। उसके विरह में वृक्ष और दूसरे जीव-जन्तु भी दुःखी हैं। उसके पतिगृह-गमन की बात सुनकर हरिणी ने घास खाना छोड़ दिया है, मयूरों ने नाचना छोड़ दिया है तथा लताएँ पीले पत्तों के रूप में  मानो आँसू बहा रही हैं। शकुन्तला वनज्योत्सना नामक लता को बाँहों में भरकर उसका आलिंगन करती है तथा अपनी सखियों से उसकी देखभाल करने को कहती है।

मृगशावक का शकुन्तला को रोकना- कण्व शकुन्तला को सान्त्वना दे रहे होते हैं; तभी एक मृगशावक शकुन्तला का आँचल मुँह में दबाकर खींचता हुआ, उसे रोकने का प्रयत्न करता है। इस मृगशावक को शकुन्तला ने घायलावस्था में पाया था और उसका उपचार करके उसका पुत्रवत् लालन-पालन किया था। शकुन्तला उसे सान्त्वना देती है कि मेरे बाद पिता मेरे समान ही तेरी देखभाल करेंगे।

शाङ्गरव का सबको लौट जाने के लिए कहना- पतिगृह जाती शकुन्तला के साथ सभी लोग आश्रम से दूर एक जलाशय तक आ जाते हैं। यहाँ पर शाङ्गुरव कण्व से कहता है कि गुरुवर विदाई के समय परिजनों को जलाशय के मिलने पर लौट जाना चाहिए, ऐसा सुना जाता है। अब आप इस जलाशय के तट पर से आश्रम वापसे जा सकते हैं।

कण्व का शकुन्तला को गृहस्थ- जीवन की शिक्षा देना-महर्षि कण्व शकुन्तला को सफल गृहस्थ-जीवन का रहस्य समझाते हुए कहते हैं कि तुम पतिगृह में सभी बड़े लोगों की सेवा करना, सपत्नीजनों (सौतनों) के साथ सखियों जैसा व्यवहार करना, पति को कभी अपमान न करना, सेवकों से उदारता का व्यवहार करना। जो कन्याएँ ऐसा करती हैं, वे पतिगृह में सम्मान पाने के साथ-साथ अपने पिता के कुल  की कीर्ति को भी बढ़ाती हैं। गौतमी भी उससे कण्व के इन उपदेशों को न भूलने के लिए कहती है।शकुन्तला का सबसे विदा लेना-शकुन्तला अधीर होती हुई अपनी सखियों प्रियंवदा और अनसूया से लिपटती है। कण्व उसे सान्त्वना देते हैं। शकुन्तला उनके पैरों में गिरती है। कण्व उसे उसकी इच्छाएँ पूरी होने का आशीर्वाद देते हैं।

शकुन्तला की विदाई पर कण्व का सन्तोष व्यक्त करना- शकुन्तला की दोनों सखियाँ जहाँ भारी मन से आश्रम लौटती हैं, वहीं महर्षि कण्व शकुन्तला की सकुशल विदाई पर सन्तोष व्यक्त करते हुए मन-ही-मन कहते हैं कि कन्या तो माता-पिता के पास धरोहर रूप में रखे गये पराये धन के समान होती है। मैं उसे योग्य पति के पास भेजकर अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो गया हूँ।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शकुन्तला का पतिगृह- गमन, उसे कण्व द्वारा दिया गया उपदेश तथा शकुन्तला की विदाई का करुण एवं भावपूर्ण मार्मिक वर्णन प्रस्तुत अंश की महत्ता को बढ़ाने वाले हैं।

चरित्र – चित्रण

शकुन्तला

परिचय- शकुन्तला  ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नाटक की मुग्धा नायिका है। वह महर्षि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की पुत्री है। उसका लालन-पालन महर्षि कण्व ने पुत्रीवत् किया है। शकुन्तला भी उनको अपना पिता ही मानती है। उसके चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं|

(1) प्रकृति प्रेमिका- शकुन्तला प्रकृति की गोद में पली है; अतः उसके हृदय में सभी चेतन-अचेतन के लिए प्रेम का अथाह सागर तरंगायित होता है। हरिणशावक को वह अपने शिशु-सदृश मानती है। वृक्षों एवं लताओं के प्रति भी उसका अनुराग उसी प्रकार का है। पशु-पक्षी, लता, पत्ते सभी उसके सगे-सम्बन्धी हैं। उसके इसी प्रकृति-प्रेम के विषय में महर्षि कण्व के उसे कथन से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है, जिसमें वे वनवृक्षों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि जो तुमको सींचे बिना पहले जल नहीं पीती थी, जो अलंकारप्रिय होने पर भी  स्नेह के कारण तुम्हारे फूल-पत्तों को नहीं तोड़ती थी, जो तुम्हारे पहले-पहल फूलने पर उत्सव मनाती थी, वही शकुन्तला अब अपने पति के घर जा रही है। अपने प्रति शकुन्तला के स्नेह को देखकर मानो वृक्षों और लताओं को भी उससे प्रेम हो गया है, इसीलिए तो उसके पतिगृह-गमन के समय लताएँ अपने पीले पत्तों के रूप में आँसू गिराती हुई विलाप कर रही हैं।

(2) दयालु और परोपकारिणी- प्रकृति के प्रति तो शकुन्तला को अपार स्नेह है ही, वन्य जीव-जन्तुओं के प्रति भी उसके मन में दया और प्रेम का अथाह सागर हिलोरें लेता है। यही कारण है। कि वह सभी जीवों पर परोपकार करती रहती है। घायलावस्था में उपचार किया गया और बाद में पुत्रवत् पाला गया मृगशावक उसके इसी स्नेह से अभिभूत होकर पतिगृह जाते समय उसका मार्ग रोकता है। उसकी इसी दयालु और परोपकारिणी प्रवृत्ति से प्रभावित होकर सभी जीव भी उसको अत्यधिक स्नेह करते हैं। यही कारण है कि उसके पतिगृह-गमने का समाचार सुनकर हरिणी ने कुशग्रास को उगल दिया है और मयूरों ने नाचना छोड़ दिया है।

(3) सच्ची सखी- शकुन्तला एक सच्ची सखी के रूप में यहाँ चित्रित की गयी है। वह अपनी सखियों प्रियंवदा एवं अनसूया से अगाध प्रेम रखती है। पतिगृह-गमन के समय प्रियंवृदा, अनसूया एवं नवमालिका के छूट जाने का उसे अत्यधिक दुःख है।

(4) सरल स्वभाव वाली- शकुन्तला का स्वभाव सरल है। शकुन्तला की सरलता के सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ टैगोर का कथन है कि “शकुन्तला की सरलता अपराध में, दुःख में, धैर्य में और क्षमा में परिपक्व है, गम्भीर है और स्थायी है।” ज्योत्स्ना लता से चेतन प्राणियों की तरह बाँहों में भरकर मिलना, फिर  नवमालिका लता को धरोहर के रूप में अपनी सखियों प्रियंवदा और अनसूया को सौंपना उसके सरल स्वभाव को प्रमाणित करते हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि प्रस्तुत नाट्यांश में शकुन्तलाको भावुक, परोपकारिणी, दयालु और प्रकृति-संरक्षिका के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

महर्षि कण्व 

“परिचय–महर्षि कण्व भी कालिदासकृत ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ नाटक के प्रमुख पात्र हैं। शकुन्तला उन्हीं की पालिता पुत्री है। उनकी प्रमुख चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं

(1) सरल और उदारहृदय- महर्षि कण्व का हृदय महर्षियोचित सरल एवं उदार है। वन-देवताओं एवं वृक्षों से शकुन्तला को पतिगृह-गमन की आज्ञा प्रदान करने के लिए कहना उनके सरल और उदार हृदय होने का प्रमाण ही है।

(2) मानव-भावों के पारखी– महर्षि कण्व यद्यपि ऋषि हैं, तथापि वे सामान्यजनों के भावों को परखने की विद्या में निपुण हैं। तभी तो वे वनज्योत्स्ना से लिपटती हुई भावुक शकुन्तला से कहते हैं कि मैं इस पर तुम्हारे सहोदर प्रेम को भली प्रकार जानता हूँ।।

(3) मानवोचित गुणों से सम्पन्न- दैवी सम्पत्ति से सम्पन्न महर्षि भी तो मानव ही हैं, उन्हें भी पिता का कोमल हृदय मिला है। इसीलिए वे शकुन्तला के विदा होते समय करुणा से आप्लावित हो जाते हैं। मुनि को हृदय शकुन्तला के भावी गमनमात्र की चिन्ता से भर जाता है। दूसरों को धीरज बँधाने  वाले गम्भीर मुनि स्वयं कह उठते हैं-‘यास्यत्यद्य शकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया’ और वे दु:खभरी लम्बी साँस लेकर अन्तत: उसे आशीर्वाद देते हुए कहते हैं–‘गच्छ शिवास्ते पन्थानः सन्तु।’

(4) लोकाचार के ज्ञाता- यद्यपि कण्व ऋषि हैं, तथापि वे गृहस्थों के लोकाचार को भली-भाँति समझते हैं। इस सन्दर्भ में वे स्वयं शकुन्तला से कहते हैं-“वत्से! इस समय तुम्हें शिक्षा देनी है। वनवासी होते हुए भी हम लोकाचार समझते हैं। इसी लोकाचार का पालन करते हुए वे शकुन्तला को शिक्षा देते हैं-“तुम पतिकुल में पहुँचकर गुरुजनों की सेवा करना, उनकी सपनियों के साथ प्रिय सखी के सदृश व्यवहार करना। यदि स्वामी अपमान भी कर दें तो भी क्रोध से उनके विरुद्ध आचरण न करना। दास-दासी आदि सेवकजनों से उदारता का व्यवहार करना। भाग्य के अनुकूल होने पर भी कभी अभिमान न करना। इस प्रकार का आचरण करने वाली युवतियाँ गृहिणी पद को प्राप्त कर लेती हैं। इसके विपरीत चलने वाली तो कुल के लिए विपत्ति हैं।”

(5) श्रेष्ठ पिता- जब शकुन्तला चली जाती है, तब महर्षि कण्व शान्ति की साँस लेते हैं और अपने को परम शान्त एवं भारमुक्त पाते हैं। वे जानते हैं कि कन्या-धन परकीय धन होता है। वह पिता के पास एक धरोहर के रूप में रहता है और वह तब तक उस भार से मुक्त नहीं होता, जब तक वह उसे धनी के पास लौटा नहीं देता। आज महर्षि कण्व भी अपनी पुत्री को उसके परिगृहीता के पास भेजकर विशदान्तरात्म होकर प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि महर्षि कण्व समस्त श्रेष्ठ गुणों से ओत-प्रोत हैं। उनका चरित्र-चित्रण सामान्य मानव एवं महर्षियोचित गुणों का उत्कृष्ट संगम है।

लघु-उत्तरीय संस्कृत प्रश्‍नोत्तर

अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में लिखिए

प्रश्‍न 1
शकुन्तला का आसीत्?
उत्तर
शकुन्तला कण्वस्य औरसपुत्री आसीत्। .

प्रश्‍न 2
गृहिणः कथं पीड्यन्ते?
उत्तर
गृहिणः तनयाविश्लेषदुःखैर्नवैः पीड्यन्ते।

प्रश्‍न 3
शकुन्तलायाः उत्सवः कदा भवति?
उत्तर
वृक्षाणां कुसुमप्रसूतिसमये शकुन्तलायाः उत्सवः भवति।

प्रश्‍न 4
प्रियंवदा का आसीत्?
उत्तर
प्रियंवदा शकुन्तलायाः सखी आसीत्।

प्रश्‍न 5
कीदृशः युवतयः गृहिणीपदं यान्ति
उत्तर
याः युवतयः गुरुन् शुश्रूषन्ति, सपत्नीजने प्रियसखीवृत्तिं कुर्वन्ति, पतिं प्रति क्रोधं न कुर्वन्ति, ता: गृहिणीपदं यान्ति।

प्रश्‍न 6
कन्या कीदृशः अर्थः अस्ति?
उत्तर
कन्या परकीया अर्थः अस्ति।

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