UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 6 कपिलोपाख्यानम् (पद्य-पीयूषम्)

By | May 23, 2022

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 6 कपिलोपाख्यानम् (पद्य-पीयूषम्)

UP Board Solutions for Class 9 Sanskrit Chapter 6 कपिलोपाख्यानम् (पद्य-पीयूषम्)

परिचय–वेदों के अर्थ को सरल एवं सरस बनाने हेतु महर्षि व्यास ने अठारह पुराणों की रचना की। इन्हीं अठारह पुराणों में स्कन्दपुराण का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। भौगोलिक क्षेत्रों का विस्तृत और विशद विवरण प्रस्तुत करना इस पुराण के विविध खण्डों का वैशिष्ट्य है। इस बृहत्काय पुराण में वेदों की सामग्री पर्याप्त रूप में मिलती है। यह रचयिता के अलौकिक वैदुष्य का परिचायक है। प्रस्तुत पाठ इसी । पुराण से संकलित है। इस पाठ में कपिला नाम की गाय के माध्यम से सत्यवचन का महत्त्व बताया गया है।

पाठ-सारांश

कपिला का अपने यूथ से बिछड़ना-कपिला नाम की एक धेनु अपने यूथ (समूह) के साथ चरने के लिए वन में गयी थी। हरी-हरी घास चरती हुई वह अपने समूह से बिछुड़कर एक भयंकर गुफा में पहुँच जाती है। जहाँ वह भयंकर दाढ़ों वाले एक बाघ को देखकर डर जाती है।

कपिला का विलाप करना-बाघ को देखकर कपिला गोकुल में बँधे अपने दुधमुंहे बछड़े को स्मरण कर रोने लगती है। विलाप करती हुई गाये को देखकर बाघ ने कहा- “हे धेनो! तुम क्यों व्यर्थ रोती हो? मेरे पास पहुँचने के बाद अब तुम्हारे प्राण नहीं बच सकते। इसलिए अब तुम अपने जीवन की आशा छोड़ दो और अपने इष्ट देवता का स्मरण करो।”

कपिला का सिंह से वार्तालाप-कपिला ने बाध से कहा कि मैं अपने प्राणों के भय से नहीं रो रही हूँ। गौशाला में दुग्ध पीने वाला बछड़ा नित्य की भाँति मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा। मैं उसे दूध पिलाकर और स्वजनों से मिलकर पुन: लौट आऊँगी। बाघ ने कहा कि तुम्हारी बात का कैसे विश्वास कर लिया जाए। यदि तुम वापस नहीं लौटी, तो। कपिला ने कहा कि आपका सन्देह उचित ही है। लेकिन मैं आपसे शपथपूर्वक कहती हूँ कि मैं आपके पास लौटकर अवश्य आऊँगी। बाघ ने उसकी शपथ पर विश्वास कर उसे उसके कुल में जाने की अनुमति दे दी।

कपिला का बाड़े में आकर बछड़े को दूध पिलाना-बाघ के द्वारा अनुमति पाकर कपिला पुत्र-प्रेम से विह्वल होकर तीव्र गति से बाड़े की ओर चल दी। उसके शब्द को सुनकर उसका बछड़ा

अपनी पूँछ उठाकर प्रसन्न होता हुआ माँ के सामने आया और बोला कि माँ आज कैसे देर हो गयी? कपिला ने उसे तृप्ति के साथ दूध पीने को कहा और उसके बाद उसे सारी बात कह सुनायी और बताया कि मैं तुम्हारे प्रेम के कारण ही यहाँ आयी हूँ। मुझे अपना जीवन मायावी बाघ को देना है। इसके बाद बछड़े और अन्य प्रिय जनों से विदा लेकर वह बाघ के पास लौटने को तैयार हुई।

बाघ का कपिला को जीवन-दान देना—अपने वचने का निर्वाह कर आती हुई कपिला को देखकर बाघ के नेत्र प्रसन्नता से प्रफुल्लित हो उठे। उसने हर्ष से गद्गद् होकर नम्रतापूर्वक कहा कि

हे कल्याणि! तुम्हारा स्वागत है। तुमने सत्य वचन का निर्वाह किया है। सत्य बोलने वाले और उनका निर्वाह करने वाले का कहीं भी अशुभ नहीं हो सकता। अतः तुम जाओ, मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ। तुम लौटकर वहीं पहुँचो जहाँ तुम्हारा वत्स (पुत्र) और तुम्हारे प्रियजन हैं।”

पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या

(1)
तत्रैका गौः परिभ्रष्टा स्वयूथात्तृणतृष्णया।
कपिलेति च विख्याता स्वयूथस्याग्रगामिनी ॥

शब्दार्थ
परिभ्रष्टा = बिछुड़ गयी,
अलग हो गयी।
स्वयूथात् = अपने समूह से।
तृणतृष्णया = घास खाने के लालच में
विख्याता = प्रसिद्ध।
अग्रगामिनी = आगे चलने वाली।

सन्दर्थ-
प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ में संगृहीत ‘कपिलोपाख्यानम्’ शीर्षक पाठ से उद्धृत है।

[संकेत-इस पाठ के शेष श्लोकों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग
प्रंस्तुत श्लोक में बताया गया है कि कपिला नाम की गाय अपने समूह के साथ पर्वत पर चरने गयी थी।

अन्वय
तत्र स्वयूथस्य अग्रगामिनी ‘कपिला’ इति विख्याता एका गौः तृणतृष्णया स्वयूथात् परिभ्रष्टा। | व्याख्या-वहाँ अर्थात् उस पर्वत पर, अपने झुण्ड के आगे चलने वाली ‘कपिला’ इस नाम से प्रसिद्ध एक गाय घास खाने के लालच में अपने समूह से बिछुड़ गयी।

(2)
अच्छिन्नाग्रतृणम् या तु सदा भक्षयते नृप।
अथ सा गह्वरं प्राप्ता गिरेः शून्यं भयङ्करम् ॥ 

शब्दार्थ
अच्छिन्नाग्रतृणम् = न काटी हुई नोक वाली घास को।
सदा भक्षयते = सदा खाती है।
अथ = पश्चात्।
गह्वरम् = गुफा में।
प्राप्ता = पहुँची।
गिरेः = पर्वत की।
शून्यं = निर्जन, सूनसान।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में गाय के अपने समूह से बिछड़कर एक गुफा में प्रवेश कर जाने का वर्णन है।

अन्वय
हे नृप! या सदा अच्छिन्नाग्रतृणम् भक्षयते, सा अथ गिरेः शून्यं भयङ्करं गह्वरं प्राप्ता।

व्याख्या
हे राजन्! जो गाय सदा न काटी हुई नोक वाली घास को खाती है, वह अब पर्वत की सुनसान भयंकर गुफा में पहुँच गयी। तात्पर्य यह है कि अनुकूल परिस्थितियों में रहने वाली गाय प्रतिकूल परिस्थितियों में फँस गयी।

(3)
तत्राससाद तां व्याघ्रो दंष्ट्ोत्कटमुखावहः ।
सा तं दृष्टवती पापं त्रासमाप मृगीव हि ॥

शब्दार्थ
तत्र = उस गुफा में।
आससाद = प्राप्त किया।
व्याघ्रः = बाघ ने।
दंष्टोत्कटमुखावहः = भयंकर दाढ़ के कारण भयंकर मुख को धारण करने वाला।
तं = उस।
दृष्टवती = देखा।
पापं = दुष्ट को।
त्रासम् = डर।
आप = प्राप्त किया।
मृगीव (मृगी + इव) = हिरनी के समान।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में एक बाघ को देखकर कपिला के डर जाने का वर्णन किया गया है।

अन्वय
तत्र दंष्टोत्कटमुखावह: व्याघ्रः ताम् आससाद। (सा) तं पापं दृष्टवती, मृगी इव त्रासम् आप।

व्याख्या
वहाँ (उस गुफा में) निकले हुए बड़े-बड़े दाँतों (दाढ़) के कारण भयंकर मुख को धारण करने वाला एक व्याघ्र उसके पास पहुँचा। उस गाय ने उस पापी व्याघ्र को देखा तो मृगी (हिरनी) के समान डर गयी।।

(4)
स्मरन्ती गोकुले बद्धं स्व-सुतं क्षीरपायिनम् ।। 
दुःखेन रुदतीं तां स दृष्ट्वोवाच मृगाधिपः ॥

शब्दार्थ
स्मरन्तीं = स्मरण करती हुई।
गोकुले बद्धम् = गौशाला में बँधे हुए।
क्षीरपायिनम् =दूध पीने वाले।
रुदतीम् = रोती हुई (से)।
दृष्ट्वोवाच (दृष्ट्वा + उवाच) = देखकर बोली।
मृगाधिपः = सिंह। |

प्रसंग
व्याघ्र से डरकर कपिला अपने बछड़े को याद करके रोने लगती है, इसी का वर्णन इस श्लोक में हुआ है।

अन्वय
गोकुले बद्धं क्षीरपायिनं स्वसुतं स्मरन्तीं दुःखेन रुदतीं तां दृष्ट्वा सः मृगाधि उवाच।

व्याख्या
गौशाला में बँधे हुए दूध पीने वाले अपने बच्चे को यादर्कर दुःख से रोती हुई उस गाय को देखकर वह पशुओं का राजा अर्थात् व्याघ्र बोला।।

(5)
किं वृथा रुद्यते धेनो! माम् प्राप्य नहि जीवितम्।।
विद्यते कस्यचिन्मूखें स्मरेष्टदेवतां ततः ॥

शब्दार्थ
किम् = क्यों।
वृथा = व्यर्थ।
रुद्यते = रो रही हो।
मां प्राप्य = मेरे पास पहुँचकर।
जीवितम् = जीवन।
विद्यते = रहता है।
कस्यचित् = किसी का।
स्मर = याद करो।
इष्टदेवताम् = अभीष्ट देवता को।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्याघ्र गाय को अपने इष्ट देव को याद करने को कहता है।

अन्वय
धेनो! किं वृथा रुद्यते। मूखें! मां प्राप्य कस्यचित् जीवितं न हि विद्यते। ततः इष्टदेवतां स्मर।

व्याख्या
हे गाय! तुम व्यर्थ क्यों रो रही हो? हे मूर्ख मुझे पाकर किसी का जीवन नहीं रहता है। अब तुम अपने इष्ट देवता का स्मरण करो। तात्पर्य यह है कि व्याघ्र के पास आ जाने पर किसी का भी जीवित बचना सम्भव नहीं है। इसलिए अब तुम्हें अपना अन्तिम समय समीप जानकर अपने इष्ट-देवता का स्मरण कर लेना चाहिए।

(6)
स्व-जीवितभयाद् व्याघ्र न रोदिमि कथञ्चन।
पुत्रो मे बालको गोठ्यां क्षीरपायी प्रतीक्षते ॥

शब्दार्थ
स्व-जीवितभयाद् = अपने जीवन के भय से।
रोदिमि = रो रही हूँ।
कथञ्चन = किसी भी प्रकार।
गोठ्याम् = गायों के बाड़े में।
क्षीरपायी = दूध पीने वाला दुधमुहाँ।
प्रतीक्षते = प्रतीक्षा कर रहा होगा।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में कपिला गाय बाघ को अपने रोने का कारण बता रही है।

अन्वय
व्याघ्र! स्व-जीवितभयात् कथञ्चन न रोदिमि। क्षीरपायी मे बालकः पुत्रः गोठ्या प्रतीक्षते।

व्याख्या
हे बाघ! मैं अपने जीवन के भय से किसी भी तरह नहीं रो रही हैं। दूध पीने वाला मेरा छोटा बछड़ा गौशाला में मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा। तात्पर्य यह है कि गाय को अपनी मृत्यु को भय नहीं है। उसे तो चिन्ता इस बात की है कि उसका पुत्र उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा।
विशेष—इसीलिए कहा गया है कि ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

(7)
पाययित्वा सुतं बालं दृष्ट्वा पृष्ट्वा जनं स्वकम्।
पुनः प्रत्यागमिष्यामि यदि त्वं मन्यसे विभो! ॥

शब्दार्थ
पाययित्वा = पिलाकर।
सुतं = पुत्र को।
बालं = बालक को।
दृष्ट्वा = देखकर।
पृष्ट्वा = पूछकर।
जनं स्वकम् = अपने परिवार के लोगों को।
प्रत्यागमिष्यामि = लौट आऊँगी। मन्यसे मानते हो।
विभो = हे स्वामिन्।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में कपिला बाघ से अपने बछड़े के पास जाने की अनुमति माँग रही है।

अन्वये
विभो! यदि त्वं मन्यसे (तर्हि अहं) बालं सुतं पाययित्वा स्वकं जनं दृष्ट्वा पृष्ट्वा च पुनः प्रत्यागमिष्यामि।।

व्याख्या
(कपिला बाघ से कहती है कि) हे स्वामिन्! यदि तुम अनुमति.दो तो मैं अपने शिशु बछड़े को दूध पिलाकर तथा अपने लोगों को देखकर और उनसे पूछकर पुनः वापस आ जाऊँगी। तात्पर्य यह है कि मेरे वापस लौट आने के बाद तुम मुझे खा लेना।।

(8)
गत्वा स्वसुतसान्निध्यं दृष्ट्वात्मीयं च गोकुलम्।।
पुनरागमनं यत्ते न च तच्छुद्दधाम्यहम्॥

शब्दार्थ
गत्वा = जाकर।
स्वसुतसान्निध्यम् = अपने बछड़े के पास।
आत्मीयं = अपनों को।
पुनरागमनम् (पुनः + आगमनम्) = पुनः लौट आना।
ते = तुम्हारे।
न श्रद्दधामि = विश्वास नहीं करता हूँ।

प्रसंग
कपिला की बाड़े में जाकर लौट आने की बात पर अविश्वास व्यक्त करता हुआ.बाघ .. यह श्लोक कहता है।

अन्वय
स्वसुतसान्निध्यं गत्वा, आत्मीयं गोकुलं च दृष्ट्वा यत् ते पुनः आगमनम् तत् अहं च न श्रद्दधामि। |

व्याख्या
व्याघ्र ने कहा-अपने बच्चे के पास जाकर और अपने आत्मीय लोगों (गायों के झुण्ड) को देखकर जो तुम्हारा पुनः आना है, उस पर मैं विश्वास नहीं करता हूँ। तात्पर्य यह है कि तुम बछड़े के प्रेम का और अपने आत्मीयों का परित्याग करके पुनः आओगी, मैं इसका विश्वास नहीं कर रहा हूँ।

(9)
शपथैरागमिष्यामि सत्यमेतच्छृणुष्व मे ।
प्रत्ययो यदि ते भूयान्मां मुञ्च त्वं मृगाधिपः॥

शब्दार्थ
शपथैः = मैं शपथपूर्वक कहती हूँ।
आगमिष्यामि = आऊँगी।
सत्यम् एतत् = इस सत्य को।
शृणुष्व = सुनो।
प्रत्ययः = विश्वास।
मां मुञ्च = मुझे छोड़ दो।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में कपिला व्याघ्र को वापस लौट आने का विश्वास दिलाने के लिए शपथ खाती है।

अन्वय
मृगाधिप! शपथैः आगमिष्यामि, इति एतत् मे सत्यं शृणुष्व। यदि ते प्रत्ययः भूयात् , (तर्हि) त्वं मां मुञ्च।।

व्याख्या
(गाय ने कहा-) हे व्याघ्र! मैं शपथपूर्वक कहती हूँ कि मैं आ जाऊँगी, मेरे इस सत्य को सुनो। यदि तुम्हें विश्वास हो तो तुम मुझे छोड़ दो।

(10)
स तस्याः शपथाञ्छुत्वा विस्मयोत्फुल्ललोचनः।
प्रत्ययं च तदा गत्वा व्याघ्रो वाक्यमथाब्रवीत् ॥

शब्दार्थ
तस्याः = उसकी।
शपथाञ्छुत्वा (शपथान् + श्रुत्वा) = शपथों को सुनकर।
विस्मयोत्फुल्ललोचनः = आश्चर्य से विकसित नेत्र वाला।
प्रत्ययं गत्वा = विश्वास को प्राप्त करके।
तदा = तब।
वाक्यं = वचन।
अब्रवीत् = बोला।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्याघ्र के कपिला की शपथ पर विश्वास कर लेने के बारे में बताया गया है।

अन्वय
अथ स: व्याघ्रः तस्याः शपथान् श्रुत्वा विस्मयोत्फुल्ललोचन: प्रत्ययं गत्वा तदा वाक्यम् अब्रवीत्।।

व्याख्या
उसकी (कपिला गाय की) कसमों को सुनकर आश्चर्यचकित नेत्रों वाले उस व्याघ्र ने उस समय उसकी बात पर विश्वास करके उस गाय से यह वचने कहा।।

(11)
गच्छ त्वं गोकुले भद्रे! पुनरागमनं कुरु।
न चैतदवगन्तव्यं यदयं वञ्चितो मया ॥

शब्दार्थ
गच्छ त्वं = तुम जाओ।
भद्रे = हे कल्याणी।
पुनः आगमनं कुरु = पुन: लौट आओ।
अवगन्तव्यम् = समझना चाहिए।
यत् = कि।
अयं = यह।
वञ्चितः मया = मैंने धोखा दिया है।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्याघ्र कपिला से धोखा न देने की बात कहता है।

अन्वय
भद्रे! त्वं गोकुले गच्छ। पुनः आगमनं कुरु। एतत् च न अवगन्तव्यं यत् अयं मया वञ्चितः।।

व्याख्या
(व्याघ्र बोला-) हे कल्याणी! तुम गौशाला जाओ। वहाँ से पुन: लौट आना और तुम्हें यह नहीं समझना चाहिए कि मैंने इसे धोखा दे दिया है। तात्पर्य है कि गाय की सत्यनिष्ठा का विश्वास करके बाघ ने उसे चेतावनी देकर छोड़ दिया।

(12)
सानुज्ञाता मृगेन्द्रेण कपिला पुत्र-वत्सला।
अश्रुपूर्णमुखी दीना प्रस्थिता गोकुलं प्रति ॥

शब्दार्थ
अनुज्ञाता = अनुमति दी गयी।
मृगेन्द्रेण = पशुओं के राजा द्वारा।
पुत्र-वत्सला = पुत्र पर स्नेह करने वाली।
अश्रुपूर्णमुखी = आँसुओं से भीगे मुख वाली।
दीना = दुःखी।
प्रस्थिता = चल दी।
प्रति = की ओर।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में व्याघ्र से अनुमति प्राप्त कपिला के गोकुल की ओर आने का वर्णन किया गया है।

अन्वय
मृगेन्द्रेण अनुज्ञाता पुत्रवत्सला सा कपिला अश्रुपूर्णमुखी दीना (सती) गोकुलं प्रति . प्रस्थिता।

व्याख्या
व्याघ्र के द्वारा अनुमति दी गयी पुत्र से प्रेम करने वाली वह कपिला गाय आँसुओं से। पूर्ण मुख वाली और दीन होती हुई गोकुल (गौशाला) की ओर चल दी।

(13)
तस्याः शब्दं ततः श्रुत्वा ज्ञात्वा वत्सः स्वमातरम्।
सम्मुखः प्रययौ तूर्णमूर्ध्वपुच्छः प्रहर्षितः॥

शब्दार्थ
तस्याः = उसके।
शब्दं = शब्द को।
ततः = इसके बाद।
श्रुत्वा = सुनकर।
ज्ञात्वा = जानकर।
वत्सः = बछड़ा।
स्वमातरं = अपनी माता को।
प्रययौ = गया।
तूर्णम् = शीघ्र।
ऊर्ध्वपुच्छः = ऊपर को पूँछ किये हुए।
प्रहर्षितः = अत्यधिक प्रसन्न होता हुआ।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में कपिला के समीप उसके बछड़े के आने का वर्णन किया गया है।

अन्वय
ततः तस्याः शब्दं श्रुत्वा, स्वमातरं ज्ञात्वा वत्सः तूर्णम् ऊर्ध्वपुच्छ: प्रहर्षित: (सन्) सम्मुखः प्रययौ।

व्याख्या
इसके बाद (गाय के गौशाला में पहुँचने के बाद) उसके शब्द को सुनकर और उसे अपनी माता जानकर बछड़ा शीघ्र ऊपर को पूँछ किये प्रसन्न होता हुआ दौड़कर सामने आ गया।

(14)
पिब पुत्र स्तनं पश्चात् कारणं चापि मे शृणु।
आगताऽहं तवस्नेहात् कुरु तृप्तिं यथेप्सिताम् ॥

शब्दार्थ
दार्थ-पिब = पी लो।
पश्चात् = बाद में।
मे = मुझसे।
शृणु = सुनो।
आगता = आयी हुई।
तव = तुम्हारे।
स्नेहात् = स्नेह के कारण।
कुरु = करो।
तृप्तिम् = सन्तुष्टि को।
यथेप्सिताम् = इच्छानुसार।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में कपिला अपने बछड़े को समझाती है कि मैं तुम्हारे प्रेम के कारण यहाँ आयी हूँ।

अन्वय
पुत्र! स्तनं पिब। पश्चात् में कारणं च अपि शृणु। अहम् तव स्नेहात् आगता (अस्मि), (त्वं) यथेप्सितां तृप्तिं कुरु। | व्याख्या -हे पुत्र! तुम मेरे स्तन के दूध को पी लो। इसके बाद मेरे आने के कारण को भी सुनो। मैं तुम्हारे स्नेह से आयी हूँ। तुम इच्छानुसार तृप्ति कर लो।

(15)
व्याघस्य कामरूपस्य दातव्यं जीवितं मया।
तेनाहं शपथैर्मुक्ता कारणात्तव पुत्रक॥

शब्दार्थ
कामरूपस्य = इच्छानुसार रूप धारण करने वाला।
दातव्यं = देना चाहिए।
जीवितम् = जीवन।
मया = मेरे द्वारा।
तेन = उसके द्वारा।
शपथैः = कसमें खाने के द्वारा।
मुक्ता = छोड़ी गयी हूँ।
कारणात् = कारण से।
तव = तुम्हारे।
पुत्रक = हे पुत्र!। प्रसंग-पूर्ववत्।।

अन्वय
पुत्रक! मया कामरूपस्य व्याघ्रस्य जीवितं दातव्यम्। तेन अहं तव कारणात् शपथैः मुक्ता (अस्मि)।

व्याख्या
हे पुत्र! मुझे इच्छानुसार रूप धारण करने वाले (मायावी) व्याघ्र को अपना जीवन देना है। उसके द्वारा मैं तुम्हारे कारण शपथों के आधार पर छोड़ी गयी हूँ।

(16)
एवमुक्त्वा च कपिला गती यत्र मृगाधिपः।।
अथासौ कपिलां दृष्ट्वा विस्मयोत्फुल्ललोचनः ॥

शब्दार्थ
एवं = इस प्रकार।
उक्त्वा = कहकर।
गता = गयी।
यत्र = जहाँ।
मृगाधिपः = व्याघ्र।
विस्मयोत्फुल्ललोचनः = विस्मय से विकसित नेत्रों वाला।।

प्रसंग
प्रस्तुत श्लोक में बताया गया है कि कपिला को वापस आया देखकर व्याघ्र किस प्रकार आश्चर्यचकित होती है।

अन्वय
कपिला च (वत्सं) एवम् उक्त्वा यत्र मृगाधिपः (आसीत्) (तत्र) गता। अथ असौ कपिलां दृष्ट्वा विस्मयोत्फुल्ललोचनः अभवत्।

व्याख्या
और कपिला बछड़े को पूर्वोक्त प्रकार से कहकर जहाँ व्याघ्र था, वहाँ चली गयी। इसके बाद वह (व्याघ्र) कपिला को देखकर विस्मय से विकसित नेत्रों वाला हो गया। तात्पर्य है कि कपिला को देखकर व्याघ्र अत्यधिक आश्चर्यचकित हो गया।

(17)
अब्रवीत् प्रश्रितं वाक्यं हर्ष-गद्गदया गिरा।
स्वागतं तव कल्याणि, कपिले सत्यादिनि ।।

शब्दार्थ
अब्रवीत् = बोला।
प्रश्रितम् = विनयपूर्वक।
हर्षगद्गदया = प्रसन्नता के कारण गद्गद।
गिरा = वाणी से।
सत्यवादिनि = हे सत्य बोलने वाली।

प्रसंग-
पूर्ववत्।।

अन्वये
(सः व्याघ्रः) हर्ष गद्गदया गिरा प्रश्रितं वाक्यम् अब्रवीत्। हे कल्याणि! सत्यवादिनि! कपिले! तव स्वागतम् (अस्तु)।।

व्याख्या
उस व्याघ्र ने हर्ष से गद्गद वाणी में उस गाय से विनयपूर्ण वचन कहे। हे कल्याणमयी! सत्य बोलने वाली कपिला! तुम्हारा स्वागत है। तात्पर्य यह है कि व्याघ्र कपिला की सत्यवादिता पर प्रसन्न होकर उसका स्वागत करता है।

(18)
नहि सत्यवतां किञ्चिदशुभं विद्यते क्वचित् ।
तस्माद् गच्छ मया मुक्ता यत्राऽसौ तनयस्तव ॥

शब्दार्थ
सत्यवताम् = सत्यवादियों का।
किञ्चिद् = कुछ भी।
अशुभं = बुरा।
विद्यते = होता है।
क्वचित् = कहीं भी।
गच्छ = जाओ।
मुक्ता = मुक्त की गयी।
यत्र = जहाँ।
असौ = वह। तनयः = पुत्र।

प्रसंग
कपिला की सत्यप्रियता से प्रसन्न होकर व्याघ्र उसे मुक्त कर देता है। इसी का वर्णन इस श्लोक में किया गया है।

अन्वय
सत्यवतां क्वचित् किञ्चित् अशुभं नहि विद्यते। तस्माद् भय मुक्ता (त्वं) यत्र असौ । तव तनयः (अस्ति), (तत्र) गच्छ। –

व्याख्या
(व्याघ्र कहता है कि) सत्य बोलने वालों का कहीं पर कोई अशुभ नहीं होता है। इस कारण से मेरे द्वारा मुक्त की गयी तुम, जहाँ तुम्हारा वह पुत्र है, वहीं जाओ। तात्पर्य यह है कि व्याघ्र कपिला को मुक्त कर देता है। विशेष—उचित ही कहा है-‘सत्यमेव जयते।’

सूक्तिपरक वाक्यांश की व्याख्या

(1)
नहि सत्यवतां किञ्चिदशुभं विद्यते क्वचित् ।

सन्दर्थ
प्रस्तुत सूक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत पद्य-पीयूषम्’ के ‘कपिलोपाख्यानम्’ पाठ से अवतरित है।

प्रसंग

कपिला जब अपने कहे अनुसार व्याघ्र के पास लौट आती है, तब व्याघ्र उसकी सत्यप्रियता से अत्यधिक प्रसन्न होकर उसे मुक्त कर देता है और यह सूक्ति कहता है।

अर्थ
सत्य वचन बोलने वालों का कहीं भी कुछ भी अशुभ (अहित) नहीं होता है।

व्याख्या
जो व्यक्ति सत्य वचन का पालन करते हैं, उनका कहीं भी कोई भी अनिष्ट नहीं होता है। कपिला नाम की धेनु व्याघ्र के द्वारा घिर जाने पर अपने बछड़े को दूध पिलाकर उसका आहार बनने हेतु पुनः लौट आने का शपथपूर्वक आश्वासन देती है। व्याघ्र उसके विश्वास पर बछड़े को दूध पिलाने के लिए उसे मुक्त कर देता है। कपिला गौशाला में जाकर अपने बछड़े को दूध पिलाकर अपने कथनानुसार पुनः व्याघ्र के पास लौट आती है। व्याघ्र उसके सत्य-पालन से प्रभावित होकर उसे मुक्त कर देता है। इस प्रकार सत्य को पालन करने के कारण कपिला का कोई अनिष्ट नहीं हुआ। कहा भी गया है-‘सत्यमेव जयते।’

श्लोक का संस्कृत-अर्थ

(1) शपथैरागमिष्यामि ••••••••••••••••••••• मृगाधिपः ॥ (श्लोक 9)
संस्कृता-
पुत्रवत्सला कपिला गौः व्याघ्रम् उवाच–हे व्याघ्र! इदम् अहं प्रतिजाने यत् पुत्रं दुग्धं पाययित्वा अहम् अत्र पुनः आगमिष्यामि। मम वचनं कदापि न व्यभिचरिष्यति। यदि त्वं मयि विश्वसिसि तु मां मुञ्च।

(2) नहि सत्यवतां :••••••••••••••••••••• तनयस्तव ॥ (श्लोक 18 )
संस्कृतार्थः–
यदा पुत्रवत्सला कपिला स्ववत्सं दुग्धं पाययित्वा स्ववचोऽनुसारं सिंहस्य समीपे पुनरायाति, तदा सिंह: तस्याः सत्यपालनेन प्रसन्नः भवति कथयति च-हे कपिले! अस्मिन् जगति सत्यस्य पालकानां कुत्रापि किञ्चिदपि अनिष्टं न भवति। त्वं सत्यवादिनी असि, तव अपि अहम् अनिष्टं न करिष्यामि। अहं त्वां मुक्तां करोमि, त्वं तत्रैव गच्छ, यत्र तव वत्सः अस्ति।

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