up board class 9th hindi | केदारनाथ अग्रवाल

By | May 12, 2021

up board class 9th hindi | केदारनाथ अग्रवाल

 
                                जीवन-परिचय एवं कृतियाँ
 
प्रश्न  कवि केदारनाथ अग्रवाल का जीवन-परिचय लिखिए तथा उनके कृतित्व (रचनाएँ) पर
प्रकाश डालिए।
उत्तर―जीवन-परिचय―श्री केदारनाथ अग्रवाल का जन्म 1 अप्रैल,सन् 1911 ई० को उत्तर प्रदेश
के बाँदा जनपद के कमासिन नामक कस्बे में हुआ था। इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक तथा
डी०ए०वी० कॉलेज कानपुर से एल-एल०बी० की उपाधि प्राप्त की। इन्होंने सन् 1930 से ही लेखन-कार्य
प्रारम्भ कर दिया था। ये अपने गृह जनपद में पर्याप्त समय तक वकालत करते रहे तथा फौजदारी मुकदमे
देखने वाले जिला प्रशासक के परामर्शदाता भी रहे। सन् 1989 में इन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा
‘साहित्य वाचस्पति’ तथा सन् 1995 में बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय द्वारा डी० लिट् की मानद उपाधि प्रदान
की गयी। इनकी साहित्यिक उपलब्धियों का सम्मान करते हुए इन्हें विभिन्न संस्थाओं द्वारा विभिन्न पुरस्कारों
से पुरस्कृत किया गया। इनमें सन् 1986 में ‘साहित्य अकादमी’ सम्मान, मध्यप्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल
का सन् 1986 में ‘तुलसी’ सम्मान तथा सन् 1990 में ‘मैथिलीशरण गुप्त’ सम्मान प्रमुख हैं। इनका देहावसान
22 जून, 2000 ई० को हुआ।
काव्य-कृतियाँ―केदारनाथ अग्रवाल जी की रचनाओं का विस्तार सन् 1947 से लेकर 1996 ई०
तक है। इन्होंने निबन्ध, उपन्यास, यात्रा-वृत्तान्त, पत्रसाहित्य के अतिरिक्त प्रमुख रूप से कविताओं की रचना
की है। इनके कुल 24 काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें प्रमुख हैं-‘युग की गंगा’, ‘नींद के बादल’,
‘लोक और आलोक’, ‘आग का आईना’, ‘देश-देश की कविताएँ’, ‘अनुवाद’, ‘गुल मेंहदी’, ‘कहे केदार
खरी-खरी’, ‘बम्बई का रक्त स्नान’, ‘जो शिलाएँ तोड़ते हैं’, ‘जमुन जल तुम’, ‘आत्मगन्ध’, ‘वसन्त में हुई
प्रसन्न पृथ्वी’, ‘कुहकी कोयल खड़े पेड़ की देह’, ‘चेता नैया खेता’, ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’, ‘पंख और
पतवार’, ‘हे मेरी तुम’, ‘और मार प्यार की थापें’, ‘अपूर्वा’, ‘बोले बोल अबोल’, ‘अनहारी हरियाली’, ‘खुली
आँखें खुले डैने’, ‘पुष्पदीप’ आदि हैं। इनके अतिरिक्त इनके द्वारा रचित तीन निबन्ध-संग्रह, दो
यात्रा-वृत्तान्त, एक पत्र साहित्य तथा एक अनूदित ग्रन्थ भी है।
साहित्य में स्थान―केदारनाथ अग्रवाल जी प्रगतिवादी हिन्दी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। ये
नये ढंग की प्रगतिशीलता गढ़ते हैं, जिसकी आस्था मनुष्य और जीवन में है। जनता के श्रम, सौन्दर्य
एवं जीवन की विविधता का वर्णन करने वाले श्री अग्रवाल जी हिन्दी प्रगतिवादी कविता का एक अलग ही
चेहरा हैं।
 
                 पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या (पठनीय अंश सहित)
 
◆ अच्छा होता
 
(1) अच्छा होता
                              अगर आदमी
                                                       आदमी के लिए
परार्थी―
                                       पक्का―
और नियति का सच्चा होता
                                      न स्वार्थ का चहबच्चा―
                                                                  न दगैल-दागी―
न चरित्र का कच्चा होता।
[परार्थी = दूसरों का हित चाहने वाला। नियति = ईमान, भाग्य। चहबच्चा = खजाना। दगैल = जिसमें
कुछ दोष या दाग हो। दागी = जिस पर कुछ दाग लगा हो, कलंकित।]
सन्दर्भ―प्रस्तुत काव्य-पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड’ के ‘अच्छा होता’
शीर्षक कविता से उद्धृत हैं। इसके रचयिता श्री केदारनाथ अग्रवाल जी हैं। प्रस्तुत कविता इनके ‘अपूर्वा’
नामक कविता-संग्रह से गृहीत है।
प्रसंग―प्रस्तुत कविता-पंक्तियों में कवि ‘मनुष्य को मनुष्य के लिए कैसा होना चाहिए’ इस पर
प्रकाश डाल रहे हैं।
व्याख्या―श्री केदारनाथ अग्रवाल जी का कहना है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह
समाज में रहता भी है। कितना अच्छा होता कि वह स्वार्थी न होकर परमार्थ की भावना लिये हुए होता और
परमार्थ के लिए कार्य करता, स्वार्थ उसे छूता तक नहीं। लेकिन वह स्वार्थी है, बिना स्वार्थ के तो वह दूसरों से
बात तक करना उचित नहीं समझता। वृक्ष, नदी, सूर्य आदि को देखिए, दूसरों को सुख प्रदान करना ही इनका
उद्देश्य है। एक मनुष्य ही है जो सब कुछ जानते-समझते हुए भी परार्थी नहीं होना चाहता। परार्थी होने के लिए
व्यक्ति को ईमानदार और इरादों का पक्का होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो हम परार्थी हो ही नहीं सकते।
परार्थ के अभाव में हमारे अन्तःकरण में स्वार्थ की भावना जन्म लेने लगेगी। यदि हम स्वार्थ में आकण्ठ डूब
जाएँगे तो समाज हमें कुत्सित दृष्टि से देखेगा, हमें अपराधी समझेगा और हमारी ओर अँगुली उठाएगा। यदि
हमें समाज में सिर ऊँचा करके रहना है तो स्वार्थ का त्याग करना होगा और परस्पर कन्धे से कन्धा मिलाकर
एक-दूसरे को विकास की ओर अग्रसर करना होगा। यदि हम अपने तक ही सीमित रहेंगे तो हम मानवता का
अथवा मानव-समाज का हित नहीं कर सकते। अत: व्यक्ति को परार्थी होना चाहिए और प्रत्येक कार्य
परमार्थ की भावना से करना चाहिए।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) स्वार्थ का परित्याग कर मानवता की भावना से कार्य करने की प्रेरणा दी
गयी है। (2) प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि की परार्थी भावना की परिचायक हैं। (3) रस―शान्त। (4) छन्द―मुक्त।
अलंकार―अनुप्रास का मनमोहक प्रयोग। (6) भाषा―खड़ी बोली, जिसमें लोकभाषा व अन्य भाषा
के शब्दों का भी प्रयोग है। (7) शैली―विवेचनात्मक। (8) गुण―प्रसाद। (9) शब्द-शक्ति―अभिधा एवं
लक्षणा।
 
(2) अच्छा होता
                            अगर आदमी
                                                   आदमी के लिए
दिलदार―
                       दिलेर―
और हृदय की थाती होता,
                         न ईमान का घाती―
                                                ठगैत ठाकुर
न मौत का बराती होता।
[दिलदार = उदार, दानी। दिलेर = साहसी, हिम्मती। थाती = धरोहर। घाती = घात करने वाला। ठगैत =
ठग   ठाकुर = क्षत्रियों व नाई की उपाधि]
सन्दर्भ व प्रसंग―पूर्ववत्।
व्याख्या―कवि श्री केदारनाथ अग्रवाल जी कहते हैं कि कितना अच्छा होता यदि व्यक्ति स्वार्थी न
होकर परार्थी होता। यदि व्यक्ति उदार होता; अर्थात् आवश्यकता पड़ने पर दूसरों की मदद करने वाला होता;
हिम्मती होता तो बहुत ही अच्छा होता। बहुत ही अच्छा होता यदि वह किसी की धरोहर की रक्षा करने वाला
होता, किसी के साथ धोखा न करने वाला होता। आज ऐसा नहीं है। आज का व्यक्ति दूसरे लोगों को धोखा
देने में, ठगने में ही अपनी चतुराई समझता है, व्यक्ति को दुःखी देखकर उसके दुःख का सहभागी नहीं
बनता। पुन: कवि कहता है कि व्यक्ति यदि किसी की ईमानदारी पर चोट करने वाला, ठग, जातिवाद के
मिथ्या अभिमान से ग्रसित, आतंकवादी न होता तो बहुत ही अच्छा होता। निष्कर्ष रूप से कवि सभी व्यक्तियों
को यथासम्भव समस्त मानवीय गुणों से युक्त देखना चाहता है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) कवि चाहता है कि सभी व्यक्ति स्वयं में मानवीय गुण को विकसित करें।
(2) अमानवीय गुणों के त्याग पर बल दिया गया है। (3) रस―शान्त। (4) छन्द―मुक्त। (5) अलंकार―
अनुप्रास अलंकार का मनमोहक प्रयोग। (6) भाषा―लोकभाषा के शब्दों से युक्त खड़ी बोली।
(7) शैली―विवेचनात्मक। (8) गुण―प्रसाद। (9) शब्द-शक्ति―अभिधा एवं लक्षणा।
 
  सितार-संगीत की रात
(1) आग के ओठ बोलते हैं
                                       सितार के बोल,
                                    खुलती चली जाती हैं
                                                             शहद की पंखुरियाँ,
चूमती अँगुलियों के नृत्य पर,
                                      राग-पर-राग करते हैं किलोल,
[सितार के बोल = सितार के स्वर। पंखुड़ियाँ = मधुर स्वर लहरी। किलोल = हर्ष, आनन्द, तरंग।]
सन्दर्भ―प्रस्तुत काव्य-पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड’ के ‘सितार―
संगीत की रात’ शीर्षक कविता से उद्धृत हैं। इसके रचयिता श्री केदारनाथ अग्रवाल जी हैं।
प्रस्तुत कविता इनके ‘अपूर्वा’ नामक कविता-संग्रह से गृहीत है।
प्रसंग―प्रस्तुत कविता-पंक्तियों में कवि व्यक्तियों के विभिन्न मनोभावों का वर्णन कर रहा है।
व्याख्या―श्री केदारनाथ अग्रवाल जी कहते हैं कि आग के ओठ सितार के बोल बोलते हैं, जिससे
शहद की पंखुड़ियाँ खुलती चली जाती हैं। कवि का आशय है कि आजकल लोगों के मन में दूसरों के
प्रति अनेक प्रकार की कटुता भरी हुई है, लेकिन जब वे बोलते हैं तो उसके मुख से मधुर स्वर-लहरियाँ
ही निकलती हैं। इससे सम्मुख व्यक्ति को यह आभास ही नहीं हो पाता कि इसके मन में कितनी कटुता
भरी है। वह विभिन्न प्रकार के हाव-भाव प्रदर्शित करता हुआ अपने मन के भावों को हर्ष से प्रकट
करता रहता है। कवि का आशय है कि व्यक्ति प्रकट रूप में जो दीखता है, वास्तविक रूप में वैसा नहीं
होता।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) कवि ने व्यक्तियों के प्रत्यक्ष और आन्तरिक भावों के अन्तर को सहजता से
प्रकट किया है। (2) भाषा―तद्भव शब्दों से युक्त खड़ी बोली। (3) शैली―विवेचनात्मक। (4) रस―
शान्त। (5) छन्द―मुक्त। (6) अलंकार―अनुप्रास और विरोधाभास। (7) शब्द-शक्ति―लक्षणा और
व्यंजना।
 
(2) रात के खुले वक्ष पर,
                                   चन्द्रमा के साथ,
शताब्दियाँ झाँकती हैं
                               अनंत की खिड़कियों से,
संगीत के समारोह में कौमार्य बरसता है,
हर्ष का हंस दूध पर तैरता है,
                                   जिस पर सवार भूमि की सरस्वती
काव्य-लोक में विचरण करती है।
[ वक्ष = सीना। शताब्दियाँ = विगत व आगत समय। अनन्त = जिसका अन्त न हो। कौमार्य
कुँवारापन। हर्ष = प्रसन्नता। विचरण करना = घूमना-फिरना।]
सन्दर्भ एवं प्रसंग―पूर्ववत्।
व्याख्या―श्री केदारनाथ अग्रवाल जी का कहना है कि सितार का स्पर्श करती अँगुलियाँ नृत्य करती
प्रतीत हो रही हैं और उनके इस क्रियाकलाप से एक-के-बाद एक राग उत्पन्न हो रहे हैं। चारों ओर चन्द्रमा
की श्वेत चाँदनी फैली हुई है और युवाओं के मन में एक-के-बाद एक इच्छाएँ उत्पन्न होती जा रही हैं,
जिनका अन्त कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा है। संगीत के इस समारोह में चतुर्दिक युवा और उनका यौवन ही
दृष्टिगोचर हो रहा है। चारों ओर प्रसन्नता का वातावरण है। युवाओं का मन-मयूर चन्द्रमा की धवल चन्द्रिका
में नृत्य करता दीख रहा है। इस सम्पूर्ण दृश्य को देखती हुई कवि की वाणीरूपी सरस्वती काव्य-लोक
में विचरण करने लगती हैं अर्थात् युवाओं के विचारों को कविता के माध्यम से प्रकट करने की क्षमता कवि
में उत्पन्न हो जाती है और वह कविता-रचना की ओर प्रवृत्त हो जाता है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) संगीत की रात्रि का प्रतीक रूप में चित्रण किया गया है।
(2) संगीत समारोहों में युवाओं की भागीदारी को अंकित किया गया है। (3) भाषा―तत्सम शब्दों से
युक्त खड़ी बोली। (4) शैली―विवेचनात्मक। (5) रस―शृंगार। (6) छन्द―मुक्त। (7) अलंकार―अनुप्रास।
(8) गुण―प्रसाद (9) शब्द-शक्ति―लक्षणा और व्यंजना।
 
                      काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध सम्बन्धी प्रश्न
 
प्रश्न 1 निम्नलिखित काव्य-पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों के नाम लिखिए तथा उनका स्पष्टीकरण
देते हुए रसों को पहचानकर उनके स्थायी भाव भी लिखिए―
(क) न स्वार्थ का चहबच्चा           (ख) शताब्दियाँ झाँकती हैं
       न दगैल-दागी―                         अनन्त की खिड़कियों से,
       न चरित्र का कच्चा होता।             संगीत के समारोह में कौमार्य बरसता है।
उत्तर― (क) ‘दगैल-दागी’ और ‘चरित्र का कच्चा’ में क्रमश: ‘द’ और ‘च’ वर्गों की आवृत्ति के
कारण अनुप्रास अलंकार है।
रस―शान्त और स्थायी भाव―निर्वेद।
(ख) प्रथम पंक्ति में ‘त’ वर्ण, द्वितीय पंक्ति में ‘क’ वर्ण और तृतीय पंक्ति में ‘स’, ‘त’, ‘क’ और
‘म’ वर्गों की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
रस―शृंगार और स्थायी भाव―रति।
 
प्रश्न 2-निम्नलिखित शब्दों के अर्थों को स्पष्ट रूप से लिखिए और स्वनिर्मित वाक्यों में
प्रयोग कीजिए―
स्वार्थ का चहबच्चा, दगैल-दागी, हृदय की थाती, मौत का बराती।
उत्तर―स्वार्थ का चहबच्चा (स्वार्थ का खजाना)―स्वार्थी व्यक्ति सदैव स्वार्थ के चहबच्चे को
प्राप्त करने के लिए तत्पर रहते हैं।
दगैल-दागी (अपराधी प्रवृत्तियों वाले व्यक्ति)―समाज में कभी भी दगैल-दागी व्यक्तियों को
सम्मान प्राप्त नहीं होता।
हृदय की थाती (हृदय की धरोहर)―सत्यनिष्ठा, कर्त्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी को सदैव हृदय की
थाती मान सँजोकर रखना चाहिए।
मौत का बराती (मृत्यु पर प्रसन्न होने वाला, आतंकवादी)―समाज में आजकल मौत के बारातियों
की संख्या बढ़ती जा रही है।

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