up board class 9th hindi | शिवमंगल सिंह ‘सुमन
जीवन-परिचय एवं कृतियाँ
प्रश्न कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का जीवन-परिचय तथा उनके व्यक्तित्व (रचनाओं) पर प्रकाश
डालिए।
उत्तर―जीवन-परिचय―शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का जन्म झगरपुर, जिला उन्नाव (उत्तर प्रदेश) में
5 अगस्त, 1915 ई० को वसंत पंचमी के दिन हुआ था।
इनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा भी इनके जन्मस्थान झगरपुर (उन्नाव) में ही हुई। इन्होंने विक्टोरिया
कॉलेज से बी०ए० तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम०ए०, डी.लिट् की उपाधियाँ प्राप्त की।
‘सुमन’ जी ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में हिन्दी के व्याख्याता, माधव महाविद्यालय उज्जैन के
प्राचार्य और फिर कुलपति रहे। अध्यापन के अतिरिक्त विभिन्न महत्त्वपूर्ण संस्थाओं और प्रतिष्ठानों से
जुड़कर उन्होंने हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि की। ‘सुमन’ जी प्रिय अध्यापक, कुशल प्रशासक, प्रखर चिंतक
और विचारक भी थे। सरल स्वभाव के सुमन जी सदैव अपने प्रशंसकों से कहा करते थे, मैं विद्वान् नहीं बन
पाया। विद्वता की दहलीज भर छू पाया हूँ।
सुमन जी जितने ऊँचे, पूरे, भव्य व्यक्तित्व के धनी थे उतने ही ज्ञान और कवि कर्म में भी वे शिखर
पुरुष थे। हिन्दी कविता की वाचिक परम्परा आपकी लोकप्रियता की साक्षी है। देश भर के काव्य प्रेमियों को
अपने गीतों की रवानी से अचंभित कर देने वाले सुमन जी 27 नवम्बर, 2002 को मौन हो गए।
छायावाद के अंतिम चरण में ये काव्य के क्षेत्र में आए और आरम्भ में प्रेम-गीत लिखते रहे। ‘सुमन’
जी को काव्य और गद्य साहित्य के क्षेत्र में, साहित्य अकादमी, पद्मश्री, पद्मभूषण आदि अलंकारों से
सम्मानित किया गया। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-
काव्य संग्रह―हिल्लोल, जीवन के गान, प्रलय-सृजन, विश्वास बढ़ता ही गया, पर आँखें नहीं भरी,
विन्ध्य हिमालय, मिट्टी की बरात, वाणी की व्यथा, कटे अंगूठों की वंदनवारें।
गद्य रचनाएँ―महादेवी की काव्य-साधना, गीति काव्य : उद्यम और विकास।
नाटक―प्रकृति पुरुष कालिदास।
धीरे-धीरे इन्होंने प्रेम से अधिक कर्त्तव्य के महत्त्व को स्वीकार किया। प्रकृति के विशाल क्षेत्र से उठती
हुई त्रस्त मानवता की कराह ने इनके ध्यान को आकर्षित किया और ये देश के राष्ट्रीय आन्दोलन से प्रभावित
हुए। मन में क्रान्ति की आग धधक उठी। हृदय पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के प्रति विरक्ति से भर गया। रचनाओं
में साम्राज्यवाद विरोधी स्वर मुखर हुए। यद्यपि इनका झुकाव साम्यवाद की ओर रहा और रूस की नवीन
अर्थव्यवस्था ने इनको आकर्षित किया, पर गांधीजी के सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों पर इनकी आस्था दृढ़
बनी रही। इसी कारण इनकी कविताओं के क्रान्तिकारी स्वर इतने लोकप्रिय बन सके। इनकी रचनाओं से यह
स्पष्ट हो जाता है कि ये भारतीय समाज के नव-निर्माण के लिए व्याकुल हैं।
सुमन जी की भाषा स्वच्छ, प्रांजल, ललित, कोमल और स्पष्ट है। इनकी शैली प्रसाद और ओज गुण
से पूर्ण है। मुक्त छन्द लिखते हुए भी ये परम्परागत छन्दों की समृद्धि में सहयोग देते रहे हैं। गीतों में
संगीतात्मकाता, मस्ती और लय है।
सुमन जी के काव्य में उनका अपना जीवन दर्शन है, जिसमें वर्तमान के हर्ष-पुलक, राग-विराग और
आशा-उत्साह के स्वर भी मुखरित हुए हैं।
पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या (पठनीय अंश सहित)
◆ युगवाणी
(1) हर क्यारी में पद चिह्न तुम्हारे देखे हैं,
हर डाली में मुस्कान तुम्हारी पायी है,
हर काँटे में दुख-दर्द किसी का कसका है
हर शबनम ने जीवन की प्यास जगायी है।
हर सरिता की लचकीली लहरें डसती हैं
हर अंकुर की आँखों में कोर समाती है,
हर किसलय में अधरों की आभा खिलती है
हर कली हवा में मचल-मचल इठलाती है।
[कसका है = पीड़ा व्यक्त हुई है। शबनम = ओस। किसलय = नई फूटी लाल-लाल पत्तियाँ।
अधरों = निचले होंठों। आभा = चमक, तेज!]
सन्दर्भ―प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्य-खण्ड में छायावादी एवं प्रगतिवादी कवि
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ द्वारा रचित ‘विन्ध्य हिमालय’ काव्य-संग्रह से संकलित ‘युगवाणी’ कविता से
उद्धृत हैं।
प्रसंग―कवि सामान्य रूप से श्रमिक एवं कृषकवर्ग को सम्बोधित करते हुए जीवन में इनकी महत्ता
को व्यक्त कर रहा है।
व्याख्या―कवि श्रमिक एवं कृषकवर्ग को सम्बोधित करते हुए कहता है कि मैंने क्यारी-क्यारी में
तुम्हारे ही पद-चिह्नों के दर्शन किए हैं। तुमने परिश्रमपूर्वक जो क्यारियाँ बोई थीं, उन पर बढ़ती हुई फसल में
आज भी तुम्हारे श्रमशील कदम झलकते दिखाई दे रहे हैं। ये डालियाँ, जो नए-नए पल्लवों से भर गई हैं,
इनमें तुम्हारी मुसकान प्रतीत हो रही है। विकास का यही नियम है, जगह-जगह मुसकान बिखर जाती है।
प्रत्येक काँटे का व्यक्तित्व भी बड़ा विचित्र होता है। इसमें किसी-न-किसी का दुःख-दर्द कसकता ही है।
जब मैं ओस की बूंँदों को देखता हूँ तो जीवन में प्यास जग जाती है, ओस की एक बूंद भी पानी की याद दिला
देती है।
नदी की उठती-बहती लचकदार प्रत्येक लहर मन को डस लेती है अर्थात् मन पर अपना प्रभाव
छोड़ती है। जो भी नया अंकुर फूटता है, वह भविष्य में आने वाली अपनी कलियों को अपने में समाहित किए
रखता है। अंकुर की आँख विकास का ही प्रारूप है। प्रत्येक किसलय में प्रत्येक पल्लव में जो लाली दिखाई
देती है, वह और कुछ नहीं, तुम्हारे अधरों की ही लाली प्रतीत होती है और कलियाँ हवा के साथ इठला
उठती हैं।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) कवि ने समाज की प्रगतिशीलता में श्रमिक-कृषकवर्ग के योगदान के
महत्त्व को दर्शाते हुए यह स्पष्ट किया है कि इस वर्ग की मुसकान और खुशहाली में सम्पूर्ण समाज और देश
की खुशहाली निहित है। (2) भाषा―सरल खड़ीबोली। (3) शैली―प्रतीकात्मक, गीत।
(4) शब्दशक्ति―लक्षणा। (5) अलंकार―पुनरुक्तिप्रकाश। (6) रस―शान्त।
(2) अम्बर में उगती सोने-चाँदी की फसलें
ये ज्वार बाजरे की मस्ती लहराती है
अन्तर में इसका बिम्ब उभरता आता है,
चाँदनी सिन्धु में सौ-सौ ज्वार जगाती है।
मैं कैसे इनकी मोहकता से मुख मोड़ूँ,
मैं कैसे जीवन के सौ-सौ धंधे छोड़ूँ,
दोनों का साथ लिये चलना क्या संभव है?
तन का मन का पावन नाता कैसे तोड़ूँ?
क्या उम्र ढलेगी तो यह सब जायेगा
सूरज चन्दा का पानी गल जल जायेगा,
जिनके बल पर जीने-मरने का स्वर साधा
उनका आकर्षण साँसों को छल जायेगा।
जिस दिन सपनों के मोल-भाव पर उतरूँगा
जिस दिन संषर्षों पर जाली चढ़ जायेगी,
जिस दिन लाचारी मुझपर तरस दिखायेगी
उस दिन जीवन से मौत कहीं बढ़ जायेगी।
[अन्तर = हृदय। बिम्ब = चित्र दृश्य। सिन्धु = समुद्र। पानी = आभा।]
सन्दर्भ-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्य-खण्ड में छाचावादी एवं प्रगतिवादी कवि
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ द्वारा रचित ‘विन्ध्य हिमालय’ काव्य-संग्रह से संकलित ‘युगवाणी’ कविता से
उद्धृत हैं।
प्रसंग―प्रस्तुत पंक्तियों में श्रमिक एवं कृषकवर्ग के परिश्रम से समाज में आई सम्पन्नता का वर्णन
किया गया है।
व्याख्या―कवि कहता है कि आकाश में उदित होते सूरज, चाँद, सितारे ऐसे लगते हैं मानो सोने
और चाँदी की फसलें उग रही हों। पृथ्वी पर ज्वार और बाजरे के खेत मस्ती में भरे लहरा-लहरा जाते हैं। ये
सब दृश्य किसी-न-किसी प्रकार मन को प्रभावित करते हैं। ये अन्त:करण को नए-नए बिम्ब प्रदान करते हैं।
चाँद के उदय होने पर चाँदनी समुद्र में सैकड़ों-सैकड़ों ज्वार उठा देती है।
कवि कहता है कि मैं उक्त प्राकृतिक दृश्यों से अपना मुख नहीं मोड़ सकता। इनकी मोहकता मेरे मन
को बाँध लेती है, जिससे जीवन में सैकड़ों क्रियाकलाप करने पड़ते हैं। इन क्रियाकलापों से भी दूर नहीं हुआ
जा सकता। कवि प्रश्न करता है कि क्या प्राकृतिक सौन्दर्य और जीवन के धन्धे-दोनों को साथ-साथ लेकर
चला जा सकता है। शरीर और मन का सम्बन्ध बहुत ही पवित्र होता है। यह पवित्र सम्बन्ध कैसे टूट सकता
है? प्रकृति मन को सुख देती है, जीवन के धन्धे शरीर के लिए आवश्यक हैं; अत: दोनों ही से सम्बन्ध बना
रहना ठीक है।
कवि कुछ गम्भीर होकर अपने मन में प्रश्न है―क्या जब उम्र ढलने लगेगी तो यह सब-कुछ,
जो आज इतना लुभावना लग रहा है, खो जाएगा? क्या उम्र के साथ-साथ सूरज और चाँद की कान्ति निष्प्राण
हो जाएगी? जिन मनोहर दृश्यों को सँजोकर मैने जीवन-मरण का स्वर साधा है, क्या उनका आकर्षण साँसों
को धोखा दे जाएगा?
कवि कहता है कि जिस दिन मैं स्वप्नों और परिकल्पनाओं का मोल-भाव करने बैलूंगा; उस दिन मेरे
संघर्षों की आभा मन्द पड़ जाएगी और उस दिन विवशता मुझ पर तरस दिखाएगी अर्थात् जिस दिन मैं
विवशता का दास बन जाऊँगा, उस दिन जीवन की अपेक्षा मुत्यु का पलड़ा भारी होगा; उस दिन मृत्यु मुझे
थाम लेगी।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) कवि ने जीवन और मृत्यु की यथार्थता को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
(2) भाषा―खड़ीबोली। (3) शब्दशक्ति―लक्षणा। (4) अलंकार―‘जीवन’ में श्लेष―1. पानी,
2. जीन्दगी; अनुप्रास। (5) शैली―गीत। (6) रस―शान्त।
(3) इन सबसे बढ़कर भूख बिलखती मिट्टी की
पथ पर पथराई आँखें पास बुलाती हैं,
भगवान भूल में रचकर जिनको भूल गया
जिनकी हड्डी पर धर्म-ध्वजा फहराती है।
इनको भूलूँ तो मेरी मिट्टी मिट्टी है
मेरी आँखों का पानी केवल पानी है,
इनको भूलूँ तो मेरा जन्म अकारथ है
मेरा जीवन मरने की मूक कहानी है।
[बिलखती मिट्टी = दुःख से तड़ते लोग। मेरी मिट्टी मिट्टी है = मेरा शरीर धारण करना
निरर्थक है। अकारथ = व्यर्थ। मूक
= चुपचाप।]
सन्दर्भ―प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्य-खण्ड में छायावादी एवं प्रगतिवादी कवि
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ द्वारा रचित ‘विन्ध्य हिमालय’ काव्य-संग्रह से संकलित ‘युगवाणी’ कविता से
उद्धृत हैं।
प्रसंग―यहाँ कवि ने असहाय और कमजोर वर्ग के व्यक्तियों के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित की है।
व्याख्या―कवि सुमन जी कहते हैं कि मेरा हृदय केवल प्राकृतिक सुन्दरता में ही नहीं बँधा रह
सकता। मैं दुःख से तड़पते हुए उन व्यक्तियों को अधिक महत्त्व देता हूँ, जो कि अन्न के अभाव में भूख से
व्याकुल होकर जर्जर हो गए हैं। उनकी पथराई हुई आँखें आने-जाने वाले हर व्यक्ति को अपने पास बुलाती
हैं। वही आँखें आज मुझे भी अपने पास बुला रही हैं। ये वे लोग हैं, जिनकी चिन्ता भगवान् को भी नहीं है।
ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हें बनाने के बाद ईश्वर इन्हें उसी प्रकार भूल गया है, जैसे कि उसने इन्हें बनाया ही
नहीं था। वास्तव में धर्म की ध्वजा इन दीन-हीन प्राणियों की हड्डियों पर ही फहराती है; क्योंकि ये लोग
अन्याय और अनीति के विरुद्ध आवाज तक नहीं उठा पाते हैं।
कवि कहता है कि यदि मैं इन लाचार और विवश व्यक्तियों को भुला देता हूँ तो मेरा मानव-शरीर
धारण करना व्यर्थ होगा। ऐसी स्थिति में मेरा शरीर मिट्टी का बुत मात्र होगा । यदि मेरे नेत्र इन लोगों के
अपार कष्टों को देखकर सहानुभूति से द्रवित नहीं हो उठते हैं तो इन नेत्रों का कोई मूल्य नहीं है। आँसू तो
करुणा और दया के प्रतीक हैं, इसलिए जब तक इन आँखों से करुणा का जल नहीं बहता है तब तक इनका
होना-न-होना बराबर है। यदि मैं इस दलित-वर्ग को भुला देता हूँ तो मेरा जन्म लेना व्यर्थ है और मेरा जीवित
रहना भी मरने की एक मूक कहानी के समान ही है। तात्पर्य यह है कि मानव को मानव के प्रति सहानुभूति,
दया, करुणा जैसी मानवीय भावनाओं को अपने हृदय में संजोकर रखना चाहिए, अन्यथा उसका
मानव-शरीर धारण करना व्यर्थ है।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ असहाय व्यक्तियों का सजीव चित्रण हुआ है। (2) सुमन जी ने यहाँ
मानव के प्रति सहानुभूति, करुणा और प्रेम की भावना व्यक्त की है। (3) भाषा―साहित्यिक खड़ीबोली।
(4) शैली―भावात्मक, गीत (5) रस―करुणा (6) अलंकार―रूपक और अनुप्रास।
(7) शब्द-शक्ति―लक्षणा। (8) गुण–प्रसाद।
(4) मैं देख रहा हूँ तुम इनको फिर भूल चले
बातों-बातों में हमें बहुत बहलाते हो,
बेबसी चीखती जब बच्चों की लाशों पर
उसको आजादी की प्रतिध्वनि बतलाते हो।
यों खेल करोगे तुम कब तक असहायों से
कब तक अफीम आशा की हमें खिलाओगे,
बरबाद हो गयी फसल कहीं जोती बोयी
क्या बैठ अकेले ही मरघट पर गाओगे?
विश्वास सर्वहारा का तुमने खोया तो
आसन्न मौत की गहन गोंस गड़ जाएगी,
यदि बाँध बाँधने के पहले जल सूख गया
धरती की छाती में दरार पड़ जायेगी।
सदियों की कुर्बानी यदि यों बेमोल बिकी
जमुहाई लेने में खो गया सबेरा यदि,
जनता पूर्णिमा मनाने की जब तक सोचे
घिर गया अमावस का अम्बर में घेरा यदि।
प्रतिध्वनि = उत्पन्न ध्वनि के पश्चात् फिर से सुनाई देने वाली दूसरी वही ध्वनि। सर्वहारा =
जिसके पास कुछ भी न हो, निर्धन। आसन्न = निकटस्थ । गोंस = फाँस, कील]
सन्दर्भ―प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्य-खण्ड में छायावादी एवं प्रगतिवादी कवि
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ द्वारा रचित ‘विन्ध्य हिमालय’ काव्य-संग्रह से संकलित ‘युगवाणी’ कविता से
उद्धृत हैं।
प्रसंग―इन पंक्तियों में कवि ने दीन-दुःखियों के प्रति शासन की उपेक्षा पर प्रहार किया है।
व्याख्या―कवि कहता है कि मैं यह स्पष्ट रूप से देख रहा हूँ कि तुम श्रमिकवर्ग की उपेक्षा कर रहे
हो। अब बातें बना-बनाकर इन्हें बहलाना छोड़ दो। तुम्हारा यह ढोंग अब नहीं चल पाएगा। निर्धन श्रमिकों के
मृतप्राय बच्चों पर चीखती विवशता को तुम स्वतन्त्रता की प्रतिध्वनि के रूप में परिभाषित कर उधर से अपना
ध्यान हटाना चाहते हो। तुम्हारी यह सोच अस्तित्वविहीन है।
कवि शासक एवं पूँजीपतिवर्ग को सम्बोधित करते हुए कहता है कि यदि तुम असहायों की मूल
समस्या का समाधान करने की अपेक्षा इनके साथ खिलवाड़ करोगे तो ठीक नहीं होगा। बहुत समय बीत
गया, निर्धन को आशारूपी अफीम खिला-खिलाकर अब भी सुला देना चाहते हो। याद रखना, मानवीय
संवेदनाओं की जो सफल हमने जोती-बोई है, यदि वह नष्ट हो गई तो तुम तनहा रह जाओगे और यदि संसार
शमशान बन गया तो तुम उसमें रहकर क्या खुश रह सकोगे?
कवि आगे चेतावनी देता है कि यदि तुमने सर्वहारा अर्थात् गरीब-निर्धनजन का विश्वास खो दिया तो
निकट आती मृत्यु की गहरी फाँस तुम्हारे जीवन में गड़ जाएगी। बड़े प्रयत्नों के बाद गरीब जागा है, इसकी
जागृति का अभिनन्दन करना चाहिए। अगर बाँध बाँधने से पहले ही पानी सूख जाए, तब तो धरती की छाती
में दरार पड़ जाएगी अर्थात् बाँध इसलिए बाँधा जाता है, ताकि पानी इकट्ठा रहे। पानी सूख गया तो बाँध का
क्या औचित्य रहेगा? अतः समय रहते चेत जाओ और निर्धन को सँभालो, उसे उसके अधिकार सौंपो।
कवि पुनः चेतावनी देता है कि यदि श्रमिकवर्ग के अभ्युत्थान के लिए सदियों से चले आ रहे
विचार-आन्दोलन का सम्मान न हुआ, उनकी कुर्बानी व्यर्थ चली गई तो ठीक नहीं होगा। सवेरे के जागरण
को जमुहाई ले-लेकर खो देना कहाँ की बुद्धिमानी है? पूर्णिमा का उत्सव मनाने की बात सोचते-सोचते ही
यदि आकाश में अमावस्या का अँधेरा छा गया तो इतिहास तुम्हें कभी माफ नहीं करेगा; अतः अँधेरे दूरकर
श्रमिक के जीवन में प्रकाश का उत्सव मनाने का उपक्रम करो।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) श्रमिक के अभ्युथान के लिए कवि ने चेतावनी दी है। (2) भाषा―खड़ी
बोली। (3) शब्दशक्ति―लक्षणा। (4) अलंकार― आशा की अफीम’ में रूपक; रूपकातिशयोक्ति,
अनुप्रास। (5) शैली―भावात्मक, गीत। (6) रस―रौद्र।
(5) इतिहास न तुमको माफ करेगा याद रहे
पीढ़ियाँ तुम्हारी करनी पर पछतायेंगी,
पूरब की लाली में कालिख पुत जायेंगी
सदियों में फिर क्या ऐसी घड़ियाँ आयेंगी?
इसलिए समय के सैलाबों को मत रोको
खुशहाल हवाओं में न खिड़कियाँ बन्द करो,
हर किरण जिन्दगी की आँगन तक आने दो
नव-निर्माणों को लपटों को मत मन्द करो।
[सैलाब = बाढ़-प्रवाह, जल-प्लावन।]
सन्दर्भ―प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्य-खण्ड में छायावादी एवं प्रगतिवादी कवि
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ द्वारा रचित ‘विन्ध्य हिमालय’ काव्य-संग्रह से संकलित ‘युगवाणी’ कविता से
उद्धृत हैं।
प्रसंग―इन पंक्तियों में कवि ने मानव-समाज के कर्णधारों को समाज-कल्याण के लिए प्रोत्साहित
किया है।
व्याख्या―कवि का कथन है कि समय परिवर्तनशील है; अत: हमें जो शुभ अवसर प्राप्त हुआ है,
उसका सदुपयोग किया जाना चाहिए अन्यथा यश के स्थान पर अपयश मिलेगा। यदि हमने समय का
सदुपयोग न किया तो आनेवाला समाज हमारी अकर्मण्यता और कर्त्तव्यहीनता पर हमें धिक्कारेगा। इस समय
का जो इतिहास लिखा जाएगा, उसमें किसी भी व्यक्ति को उसकी अकर्मण्यता के लिए क्षमा नहीं किया
जाएगा। सत्ताधारियों को सम्बोधित करते हुए कवि कहता है कि तुम्हारी अकर्मण्यता से पूरब में उगने वाले
सूरज की अरुणिमा पर भी कालिख पुत जाएगी, उसकी महत्ता समाप्त हो जाएगी और फिर शताब्दियों तक
इस प्रकार की उन्नतिशील घड़ियाँ आएँ अथवा न आएँ, हमें यह भी ज्ञात नहीं; अत: हमें अपने समय का
उचित उपयोग करना चाहिए।
समय की परिवर्तनशीलता को देखते हुए प्रगति के प्रवाह को रोकने का प्रयास मत करो। क्या पता कि
फिर इस प्रकार की सुखद वायु में साँस लेने का अवसर मिले या न मिले? इसलिए तुम समस्त खिड़कियों
तथा दरवाजों को खोल दो। जीवन की आनन्ददायक किरणों का प्रकाश प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचने दो। इन
आनन्दमयी घड़ियों का उपयोग मात्र धनीवर्ग तक ही सीमित न रह जाए। तुम ऐसा प्रयास करो, ताकि उन
किरणों का प्रकाश साधारण जनता के आँगन तक पहुँच सके। नव-निर्माणरूपी महान् यज्ञ की ज्वालाओं को
धीमा करने का प्रयत्न मत करो, अपितु उसको और अधिक प्रज्वलित होने दो।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ कवि की प्रगतिवादी भावना व्यक्त हुई है। (2) वह साधनों के समान
बँटवारे का पक्षपाती है। (3) देश के प्रत्येक नागरिक को विकास के समान अवसर मिलने चाहिए। समय
व्यतीत होने पर पुनः लौटकर नहीं आता है। (4) उत्साह स्थायी भाव। (5) रस―वीर। (6) भाषा―ओजपूर्ण
खड़ीबोली। (7) शैली―भावात्मक, गीत। (8) शब्दशक्ति―लक्षणा तथा व्यंजना।
(6) इस नये सबेरे की लाली को देखो तो
इसकी अपनी कितनी पहचान पुरानी है
भू, भुवः, स्वर्ग को एक बनाने आयी जो
युग की गायत्री सब छन्दों की रानी है।
[भू = भूलोक। भुवः = भुवलोक। गायत्री = एक वैदिक छन्द।]
सन्दर्भ―प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ् यपुस्तक के काव्य-खण्ड में छायावादी एवं प्रगतिवादी कवि
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ द्वारा रचित ‘विन्ध्य हिमालय’ काव्य-संग्रह से संकलित ‘युगवाणी‘ कविता से
उद्धृत हैं।
प्रसंग―इन पंक्तियों में कवि ने आमन्त्रण दिया है कि श्रमिकवर्ग के अभ्युत्थान के सवेरे का खुलकर
स्वागत करो।
व्याख्या―कवि कहता है आज चेतना का जो प्रभात हुआ है, इसके लिए बहुत पुराने समय से संघर्ष
होता रहा है। इस नए सवेरे की अरुणाई की पहचान बहुत पुरानी है। आज नवयुग की चेतना-गायत्री भूलोक,
भुवलोक और स्वर्गलोक की समता की प्रतिष्ठा करने का आह्वान कर रही है, इसका स्वागत करो।
काव्यगत सौन्दर्य―(1) नवीन चेतना के स्वागत के लिए जन-जन का आह्वान।
(2) भाषा―खड़ीबोली। (3) शैली―प्रतीकात्मक, गीत (4) अलंकार―अनुप्रास।
(5) शब्दशक्ति―लक्षणा। (6) रस―अद्भुत।
काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध सम्बन्धी प्रश्न
प्रश्न 1. निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों के नाम लिखिए तथा उनका स्पष्टीकरण भी
कीजिए
(क) इन सबसे बढ़कर भूख बिलखती मिट्टी की
पथ पर पथराई आँखें पास बुलाती हैं
(ख) इनको भूलूँ तो मेरी मिट्टी मिट्टी है
मेरी आँखों का पानी केवल पानी है।
उत्तर―(क) पथ पर पथराई’ इन शब्दों में फ’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण अनुप्रास अलंकार
होगा।
(ख) ‘पानी’ शब्द दो बार आया है और दोनों के अर्थ अलग-अलग हैं―प्रतिष्ठा,
जल। यहाँ यमक अलंकार होगा।
प्रश्न 2. निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त रसों को पहचानकर उनके स्थायीभाव लिखिए-
(क) इतिहास न तुमको माफ करेगा रहे
पीढ़ियाँ तुम्हारी करनी पर पछतायेंगी,
पूरब की लाली में कालिख पुत जायेंगी
सदियों में फिर क्या ऐसी घड़ियाँ आएँगी?
(ख) अम्बर में उगतीं सोने-चांदी की फसलें
ये ज्वार बाजरे की मस्ती लहराती है
अन्तर में इसका बिम्ब उभरता आता है.
चाँदनी सिन्धु में सौ-सौ ज्वार जगाती है।
उत्तर―(क) रस―रौद्र
स्थायीभाव―क्रोध।
(ख) रस―शान्त।
स्थायीभाव―निर्वेद।
प्रश्न 3. निम्नलिखित पदों में उपसर्ग और प्रत्ययों को पृथक्-पृथक् करके मूल-शब्द के साथ
लिखिए―
शबनम, लचकीली, मोहकता, आकर्षण, प्रतिध्वनि, सर्वहारा, खुशहाल।
उत्तर उपसर्ग मूल-शब्द प्रत्यय
शबनम ― शब नम
लचकीली ― लचक ईली
मोहकलता ― मोहक ता
आकर्षण आ कर्षण ―
प्रतिध्वनि प्रति ध्वनि ―
सर्वहारा सर्व हार आ
खुशहाल खुश हाल ―