UP Board Class 10 Political Science | जाति, धर्म और लैंगिक मसले

By | April 25, 2021

UP Board Class 10 Political Science | जाति, धर्म और लैंगिक मसले

UP Board Solutions for Class 10 sst Political Science Chapter 4 जाति, धर्म और लैंगिक मसले

अध्याय 4.             जाति, धर्म और लैंगिक मसले
 
                         अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर
 
(क) एन०सी०ई० आर०टी० पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न
प्रश्न 1. जीवन के उन विभिन्न पहलुओं का जिक्र करें जिनमें भारत में स्त्रियों के साथ भेदभाव होता
है या वे कमज़ोर स्थिति में होती हैं।
उत्तर―हमारे देश में आज़ादी के बाद से महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है। पर वे अभी भी
पुरुषों से काफी पीछे हैं। हमारा समाज अभी भी पितृप्रधान है। औरतों के साथ अभी भी कई तरह के भेदभाव
होते हैं―
1. महिलाओं में साक्षरता की दर अब भी मात्र 54 फीसदी है जबकि पुरुषों में 76 फीसदी। स्कूल पास
करने वाली लड़कियों की एक सीमित संख्या ही उच्च शिक्षा की ओर कदम बढ़ा पाती है। अभी भी
माँ-बाप अपने संसाधनों को लड़के-लड़की दोनों पर बराबर खर्च करने की जगह लड़कों पर ज्यादा
खर्च करना पसंद करते हैं।
2. साक्षरता दर कम होने के कारण ऊँची तनख्वाह वाले और ऊँचे पदों पर पहुंचने वाली महिलाओं की
संख्या बहुत ही कम है। भारत में स्त्रियाँ पुरुषों से अधिक काम करती हैं किंतु अक्सर उनके काम को
मूल्यवान नहीं माना जाता।
3. काम के हर क्षेत्र में यानी खेल-कूद की दुनिया से लेकर सिनेमा के संसार तक और कल-कारखानों
से लेकर खेत-खलिहानों तक महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी मिलती है। भले ही
दोनों ने समान काम किया हो।
4. भारत के अनेक हिस्सों में अभी भी लड़की को जन्म लेते ही मार दिया जाता है। अधिकांश परिवार
लड़के की चाह रखते हैं। इस कारण लिंग अनुपात गिरकर प्रति हज़ार लड़कों पर 940 रह गया है।
5. भारत में सार्वजनिक जीवन में, खासकर राजनीति में महिलाओं की भूमिका नगण्य ही है। अभी भी
महिलाओं को घर की चहारदीवारी के भीतर रखा जाता है।
महिलाओं के उत्पीड़न, शोषण और उन पर होने वाली हिंसा की खबरें हमें रोज़ पढ़ने को मिलती हैं। शाही
इलाके तो महिलाओं के लिए खासतौर से असुरक्षित हैं। वे अपने घरों में भी सुरक्षित नहीं हैं क्योंकि वहाँ भी
उन्हें मारपीट तथा अनेक तरह की घरेलू हिंसा झेलनी पड़ती है।
 
प्रश्न 2. विभिन्न तरह की सांप्रदायिक राजनीति का ब्यौरा दें और सबके साथ एक-एक उदाहरण भी
दें।
उत्तर― सांप्रदायिकता राजनीति में अनेक रूप धारण कर सकती है―
1. सांप्रदायिकता की सबसे आम अभिव्यक्ति रोजमर्रा के जीवन में ही दिखती है। इनमें धार्मिक पूर्वाग्रह,
धार्मिक समुदायों के बारे में बनी-बनाई धारणाएँ और एक धर्म को दूसरे धर्म से श्रेष्ठ मानने की
मान्यताएँ शामिल हैं।
2. सांप्रदायिक भावना वाले धार्मिक समुदाय राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करना चाहते हैं। इसके लिए
धर्म के आधार पर राजनीतिक दलों का गठन किया जाता है तथा फिर धीरे-धीरे धर्म पर आधारित
अलग राज्य की माँग करके देश की एकता को नुकसान पहुँचाया जाता है; जैसे―भारत में अकाली
दल, हिंदू महासभा आदि दल धर्म के आधार पर बनाए गए। धर्म के आधार पर सिक्खों की
खालिस्तान की माँग इसका उदाहरण है।
3. सांप्रदायिक आधार पर राजनीतिक दलों द्वारा धर्म और राजनीति का मिश्रण किया जाता है।
राजनीतिक दलों द्वारा अधिक वोट प्राप्त करने के लिए लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काया
जाता है; जैसे-भारत में भारतीय जनता पार्टी धर्म के नाम पर वोट हासिल करने की कोशिश करती
है। बाबरी मस्जिद का मुद्दा इसका उदाहरण है।
4. कई बार सांप्रदायिकता सबसे गंदा रूप लेकर संप्रदाय के आधार पर हिंसा, दंगा और नरसंहार
कराती है। विभाजन के समय भारत और पाकिस्तान में भयानक सांप्रदायिक दंगे हुए थे। आजादी के
बाद भी बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा हुई है। 1984 के हिंदू-सिक्ख दंगे इसका प्रमुख उदाहरण
हैं।
 
प्रश्न 3. बताइए कि भारत में किस तरह अभी भी जातिगत असमानताएँ जारी हैं?
उत्तर― आधुनिक भारत में जाति की संरचना और जाति व्यवस्था में भारी बदलाव आया है। किंतु फिर
भी समकालीन भारत से जाति प्रथा विदा नहीं हुई है। जातिगत असमानता के कुछ पुराने पहलू अभी भी
बरकरार हैं―
1. अभी भी ज्यादातर लोग अपनी जाति या कबीले में ही शादी करते हैं।
2. संवैधानिक प्रावधान के बावजूद छुआछूत की प्रथा अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है।
3. जाति व्यवस्था के अंतर्गत कुछ जातियाँ लाभ की स्थिति में रहीं तथा कुछ को दबाकर रखा गया।
इसका प्रभाव आज भी नजर आता है। यानी ऊँची जाति के लोगों की आर्थिक स्थिति सबसे अच्छी है
व दलित तथा आदिवासियों की आर्थिक स्थिति सबसे खराब है।
4. हर जाति में गरीब लोग हैं पर गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर करने वालों में अधिक संख्या निचली
जातियों के लोगों की है। ऊंची जातियों में गरीबी का प्रतिशत सबसे कम है।
5. आज सभी जातियों में अमीर लोग हैं पर यहाँ भी ऊँची जाति वालों का अनुपात बहुत ज्यादा है और
निचली जातियों का बहुत कम।
6. जो जातियाँ पहले से ही शिक्षा के क्षेत्र में आगे थीं, आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में भी उन्हीं का
बोलबाला है। जिन जातियों को पहले शिक्षा से वंचित रखा जाता था, उनके सदस्य अभी भी पिछड़े
हुए हैं।
आज भी जाति आर्थिक हैसियत के निर्धारण में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि अभी भी जातिगत
असमानताएँ जारी हैं।
 
प्रश्न 4. दो कारण बताएँ कि क्यों सिर्फ़ जाति के आधार पर भारत में चुनावी नतीजे तय नहीं हो
सकते?
उत्तर―भारत में जाति व्यवस्था भी धर्म की तरह चुनावों को प्रभावित करती है किंतु केवल जाति के
आधार पर ही चुनावी नतीजे तय नहीं हो सकते―
1. देश के किसी भी एक संसदीय चुनाव क्षेत्र में किसी एक जाति के लोगों का बहुमत नहीं है। इसलिए
हर पार्टी और उम्मीदवार को चुनाव जीतने के लिए एक जाति और समुदाय से ज्यादा लोगों का
भरोसा हासिल करना होता है।
2. कोई भी पार्टी किसी एक जाति या समुदाय के सभी लोगों का वोट हासिल नहीं कर सकती। जब लोग
किसी जाति विशेष को किसी एक पार्टी का वोट बैंक’ कहते हैं तो इसका मतलब यह होता है कि
उस जाति के ज्यादातर लोग उसी पार्टी को वोट देते हैं।
इस प्रकार चुनाव में जाति की भूमिका महत्त्वपूर्ण तो होती है किंतु दूसरे कारण भी महत्त्वपूर्ण होते हैं।
मतदाताओं का लगाव जाति के साथ-साथ राजनीतिक दलों से भी होता है। सरकार के काम-काज के बारे में
लोगों की राय और नेताओं की लोकप्रियता का चुनावों पर निर्णायक असर होता है।
 
प्रश्न 5. भारत की विधायिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति क्या है?
उत्तर―भारत की विधायिकाओं में महिला प्रतिनिधियों का अनुपात बहुत ही कम है; जैसे-लोकसभा
में महिला सांसदों की संख्या कुल सांसदों की दस प्रतिशत भी नहीं है। राज्यों की विधानसभाओं में उनका
प्रतिनिधित्व 5 प्रतिशत से भी कम है। इस मामले में भारत दुनिया के अन्य देशों से बहुत नीचे है। भारत,
अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई देशों से पीछे है। कभी-कभार कोई महिला प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री
बन भी जाए तो मंत्रिमंडलों में पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है।
 
प्रश्न 6. किन्हीं दो प्रावधानों का जिक्र करें जो भारत को धर्मनिरपेक्ष देश बनाते हैं।
उत्तर―संविधान निर्माताओं ने सांप्रदायिकता से निपटने के लिए भारत के लिए धर्मनिरपेक्ष शासन का
मॉडल चुना और इसके लिए संविधान में महत्त्वपूर्ण प्रावधान किए गए―
1. भारतीय राज्य ने किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में अंगीकार नहीं किया है। श्रीलंका में बौद्ध
धर्म, पाकिस्तान में इस्लाम और इंग्लैंड में ईसाई धर्म का जो दर्जा रहा है उसके विपरीत भारत का
संविधान किसी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता।
2. संविधान सभी नागरिकों को किसी भी धर्म का पालन करने और प्रचार-प्रसार करने की आज़ादी
देता है।
3. संविधान धर्म के आधार पर किए जाने वाले किसी तरह के भेदभाव को अवैधानिक घोषित करता है।
 
प्रश्न 7. जब हम लैंगिक विभाजन की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय होता है―
(क) स्त्री और पुरुष के बीच जैविक अंतर।
(ख) समाज द्वारा स्त्री और पुरुष को दी गई असमान भूमिकाएँ।
(ग) बालक और बालिकाओं की संख्या का अनुपात।
(घ) लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में महिलाओं को मतदान का अधिकार न मिलना।
              उत्तर― (ख) समाज द्वारा स्त्री और पुरुष को दी गई असमान भूमिकाएँ।
 
प्रश्न 8. भारत में यहाँ औरतों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है―
(क) लोकसभा
(ख) विधानसभा
(ग) मंत्रिमंडल
(घ) पंचायती राज की संस्थाएँ
                                    उत्तर― (घ) पंचायती राज की संस्थाएँ
 
प्रश्न 9. सांप्रदायिक राजनीति के अर्थ संबंधी निम्नलिखित कथनों पर गौर करें। सांप्रदायिक
राजनीतिक इस धारणा पर आधारित है कि―
(अ) एक धर्म दूसरों से श्रेष्ठ है।
(ब) विभिन्न धर्मों के लोग समान नागरिक के रूप में खुशी-खुशी साथ रह सकते हैं।
(स) एक धर्म के अनुयायी एक समुदाय बनाते हैं।
(द) एक धार्मिक समूह का प्रभुत्व बाकी सभी धर्मों पर कायम करने में शासन की शक्ति का
प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
इनमें से कौन या कौन-कौन सा कथन सही है?
(क) अ, ब, स और द; (ख) अ, ब और द; (ग) अ और स; (घ) ब और द।
उत्तर― (ग) अ और स।
 
प्रश्न 10.भारतीय संविधान के बारे में इनमें से कौन-सा कथन गलत है?
(क) यह धर्म के आधार पर भेदभाव की मनाही करता है।
(ख) यह एक धर्म को राजकीय धर्म बताता है।
(ग) सभी लोगों को कोई भी धर्म मानने की आजादी देता है।
(घ) किसी धार्मिक समुदाय में सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार देता है।
                                 उत्तर―(ख) यह एक धर्म को राजकीय धर्म बताता है।
 
प्रश्न 11. …………पर आधारित सामाजिक विभाजन सिर्फ भारत में ही है।
उत्तर― जाति पर आधारित सामाजिक विभाजन सिर्फ भारत में ही है।
 
प्रश्न 12. सूची और सूची II का मेल कराएँ और नीचे दिए गए कोड के आधार पर सही जवाब खोजें―
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उत्तर― 1 2 3 4
  (रे)―ख क घ ग
 
(ख) अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न
                                    बहुविकल्पीय प्रश्न
 
प्रश्न 1. महिलाओं की समाज में बराबरी की माँग के आंदोलन को क्या कहा जाता है?
(क) महिला-मुक्ति आंदोलन 
(ख) नारीवादी आंदोलन
(ग) स्त्री शक्ति
(घ) इनमें से कोई नहीं
                             उत्तर― (ख) नारीवादी आंदोलन
 
प्रश्न 2. भारत की विधायिका में महिला प्रतिनिधियों का अनुपात क्या है?
(क) बहुत ही कम
(ख) बहुत अधिक
(ग) एकसमान
(घ) इनमें से कोई नहीं
                             उत्तर― (क) बहुत ही कम
 
प्रश्न 3. गांधीजी की मान्यता थी कि राजनीति………..स्थापित मूल्यों से निर्देशित होनी
चाहिए।
(क) धर्म द्वारा
(ख) राजनीति द्वारा
(ग) अध्ययन द्वारा
(घ) शिक्षा द्वारा
                    उत्तर― (क) धर्म द्वारा
 
प्रश्न 4. धर्म ही सामाजिक समुदाय का काम करता है,यह मान्यता किस पर आधारित है?
(क) धर्म पर
(ख) सम्प्रदाय पर
(ग) समुदाय पर
(घ) सांप्रदायिकता पर
                             उत्तर―(घ) सांप्रदायिकता पर
 
प्रश्न 5. भारत के संविधान के अनुसार भारत एक …………देश है।
(क) धर्म-प्रधान
(ख) हिन्दू
(ग) धर्म-निरपेक्ष 
(घ) धार्मिक
                उत्तर―(ग) धर्म-निरपेक्ष
 
प्रश्न 6. राजनीतिक दलों द्वारा प्रत्याशी चुनने का आधार क्या होता है?
(क) मतदाताओं का रुझान
(ख) मतदाताओं की जाति
(ग) मतदाताओं की सोच
(घ) इनमें से कोई नहीं
                             उत्तर―(ख) मतदाताओं की जाति
 
प्रश्न 7. केवल जातिगत पहचान पर आधारित राजनीति लोकतंत्र के लिए कैसी होती है?
(क) शुभ नहीं होती है
(ख) शुभ होती है
(ग) अमंगलकारी होती है
(घ) इनमें से कोई नहीं
                            उत्तर― (क) शुभ नहीं होती है
 
                      अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
 
प्रश्न 1. पितृ-प्रधान शब्द से क्या आशय है?
उत्तर― पुरुष-प्रधान समाज तथा पितृ-प्रधान परिवार पुरुष-प्रधानता स्पष्ट करता है।
 
प्रश्न 2. भारत की विधायिका में महिला प्रतिनिधियों का अनुपात क्या है?
उत्तर- भारत की विधायिका में महिला प्रतिनिधियों का अनुपात 5 प्रतिशत से भी कम है।
 
प्रश्न 3. पंचायती राज में महिलाओं की भागीदारी क्या है?
उत्तर― पंचायती राज्य में महिलाओं की भागीदारी एक-तिहाई ही है।
 
प्रश्न 4. धर्म तथा राजनीति से जुड़े मामले किस प्रकार के होते हैं?
उत्तर― धर्म तथा राजनीति से जुड़े मामले साम्प्रदायिकता की नींव तैयार करते हैं।
 
प्रश्न 5. साम्प्रदायिक राजनीति की सोच क्या है?
उत्तर― राजनीति का किसी एक विशेष धर्म को महत्त्व देना ‘साम्प्रदायिक राजनीति’ कहलाता है।
 
प्रश्न 6. राम-राज्य से गांधीजी की परिकल्पना क्या थी?
उत्तर― राजनीति को धर्म के अनुसार संचालित करना गांधीजी के राम-राज्य की परिकल्पना थी।
 
प्रश्न 7. साम्प्रदायिकता भारत के लिए अभिशाप किस प्रकार है?
उत्तर―साम्प्रदायिकता जब हिंसा, नर संहार, आगजनी आदि के घिनौने, कुत्सित रूप में आ जाए तो
वह अभिशाप बन जाती है।
 
प्रश्न 8. जाति और राजनीति के कौन-से दो पक्ष हैं?
उत्तर―जाति और राजनीति के दो पक्ष इस प्रकार हैं―
(i) राजनीतिक पार्टियाँ और उम्मीदवार समर्थन हासिल करने के लिए जातिगत भावनाओं को उकसाते हैं।
कुछ दलों को कुछ जातियों के मददगार और प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है।
(ii) सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार और एक व्यक्ति एक वोट की व्यवस्था ने राजनीतिक दलों को विवश
किया कि वे राजनीतिक समर्थन पाने और लोगों को गोलबंद करने के लिए सक्रिय हो। इससे उन जातियों का
लोगों में नई चेतना पैदा हुई जिन्हें पहले छोटा और नीचा माना जाता था।
 
प्रश्न 9. किन-किन समाज-सुधारकों ने जातिगत भेद से समाज को मुक्त करने का प्रयास किया?
उत्तर― ज्योतिबाफुले, महात्मा गांधी, डॉ. अम्बेडकर तथा पेरियार रामास्वामी नायकर-जैसे
समाज-सुधारकों ने जातिगत भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास किया।
 
प्रश्न 10.शहरीकरण क्या है?
उत्तर― लोगों का गाँव से पलायन कर शहरों में जाकर बस जाना ‘शहरीकरण’ कहलाता है।
 
प्रश्न 11.”वोट-बैंक” शब्द से क्या तात्पर्य है?
उत्तर― किसी विशेष समुदाय की पसंद कोई विशेष राजनीतिक दल होता है। इस प्रकार वह समुदाय
उस राजनीतिक का ‘वोट-बैंक’ कहलाता है।
 
प्रश्न 12.राजनीति में अगड़ा और पिछड़ा शब्द क्या है?
उत्तर―अनुसूचित जाति, जनजाति या पिछड़ी जाति के लिए बिछड़ा तथा अन्य सवर्णों के लिए अगड़ा
शब्द का प्रयोग किया जाता है।
 
                             लघु उत्तरीय प्रश्न
 
प्रश्न 1. नारीवादी आन्दोलन क्या है?
उत्तर― अधिकांश महिला आन्दोलनों ने स्त्रियों के व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन में भी समानता की
माँग उठाई। इस प्रकार की माँग अर्थात् “नारी सुरक्षा तथा समानता’ जब अधिक व्यापक हो जाती है। इन
आन्दोलनों को नारीवादी आन्दोलन कहा जाता है।
 
प्रश्न 2. समान मजदूरी से सम्बन्धित अधिनियम में क्या कहा गया है?
उत्तर― समान मजदूरी से सम्बन्धित अधिनियम के अन्तर्गत कहा गया है कि समान कार्यों हेतु समान
वेतन दिया जाएगा।
 
प्रश्न 3. महिला आरक्षण-विधेयक क्या है?
उत्तर― महिला आरक्षण-विधेयक में विधानसभा के 1/3 स्थानों पर महिलाओं के लिए आरक्षण लागू
करने पर बल दिया गया है।
 
प्रश्न 4. पारिवारिक कानून क्या है?
उत्तर―परिवारों के अन्तर्गत आने वाले विषय; जैसे-विवाह, तलाक, गोद लेना तथा उत्तराधिकारी
जैसे व्यक्तिगत विषयों पर आधारित कानून पारिवारिक कानून के घेरे में आते हैं।
 
प्रश्न 5. धर्म को राष्ट्र का आधार मानने से क्या तात्पर्य है?
उत्तर―इस सन्दर्भ में महात्मा गांधी के विचार सर्वथा अनुकूल हैं। धर्म के प्रति उनका अत्यंत व्यापक
दृष्टिकोण था। उनके अनुसार धर्म को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता। उनका कथन था कि यदि
राजनीति धर्मानुसार संचालित हो तो परिणाम अत्यंत शुभ तथा सुखद होंगे।
 
प्रश्न 6. वर्ण-व्यवस्था क्या है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―वर्ण-व्यवस्था जाति समूहों का पदानुक्रम है, जिसमें एक ही जाति के लोग सामाजिक पायदान
में सबसे ऊपर रहेंगे, तो किसी अन्य जाति समूह के लोग क्रमानुगत रूप से उनके नीचे। अर्थात् चार वर्ण―
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र अपने-अपने कार्य-विभाजन के अनुसार कार्यरत हैं।
 
प्रश्न 7. भारत की सामाजिक-धार्मिक विविधताएँ क्या हैं?
उत्तर―जनगणना में हर दस वर्ष बाद सभी नागरिकों के धर्म को भी दर्ज किया जाता है। जनगणना
विभाग के कर्मचारी घर-घर जाकर लोगों से उनके बारे में सूचनाएँ एकत्रित करते हैं। धर्म सहित सभी बातों
के बारे में लोग जो कुछ बताते हैं, ठीक वैसा ही फार्म में दर्ज किया जाता है। अगर कोई कहता है कि वह
नास्तिक है या किसी धर्म को नहीं मानता तो फार्म में भी इसे वैसे ही दर्ज कर दिया जाता है। इस कारण देश में
विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों की संख्या और उनके अनुपात में आए किसी बदलाव के विषय में हमारे
पास विश्वसनीय सूचनाएँ हैं।
आजादी के बाद से प्रत्येक धार्मिक समूह की जनसंख्या तो काफी बढ़ी है किन्तु कुल जनसंख्या में उनका
अनुपात अधिक नहीं बदला है।
एक आम लेकिन भ्रांत धारणा यह है कि देश की जनसंख्या में मुसलमानों का प्रतिशत इतना बढ़ जाएगा कि
दूसरे धर्म-समुदाय उससे पीछे हो जाएंगे।
जनगणना में सिर्फ दो विशिष्ट समूहों―अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की गिनती अलग से
लिखी जाती है। इन दोनों बड़े समूहों में ऐसी सैकड़ों जातियाँ और आदिवासी समूह शामिल हैं जिनके नाम
सरकारी अनुसूची में लिखे गए हैं। इसी कारण इनके नाम के साथ ‘अनुसूचित’ शब्द लगाया गया है।
अनुसूचित जातियों में, जिन्हें आम तौर पर ‘दलित’ कहा जाता है, सामान्यत: वे हिंदू जातियाँ आती हैं जिन्हें
हिंदू सामाजिक व्यवस्था में अछूत माना जाता था। इन जातियों के साथ भेदभाव किया जाता था और इन्हें
तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता था। अनुसूचित जनजातियों में, जिन्हें आमतौर पर ‘आदिवासी’ कहा जाता
है, वे समुदाय शामिल हैं जो अमूमन पहाड़ी और जंगली इलाकों में रहते हैं और जिनका बाकी समाज से
ज्यादा मेल-जोल नहीं था। जनगणना 2011 में, देश की आबादी में अनुसूचित जातियों का हिस्सा 16.6
फीसदी और अनुसूचित जनजातियों का हिस्सा 8.6 फीसदी है।
 
                                दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
 
प्रश्न 1. श्रम के लैंगिक विभाजन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर―समाज में यत्र-तत्र-सर्वत्र सामाजिक असमानताओं का रूप दृष्टिगत होता है, किन्तु राजनीति
के अध्ययन से इन तथ्यों की पुष्टि होना आवश्यक है। लैंगिक असमानता नैसर्गिक, स्वाभाविक तथा
अपरिवर्तनीय है। विशेषतः भारत में बालक तथा बालिकाओं के पालन-पोषण के क्रम में यह मान्यता गहनता
से समाहित कर दी जाती है कि महिलाओं का उत्तरदायित्य मुख्य रूप से गृहस्थी-संचालन, परिवार की
परवरिश ही है। यह व्यवस्था अधिकांश परिवारों में श्रम लैंगिक विभाजन में झलकती है। महिलाएँ
घर-गृहस्थी के सभी कार्य तथा पुरुष का कार्यक्षेत्र घर से बाहर होता है। ऐसा नहीं है कि पुरुष घर-परिवार
के कार्यों हेतु अक्षम है। वास्तव में समाज का दृष्टिकोण यही है कि घर के सभी कार्यों का उत्तरदायित्व
महिला का है। जब इसी प्रकार के कार्य अर्थोपार्जन से सम्बन्धित हों तो पुरुष सहर्ष उस कार्य का चयन कर
लेते हैं।
अधिकांश, दर्जी, होटल के कुक (रसोइए), वेटर, ड्राईक्लीनर्स इत्यादि कार्य बहुधा पुरुष ही करते हैं। इसी
प्रकार स्त्रियों ने भी घरेलू कार्यों के अतिरिक्त बाह्य क्षेत्रों में भी स्वयं को सर्वथा संस्थापित किया है। ग्राम्य
जीवन के आधार पर महिलाएँ जलावन जुटाने, खेती, कटाई-छंटाई का कार्य करने तथा अनेक भूमि तथा
कृषि सम्बन्धित कार्य करती हैं। नगरीय जीवन में अधिकतर देखा जाता है कि महिलाएँ धनार्जन हेतु
कार्यालय, विद्यालय अथवा अपने-अपने कार्य-क्षेत्र में जाती दृष्टिगोचर होती हैं। अधिकांश नगरों में
महिलाएँ अर्थोपार्जन हेतु कोचिंग, बुटीक, ब्यूटीपॉर्लर, फैशन डिजाइनर, संगीत-नृत्यकला केन्द्र इत्यादि
अनेक कार्य करती हैं किन्तु उनके कार्य को अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं समझा जाता। लैगिक विभाजन की
राजनीति अभिव्यक्ति तथा प्रस्तुत प्रश्न पर राजनीतिक घेराबंदी ने सार्वजनिक जीवन में महिला तथा पुरुषों के
कार्य-विभाजन को स्पष्ट किया। महिलाओं में अभी भी पुरुषों की अपेक्षा साक्षरता दर कम है, किन्तु जब भी
परिणामों की विवेचना की जाती है तो लड़कियों को लड़कों से बहुत आगे पाते हैं; किन्तु लैंगिक विभाजन के
परिणामस्वरूप अच्छा प्रदर्शन होने के पश्चात् भी उनके लिए समानता के द्वार बन्द हो जाते हैं।
 
प्रश्न 2. भारत में महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर―यह एक प्रत्यक्ष है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के सात दशक पश्चात् भी महिलाओं की स्थिति में कुछ
विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। अत: महिला आन्दोलनों द्वारा निष्कर्ष निकाला गया कि यदि महिलाओं को
सत्ता नियंत्रण का अधिकार प्राप्त हो जाए तो वह अपनी समस्याओं का समाधान सरलता से खोज पाएँगी।
उक्त उद्देश्य की पूर्ति हेतु जनता द्वारा चयनित प्रतिनिधियों में से महिलाओं के प्रतिशत में वृद्धि करना
अनिवार्य है। भारत की विधायिका में भी महिलाओं का अनुपात न्यूनतम है। 2014 में पहली बार महिला
सांसदों की संख्या 12 प्रतिशत थी। विधानसभाओं में महिला प्रतिनिधियों का अनुपात 5 प्रतिशत से भी कम
है। अफ्रीका, लातिनी, अमेरिका जैसे अनेक देशों से भी महिलाओं की राजनीति सहभागिता भारत में न्यूनतम
है।
यदाकदा कोई नेत्री प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री तथा लोकसभा के अध्यक्ष पद को सुशोभित करती है
किन्तु सामान्यतः पुरुषों का मंत्रिमण्डल में वर्चस्व रहा है। ग्रामीण अंचलों में पंचायती राज की व्यवस्था है।
जिसमें एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं, महिला संगठनों तथा
अनेकानेक नारीवादी आन्दोलनों की अतिशय माँग पर लोकसभा तथा विधानसभा में 1/3 स्थानों पर
महिलाओं का अधिकार व्यक्त किया गया किन्तु राजनीतिक निहित स्वार्थों तथा सभी दलों के एकमत न होने
के कारण यह विधेयक अभी तक लम्बित पड़ा हुआ है। इसके अतिरिक्त सर्वप्रथम समाज की मानसिकता में
परिवर्तन लाना आवश्यक है। भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में माता-पिता पुत्र की प्राप्ति की कामना ही करते
हैं। प्राचीन काल से ही वधुओं को “पुत्रवतीभव” आशीर्वाद ही दिया जाता है किन्तु इसी समाज में महिलाओं
की भूमिका की सराहना भी की जाती है।
 
प्रश्न 3. सांप्रदायिकता की सर्वाधिक अभिव्यक्ति क्या है?
उत्तर― साम्प्रदायिकता शब्द के संदर्भ में वास्तविक समस्या तब प्रकट होती है जब धर्म को राष्ट्र का
आधार मान लिया जाता है। जब किसी एक विशेष धर्म के लोग एक ही समुदाय की विशिष्टता के दावे कर
उनके पृष्ठ पोषक बन जाते हैं तथा उनके अनुयायी अन्य धर्मावलंबियों के विरुद्ध स्वेच्छा से स्वतंत्र
अधिकारों को दूसरे धर्म के विचारों से श्रेष्ठ मानते हैं तथा कोई अन्य धार्मिक समूह अपनी व्यक्तिगत माँगों
को लेकर दूसरे समूह के विरुद्ध हो जाता है। इस प्रक्रिया में जब राज्य अपनी सत्ता का उपयोग किसी एक
धर्म के पक्ष में करने लगता है तो यह स्थिति अधिक विकराल हो उठती है। राजनीति तथा धर्म का इस प्रकार
का विदू्प सम्बन्ध ही सांप्रदायिकता कहलाता है। इस प्रकार की विचारधाराएँ पूर्ण तथा दोषपूर्ण हैं। एक ही
धर्म के हित, पद्धति आकांक्षाएँ समान हों, तो यह संभव नहीं है। समाज में प्रत्येक व्यक्ति अनेक प्रकार की
भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं। उनकी पहचान, उनका सामाजिक स्तर भिन्न होता है। प्रत्येक समुदाय के
अन्तर्गत विभिन्न विचारधाराओं के लोग दृष्टिगत् होते हैं। सभी को अधिकार है कि वह अपनी अभिव्यक्ति
को व्यक्त कर सके। सांप्रदायिक समाज में अनेक रूपों में दृष्टिगत् होती है।
● हमारे दैनिक जीवन की प्रत्येक गतिविधि में सांप्रदायिकता परिलक्षित होती-सी जान पड़ती है। इसमें
रूढ़िवादी विचारधारा, धार्मिक समुदायों के विषय में बनाई गई धारणाएँ तथा एक धर्म को दूसरे धर्म से
श्रेष्ठ मानने के अनेक तथ्य सम्मिलित हैं―
● बहुधा अपने धार्मिक समुदाय का राजनीति प्रभुत्व स्थापित करने का उद्देश्य लिए सांप्रदायिक भावना
प्रबल होती रहती है। बहुसंख्यक समुदायों के यह प्रयत्न बहुसंख्यकवाद का रूप ले लेते हैं।
● सांप्रदायिकता को आधार मानते हुए घेराबंदी राजनीतिक सांप्रदायिकता का दूसरा रूप है। इसमें धर्म के
पवित्र प्रतीकों, धर्मगुरुओं के भावात्मक उद्घोषों से भयपूर्ण वातावरण का निर्माण करने की चेष्टा की
जाती है।
● हिंसा, नरसंहार, दंगा, आगजनी सांप्रदायिकता का सर्वाधिक घिनौना, कुत्सित तथा भयावह रूप है।
सांप्रदायिकता के कारण अनेक देशों में सर्वाधिक हिंसा हुई है। भारत-पाकिस्तान का विभाजन
सांप्रदायिकता का ही परिणाम था जिससे स्वतंत्रता की प्रसन्नता विभाजन का दंश भी साथ लेकर आई।
● हमारे संविधान में सभी धर्मों को समान रूप से सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
 
प्रश्न 4. भारतीय आस्थाओं के सन्दर्भ में क्या धर्मनिरपेक्ष शासन उचित है?
उत्तर―भारत के संविधान के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। भारत एक विविधताओं का देश
है जहाँ बहुत से जाति-धर्म के लोग परस्पर प्रेम एवं सद्भाव से रहते हैं। सांप्रदायिकता का विषय बीज हमारे
देश की विविधपूर्ण लहलहाती संस्कृति के लिए एक चुनौती बनकर प्रसारित हो रहा है। हमारे संविधान
निर्माता प्रस्तुत घुनौती के प्रति सजग थे। इसी कारण उन्होंने धर्मनिरपेक्ष शासन प्रतिदर्श का चयन किया तथा
उसी आधार पर संविधान का, समाज का विश्लेषण किया गया―
● भारतीय प्रशासन किसी भी विशेष धर्म को राजधर्म के रूप में स्वीकार नहीं करता। श्रीलंका में बौद्ध
धर्म, पाकिस्तान में इस्लाम धर्म तथा इंग्लैण्ड में ईसाई धर्म को राजधर्म की मान्यता दी गई है किन्तु
इसके विपरीत, भारत का संविधान किसी भी विशेष धर्म को राजधर्म की मान्यता नहीं देता।
● भारतीय संविधान के अन्तर्गत भारत के प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म का
अनुसरण करने तथा किसी भी पद्धति से पूजा करने की स्वतंत्रता प्राप्त है।
● भारतीय संविधान किन्हीं धार्मिक समुदायों में समानता की स्थापना के लिए शासन द्वारा धार्मिक विषयों
पर हस्तक्षेप करने का अधिकार भी देता है।
● इस प्रकार धर्म-निरपेक्षता के मूल्यांकन से हम पाएँगे कि धर्मनिरपेक्षता कुछ दलों अथवा व्यक्तियों की
विचारधारा ही नहीं है अपितु हमारे संविधान की मुख्य शृंखला है। सांप्रदायिकता समूची मानवता के
लिए घातक सिद्ध हुई है। इससे भारतीय जीवन-मूल्यों के लिए सांस्कृतिक मान्यताओं के लिए एक
महत्त्वपूर्ण चुनौती है। किसी भी विकसित देश का धर्मनिरपेक्ष होना गर्व का विषय है। हमें अपने
प्रतिदिन के सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों तथा समाज में दुष्प्रचारों का भी सामना करना होगा। इसके अतिरिक्त
धर्म पर आधारित समस्या के समाधान हेतु राजनीतिक प्रयास भी आवश्यक हैं।
 
प्रश्न 5. भारत में जातिगत विषमताओं पर लेख लिखिए।
उत्तर― भारत एक ऐसा देश है जहाँ विभिन्न प्रकार की जातियों के लोग निवास करते हैं। अनेक
महापुरुषों के सतत् प्रयासों द्वारा भारत में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के साथ-साथ आधुनिक भारत में
जाति संरचना तथा जाति व्यवस्थाओं में विशेष परिवर्तन हुआ है। यद्यपि हमारे संविधान में जातिगत भेदभाव
का पूर्णतया निषेध किया गया है, किन्तु भारत में अभी जाति प्रथा पूर्णतया समाप्त नहीं हुई। जाति भी आर्थिक
असमानता का एक महत्त्वपूर्ण आधार है क्योंकि इससे अनेक लोगों की पहुँच निर्धारित होती है। उदाहरणत:
पूर्वकाल में “अछूत” कही जाने वाली जातियों के लोगों को ही शिक्षा प्राप्त का अधिकार था। आज
जाति-आधारित इस प्रकार की औपचारिक तथा प्रकट असमानताएँ तो कानून के विरुद्ध हैं किन्तु युगों से
जिस व्यवस्था ने कुछ लोगों को, कुछ समूहों को लाभ तथा हानि की स्थिति में बनाए रखा है उसका संचित
प्रभाव अभी भी अनुभव किया जा सकता है। इतना ही नहीं इससे अनेक प्रकार की विषमताएँ भी उजागर हुई
हैं। निश्चित रूप से जाति तथा आर्थिक स्तर की प्राचीन स्थिति में बहुत परिवर्तन आया है। आज उच्च तथा
निम्न किसी भी जाति में बहुत धनिक अथवा निर्धन लोग देखे जाते हैं। दो-तीन दशक पूर्व तक ऐसा नहीं था,
तब निम्न जातियों में धनी व्यक्ति बहुत कठिनता से देखे जाते थे किन्तु जैसा कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण से
स्पष्ट है―आज भी जाति आर्थिक स्थिति के निर्धारण में मुख्य भूमिका निर्वाह करती है-
● सामान्यतः आर्थिक स्थिति (जिसे मासिक खर्च जैसे मापदंडों से मापा जाता है) अभी भी वर्ण-व्यवस्था
के साथ गहन सम्बन्ध दर्शाती है अर्थात् उच्च जाति के लोगों की आर्थिक स्थिति सर्वाधिक उत्तम है।
दलित तथा आदिवासियों की आर्थिक स्थिति सर्वाधिक बुरी अवस्था में है, जबकि पिछड़ी जातियाँ मध्य
की स्थिति में हैं।
● यद्यपि प्रत्येक जाति में निर्धन लोग हैं, किन्तु भारी दरिद्रता में (सरकारी गरीबी रेखा के नीचे) जीवन
यापन वालों में अधिक बड़ी संख्या सबसे निचली जातियों के लोगों की है। उच्च जातियों में गरीबी का
प्रतिशत बहुत कम है। यहाँ भी पिछड़ी जातियों के लोग मध्य स्थिति में है।
● आज सभी जातियों में अमीर-गरीब लोग हैं। किन्तु अनुमानित अनुपात पूर्व की भाँति है।
ये जातिगत विषमताएँ भारतीय जाति समीकरण को प्रभावित करती हैं।
 
प्रश्न 6. जाति और राजनीति के सम्बन्धों पर अपनी प्रतिक्रियाएँ दीजिए।
उत्तर―सामाजिक विभाजन के साथ-साथ जाति तथा राजनीति विभाजन के प्रति अधिकांश
अभिव्यक्तियाँ सकारात्मक दृष्टिकोण से दृष्टिगत होती हैं। जाति ही सामाजिक समुदाय के गठन का एकमात्र
आधार है। इस विचारधारा के प्रवाह में प्रवाहित समूह एक ही जाति के लोगों द्वारा एक स्वाभाविक सामाजिक
समुदाय का निर्माण करते हैं, जो उनके व्यक्तिगत हितों पर आधारित होते हैं। राजनीति के अन्तर्गत जाति के
विभिन्न रूप दृष्टिगत होते हैं―
● वास्तव में इस समस्या की ओर दृष्टिपात किया जाए तो हम पाएँगे कि जाति-धर्म की समस्या राजनीति
की जननी है। देश में पूरे वर्ष चुनाव का वातावरण रहता है। चुनावी काल में सभी अपने-अपने प्रत्याशी
घोषित करते हैं तो पूरी तरह से जोड़-तोड़ कर जाति-समीकरण का हिसाब बनाया जाता है। इस विषय
में जातियों, कबीलों की भागीदारी भी निश्चित की जाती है।
● अधिकतर देखा जाता है कि राजनीतिक दलों द्वारा अपने मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने के लिए
जातिगत भावनाओं को बुरी तरह से उछालकर समाज में उत्तेजना का वातावरण गरमाया जाता है।कुछ
विशेष राजनीतिक दल तो अपने-अपने समूह के हितार्थ ही कार्य करते हैं।
● सार्वभौमिक मताधिकार और एक व्यक्ति एक वोट की व्यवस्था ने राजनीतिक दलों को लोगों की
घेराबंदी तथा समर्थन प्राप्त करने को सक्रिय होने पर विवश किया है। इससे उन जातियों के जनमानस
में नवीन चेतना की उत्पत्ति हुई जो अब तक निम्न वर्ग के अन्तर्गत समझी जाती है।
● राजनीति में अधिकतर देखा जाता है कि एक संसदीय चुनाव क्षेत्र के अन्तर्गत किसी एक ही जाति
समुदाय के लोगों की बाहुलता नहीं है, इसलिए प्रत्येक दल तथा प्रत्याशी को चुनाव जीतने हेतु सभी
जातियों तथा समुदाय का विश्वास प्राप्त करना पड़ता है।
● कोई भी राजनीतिक दल किसी एक ही जाति के लोगों का ही मत नहीं प्राप्त कर सकता। यही लोकतंत्र
की स्वतंत्रता तथा सुन्दरता है। कुछ लोग जाति विशेष को किसी एक दल का वोट बैंक कह देते हैं।
● यदि किसी चुनाव क्षेत्र में किसी एक जाति का वर्चस्व स्थापित हो रहा है तो अनेक दल उसी जाति का
प्रत्याशी घोषित कर देते हैं। ऐसे मतदाता जाति तथा विचारधारा दोनों से ही प्रभावित होते हैं।
● मनुष्य की आशाएँ-इच्छाएँ परिवर्तनशील होती हैं इसलिए अनेक समय सत्तारूढ़ दल के वर्तमान
सांसदों तथा विधायकों को पराजय का सामना करना पड़ जाता है।
इस प्रकार के पूर्वानुभवों तथा पूर्व-अध्ययनों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जाति व्यवस्था
हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण पक्ष है।

TENSE

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